Friday 6 May 2011

न्यायिक आचरण -11


दिल्ली ज्यूडिसियल सर्विस एसोसिएषन बनाम गुजरात राज्य (ए.आई.आर. 1991 सु को 2176) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चूंकि इस न्यायालय के पास सम्पूर्ण देष के न्यायालयों एवं ट्राईब्यूनलों अधीक्षण एवं नियंत्रण की षक्ति है। न्याय के झरने बिना बाधा या बाहरी हमले के मुक्त रूप से बहते रहें इसलिए निचले न्यायालयों के हितों की रक्षा सुनिष्चित करना इसके साथ संलग्न इस न्यायालय का कर्त्तव्य है । संसद या राज्य विधायिका के अधिनियम द्वारा सृजित न्यायालयों को उन्हें व्यक्त रूप से नहीं सौंपे गये मामलों में क्षेत्राधिकार नहीं है लेकिन संविधान द्वारा सृजित ऊपरी रिकॉर्ड न्यायालय के मामले में ऐसा नहीं है। प्रथम दृश्टया उच्च स्तरीय न्यायलयों के क्षेत्राधिकार से बाहर कुछ भी नहीं सिवाय ऐसा जो अभियुक्त रूप से है जबकि निचले न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में ऐसा कुछ नहीं है जिसके सिवाय कि अभिव्यक्त रूप से बताया गया है। कोई भी व्यक्ति जिसका पद चाहे कुछ भी हो कानून से ऊपर नहीं है और आपराधिक कानून तोड़ने के परिणाम उसे भुगतने चाहिए। गुजरात राज्य में दोशी पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध प्रभावी कार्यवाही करने में प्रषासन संकोच कर रहा है जिससे यह संदेष मिलता है कि राज्य में पुलिस का स्थान ऊँचा है। यदि इसी परम्परा और प्रवृति की अनुमति दी गयी तो राज्य में विधि के षासन का नाष होने की गंभीर परिणति होगी। हमारे विचार में किसी भी न्यायिक अधिकारी को अपनी सरकारी एवं न्यायिक ड्यूटी के अतिरिक्त कभी भी पुलिस थाने नहीं जाना चाहिए और अपने सत्र न्यायाधीष को पूर्व सूचना देकर ही उसे ऐसा करना चाहिए।
लेखकीय टिप्पणी- प्रस्तुत प्रकरण में अवमान कानून के अन्तर्गत यद्यपि दोशी पुलिस अधिकारियों एवं डॉक्टरी जांच करने वाले डॉक्टर को भी दण्डित कर दिया गया था किन्तु सुप्रीम कोर्ट इस तथ्य की तह में नहंी गया कि सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी के पुलिस अधिकारियों के साथ पूर्व में क्या सम्बन्ध थे और इससे पूर्व न्यायिक अधिकारी एवं पुलिस अधिकारियों के बीच कब-कब मुलाकात होती रही थी। यदि एक न्यायिक अधिकारी को भी व्यक्तिगत कार्यवष पुलिस थाने नहीं जाने की हिदायत दी गई है तो आम नागरिक पुलिस थाने कैसे जा सकता है। क्या पुलिस ज्यादती का यह पहला ही प्रकरण था या पूर्व में इन दोशी अधिकारियों के विरूद्ध षिकायते हुई थी। यक्ष प्रष्न यह है कि आम नागरिक के साथ यदि यही प्रकरण घटित हुआ होता तो क्या न्यायालय इतनी तत्परता के साथ इसी प्रकार यही दण्ड देता क्योंकि पक्षकार या गवाह को डराना धमकाना भी समान रूप से न्यायिक अवमान की परिधि में आता है।
आन्ध्र प्रदेष उच्च न्यायालय ने उमा महेष्वरम डोडा सुब्रा रेडी बनाम संुतुरू गोविन्दारेडी (एआईआर 1955 आंध्र प्रदेष 49) में कहा है कि प्रमुख पाठ्यपुस्तकों को लापरवाहीपूर्वक पढकर निचले न्यायालय ने निश्कर्श निकाला है कि ए.आई.आर. 1929 मद्रास 502 (ए) का निर्णय इस पर चस्पा होता है। निर्णयों द्वारा स्थापित एवं विधायिका द्वारा पारित समस्त कानूनों की प्रगति से अवगत रहकर अद्यतन रहना बैंच (न्यायाधीष) एवं बार (वकीलों) का बाध्यकारी कर्त्तव्य है। यदि एक अषिक्षित व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह कानून का ज्ञान रखे तथा कानूनी भूल माफी योग्य नहीं है तो यह अधिक महत्वपूर्ण है कि जो न्याय प्रषासन से सम्बन्ध रखते हैं अर्थात् बार और बैंच उन्हें मात्र कानूनी रिपोर्ट को नियमित पढ़ना और सावधान ही नहीं रहना चाहिए अपितु उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के निर्णयों का भी ध्यान रखना चाहिए।

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