Monday 30 May 2011

भारतीय संविधान एवं लोकतान्त्रिक कानून



भारतीय संविधान दिनांक 26.01.1950 को लागू हो गया था किन्तु ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा बनाये गए कानूनों को अभी तक प्रतिस्थापित नहीं किया गया है | प्रत्येक प्रकार की  शासन प्रणाली व राजनैतिक व्यवस्था के अपने अलग सिद्धांत तथा विचारधारा होती है तथा उसके द्वारा बनाये  गए कानून  उसी प्रणाली के लिए अधिक उपयुक्त होते हैं | हमारे संविधान के लोकतान्त्रिक प्रावधानों को मूर्त रूप देने  के लिए पुराने साम्राज्यवादी कानूनों व नए न्यायिक दृष्टान्तों की  समीक्षा कर नए कानून बनाये  जाने चाहिए थे |चूँकि हमारी कानून एवं न्याय प्रणाली मौलिक रूप से ब्रिटिश व्यवस्था पर आधारित है अतः ब्रिटिश कानून हमारे लिए , बिना मौलिक परिवर्तन किये , अधिक उपयुक्त हो सकते हैं |
 बहुत से प्रावधान अभी भी हमारे संविधान तक ही सीमित  हैं व कोई संसदीय कानून उनकी व्याख्या नहीं करते हैं जिससे न्यायपालिका को  मनमानी व्याख्या करने का खुला अवसर उपलब्ध होता है | विडम्बना  ही है कि पूरे देश में सामान मौलिक कानून- साक्ष्य अधिनयम ,1872, व्यवहार प्रक्रिया संहिता ,1908, दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973, तथा भारतीय दण्ड संहिता,1860- के बावजूद केरल  राज्य के निचले न्यायालयों के  न्यायाधीश प्रति वर्ष औसत 2575 मुकदमे निपटाते हैं जबकि बिहार  राज्य के निचले न्यायालयों के  न्यायाधीश प्रति वर्ष औसत मात्र 284 मुकदमे निपटाते हैं |इसी प्रकार तमिलनाडू राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश प्रति वर्ष औसत 5005 मुकदमे  निपटाते हैं जबकि दिल्ली राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश प्रति वर्ष  मात्र 1258 औसत मुकदमे निपटाते हैं | देश में न्यायिक जगत में नियंत्रण एवं अनुशासन का अभाव स्पष्ट है |इंग्लैंड में ऊपरी न्यायलयों की  कार्यप्रणाली पर नियंत्रण के लिए  सुप्रीम कोर्ट अधिनियम ,1981 अधिनियमित है | दक्षिण आस्ट्रेलिया ने भी पारदर्शिता के लिए न्यायालय प्रशासन अधिनयम , 1993 पारित कर न्यायालय स्टाफ का दायित्व तय कर रखा है |
 ब्रिटिश कानून इस दृष्टिकोण से बनाये  जाते थे कि विदेशियों द्वारा देशी लोगों पर शासन करना तथा साम्राज्य का खजाना भरना आसान हो सके | हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने भी इसी परंपरा का निर्वाह कर सत्तासीन लोगों के लिए स्वछन्दता को आसान बनाया है | हमारे मौलिक कानून- साक्ष्य अधिनयम ,1872, व्यवहार प्रक्रिया संहिता ,1908, दण्ड प्रक्रिया संहिता,१९७३, तथा भारतीय दण्ड संहिता,1860 ब्रिटिश साम्राज्य की ही देन है | यद्यपि दण्ड प्रक्रिया संहिता का नवीनीकरण किया  गया है किन्तु इसमें मौलिक परिवर्तन नहीं किया गया है , यह मूलतः दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 पर ही आधारित है | भारतीय गणराज्य की शासन व्यवस्था व कानून एवं न्याय प्रणाली में अभी भी साम्राज्यवाद की छवि दिखाई देती है |हमारी संसद समयानुकूल कानूनों का निर्माण  करनें में विफल है अतएव हमें पुराने साम्राज्यवादी कानूनों से ही काम चलाना पड़ता है |हमें समस्त पुराने कानूनों की समीक्षा करनी चाहिए कि क्या ये संविधान के अनुरूप हैं |

