Monday 13 June 2011

वास्तविक न्याय के आयाम


सुप्रीम कोर्ट ने ओमप्रकाष मरवाह बनाम जगदीषलाल मरवाह (2008 (15) स्केल 560) में कहा है कि न्यायालय के कृत्य से किसी को कोई हानि नहीं पहुंचनी चाहिए। इस न्यायालय ने धारित किया कि गलती का न्यायालय द्वारा संषोधन होना चाहिए और पक्षकारों को जब गलती हुई उस तिथि की स्थिति में पुनर्स्थापित होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने जंगसिंह बनाम बृजलाल (1966 एआईआर 1634) में कहा है कि मामले के तथ्य लगभग स्वतः बोलते हैं। न्यायालय के मार्गदर्षन के लिए इससे बड़ा कोई सिद्धान्त नहीं है कि न्यायालय के कृत्य से विवाद्यक को कोई हानि नहीं पहंुचनी चाहिए और न्यायालय का यह बाध्यकारी कर्त्तव्य है कि एक पक्षकार को न्यायालय की चूक से हानि होती है तो वह उस स्थिति में पुनर्स्थापित किया जाना चाहिए जो कि चूक से पहले थी।
सुप्रीम कोर्ट ने द्वारका प्रसाद लक्ष्मीनारायण बनाम उत्तर प्रदेष राज्य (1954 एआईआर एस सी 224) में कहा है कि व्यापार के विनियमीकरण या सामान्य रूप में उपलब्ध वस्तु के व्यापार को एक कानून या आदेष जो कि कार्यपालक को मनमर्जी एवं अनियंत्रित षक्तियां देता है, तर्क संगत नहीं ठहराया जा सकता। विधायन यदि यह अनुच्छेद 19 (1) (जी) और 19 (6) द्वारा अनुमत सामाजिक नियंत्रण के मध्य संतुलन स्थापित नहीं करता ,जो कि मनमानेपन से या अधिकारों पर अत्यधिक आक्रमण करता है, तर्कसंगतता की किस्म का नहीं माना जा सकता । इसलिए कारण जो कि दर्ज करने आवष्यक है। व्यक्तिगत या विशय सम्बन्धित संतुश्टि लाईसेन्स प्रदाता अधिकारी के लिए है न कि पीड़ित व्यक्ति को कोई उपचार प्रदानगी के लिए है।
सुप्रीम केार्ट ने राज्य बनाम अहमद जान के निर्णय दिनांक 12.08.08 में कहा है कि राज्य समाज के सामुहिक हेतुक का प्रतिनिधित्व करता है और उसे विवाद्यक की स्थिति स्वीकृत है। न्यायालयों को अन्यायोन्मुख विचारधारा नहीं अपनानी चाहिए। विलम्ब को क्षमा करने की याचिका को अस्वीकार करके, जहां प्रार्थी राज्य हो तो सौतेला व्यवहार नहीं होना चाहिए। न्यायपालिका अपनी षक्ति जिससे तकनीकी आधार पर अन्याय के वैधानीकीकरण किया जा सके के लिए सम्मानित नहीं की जाती है लेकिन यह अन्याय को हटाने में सक्षम है तथा ऐसा करने की इससे आषा है। यह सर्वविदित है कि इस न्यायालय में दायर होने वाले मामलों में यह न्यायालय काफी उदार है। किन्तु यह संदेष पद सोपान में निचले न्यायालयों तक नहीं पहुंचा है। 

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