Thursday 16 June 2011

कारण ही निर्णय के प्राण हैं


राजस्थान उच्च न्यायालय ने चन्द्रपालसिंह चौधरी बनाम विजीतसिंह के निर्णय दिनांक 03.03.09 में कहा है कि एक अन्तवर्ती आदेष वह है कि जो एक मामले विषेश या पहलू विषेश या मुद्दे विषेश की कार्यवाही को निर्धारित करता हो। फिर भी पुलिस को इन षक्तियों के चालाकी से दुरूपयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और देष के कानून को पेचिदा करने।
सुप्रीम कोर्ट ने जगमोहन सिंह बनाम पंजाब राज्य के निर्णय दिनांक 29.04.08 में कहा है कि न्यायालय की ओर से एक गलती में परिवचन प्रकृति की गलती भी षामिल है जिसे की पुनरीक्षा के आदेष द्वारा ठीक किया जा सकता है। एक पुनरीक्षा का आवेदन यदि पर्याप्त कारण मौजूद है तो संधारण योग्य है। पुनरीक्षण हेतु एक आवेदन पत्र ‘‘न्यायालय के कार्य से किसी को नुकसान नहीं होना चाहिए’’ के सिद्धान्त से भी आवष्यक बनता है।
भारत संघ बनाम मोहनलाल कपूर (1974 एआईआर 87) में कहा है कि कारण वास्तविक निश्कर्शों से और विशय वस्तु जिस पर कारण आधारित है के बीच सम्बन्ध का काम करते है वे यह प्रकट करते हैं कि एक निर्णय लेने चाहे वह षुद्ध प्रषासनिक या अर्द्ध न्यायिक हो पर दिमाग किस तरह लगाया गया। उन्हें विचार किय गये तथ्यों और पहंुचे गये निश्कर्श के मध्य तर्क संगत सम्बन्ध प्रकट करना चाहिए। मात्र इसी तरीके से दर्ज किये गये विचार तथा निर्णय स्पश्ट रूप से प्रदर्षित कर सकते हैं कि वे न्यायपूर्ण तथा तर्क संगत है।
सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुस्तान टाईम्स बनाम भारत संघ (एआईआर 1998 सुको 688) में कहा है कि कारण के अभाव मंे सुप्रीम कोर्ट यह जानने से वंचित हो गया कि वे क्या परिस्थितियां थी जिनमें उच्च न्यायालय ने सरसरी तौर पर निरस्त करना उचित समझा यह एक निपटान का असंतोशजनक तरीका है। इस बात पर बल देने की आवष्यकता नहीं है कि उच्च न्यायालय को अपने निश्कर्शों के लिए चाहे कितने ही संक्षिप्त हो कारण देने चाहिये। कारण देने का दायित्व स्पश्टता लाता है और मनमानेपन की गुंजाइष को कम करता है और उच्चतर मंच इन कारणों की षुद्धता की जांच कर सकता है। इस न्यायालय के लिए प्रकरण को पुनः प्रतिप्रेेशित करना कठिन हो जाता है क्योंकि जब तक प्रकरण इस न्यायालय में पहंुचता है कई वर्श व्यतीत हो चुके होते हैं। मामले का निपटान महत्वपूर्ण है लेकिन निर्णय की गुणवता यदि अधिक नहीं तो भी समान महत्वपूर्ण है। इन सब संषोधनों के बावजूद भी विद्यायिका ने मर्यादा की अवधि तय करने पर विचार नहीं किया है। हमारे विचार में यह महत्वपूर्ण और स्पश्ट है कि विद्यायिका का उद्देष्य बकाया की गणना और वसूली के लिए कोई मर्यादावधि तय नहीं की है जैसे कि रकम ट्रस्टकोश को देनी है और वसूली दावे द्वारा रही है। भारतीय मर्यादा अधिनियम 1963 के प्रावधान लागू नहीं होते। न्यायालय द्वारा कारण देने में असफलता एक विवाद्यक को दिये गये अपील के अधिकार का अतिक्रमण है। हमारे विचार से एक हारने वाले पक्षकार या उसके वकील को तर्क संगत निर्णय से मिलने वाला संतोश अच्छे निर्णय की परीक्षा है। विवाद्यकों के लिए एक न्यायाधीष का कर्त्तव्य है कि अपनी सत्यनिश्ठा को बनाये रखे और हारने वाले पक्षकारों को जानने दे कि उसने मामला क्यों हारा।

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