Saturday 18 June 2011

प्रक्रियागत नियम न्याय के साधक हैं बाधक नहीं


सुप्रीम कोर्ट ने मैनेंजिंग कमेटी बनाम सीके राजन (जेटी 2003 (7) सुको 312) में कहा है कि लोक हित वाद ठहर गए हैं और इसकी आवष्यकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने एक संवेदना आधारित न्यायषास्त्र की खोज की। प्रक्रियागत औचित्य को अधिकारों से वंचित करने वाले सारभूत मुद्दों से कम महत्व दिया गया। मान्य स्थिति के नियम को मन्द कर दिया गया। न्यायालय संवेदनहीन एंव अरूचिबद्ध के स्थान पर न्याय प्रषासन में सक्रिय भागीदार हो गये।
सुप्रीम कोर्ट ने गाजियाबाद विकास प्राधिकरण बनाम बलवीर सिंह (एआईआर 2004 सुको 2141) में कहा है कि यदि एक उच्चतर मंच से निशेधाज्ञा नहीं ले रखी है तो ऊपरी मंच में अपील या पुनरीक्षण दायर करना मात्र निचले मंच के आदेष की अनुपालना नहीं करने के लिए अधिकृत नहीं करेगा। यहां तक की यदि प्राधिकारी ने अपील या पुनरीक्षण दायर कर रखी है और निशेधाज्ञा प्राप्त नहीं की है या मना कर दिया गया है तो आदेष की पालना की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने सैयद मोहम्मद बनाम अब्दुल्ला हबीब (1988 4 एससीसी 343) में कहा है कि प्रक्रिया गत कानून हमेषा न्याय की मदद के लिए है न कि विरोधाभास या जिस लक्ष्य को प्राप्त करना है उसकी विफलता के लिए।
सुप्रीम कोर्ट ने राम मनोहर लाल बनाम एनबीएम सप्लाई (एआईआर 1969 सुको 1267) में कहा है कि एक पक्षकार को वाजिब राहत से महज इसलिए इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ चूक, उपेक्षा, गलती या प्रक्रियागत नियम का उल्लंघन हुआ है। न्याय प्रषासन के लिए प्रक्रियागत नियमों से नौकरानी की अपेक्षा की जाती है। इसलिए इनका उदार और इस प्रकार अर्थ लगाया जाना चाहिए जिससे कि सारभूत अधिकारों को प्रभावी रूप से प्रवृतमान किया जा सके।
सुप्रीम कोर्ट ने नरोहां बनाम प्रेम कुमारी (एआईआर 1980 सुको 193) में कहा है कि जब अभिवचनों का अर्थ लगाया जाये तो सामान्य बुद्धि को ठण्डे बस्ते में नहीं छोड़ देना चाहिए। पक्षकार सारभूत प्रष्नों पर जीते अथवा हारे किन्तु तकनीकी उत्पीड़न पर नहीं और न्यायालयों दुश्प्रेरक नहीं हो सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने एसोसिएटेड जर्नल बनाम मैसूर पेपर मिल्स के निर्णय दिनांक 11.07.06 में कहा है कि हमारा विचार है कि प्रक्रिया गत नियम न्याय के साथ छल करने का साधन नहीं होने चाहिए। वास्तव में नियम न्याय के त्वरित निश्पादन में मदद के लिए है।

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