Tuesday 3 May 2011

न्यायिक आचरण -9


सुप्रीम कोर्ट ने रामचन्द्र बनाम हरियाणा राज्य (1981 ए.आई.आर. सु.को. 1036) में कहा है कि विद्वान सत्र न्यायाधीष इस बात पर चिढ गये लगते हैं कि गवाहों ने जो पूर्व में (द0प्र0सं0) धारा 161 और 164 में बयान दिये थे का अनुसरण नहीं कर रहे हैं और संभवतः उसके समक्ष झूठ बोल रहे हैं। उसके विचार में जो सत्य होना चाहिए, बोलने को विवष करने के लिए, हमारे विचार में उनका डराया धमकाया और वस्तुतः झूठ बोलने के लिए मुकदमा चलाने की बहुत गलत रूप से धमकी दी। उसने अपना आसन छोड़ दिया और हम कह सकते हैं घेरे के भीतर आ गया। उचित परीक्षण के सिद्धान्त का परित्याग कर दिया गया। सत्र न्यायाधीष के आचरण को न्यायोचित ठहराना हमें असंभव लगता है ।हम  कथित चष्मदीद गवाहों के बयान के हिस्सों को स्वीकारना असंभव पाते हैं।
दिल्ली प्रषासन बनाम लक्ष्मण कुमार (ए.आई.आर. 1986 सु.को. 250) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यदि लचक समाप्त हो जाता है और न्यायसदन बाहर उत्पन्न गर्मी से कंपकपाने लगता है तो न्यायिक प्रक्रिया पीड़ित होती है और सत्य की खोज में व्यवधान उत्पन्न होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने के.वीरास्वामी बनाम भारत संघ ( 1991 एस सी सी 655) के प्रमुख प्रकरण में कहा है कि संवैधानिक कार्यकारियों के सामूहिक विवेक से अपेक्षा है कि वह उच्च स्तरीय न्यायाधीषों की नियुक्ति के समय यह सुनिष्चित करे कि अखण्डनीय निश्ठा वाले लोग मात्र ही इन उच्च पदों पर नियुक्त किये जाये और कोई भी संदिग्ध व्यक्ति इसमें प्रवेष न पा सके।
सुप्रीम कोर्ट ने एक न्यायिक अधिकारी के प्रकरण के निर्णय दिनांक 06.10.04 में कहा है कि साथ-साथ किन्तु अलग से अन्तः कार्यालयी कार्यवाही प्रारम्भ कर मुख्य न्यायाधीष का ध्यान आकर्शित किया जा सकता है और इसके लिए तथ्यों का उल्लेख करते हुए मुख्य न्यायाधीष को गोपनीय पत्र या टिप्पणी भेजी जा सकती है। उसके बाद यह मुख्य न्यायाधिपति पर निर्भर है कि वहां स्वयं कार्यवाही करे या निरीक्षक न्यायाधीष के माध्यम से या वह मामला पूर्ण न्यायालय के समक्ष विचारार्थ रखे। यह संपूर्ण कार्यवाही प्रषासनिक पक्ष की ओर से होगी। सम्बन्धित अधीनस्थ न्यायाधीष को अपना पक्ष स्पश्ट करने या उन परिस्थितियों को प्रस्तुत करने का अवसर दिया जावेगा।
संतूलाल षर्मा ने तहसीलदार होते हुए सरकारी राजस्व रिकॉर्ड में हेराफेरी की, ऐसा आरोप लगाया गया था। अभियुक्त ने कहा कि उसने न्यायिक अधिकारी के पद पर कार्य करते हुए यह कार्य किये है अतः उसे न्यायाधीष संरक्षण अधिनियम 1985 का संरक्षण प्राप्त है तथा उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की। राजस्थान उच्च न्यायालय ने संतूलाल षर्मा बनाम राजस्थान राज्य (2005 (2) क्रि.ला.रि.राज. 1370) याचिका निरस्त करते हुए कहा कि यह तर्क दिया गया है भूमि को गजवीर एवं मदनलाल के नाम से नामान्तरण द्वारा भूमि अंतरित करके रिकॉर्ड में जालसाजी की गई है और उसने स्वयं ने प्रविश्टियांे को प्रमाणित किया है। अधिनियम की धारा 2 व 3 को देखने से स्पश्ट है कि यह विषेश सुरक्षा न तो असीमित है और न ही अमर्यादित है। यहां बताया गया है कि याची ने भ्रश्ट उद्देष्य के लिए कार्य किया तथा अपनी स्थिति का सरकारी भूमि को गजवीर और मदनलाल के नाम नामान्तरित करने में दुरूपयोग किया और उस उद्देष्य के लिए रिकॉर्ड की जालसाजी की। अतः इस स्तर पर मामले के गुणावगुण पर विचार किये बिना यह निश्कर्श नहीं निकाला जा सकता कि उसने न्यायिक कर्त्तव्यों को पूरा किया।यदि आरोप पत्र दाखिल कर दिया जाता है तो याची इन तर्कों/बिन्दुओं को अन्वीक्षण न्यायालय में उठाने के लिए स्वतंत्र है ।

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