Thursday 5 May 2011

न्यायिक आचरण -10


सुप्रीम कोर्ट ने रणजीत ठाकुर बनाम भारत संघ (एआईआर 1987 सुको 2386) में कहा है कि षक्तियों के विस्तार के समानान्तर ही प्रक्रियागत सुरक्षा उपाय होने चाहिए। जितनी अधिक षक्ति हो उसके नियंत्रण के लिए उतनी अधिक आवष्यकता है। समान रूप से सत्य है कि दण्ड दुराचरण की गंभीरता के समानानुपात में होना चाहिए और यदि दण्ड गैर अनुपाती है तो यह संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में होगा। वह बिन्दु जो ध्यान देने और बताने योग्य है वह यह है कि समस्त षक्तियों की कानूनी सीमाएं है। वर्तमान प्रकरण में दण्ड अत्यधिक गैर आनुपातिक है और इसमें हस्तक्षेप न्यायोचित है।
इसमें आगे कहा गया है कि पक्षपात की संभावना की परीक्षा के लिए यह सुसंगत है कि पक्षकार के दिमाग में अंदेषे की तर्कसंगतता से है। न्यायाधीष को स्वयं के दिमाग से नहीं अपितु जो पक्षकार उसके सामने है के दृश्टिकोण से सोचना चाहिए ,चाहे वह कितना ही ईमानदार हो, कि क्या मैं पक्षपाती हूं ।
इसी को उद्धृत करते हुए आगे टाटा सेलुलर बनाम भारत संघ (1996 एआईआर 11) में कहा गया है कि न्यायाधीष फै्रंक फर्टर ने पब्लिक यूटिलिटीज कमीषन बनाम पोलाक के मामले में कहा गया था कि न्यायिक प्रक्रिया की मांग है कि न्यायाधीष सुसंगत कानूनी नियमों के भीतर ही चले उसे तटस्थ भाव से सोचना चाहिए और मामले के पहलुओं पर व्यक्तिगत भावनाओं को डूबो देना चाहिए। अक्सर कहा जाता है न्यायिक वेषभूशा अन्दर बैठे व्यक्ति को नहीं बदल देती है। तथ्य यह है कि न्यायिक कार्य करते समय न्यायाधीष व्यक्तिगत विचारों को एक तरफ छोड़ देते हैं।
मुम्बई उच्च न्यायालय ने प्रेमा बांगड स्वामी बनाम महाराश्ट्र राज्य (2004 क्रि.ला.ज.1296) में स्पश्ट किया है कि ध्यान देने योग्य है कि उसे अवैध रूप से निरूद्ध (बन्दी) रखा गया। यह सरकारी अधिकारियों ने नहीं अपितु न्यायालय के अधिकारियों ने किया जो कि न्याय देते हैं और कम से कम यह तो कहा ही जा सकता है कि उनके प्रषासन ने अत्यन्त संवेदनहीन तरीके से कार्य किया। सत्र न्यायालय को उच्च न्यायालय की रिट दिसम्बर 2000 में प्राप्त हो गयी थी। अगस्त 2001 में सत्र न्यायालय को उच्च न्यायालय का आदेष भी मिल गया था। तत्पष्चात याची द्वारा जेल के माध्यम से लिखा गया पत्र जून 2001 मंे प्राप्त हो गया था और इसका जवाब सर्वाधिक तानाषाहपूर्ण ढंग से 05.07.2001 को दिया गया। सबसे ऊपर, जब अक्टूबर 2002 में येरावदा केन्द्रीय जेल, पूना के अधीक्षक ने सत्र न्यायालय को पत्र भेजा उसका कोई जवाब नहीं दिया गया। इसके कारण वह 2 वर्श 9 माह से अधिक अवधि के लिए स्वतन्त्रता से वंचित रही है। यह कोई छोटी अवधि नहीं है। राज्य सरकार के लिए यह छूट होगी कि यदि वह प्रधान न्यायाधीष से प्रतिवेदन करे तो उपरोक्त 2,00,000/- रूपये की राषि में से उपयुक्त राषि दोशी अधिकारी से वसूल कर सकती है। राज्य सरकार द्वारा प्रतिवेदन पर प्रधान न्यायाधीष को उपयुक्त आदेष पारित करना है। इसका उद्देष्य पीड़ित के घावों पर मरहम लगाना है न कि अतिक्रमी या दोशी को दण्ड देना। यह क्षतिपूर्ति की राषि सिविल दावे आदि द्वारा कार्यवाही के बिना पूर्वाग्रह के है और अंतिम क्षतिपूर्ति प्रकरण के तथ्यों पर निर्भर करेगी जिसके लिए कोई सुनिष्चित फार्मूला नहीं दिया जा सकता।

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