Tuesday 14 June 2011

वास्तविक न्याय


सुप्रीम कोर्ट ने रूपा अषोक हुर्रा बनाम अषोक हुर्रा (एआईआर 2005 एस सी 1771) में अपने उदार न्यायपूर्ण विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि कानून को समाज का अनुसरण करना चाहिए न कि परित्याग जिससे समाज अनायास आपति में पड़ जाय,और सामाजिक परिवर्तन के साथ अपने रास्ते पर कड़ाई से, बिना विचलन या व्यवधान के । जहां कि इसी प्रकार के स्वर में कहा गया है कि जब कोई अपनी यात्रा गलत दिषा में पाता है उसे हमेषा सही दिषा में मुड़ने का यत्न करना चाहिए क्योंकि विधि न्यायालयों को बजाय गलत के हमेषा सही रास्ते पर चलना चाहिए । यह न्यायालय अपने आदेष को वापिस लेने या पुनरीक्षा करने से प्रवारित नहीं है यदि यह संतुश्ट है कि न्याय के लिए ऐसा करना आवष्यक है। प्रासंगिक रूप से यह न्यायालय मात्र पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार जो कि संविधान द्वारा प्रदत है के अन्तर्गत ही परिवेदनाओं का निवारण नहीं करता अपितु देष की प्रत्येक परिवेदना के लिए एक प्लेटफॉर्म व मंच है। अब समय आ गया है कि जब प्रक्रियागत न्याय को वास्तविक न्याय के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए और कानूनी न्यायालयों के प्रयास इसी ओर निर्दिश्ट होने चाहिए। वे दिन चले गये हैं जब कानून के निर्दयी ढंग या व्याख्या पर बल दिया जाता था- वर्तमान न्यायालयों की उदारता इसका महानतम गुण है और इकीसवीं सदी में आगे बढ़ने के लिए न्यायोन्मुख अवधारणा आज की आवष्यकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान राज्य बनाम खण्डाका जैन ज्वैलर्स (2008 एआईआर 509) में कहा है कि किसी भी व्यक्ति को वादकरण के परिणामस्वरूप हानि नहीं होनी चाहिए। चूंकि विवाद को पर्याप्त समय हो गया है। अतः वादकरण की पीड़ा से प्रत्यर्थी पीड़ित नहीं होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने वाई.ए.अजीत बनाम सोफाना अजीत (2007 एआईआर 3151) में कहा है कि कार्य हेतुक से सामान्य यह अर्थ है जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के विरूद्ध उपचार प्राप्त करने के लिए अधिकृत करता है। इस उपवाक्य में जैेसे कि पुराने समय से षामिल है कि तथ्यों का प्रत्येक समूह जो कि याची को सफल होने के लिए आवष्यक है और प्रत्येक तथ्य जो कि प्रत्यर्थी द्वारा विपरीत अधिकार रखता है। कार्य हेतुक में विषेशकर विपक्षी की ओर से कार्य जो कि प्रार्थी द्वारा षिकायत या परिवेदना की विशय वस्तु है जिस पर कार्य आधारित है, केवल तकनीकी कार्य हेतुक ही नहीं है।

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