Monday 19 September 2011

आपराधिक न्याय में मील का पत्थर

सुप्रीम कोर्ट ने शिवनन्दन पासवां बनाम बिहार राज्य के चर्चित प्रकरण (एआईआर 1987 सु.को. 787) में कहा है कि यह सुनिश्चित कानून है कि आपराधिक कार्यवाही किसी व्यक्तिगत शिकायत -कोई बदले की भावना से की गयी कार्यवाही नहीं है बल्कि यह अपराधी को समाज हित में दण्ड देने के लिए की गई कार्यवाही है। यह स्थिरता एवं समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए की जाती है कि कुछ कृत्यों को अपराध माना जाता है और किसी भी नागरिक को आपराधिक कानून की मशीनरी को अपराधी को बुक करने के उद्देश्य से गतिमान करने का अधिकार दिया गया है। इसीलिए इस न्यायालय ने अब्दुल रहमान अंतुले के प्रकरण में कहा है कि समाज की भलाई के लिए अधिनियमित दण्ड कानून के पीछे उद्देश्य यह है कि अपराधी को समाज हित में दण्ड दिया जा सके ।कार्यवाही प्रारम्भ करने के अधिकार को मान्य स्थिति के किसी भी सूत्र में बांधा नहीं जा सकता। यह वह एक कार्यवाही को प्रारम्भ करने के लिए परिवादी हो सकता है वह समान रूप से आपराधिक अभियोजन जो कि उसके कथन पर प्रारम्भ किया गया है, के वापिस लिया जाने का विरोध करने का अधिकार है यदि अपराध जिसके लिए अभियोजन प्रारम्भ किया गया है। वह समाज के विरूद्ध है तथा किसी व्यक्ति विषेश के प्रति अनुचित नहीं है तो समाज का कोई भी सदस्य अभियोजन प्रारम्भ करने का अधिकारी है, ठीक इसी प्रकार अभियोजन वापिस लेने का विरोध करने का भी अधिकारी है।
ऐसे समय में जबकि नैतिक मूल्य तेजी से गिर रहे हों और सार्वजनिक जीवन में चरित्र का संकट दिखाई देता हो वर्तमान जैसे प्रकरण में जब लोक प्रशासन में स्वच्छता का प्रश्न हो तो इस न्यायालय को समाज के प्रति अपना कर्तव्य समझना चाहिए कि एक उच्च पदाधिकारी पर आपराधिक न्यास भंग या भ्रष्टाचार के आरोपण का अपराध संलिप्त हो अभियोजन गलत ढंग से वापिस की परीक्षा करे और यह ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए की उच्च न्यायालय या निचले न्यायालय के कितने न्यायाधीश  इस प्रकार की वापिस लेने की सहमति के पक्षकार रहे हैं। यह न्याय का सुस्थापित सिद्धान्त है कि यदि अन्यथा न्यायोचित हो तथा पर्याप्त साक्ष्य पर आधारित हो तो आपराधिक अभियोजन मात्र दुर्भावना या राजनैतिक बदले की भावना - प्रथम सूचितकर्ता या परिवादी की- से आपराधिक कार्यवाही दूषित नहीं हो जाती है।
भारत में आपराधिक प्रक्रिया बिल्कुल मन्द एवं धीमी प्रवाही है और एक अभियोजन को अन्त तक पहुँचाने में ज्यादा समय लेती है और यदि यह आवश्यकता अधिरोपित कर दी जाय कि पूर्ववर्ती उच्च राजनैतिक पदाधिकारी के विरूद्ध पहले जांच आयोग स्थापित करने से पूर्व कोई अभियोजन प्रारम्भ नहीं किया जायेगा जो कि प्रथम दृष्टया  इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अमुक व्यक्ति ने अमुक कृत्य किया है जो कि अपराध बनता है तो सम्पूर्ण आपराधिक प्रक्रिया उपहास बनकर रह जायेगी क्योंकि जांच आयोग वर्षों तक जारी रह सकते हैं और अभियोजन जांच रिपोर्ट के बाद प्रारम्भ होगा और पुनः साक्ष्य होगा तथा लम्बी बहस द्वारा प्रतिपरीक्षा के अधीन होगा।
