Tuesday 17 May 2011

न्यायिक शक्तियों के आयाम


सुप्रीम कोर्ट ने पीरतिनम बनाम भारत संघ (1994 एआईआर 1844) में कहा है कि धारा 309 अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है, इसलिए निरर्थक है। यह कहा जा सकता है कि इस दृश्टि से मात्र मानवीकरण का हेतुक ही आगे नहीं बढ़ेगा अपितु जो समय की आवष्यकता है वो वैष्विक रूप से आगे बढेगी जिससे हम हमारे आपराधिक कानून को विष्व स्तर तक पहंुचा पायेंगे। दण्ड संहिता धारा 309 को असंवैधानिक है और इसलिए व्यर्थ घोशित कर याचिका अनुमत की जाती है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आदिल बनाम उत्तर प्रदेष 19.04.08 राज्य में कहा है कि आपराधिक अन्वीक्षा कोई परियों की कहानी नहीं है कि जिसमें की कोई अपनी कल्पनाओं को आपस में लड़ाने के लिए खुला हो। इसका सम्बन्ध मात्र इस बात से है कि क्या अभियुक्त पर जो आरोप लगाया गया है वह इसका दोशी है। अपराध एक जीवन में वास्तविक घटना है जो भिन्न-भिन्न मानवीय भावनाओं का खेल है एक दोशी द्वारा अपराध किये जाने के निश्कर्श पर पहुंचने के लिए न्यायालय को साक्ष्य को इसकी संभावना, आंतरिक मूल्य और गवाहों की प्रवृति के मानदण्ड से निष्चय करना होता है। प्रत्येक मामला अपने अन्तिम विष्लेशण में खुद के तथ्यों पर निर्भर करता है। यद्यपि सभी तर्क संगत संदेह का लाभ अभियुक्त को मिलना चाहिए ठीक इसी समय न्यायालय को उन साक्ष्यों को खारिज नहीं करना चाहिये जो कि सामान्यतः विष्वसनीय है। इस गवाह अब्दुल हलीम का आचरण पूर्णतः अविष्वनीय है क्योंकि उसका आचरण मानव स्वभाव के विपरीत है। यदि अब्दुल हलीम ने पीड़ित और अभियुक्त को दिनांक 13.09.2000 को इन्तजार के गन्ने के खेत में जाते देखा तो उसे निष्चित रूप से यह तथ्य पीड़ित के पिता और भाई को बताना चाहिये था जब उन्होंने इसके लिए तलाष की और मस्जिद के लाउड स्पीकर से पीड़ित के गायब होने की घोशणा करवाई। अब्दुल हलीम द्वारा इस सूचना को प्रकट नहीं करना यह दर्षाता है कि जिस घटना का आरोप लगाया न तो वह हुई और न ही उसने इन्तजार के खेत में पीड़ित को ले जाते जैसा उसने कथन किया देखा था।
सुप्रीम कोर्ट ने एन.बी. खरे बनाम दिल्ली राज्य (एआईआर 1950 सुको 211) में कहा है कि यदि कोई कानून किसी प्रजाजन की स्वतन्त्रता को किसी कार्यकारी अधिकारी चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो कि दया पर छोड़ता है और जिसका कार्य न्यायिक ट्रिब्यूनल द्वारा पुनरीक्षण के अधीन नहीं है वह कानून स्वैच्छाचारी है तथा कानूनी षक्तियांे का तर्कसंगत प्रयोग नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एषोसियषन बनाम भारत संघ के निर्णय दिनांक 06.10.1993 में कहा है कि चूंकि ऊपरी न्यायालयों में न्यायाधीषों की नियुक्ति के लिए न्यायपालिका ही सर्वोतम है ताकि उपलब्ध में से सर्वोतम के चयन का संवैधानिक कृत्य जो कि अधिक महत्वपूर्ण भूमिका पूर्ण की जा सके। जब राज्य न्यायिक सेवा के लिए चयन किया जाना हो तो इस बात पर सर्वाधिक ध्यान देने की आवष्यकता है कि सक्षम एवं योग्य व्यक्ति जिनमें उच्च स्तरीय ईमानदारी एवं निश्ठा हो का ही चयन किया जावे । यदि हमारे पास अच्छे ,सक्षम और ईमानदार न्यायाधीष नहीं हों तो राज्य की लोकतांत्रिक षासन व्यवस्था ही खतरे में पड़ जायेगी। यह हमेषा ध्यान देने योग्य है कि गैर मनमानापन जो कि विधिक षासन का आवष्यक लक्षण है पूरे संविधान में समाहित है और सम्पूर्ण षक्तियों का एक व्यक्ति में केन्द्रीयकरण का अभाव संविधान के किसी भी कृत्य के भाग के रूप में संलग्न सिद्धान्त है। विधि का षासन विवेकाधिकार को न्यूनतम और गैर मनमानेपन के लिए सुपरिचित दिषा निर्देष या सिद्धान्तों के अनुसार सीमित करता है यद्यपि विवेकाधिकार व्यावहारिक आवष्यकता है। प्रत्येक लोक अधिकारी में निहित षक्ति सार्वजनिक उद्देष्य की पूर्ति के लिए है और हित को बढ़ाने के लिए ही प्रयोग की जानी चाहिए। न्यायपालिका को अधिनायकवादी कार्यपालिकीय प्रकृति वाले लोगों से बचाने की आवष्यकता है, वे लोग जो संघर्श उत्पन्न करते है और टकराव को पनपाते है, व्यक्ति जो अपने हित के लिए सिद्धान्तों से समझौता करते हैं वे व्यक्ति जो न तो भूतकाल के इतिहासकार हैं और न ही भविश्य के पैगम्बर अपितु अल्पकालीन अस्तित्व में विष्वास करते हैं। अन्तर्निहित सीमा के अधीन आकाष के नीचे कोई भी विशय ऊपरी न्यायपालिका के लिए न्यायिक पुनर्विलेाकन हेतु खुला है। हम न्यायिक पुनर्विलोकन द्वारा न केवल कार्यपालकीय, प्रषासनिक या अर्द्ध न्यायिक कृत्यों को निरस्त करते हैं और जो हमें आक्रामक लगे उसे तोड़ते है फिर हमने इससे भी आगे बढ़कर कई मामलों दिषा निर्देष निर्धारित कर सकारात्मक कार्य भी किया है। यह कहा जाता है कि व्याख्या के माध्यम से न्यायलय नीति निर्माता है। सरकार द्वारा नीति निर्माण में इसका दृश्टिकोण महत्व रखता है।

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