Saturday 4 June 2011

कारण ही निर्णय की जान हैं


सुप्रीम कोर्ट ने कपूरचन्द केसरीमल जैन बनाम महाराश्ट्र राज्य (1973 क्रि.ला.रि. सु.को. 56) में कहा है कि यह निर्विवादित है कि उच्च न्यायालय में जो अपील में तथ्य तथा विधिक प्रष्न उठाये गये थे को तर्कयोग्य नहीं या सारहीन नहीं कहा जा सकता अपीलार्थी द्वारा विषेश अनुमति याचिका और निचले न्यायालय में अपील तथा अन्वीक्षण न्यायालय में उठाये गये बिन्दुओं तथा विस्तृत निर्णय से यह स्पश्ट है। विद्वान राजकीय पैरोकार भी हमें अन्यथा धारित करने के लिए संतुश्ट करने में असफल रहा है। अपीलार्थी की यह षिकायत उचित है कि उच्च न्यायालय को मात्र ‘निरस्त की’ एक षब्द लिखकर सारांष रूप में याचिका निरस्त नहंी की जानी चाहिए थी। अपीलार्थी द्वारा अपील के पक्ष में उठाये गये तर्कों को निरस्त करने के लिए कारण दिये जाने चाहिये थे। हमारे लिए वास्तव में सारांषित रूप में एक षब्दयुक्त निरस्तीकरण का मूल्यांकन करना, जो कि इस न्यायालय द्वारा निर्धारित दृश्टिकोण के विपरीत है, कठिन है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने रामनिवास बेड़ा बनाम भारत संघ (आर.एल.डब्ल्यू. 2004 (2) राज 1235) में कहा है कि यह प्रकरण भिन्न प्रकार का है, माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह निश्कर्श निकला था कि बम्बई उच्च न्यायालय को षिलांग में दर्ज आपराधिक षिकायत को निरस्त करने का अधिकार है क्योंकि यह झूठी है जबकि वर्तमान प्रकरण में सारे अंतिम आदेष चेन्नई में पारित किय गये है इसलिए यह नियम याची के लिए मददगार नहीं है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने गणपतराम बनाम राजस्थान राज्य (1994 क्रि.ला.रि. (राज.) 690) में कहा है कि न्याय षास्त्र के पूर्ववर्ती सिद्धान्त कि किसी निर्दोश को दण्डित न किया जावे के समान ही दूसरा सिद्धान्त कि दोशी को बनावटी आधार पर दण्ड से बचने न दिया जावे महत्वपूर्ण है और बिना विरोधाभास के है। दोनों सिद्धान्त एक न्यायाधीष द्वारा धर्मपूर्वक निर्वाह किये जाने वाले सार्वजनिक कर्त्तव्य है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने मोहनसिंह बनाम भारत संघ (2001 (4) डब्ल्यू.एल.सी. 41) में कहा है कि हमारा यह दृश्टिकोण है कि जहां सेवा के अनुबन्ध के अधीन या सम्बन्धित पेंषन नियमों के अधिनस्थ पेंषन देय और प्राप्त है वहां पर भी कार्य हेतुक उपजता है तथा उस क्षेत्र पर क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार प्रयुक्त करने वाले न्यायालय को भी ऐसा दावा व्यवहृत करने का क्षेत्राधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान राज्य बनाम राजेन्द्र प्रसाद जैन के निर्णय दिनांक 22.02.08 में कहा है कि उच्च न्यायालय के आदेष में कारणों के अभाव से यह आदेष टिकने योग्य है। भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 141 के संदर्भ में न्यायिक अनुषासन इस न्यायालय द्वारा घोशित कानून से बाध्य है और कोई भी न्यायालय या प्राधिकारी, चाहे राज्य का उच्चतम न्यायालय हो किसी भी बहाने से इसका परित्याग नहीं कर सकते। कारण प्रत्येक निश्कर्श के हृदय की धड़कन है तथा यह इसके बिना प्राणहीन है। कारण देना अच्छे प्रषासन का मौलिक तत्व है। कारण का अधिकार मजबूत न्यायिक निकाय का अभिन्न अंग है, कारण कम से कम यह सूचित करते है कि न्यायालय के सामने दिमाग का प्रयोग किया गया। दूसरा यह कि प्रभावित पक्षकार जान सके कि निर्णय उसके विपक्ष में क्यों गया।

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