Tuesday 13 September 2011

भारतीय न्यायालयों में क्या होता है ?

दिल्ली उच्च न्यायालय की अप्रेल माह 2011 के प्रथम सप्ताह के एक दिन   की सुनवाई की सूची को लेकर वेबसाइट पर उपलब्ध उसकी परिणति का विश्लेषण करने पर रोचक तथ्य सामने आये हैं| ये मामले वर्ष 1985 से लेकर 2010 के मध्य दर्ज हुए थे| इन तथ्यों से यह स्पष्ट हुआ कि जिन दो बेंचों के 38 मामलों का चयन किया गया उनमें से एक भी मामले में इस निर्धारित तिथि को कोई आदेश पारित नहीं किया गया| इतना ही नहीं इनमें से मात्र 29% मामलों में ही एक माह के भीतर कोई आदेश पारित किया गया तथा 24% मामले ऐसे  थे जिनमें आगामी पांच माह तक भी कोई आदेश पारित नहीं किये गए| इन 38 मामलों में से 13% मामलों को आगामी आदेश में ख़ारिज कर निपटाया गया उनमें से एक वरिष्ठ नागरिक द्वारा दायर 9 वर्ष पुरानी रिट याचिका को गुणहीन बताते हुए संक्षिप्त आदेश से ख़ारिज कर दिया गया और उसे पदोन्नति लाभ देने से वंचित कर दिया| संभवतया उम्र के इस पड़ाव पर उस याची ने आगे अपील करना उचित नहीं समझा और मन मसोस कर रहा गया| यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रकार संक्षिप्त आदेश से ख़ारिज करने की प्रवृति पर कई बार अप्रसन्नता प्रकट की है | विचारणीय है कि जब यह याचिका गुणहीन थी तो इसे 9 वर्ष की लंबी अवधि तक बकाया क्यों रखा गया और वरिष्ठ नागरिक को सुनवाई में प्राथमिकता देने के अपने कर्तव्य का माननीय न्यायालय ने किस प्रकार निर्वाह किया | एक  यक्ष प्रश्न यह भी है कि न्यायालय को राहत देने  या मना करने का अधिकार हो सकता है किन्तु इतने लंबे समय तक बकाया रखने का किसी भी कानून में कोई अधिकार नहीं है |
इसी प्रकार की 10 लाख वरिष्ठ नागरिकों के सामूहिक हित वाली एक अन्य याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय में 9 वर्ष से बकाया  पड़ी है | इस याचिका को भी दिखावटी तौर सुनवाई में प्राथमिकता दी जा रही है और इसे दिनांक 29.0811 से 13.09.11 तक लगातार रोजाना दैनिक सूची में क्रम संख्या 1 पर दिखाया गया है किन्तु 15 दिन व्यतीत होने के बावजूद भी इसमें सुनवाई पूर्ण नहीं हुई है| दूसरी ओर सुरेश  कलमाड़ी जैसे भ्रष्ट और प्रभावशाली राजनेता के नए मामले  को इसी बेंच ने बीच में ही प्राथमिकता से सुना|   
इन चयनित मामलों में से  74 % मामलों में वकील उपस्थित नहीं हुए| यद्यपि माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने एस जे चोधरी बनाम राज्य ( 1984 ए आई आर 618) में धारित किया है कि वकील को प्रतिदिन सुनवाई में उपस्थित  रहना चाहिए और यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह अपने व्यावसायिक कर्तव्यों का उल्लंघन करता है| ऐसे कई मामलों में न्यायालयों की उपेक्षा को अवमान भी माना गया है किन्तु दिल्ली उच्च न्यायालय की 74% वकीलों की अनुपस्थिति की  दयनीय स्थिति देखते हुए ऐसा लगता  है कि यह एक अप्रकट संधि के अंतर्गत हो रहा है| जहाँ तक अन्य उच्च न्यायालयों का प्रश्न है उनमें से बहुसंख्य न्यायालयों के  दैनिक आदेश अभी वेबसाइट पर प्रदर्शित करने की परम्परा ही नहीं है |

2 comments:

  1. आप ने जो तथ्य प्रस्तुत किए हैं वह हमारी संपूर्ण न्यायपालिका की दयनीय स्थिति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

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