Friday 10 June 2011

न्याय करमुक्त तथा शुल्कमुक्त हो


राजस्थान उच्च न्यायालय ने भारत संघ बनाम महाराजा हरिसिंह के निर्णय दिनांक 25.04.05 में कहा है कि इसमें कोई आष्चर्य नहीं है यदि पक्षकार को पर्याप्त अवसर दे दिया गया है और पक्षकार ने प्रतिवेदन किया है तो मौखिक सुनवाई की कोई आवष्यक नहीं है। यह मात्र एक अनावष्यक औपचारिकता होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने स्वदेषी कॉटन मिल्स बनाम भारत संघ (1981 एआईआर 818) में कहा है कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों की गैर अनुपालना ही अपने आप में किसी व्यक्ति के लिए पूर्वाग्रह है और न्याय से मनाही से स्वतन्त्र किसी पूर्वाग्रह का प्रमाण अनावष्यक है। यह बुराई उसी व्यक्ति से आती है जिसने न्याय के लिए मनाही की है कि जिस व्यक्ति को न्याय हेतु मनाही की है पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं है। यदि इन प्राकृतिक न्याय के नियमों का उद्देष्य न्यायिक स्खलन को रोकना है तो इन्हें प्रषासनिक जांच में लागू क्यों नहीं किया जाय। प्रायः अर्द्ध न्यायिक जांच और प्रषासनिक जांच के मध्य रेखा खंेचना आसान नहीं है। कई बार प्रषासनिक जांच में अन्यायपूर्ण निर्णय का अर्द्धन्यायिक निर्णय से भी दूरगामी प्रभाव पड़ता है।
सुप्रीम कोर्ट में भारत संघ बनाम टी.आर.वर्मा (1957 एआईआर 882) में कहा है कि विस्तृत रूप में यह कहा जा सकता है कि प्राकृतिक न्याय के नियम की आवष्यकता है कि एक पक्षकार को जिन साक्ष्यों पर निर्भर है उन्हें प्रस्तुत करने की अनुमति दी जानी चाहिए, विपक्षी का साक्ष्य उसकी उपस्थिति में लिया जाना चाहिए और पक्षकार द्वारा परीक्षित साक्ष्यों की प्रतिपरीक्षा करने का उसे उचित अवसर दिया जाना चाहिए और किसी भी विशय वस्तु को उसे समझाये बिना प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने पी.एम.अष्वथानारायन षेट्टी बनाम कर्नाटक राज्य (एआईआर 1989 एससी 100) में स्पश्ट किया है कि जिन लोगों के पास प्रचुर मात्रा में आर्थिक संसाधन है उनके पास के साधनों को अपना दावा चलाने या अपने विरूद्ध दावे की रक्षा करने की स्पश्ट लाभप्रद स्थिति में होते हैं। हुगबी बनाम हुगबी में कहा गया है कि यदि सम्राट न्याय के लिए खर्चा लेते हैं तो ऐसा षुल्क न्यूनतम डाक षुल्क के समान होना चाहिए, कहने का अभिप्राय यह है कि चाहे यात्रा कितनी भी लम्बी हो यह समान होनी चाहिए। क्योंकि यह न्यायार्थी  का कोई दोश नहीं है कि एक न्यायार्थी  की ओर से न्यायाधीष के समक्ष दूसरे के बजाय निर्धारण हेतु अधिक कठिन प्रष्न उपस्थित किये जाते हैं और न्यायालय में लम्बी सुनवाई होगी। वह न्याय के लिए कुछ कह रहा है न कि मकान जायदाद किराये पर ले रहा है। प्रत्येक व्यक्ति पुलिस के लिए चुकाता है किन्तु कुछ लोग उनका अन्य लोगों की तुलना में अधिक प्रयोग करते हैं। कोई षिकायत भी नहीं करता। यदि आपके यहां संेधमारी हो जाये या पुलिस वाले की आवष्यकता पड़े तो बार-बार विषेश षुल्क नहीं देना पड़ता। वास्तव में न्याय तक पहुंच षब्दावली सामाजिक आवष्यकता की गंभीर एवं षक्तिषाली अभिव्यक्ति है जो कि आवष्यक, आज्ञापक और अधिक विस्तृत है। न्याय तक पहंुच में न्याय षुल्क अपने आप में बाधक है। दूसरे षब्दों में वादकरण पर कर नहीं लगाया जा सकता और भवन निर्माण, षिक्षा या अन्य लाभप्रद योजनाओं की भांति वादकरण के लिए राज्य भुगतान की मांग नहीं कर सकता।
बल्कि यह एक बुराई है जिसके लिए मात्र सरकार और उसके एजेन्ट ही दोशी हैं जिसके लिए उसे सबसे सषक्त उपचार के रूप में प्रमाणित करना है अनुचित मुकदमेबाजी को टालने के लिए आवष्यक है कि निर्णय न्यायपूर्ण हो। कोई व्यक्ति जीतने की आषा के अतिरिक्त न्यायालय नहीं जाता है। कोई भी व्यक्ति खराब कारण में जीत की आषा नहीं रखता यदि उसे विष्वास नहीं है कि बूरे कानून या बूरे न्यायाधीष द्वारा निर्णित होगा।
 बेईमानीपूर्ण दावे सामान्यतया प्रस्तुत नहीं होंगे यदि जनता को न्याय प्रषासन के विशय में अनुचित होने का विष्वास नहीं हो । राज्यों के लिए वांछनीय है कि प्रारम्भ स्लेब अर्थात् रूपये 15000 तक के दावों पर नाम मात्र का 2 से 21/2 / षुल्क लिया जाना चाहिए ताकि छोटे दावे न्याय से वंचित न हो जाये।

लेखकीय मतानुसार जब देश में 65 % आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही हो और मात्र  2% जनता आयकर दाता हो तो यह आवश्यक हो जाता है कि न्यायव्यवस्था शुल्क मुक्त हो |

1 comment:

  1. YOU ARE RIGHT DEAR ,,,, BUT WHO CARES ,,,,,,

    I AM AN RTI WORKER,,, I CAN GIVE YOU AN EXAMPLE OF RTI CHARGES FOR PHOTO COPIES, CD's, SAMPLES .....

    PHOTO COPIES ARE BEING PROVIDED @ Rs/- 2/- TO 10/-, WHERE AS THE CHARGES OF SAME BY SHOPKEEPER IS 75 PAISA ONLY ,,,,, THIS IS A GOOD SOURCE OF INCOME FOR WELFARE STATE .......

    CD WHICH COSTS @ Rs/- 3 ONLY IN OPEN MARKET, IS BEING PROVIDED IN Rs/- 50/- ......

    SAMPLES TOO ARE BEING PROVIDED AT MUCH RATE DIFFERENCE ..........

    RTI IS FIRST STEP FOR JUSTICE ........

    HERE PROFIT % IS KEPT AT 300% TO 1200% BY WELFARE STATE,,,, SUCH PROFIT IS NOT AT ALL IN ANY BUSINESS .....

    SO WHERE IS THE WILL TO SERVE AS WELFARE STATE?

    THEN IN NEXT STEP OF PROCESS OF JUSTICE, WELFARE STATE OPPOSES, CITIZENS THROUGH LEARNED ADVOCATES MISUSING PUBLIC MONEY AGAINST CITIZENS ... AND CITIZEN IS REPRESENTED BY LEARNED ADVOCATES TO BY PAYING HEAVY AMOUNTS

    WHY NOT JUSTICE ITSELF AT QUASI JUDICIAL AUTHORITY LEVEL?..... TO SAVE MONEY AT BOATH ENDS ...........

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