यद्यपि इसी अवधि में इंग्लैंड ने (सम्राट के अधीन होते हुए भी) कानून में  संशोधन कर लोकतान्त्रिक मूल्यों का संरक्षण किया है  और हमने पूर्णतः स्वतंत्र एवं संप्रभु होकर भी न तो नए कानूनों का निर्माण किया और न ही इंग्लैंड के नए कानूनों का अनुसरण करना सीखा है जबकि इंग्लैंड आज हमसे काफी आगे निकल गया है |व्यक्तिगत स्वतंत्रता जीवन का अमूल्य अधिकार है तथा संविधान के अनुच्छेद 20 से 22 तक में इसका प्रावधान है किन्तु इन अमूल्य मूलाधिकारों की  व्याख्या कर संसद ने आज तक कोई व्यापक कानून का निर्माण नहीं किया परिणामस्वरूप न्यायाधीश , वकील एवं पुलिस अपनी सुविधानुसार इनकी व्याख्या करते रहते हैं| आज अपराधिक न्याय तंत्र में गिरफ़्तारी एवं जमानत भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत हैं |हमारे राष्ट्रीय पुलिस आयोग की तीसरी रिपोर्ट में भी कहा गया है कि 60% से अधिक गिरफ्तारियां अनावश्यक होती हैं तथा यह पुलिस में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत हैं तथा इन गिरफ्तारियों पर जेलों के कुल बजट का 43.2 % भाग व्यय होता है | खेद का विषय है कि 11.07.78 को प्रस्तुत इस रिपोर्ट पर हमारी माननीय संसद द्वारा आज तक गंभीर चिंतन कर कोई कानून नहीं बनाया  गया है जबकि इंग्लैंड में जमानत के विषय में 75 धाराओं वाला अलग से - एक व्यापक संहिताबद्ध कानून- जमानत अधिनयम ,2000 बनाकर न्यायालयों एवं पुलिस के विवेकाधिकार को सीमित कर दिया गया है |यद्यपि भारतीय उच्चतम न्यायालय ने जोगिन्द्रकुमार के मामले(1994)  में कहा है  कि जघन्य अपराध को छोड़कर पुलिस को गिरफ़्तारी को टालना चाहिए  तथा मजिस्ट्रेट को इन निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करनी चाहिए  किन्तु व्यवहार में पुलिस अनावश्यक गिरफ्तारियां करती है व  मजिस्ट्रेट फिर भी जमानत से इंकार कर अभिरक्षा में भेजते रहते हैं | यदि स्वयं गिरफ़्तारी ही अनावश्यक एवं अन्यायपूर्ण हो तो अभिरक्षा किस प्रकार न्यायोचित हो सकती है |

इंग्लैंड में अपराधों का वर्गीकरण भी दोषारोपण योग्य ,सारांशिक कार्यवाही योग्य , गिरफ़्तारी योग्य , गंभीर गिरफ़्तारी योग्य आदि हैं  तथा पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम 1984 की  धारा 24 के अंतर्गत पुलिस  द्वारा गिरफ़्तारी का अधिकार बड़ा सीमित है जबकि जमानत सम्बंधित कानून बड़ा उदार है | पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम 1984  , की  धारा 1 के अंतर्गत पुलिस के तलाशी के अधिकार भी सीमित हैं | जमानत अधिनियम 2000 की  धारा 21 के अंतर्गत बिना वारंट के गिरफ्तार करने पर अभियुक्त को पुलिस स्वयं जमानत पर छोड़ सकती है | इसी प्रकार आपराधिक  न्याय अधिनियम 2003 की  धारा 3 के अंतर्गत पुलिस थाने से बाहर भी पुलिस जमानत पर छोड़ सकती है | जमानत अधिनियम 2000 की  धारा 18  के अंतर्गत जमानत की  सुनवाई व्यक्तिगत भी हो सकती है |इंग्लैंड में अन्वीक्षा कानून बड़ा लचीला है | मात्र कुछ आपवादिक गंभीर अपराधों को छोड़कर अधिकांश अपराध या तो सारांशिक रूप में या वैकल्पिक रूप (दोषारोपण योग्य) में दोनों तरह से अन्वीक्षा योग्य हैं |

