Saturday 21 May 2011

संवैधानिकता


सुप्रीम कोर्ट ने केरल राज्य बनाम उन्नी के निर्णय दिनांक 01.12.06 में कहा है कि प्रत्यायोजित विधायन की न्यायिक समीक्षा हेतु अतर्कसंगतता एक आधार है। किसी कानून की तर्कसंगतता या अन्यथा का निर्णय विभिन्न घटकों यथा व्यापार करने वाले व्यक्ति पर प्रभाव आदि द्वारा निष्चित किया जाना चाहिए। टोडी या षराब का व्यापार करने का किसी को कोई मूल अधिकार नहीं है लेकिन सभी लाईसेन्सधारियों के साथ समानता का बर्ताव होना चाहिए। यदि किसी अधीनस्थ कानून की वैधता या अन्यथा पर विचारण करना हो तो भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 आकर्शित होता है। जब किसी कानून में ऐसी षर्त है जिसे पूरा करना असंभव है तो कानून की अतर्कसंगतता मानी जावेगी। ऐसी स्थिति में राज्य का कर्त्तव्य है कि वह उसकी तर्कसंगतता प्रमाणित करे।
सुप्रीम कोर्ट ने आषाराम जैन बनाम टी. गुप्ता (एआईआर 1983 सु.को. 1151) में कहा है लोगों का व्यवस्थित एवं प्रभावी न्याय प्रषासन में वास्तविक एवं बाध्यकारी हित तथा महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि यदि न्याय प्रषासन इस प्रकार संपन्न नहीं किया जाये तो समस्त अधिकार एवं स्वतन्त्रताएंे नश्ट होने का खतरा है।
सुप्रीम कोर्ट ने पी.रामचन्द्र राव बनाम कर्नाटक राज्य के निर्णय दिनांक 16.04.02 में स्पश्ट किया है कि सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह त्वरित न्याय प्रदान करे विषेश रूप से अपराधिक कानून के क्षेत्र में और संविधान की उद्देषिका, अनुच्छेद 21, 19 और 14 से उद्भूत होने वाले न्याय के अधिकार से मनाही के लिए संसाधनों या अर्थाभाव कोई बचाव नहीं है। अब समय आ गया है कि भारत संघ और विभिन्न राज्य सरकारों को अपना संवैधानिक दायित्व समझना चाहिए और न्याय प्रदानगी निकाय का मजबूत करने की दिषा में कुछ ठोस कार्य करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम आर.के. षैवाल के निर्णय दिनांक 13.03.08 में कहा है कि इस प्रकार की योजना से उदभूत आवासन का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ई) तथा 21 के अर्थ में मौलिक अधिकार है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सरकार का कार्य अनुच्छेद 14 की मूल आवष्यकता को पूर्ण करना है अर्थात् समान रूप से स्थित लोगों को समानता से तथा समान संरक्षण देना है। अनुच्छेद 14 भारतीय संविधान का हृदय और आत्मा की तर्कसंगतता और औचित्य है।
सुप्रीम कोर्ट ने महावीर ऑटो स्टोर बनाम इण्डियन ऑयल कॉरपोरेषन (एआईआर 1990 सु.को.1931) में कहा है कि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान स्थिति जैसी परिस्थितियों में नागरिकों से व्यवहार करने में सरकारी उपकरणों के लिए तर्क का नियम और मनमाने भेदभाव के विरूद्ध नियम, उचित खेल तथा प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त लागू होते है। यद्यपि नागरिकों के अधिकार अनुबन्ध की प्रकृति के हैं, अनुबन्ध में षामिल होने या न होने का निर्णय करने का तरीका और उद्देष्य सुसंगतता की जांच, और तर्कसंगतता, प्राकृतिक न्याय, समानता और अभेदकारी प्रकृति का लेन देन आदि न्यायिक पुनरीक्षा के अधीन है। यदि पारदर्षिता नहीं हुई तो औचित्य धूमिल हो जायेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने थॉमस दाना बनाम पंजाब राज्य (1959 एआईआर सु.को. 375) कि दण्ड षब्द का प्रयोग अनुच्छेद 20 (1) में इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है। भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधानों में अपराधियों के लिए निम्नांकित दण्ड बताये हैं।
1. मृत्युदण्ड, 2. आजीवन कारावास, 3. कारावास जिसके दो प्रकार है अर्थात् कठोर यानी सक्षम तथा साधारण, 5. सम्पति की जब्ती तथा 5. अर्थदण्ड।
सुप्रीम कोर्ट ने मलिक मजहर सुल्तान बनाम उत्तरप्रदेष लोक सेवा आयोग के निर्णय दिनांक 03.04.06 में कहा है कि लम्बे समय तक खाली पड़े पदों को न भरना लोगों को न्यायिक अधिकारियों की सेवाओं से वंचित करता है। न्यायालयों में लम्बी बकाया सूची का एक कारण यह है ।सभी राज्य सरकारे, केन्द्र षासित प्रदेष और उच्च न्यायालयों को इस प्रकार निर्धारित समय-सारणी को फाइल करने के निर्देष दिये जाते है और ऐसी तिथि जिससे यह समय सारणी प्रभावी होगी। उक्त सभी को इस उद्देष्य के लिए समय सारणी लेने का निर्देष दिया जाता है कि ताकि प्रतिवर्श खाली पदों को समय पर भरा जा सके।
सुप्रीम कोर्ट ने आर.के.जैन बनाम भारत संघ (एआईआर 1993 सु.को. 1769) में कहा है कि तीसरी श्रेणी के वे मामले है जहां मंत्री या अधिकृत सचिव के स्तर पर राश्ट्रपति के नाम से निर्णय लिया जाता है जो कि न्यायिक संवीक्षा से सुरक्षित नहीं है और न्यायालयों में परीक्षण तथा अन्वीक्षण कराये जाने हैं। यदि जनहित के दृश्टिकोण से अनुच्छेद 74 (2) या साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 के अन्तर्गत सुरक्षा मांगी जाती है तो न्यायालय पहले कैमरे में विचार करेगा और उपरोक्तानुसार मुद्दे का निर्णय करेगा। यह सुरक्षा प्रषासनिक पक्ष से नहीं मांगी जानी चाहिए बल्कि वैध संसुगत और सषक्त कारणों या आधारों पर फाईल किये जाने वाले षपथ पत्र में कही जानी चाहिए।
संपत कुमार बनाम भारत संघ (एआईआर 1987 सु.को. 386) में इसी न्यायालय ने धारित किया है कि न्यायालय का प्राथमिक कर्त्तव्य संविधान और कानूनों की व्याख्या करना है और यह तय करने के लिए न्यायपालिका सर्वाधिक उपयुक्त है। क्योंकि न्यायपालिका ही इस क्षेत्र में अनुभव रखती है और दूसरा यदि कार्यपालिका पर उनके खुद के कृत्यों की वैधता का निर्णय करना छोड़ दिया जाये तो नागरिकों को दिये गये संवैधानिक तथा कानूनी संरक्षण अपने आप में भ्रमजाल हो जायेंगे। यदि एक न्यायाधीष गैर न्यायिक ढंग से कार्य करता हे तो इससे न्यायिक स्खलन होगा और पीड़ित व्यक्ति के मन में अन्यायबोध उभरेगा। अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत इस न्यायालय में विषेश अनुमति याचिका का उपचार भी महंगा तथा मना करने वाला और दूर दराज के लोगों के लिए, जो इस न्यायालय तक पहंुचना वहन नहीं कर सकते हैं ,अवरोध है ।

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