Monday 6 June 2011

याचिका का नाम महत्वपूर्ण नहीं


सुप्रीम कोर्ट ने बालकृश्ण छगनलाल सोनी बनाम प. बंगाल राज्य (1974 एआईआर 120) में कहा है कि यदि एक कार्मिक ने कोई दुराचार किया है तथा उसे दण्ड देना निर्णय करने वाले की षक्ति पर निर्भर है तो यदि यह दोश के अनुपात से भिन्न है तो विवेकाधिकार में हस्तक्षेप किया जा सकता है। ऐसे दण्ड का देना जो कि आरोप से अधिक हो सुरक्षा का दावा नहीं कर सकता और यह न्यायिक हस्तक्षेप के लिए खुला है। सामाजिक और आर्थिक अपराध दण्ड के विशय में गंभीर धरातल पर है।
सुप्रीम कोर्ट ने बस्ती षुगर मिल्स बनाम उतर प्रदेष राज्य (1979 एआईआर 262) में कहा है कि हमारी पीढ़ी के महानतम व्यक्ति की यह महत्वाकांक्षा है कि हर आंख से आंसू पोंछे। यह हमारे लिए दूर है लेकिन जब तक पीड़ा और आंसू है हमारा कार्य समाप्त नहीं होगा। कानून की समस्याएं जीवन की अपेक्षाएं है। कानून एक व्यवस्था का रूप है और अच्छे कानून को आवष्यक रूप से अच्छी व्यवस्था होना चाहिए। चूंकि न्यायषास्त्र की जड़ें समाज की प्रार्थनाओं की मिट्टी में है और मानवता के पोशण में इसका लहलहाना है। पाण्डित्यपूर्ण अवरोधों से कानून को दूशित करना और भूलना कि सब कानूनों का कानून हमारी संवैधानिक व्यवस्था का व्याकरण लोगों का कल्याण से मुंह मोड़ना है ।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने पृथ्वीसिंह बनाम राज्य (1976 क्रि.ला.रि. राज. 264) में कहा है कि सांराष रूप में अपील को निपटान देना अवैध एवं अनुचित है। सत्र न्यायाधीष बालोत्रा को चाहिए था कि वह मामले की रिपोर्ट देखते, अपीलार्थी या उसके पैरोकार को सुनते और लोक अभियोजक यदि उपस्थित होता तो उसे भी सुनते। उसके बाद ही उसे अपील को निरस्त करनी चाहिए था। उसे लगता कि अन्वीक्षण न्यायालय के अपीलार्थी के दोशी होने के निश्कर्शों में हस्तक्षेप के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है यदि अपीलार्थी अनुपस्थित होता और उसके पैरोकार ने कोई निर्देष न होना बताया होता तो भी सत्र न्यायाधीष अपील के रिकॉर्ड को देखे बिना और मामले के गुणावगुण पर उचित निर्णय दिये बिना सरसरी तौर पर निरस्त नहीं कर सकता। अपील न्यायालय का कर्त्तव्य है कि वह रिकॉर्ड को देखे और अपील का गुणावगुण पर निर्णय करे चाहे अपीलार्थी या उसका पैरोकार या लोक अभियोजक उपस्थित होते हैं अथवा नहीं होते हैं। रिकॉर्ड को देखने की आवष्यकता को छोड़ा नहीं जा सकता क्योंकि यह कोरी औपचारिकता नहीं है। एक दोशसिद्धि नागरिक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता या जीवन को प्रभावित करती है इसलिए विद्यायिका ने अपीलीय न्यायालय पर समस्त रिकॉर्ड को देखने और प्रकरण में अन्तर्वलित प्रत्येक सारभूत तथ्य या कानून के प्रष्न की ओर ध्यान आकर्शित करने का दायित्व डाला है। इसलिए इससे यह अर्थ निकलता है कि मामले के गुणावगुण पर बिना उचित निर्णय के सत्र न्यायाधीष को अपील निरस्त करने का अधिकार नहीं था। सरसरी तौर पर अपील को निरस्त करना पूर्णतया अनुचित था।
सुप्रीम कोर्ट ने पेप्सी फूड लिमिटेड बनाम विषेश न्यायिक मजिस्ट्रेट (1998 एआईआर सु.को.128) में कहा है कि जिस नाम से याचिका दायर की जाती है वह नाम बिल्कुल सुसंगत नहीं है और यदि कोई विषेश प्रक्रिया का अनुसरण करना आवष्यक न हो तो अपने क्षेत्राधिकार के प्रयोग के लिए मनाही नहीं है। यदि एक वर्तमान जैसे मामले में न्यायालय पाता है कि अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता तो याचिका को अनुच्छेद 227 या संहिता की धारा 482 के अन्तर्गत व्यवहृत कर सकता है फिर भी यह संहिता में पुनरीक्षण और अपील के प्रावधानों की अनदेखी नहीं कर सकता अपितु अधीनस्थ न्यायालय द्वारा की गई किसी गंभीर चूक को ठीक कर सकता है। यद्यपि वर्तमान याचिका अनुच्छेद 226 और 227 के अन्तर्गत दायर की गई थी को संविधान के अन्तर्गत अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत मान सकता है।
पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने सतपाल कागड़ा बनाम प्रेमलता के निर्णय दिनांक 22.12.99 में कहा है कि याची या उसके पैरोकार और प्रत्यर्थी के पैरोकार की अनुपस्थिति पूर्णतः महत्वहीन है। विलम्ब करने वाली किसी भी कोषिष को उदाहरणात्मक खर्चे लगाकर सख्ती से निपटा जायेगा।

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