Saturday 25 June 2011

नैसर्गिक न्याय की रक्षा हो


सुप्रीम कोर्ट ने इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट बनाम एल.के.रत्ना (1986 (4) एससीसी 537) में कहा है कि यदि कोई इस तर्क को स्वीकार करता है कि यदि अन्वीक्षण निकाय मंे प्राकृतिक न्याय की कोई कमी अपील निकाय में उपस्थिति से ठीक की जा सकती है तो इसका परिणाम सदस्य को निश्कासन निकाय  में अपील के अधिकार से वंचित करना होगा। यदि नियम और कानून निश्कासन निकाय में उचित अन्वीक्षण तथा अपील का अधिकार देते हैं तो उसे क्यों यह कहा जाय कि वह अन्याय पूर्ण अन्वीक्षण और उचित अपील से संतुश्ट हो । यदि अपील को नये सिरे से सुनवाई भी मान लिया जावे तो भी उस सदस्य को एक अवसर से वंचित कर दिया गया। एक साधारण नियम के तौर पर सभी दषाओं में धारित करता हूं कि अन्वीक्षण निकाय में प्राकृतिक न्याय की विफलता को अपीलीय निकाय में प्राकृतिक न्याय की पर्याप्तता से ठीक नहीं किया जा सकता।
बम्बई उच्च न्यायालय ने जे.एम.जे.एस. अलेक्जेन्डर गोन्साल्विस पीयरेरा बनाम गोवा प्रषासन (1983 (1)एलएलएन) में कहा है कि यद्यपि तथ्यों से प्रकट हुआ है कि याची ने सरकार को प्रतिवेदनों की श्रंृखला भेजी और इन्हें गुणावगुण के आधार पर व्यवहृत कर आदेष पारित किये गये। तथ्य यह दर्षाते है कि याची ने अनुस्मारकों की श्रृंखला भेजी और पूर्ण सतर्कता से अनुवर्तन किया। इन परिस्थितियों में न्यायालय ने धारित किया कि याची की ओर से कोई विलम्ब नहीं था। किन्तु याची को इन आदेषों के विशय में सूचित नहीं किया गया।
आन्ध्र प्रदेष उच्च न्यायालय ने श्री वसावी कन्यक सेवा ट्रस्ट बनाम जिला कलेक्टर के निर्णय दिनांक 06.03.2000 में स्पश्ट किया है कि जैसा कि पहले ही धारित है कि यह देखा जाना चाहिए कि क्या पक्षकार की उपस्थित आवष्यक है, उचित होगा और न्यायालय को समस्त पक्षकारों की उपस्थिति और उनके द्वारा प्रस्तुत विशय वस्तु निर्णयन करने हेतु समर्थ बनाता है । इस प्रकार की मनाही मात्र विशय वस्तु के सम्बन्ध में असंगत डिक्री प्रदान करवा सकती है और कुछ मामलों में वास्तविक स्वत्व धारकों के स्थान पर चालाकी पूर्ण दुरभि संधि युक्त डिक्रीयों की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने रेपटाकोस ब्रेट एण्ड कं. बनाम गणेष प्रोपर्टी (एआईआर 1998 एससी 3085) में कहा है कि कई बार लम्बी प्रक्रिया की अस्वस्थता से  पीड़ित भारतीय मुकदमेबाजी को इस तरह के बिन्दु महत्वपूर्ण प्रष्नों के रूप में लम्बा खेंचने के लिए उभार देते हैं। 
गौहाटी उच्च न्यायालय ने रामानन्द जयकिषन बनाम मो. अबू हुसैन (एआईआर 1972 गौहाटी 6) में कहा है कि विद्वान जिला न्यायाधीष ने इन निर्णयों तथा कानून जो कि उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसी ही परिस्थितियों में घोशित किये गये थे जैसी कि वर्तमान मामले की परिस्थितियां है का संदर्भ नहीं लिया है। अतः यहां उच्चतम न्यायालयों द्वारा निर्धारित कानून को लागू नहीं करने में क्षेत्राधिकार की पूर्ण गलती की है।

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