Monday 27 June 2011

न्याय की अवधारणा


सुप्रीम कोर्ट ने अचिंत्य कुमार षाह बनाम नैनी प्रिंटर्स के निर्णय दिनांक 30.01.04 में कहा है कि जहां न्यायालयों को लेनदेन की प्रकृति पर विचारण करना होता है वहां मात्र नाम यथा लाईसेन्स, लाईसेन्सी, लाईसेन्सर, लाईसेन्स फीस इत्यादि को ही नहीं देखा जाता अपितु करार के स्तर तथा उद्देष्य को देखना होता है। ऐसे मामलों में पक्षकारों का आषय निर्धारक तत्व होता है। स्वत्व के दायर दावे में यह था कि करार दिनांक 05.07.1976 एक लाईसेन्स था जो कि तोड़ दिया गया और तोड़ने के बाद प्रत्यर्थीगण अतिक्रमी हो गये। फिर भी उच्च न्यायालय के दृश्टिकोण से कथित करार किराया अनुबन्ध था। प्रत्यर्थीगण किरायेदार थे तथा सम्पूर्ण मूल स्वत्व दावा गिर पड़ता है। जहां दावे में कोई सारभूत विधि प्रष्न है या नहीं यह तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सर्वोपरि विचारण यह है कि न्याय करने के दायित्व में संतुलन स्थापित करना तथा विवाद केा अनावष्यक लम्बे खेंचने को टालना है।
सुप्रीम कोर्ट ने अषोक झा बनाम गार्डन सिल्क मिल्स के निर्णय दिनांक 28.08.09 में स्पश्ट किया है कि हमारे निर्णयन में अपीलार्थी का कहना ठीक है कि कार्यवाही या संविधान के अनुच्छेद विषेश का नाम न तो अंतिम है और न ही निश्कर्श है। यदि एक न्यायाधीष ने अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत षक्तियों का प्रयोग किया है तो ऐसे निर्णय के विरूद्ध अपील का अधिकार छिन नहीं जाता यदि अन्यथा अनुच्छेद 226 की षक्तियों प्रयोग की गई हो।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उड़ीसा इंडस्ट्रीज लि. बनाम हरदयाल के निर्णय दिनांक 20.02.07 मंे कहा है कि यह सुनिष्चित है कि विलम्ब को क्षमा न करने का अभिप्राय एक गुणषाली प्रकरण को देहलीज परसे ही बाहर फैंकना और न्याय हेतुक को विफल करना होगा। इसके ठीक विपरीत यदि विलम्ब को क्षमा किया जाता है तो जो बड़ी से बड़ी बात हो सकती है वह यह कि पक्षकारों को सुनने के बाद गुणावगुण पर निर्णय हो जावेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने षांति प्रकाष अग्रवाल बनाम भारत संघ (1991 एआईआर एससी 814) में कहा है कि स्वीकृति या अस्वीकृति न्यायालय के समक्ष उचित कार्यवाही में प्रष्नगत की जा सकती है किन्तु उसकी अपील का कोई प्रावधान नहीं है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुसरण की स्वगर्भित आवष्यकता है और यह स्वाभाविक भी है कि निर्णय इस प्रकार दिया जाना चाहिए कि उसमें से कारणों को ढंूढा जा सके। यद्यपि यह प्रषासनिक आदेष की प्रवृति का बिन्दु है इसमें कारण होने चाहिए। यदि प्रषासनिक अधिकारियों को पक्षकारों के अधिकारों को तय करना है तो यह आवष्यक है कि प्रभावित पक्षकारों को उचित एवं न्यायोचित सुनवाई का अवसर प्रदान करे और पर्याप्त रूप से स्पश्ट कारण दें। इस प्रकार के कारण सुसंगत सारभूत तथ्यों के उद्देष्यपूर्ण विचारण पर आधारित होने चाहिए।
पद सोपान में फैली परत-दर-परत कार्यवाही के परिणामस्वरूप उच्चतम न्यायालय के समक्ष अंतिम परिणाम के समय दोनों पक्षकारों केा पूरी तरह आर्थिक रूप से जेरबार व परेषान हैरान कर देता है कि अंतिम न्यायालय के गुलाबी रंग में बदलते हुए देखिये कि जीतने वाला व्यथित पक्षकार का कैसे खून बहता है।

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