Friday 27 May 2011

न्यायालयों की पक्षपातपूरण व्याख्याएं


सुप्रीम कोर्ट ने आल इण्डिया जजेज एषोसियषन बनाम भारत संघ (एआईआर 1993 सु.को. 2493) में स्पश्ट कहा है कि इसके विपरीत कई राज्यों में न्याय प्रषासन की दक्षता भूख मर रही है। किन्तु यह राज्यों के लिए राजस्व कमा रही है। जब कर्त्तव्य बाध्यकारी हो तो इस बात की षिकायत नहीं सुनी जा सकती कि उससे वितीय भार पड़ता है। यदि न्यायिक धारा प्रारम्भ से ही दूशित हो जाती है तो न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हमेषा के लिए खतरे में पड़ जायेगी। हम इस वास्तविकता से आंखे नहीं मूंद सकते कि वकीलों के अच्छी कमाई, कई बार तो किये गये श्रम और कौषल के अनुपात में अधिक,  होने से सक्षम वकील न्यायिक पद स्वीकार करने के अनिच्छुक रहते हैं। न्यायाधीष के समक्ष आने वाले प्रत्येक मामले की अपनी विषेशतायें होती है। जिन पर ताजा दिमाग और कौषल लगाने की आवष्यकता है। न्यायाधीष को लगातार विचार करने और प्रतिभा दिखाने की आवष्यकता रहती है। सभी सम्बन्धित को यह याद दिलाना उचित है कि न्यायाधीष को समाज की अपेक्षानुसारअलग प्रवृति के कर्त्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता है ।
यदि वह सावधान नहीं है तो न्यायधीष प्रबल सिविल युद्ध छेड़ देगा या वह क्रान्ति को तेज कर देगा ..वह अचानक षान्तिपूर्ण किन्तु - देष के राजनैतिक रंग में मौलिक परिवर्तन कर देगा। एक न्यायाधीष में वांछित गुण स्पश्टतया कहे जा सकते हैं कि वह भूला हो और उसके बारे मे ऐसे ही विचार हो। इस प्रकार की विष्वसनीयता आसानी से अर्जित नहीं की जा सकती। न्यायाधीष में अन्याय को समाप्त करने की षक्ति होनी चाहिए और वे गुण जो इतिहासकारों, दर्षनषास्त्रियों और पैगम्बरों में हो, की आवष्यकता है। कानून एक लक्ष्य का साधन है और वह लक्ष्य न्याय है। लेकिन वास्तव में कानून और न्याय दूर के पड़ौसी हैं, कई बार अजनबी पक्षद्रोही भी। यदि कानून न्याय को समाप्त कर देता है तो लोग कानून समाप्त कर देते हैं और कानूनविहीनता विकास को अवरूद्ध कर देती है, व्यवस्था को बाधित करती तथा प्रगति को पीछे धकेल देती है। किन्तु मात्र यह तथ्य कि अनुच्छेद 309 कार्यपालकों तथा विधायिका को न्यायपालिका के लिए सेवा षर्तें तय करने का अधिकार देती है का अभिप्रायः यह नहीं है कि न्यायपालिका का इससे कोई लेना देना नहीं है। प्रष्नगत निर्देष देने में इस न्यायालय ने कार्यपालकों तथा विधायिका को अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने के लिए कहा है जब जब भी कार्यपालकों द्वारा बाध्यकारी कर्त्तव्यपालन में विफलता रही है। न्यायालय निर्देष जारी करता है। इस प्रकार के आदेष देने की षक्ति न्यायालयों के पास है।
सुप्रीम कोर्ट ने विनयचन्द्र मिश्रा के अवमान प्रकरण (1993 एआईआर 2348) में कहा है कि इस न्यायालय के पास भारत के समस्त न्यायालयों पर पर्यवेक्षणीय क्षेत्राधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट ने प्रसिद्ध ए.आर. अन्तुले बनाम आर.एस.नायक (1988 एआईआर 1531) प्रकरण में कहा है कि उच्च न्यायालय उच्च स्तरीय रिकॉर्ड न्यायालय है और उसे यह तय करना है कि क्या कोई मामला उसके क्षेत्राधिकार में है अथवा नहीं। उक्त आदेष न्यायिक आदेष है और यदि यह गलत है तो कोई व्यक्ति चाहे अजनबी हो तो भी यदि इससे व्यथित है इस न्यायालय में अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत पहंुच सकता है और आदेष को अपील में ठीक किया जा सकता है लेकिन ऐसे आदेष की वैधता या औचित्य का प्रष्न अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत रिट द्वारा नहीं उठाया जा सकता।
लेखकीय टिप्पणी - यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने 1998 ।प्त् ैब् 128  में कहा है कि नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
सुप्रीम कोर्ट ने मुनीर सैयद इबना हुसैन बनाम महाराश्ट्र राज्य (1976 एआईआर 1992) में कहा है कि यह विष्वास करना कठिन है कि इस न्यायालय के निर्णयों का बम्बई उच्च न्यायालय को ज्ञान नहीं था या अपीलार्थी ने उनका उल्लेख नहीं किया था। किसी भी स्थिति में इस न्यायालय द्वारा घोशित कानून बम्बई उच्च न्यायालय का अनुच्छेद 141 के अनुसरण में कर्त्तव्य है कि वह अपना दृश्टिकोण स्पश्ट करते कोई भी उचित कारण देते हुए हुए लागू करे।

No comments:

Post a Comment