रिमांड व अभिरक्षा के विषय में भी इंग्लैंड का कानून जनता के लिए बड़ा उदार है | पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम की  धारा 44  के अंतर्गत  एक अभियुक्त को मजिस्ट्रेट द्वारा एक बार में अधिकतम 36 घंटे के लिए तथा कुल मिलकर 96 घंटे के लिए पुलिस को सौंपा जा सकता है एवं आपराधिक कानून अधिनयम 1977, की  धारा 42 के अंतर्गत अभिरक्षा की अधिकतम अवधि 28 दिन है | पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम की  धारा 44  के अंतर्गत  पुलिस द्वारा अभिरक्षा की मांग करने पर उसे शपथपत्र देना पडता है | ठीक इसके विपरीत एक अभियुक्त को हमारे  यहाँ मजिस्ट्रेट द्वारा एक बार में अधिकतम 15 दिन के लिए तथा कुल मिलकर 90 दिन  के लिए अभिरक्षा में  दिया जा सकता है | जब देश (1898 )में आवागमन के समुचित साधन नहीं थे तो मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के लिए 24 घंटे की अवधि उचित हो सकती थी किन्तु अब  हमारे कानून में व्यवस्था की जानी चाहिए कि  गिरफ़्तारी के बाद 12 घंटे के भीतर या थाने पहुँचने के 6  घंटे के भीतर , जो भी पहले हो ,  अभियुक्त को निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जायेगा चूँकि  मजिस्ट्रेट 24 घंटे ड्यूटी पर उपलब्ध रहता है |
हमारे संविधान के अनुच्छेद 20 (3) में अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य न देने का संवैधानिक अधिकार है किन्तु पुलिस यातनाएं एवं इस अधिकार का उल्लंघन आज देश में सर्वविदित हैं | हमारी संसद ने इस दिशा में किसी  कानून का निर्माण नहीं किया है | यद्यपि कुछ न्यायिक दृष्टांतों में इस अधिकार को माना गया है किन्तु न्यायिक दृष्टांत किसी अधिनियमित कानून का स्थान नहीं ले सकते तथा उन पर मत भेद रहता है | इंग्लैंड में अभियुक्त के चुप रहने के अधिकार व इसके परिणाम को भी आपराधिक  न्याय एवं लोक व्यवस्था अधिनियम 1994 की  धारा 34 तथा 35  के अंतर्गत परिभाषित कर रखा है |
आज पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु ,यातनाएं व अमानवीय व्यवहार एवं फर्जी मुठभेड़ में मृत्यु हमारे  यहाँ बड़ी सामान्य बातें बन गयीं हैं जिनके विषय में अलग से संहिताबद्ध कानून की  आवश्यकता है |ऐसे कानून में मोटर वाहन दुर्घटना अधिनियम के समान क्षतिपूर्ति के भी व्यापक समुचित प्रावधान होने चाहिए | इंग्लैंड में पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम 1984  की  धारा 83  के अंतर्गत पुलिस के विरूद्ध शिकायत का विधिवत तंत्र स्थापित है |

ब्रिटिश भारत में अंग्रेज न्यायाधीश हुआ करते थे अतएव उनके लिए गर्मी तथा सर्दी की छुटियाँ हुआ करती थीं किन्तु आज जब कार्यपालक न्यायालय बिना गर्मी की छुटियों के कार्यरत रहते हैं तो भारतीय न्यायधीशोंयुक्त न्यायिक न्यायालयों द्वारा गर्मी , सर्दी , दीपावली , दशहरा आदि की  लंबी छुटियों का कोई औचित्य नहीं है विशेषकर तब जबकि बकाया मामलों का न्यायलयों में अम्बार लगा हुआ है |वर्तमान में उच्च न्यायालय सामान्यतयावर्ष में 120 दिन के लिए लगते हैं | केंद्र सरकार ने बैंकों में छुटियों की संख्या वर्ष में 15 तक सीमित कर दी है | संविधान की  अनुसूची 7 की सूची 1 की प्रविष्टि 78 के अनुसार उच्च न्यायलयों में छुटियों का निर्धारण केंद्र सरकार के क्षेत्राधिकार में है अतएव उच्च न्यायालयों के वर्ष में न्यूनतम 190  कार्य दिवस सुनिश्चित करने हेतु सरकार को जनहित में अपना अधिकार प्रयोग करना चाहिए |

हमारी लोकतान्त्रिक व समाजवादी सरकार को चाहिए  कि उक्त विदेशी  कानूनों का भारतीय सन्दर्भ में लाभप्रद अध्ययन कर समुचित कानून बनाये |  

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