जब एक संज्ञेय अपराध के होने की एफआईआर पुलिस में धारा 154 के तहत दर्ज की जाती है या मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 155 में असंज्ञेय मामले में पुलिस को अनुसंधान का निर्देश  दिया जाता है तो पुलिस आरोपित अपराध के अन्वेषण के लिए बाध्य है। पुलिस अनुसंधान के विषय में शक्तियां तथा प्रक्रिया जो कि ऐसे अनुसंधान में प्रयुक्त की जानी है धारा 157 से 172 में दी गई है। धारा 173 (1) पुलिस पर अनुसंधान को अनावश्यक विलम्ब के बिना पूर्ण करने का दायित्व डालती है। इसलिए मजिस्ट्रेट को पुलिस के विवेकाधिकार पर नियंत्रण एवं निर्माण के लिए शक्ति दी गई है। इस प्रकार पुलिस द्वारा अभियोजन के विवेकाधिकार को सीमित एवं परिमित कर दिया गया है तथा अपील या पुनरीक्षण के अधीन मजिस्ट्रेट को इस प्रश्न का अंतिम विनिश्चायक है। आपराधिक न्याय का सामान्य पथ, किसी कार्यपालक द्वारा चाहे सरकार उस मामले को झूठा समझती हो अभियोजन शक्ति को अस्वीकार हो जो कि न्यायालयी न्याय को डूबाना चाहे, अन्य श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ विचारण, अतिविश्वास से एक बार अभियोजन प्रारम्भ हो जाये सिवाय सार्वजनिक न्याय के उद्भूत मजबूत कारणों के इसका अनवरत पथ नहीं रूक सकता । लोक अभियोजक विस्तृत अर्थ में, न्यायालय का भी एक अधिकारी है और वह अपने उचित रूप से विचारित दृष्टिकोण से न्यायालय को लाभान्वित करने को बाध्य है और उसके उचित कार्याभ्यास का लाभ पाने का न्यायालय को अधिकार है। यह भी मूल्यांकित किया जाना चाहिए कि देश  में न्याय प्रशासन की योजना यह है कि गंभीर अपराधों जिन्हें संज्ञेय अपराध के रूप में वर्गीकृत किया गया है के अभियोजन का दायित्व कार्यपालक प्राधिकारियों पर है। एक बार जब किसी अपराध की सूचना नामित अधिकारी के पास पहुंचती है तो आवश्यक   साक्ष्य का संग्रहण सहित अनुसंधान और ऐसे साक्ष्य के संदर्भ में अपराध का अभियोजन कार्यपालक का कर्त्तव्य है। जब पूर्ण विचारण के पश्चात् न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता  है और आरोप विरचित कर लेता है कि यह समझना कठिन है कि उसी विषय वस्तु के आधार पर उसी न्यायालय को किस प्रकार फुसलाया जा सकता है कि अभियोजन टिकने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं है। लोक अभियोजक को उसी विषय वस्तु के आधार पर परावर्तन की अनुमति कैसे दी जा सकती है। ऐसा करना न्याय का उपहास होगा और यह न्यायालय के न्याय प्रशासन की सत्यनिष्ठा एवं शुद्धता में विश्वास को डगमगा देगा। यह सार्वजनिक न्याय के हित में होगा कि उच्च राजनैतिक व्यक्ति अपराध के आरोपी न्यायिक प्रक्रिया का सामना  करें तथा बजाय कि न्यायिक निकाय का कोई जुगाड़ बनायें और इस प्रकार राजनैतिक के साथ-साथ न्यायिक प्रक्रिया को भी क्षति पहुंचाये और  दोषमुक्त हों 
न्यायालय आपराधिक न्याय प्रशासन में भागीदार तथा दायी है और इसी प्रकार लोक अभियोजक न्याय का मंत्री है। दोनों का कर्त्तव्य धारा 321 का कार्यपालकों द्वारा प्रयोग कर संभावित दुरूपयोग के विरूद्ध आपराधिक न्याय प्रशासन की रक्षा करना है ।
इस प्रकार वह (अभियोजक) एक विशेष तथा सुनिश्चित अर्थ में देश का दो उद्देश्य का सेवक है - दोषी  बच न पाये तथा निर्दोष पीड़ित न हो। वह वास्तव में लग्न तथा जोश से अभियोजन कर सकता है और उसे ऐसा करना चाहिए। लेकिन वह करारी चोट मार सकता है किन्तु वह गलत चोट नहीं मार सकता। अनुचित दोषसिद्धि अर्जित करने वाले दूषित तरीकों से परहेज करना उसका कर्त्तव्य है चूंकि न्यायपूर्ण के लिए प्रत्येक विधिपूर्ण तरीके को प्रयोग करना।

1 comment:

  1. समाज में न्याय की स्थापना के लिए जरूरी है कि प्रत्येक संज्ञेय अपराध दर्ज हो, उस में सही अन्वेषण हो कर अभियोजन हो और त्वरित न्यायदान हो। पर कहाँ है यह सब? सरकार को इस से कोई मतलब ही नहीं।

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