Sunday 22 May 2011

निर्दयी कानून


सुप्रीम कोर्ट ने कुमारी श्रीलेखा विद्यार्थी बनाम उत्तर प्रदेष राज्य (एआईआर 1991 सु.को. 537) में कहा है कि जो व्यक्ति मनमानेपन का आक्षेप करता है उसे ही यह साबित करना होता है। प्रथम अवसर पर उसे यह दर्षित करना होता है कि विच्छेपित राज कार्य तर्क संगत नहीं है जिस पर यह आधारित है या यह षक्ति प्रयोग के निर्धारित तरीके के विपरीत है। यानि यह दर्षित कर दिया जाता है तब इस आक्रमण को खारीज करने का भार राज्य पर आ जाता है कि वह स्थापित करे कि उसका कृत्य/निर्णय तर्कसंगत है। यदि प्रथम दृश्टया मनमानेपन का प्रकरण स्थापित हो जाता है। राज्य यह दर्षित करने में असमर्थ है कि उसका निर्णय तर्कसंगत है तो राज्य कृत्य स्वेच्छाचारी होने से नश्ट हो जाना चाहिए। विवेकाधिकार सहित षक्ति सौंपना जिसमें स्वैच्छाचार न हो तथा जिस उद्देष्य के लिए सौंपा गया उसके साथ जनहित हो और व्यक्तिगत या निजी लाभ नहीं, और न ही कोई व्यक्तिगत उन्माद। समस्त व्यक्ति जिन्हें ऐसे अधिकार सौंपे जाते हैं उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि विधि के षासन के अन्तर्गत षक्ति प्रदानगी न्यायोचित ठहरायी जा सके।
मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय ने अजीतसिंह बनाम राज्य (2002 क्रि.ला.ज. 2256) में कहा है कि भ्रश्टाचार ने समाज को जोंक की तरह जकड़ लिया है और  यथावांछित दण्ड लगाकर इसकी पकड़न ढीली की जा सकती है जिससे की रोकथाम वाला प्रभाव उत्पन्न हो।
सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दी हितरक्षक समिति बनाम भारत संघ के मामले (1990 एआईआर 851) में कहा है कि यह सुनिष्चित है कि प्रषासनिक, विधायी और राज्य कृत्य या अकृत्य के लिए मूल अधिकार लागू करने के लिए न्यायिक पुनर्विलोकन अनुमत और इस राज्य के लोगों के अधिकारों का निर्णय न्यायपालिका और न्यायिक मंचों को करना है न कि कार्यपालकों या प्रषासकों को।
सुप्रीम कोर्ट ने प. बंगाल राज्य बनाम भारत संघ ( 1963 एआईआर  1241) में कहा है कि भारत की संप्रभुता यहां के लोगों में निहित है जिन्होंने कि उद्देषिका में लिखित उद्देष्यों के लिए भारत को संप्रभु लोक तन्त्रात्मक गणराज्य के रूप में अंगीकार किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने एम. नागराज बनाम भारत संघ के निर्णय दिनांक 19.10.06 में कहा है कि समतावादी समानता की अवधारणा समता पर आधारित है और यह अपेक्षा करती है कि राज्य अपनी लोकतन्त्रात्मक षासन व्यवस्था के ढांचे के भीतर समाज के पिछड़े लोगो के पक्ष में सकारात्मक कार्य करें।
पटना उच्च न्यायालय ने डॉ. अवध किषोर प्रसाद यादव बनाम बिहार राज्य (1994 (2) बीएलजेआर 1203) में कहा है कि विष्वविद्यालय के विच्छेपित आदेष और सहमति के निरस्तीकरण से याचीगण के अधिकारों पर- सिविल एवं वितिय प्रभाव - डाला है। इस अकेले कारण से मेरा यह विचार है कि प्राकृतिक न्याय तथा स्वच्छ खेल के नियम यह मांग करते हैं कि ऐसी कार्यवाही करने से पूर्व याचीगण को अवसर दिया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने गंगाकुमार श्रीवास्तव बनाम बिहार राज्य (एआईआर 2005 सु.को. 3123) में कहा हे कि 1. इस न्यायालय के अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत अधिकार पर्याप्त विस्तृत है लेकिन तथ्यों पर निश्कर्श में सहमति वाले आपवादिक मामलों में ही यह न्यायालय हस्तक्षेप करता है। 2.यदि उच्च न्यायालय अर्थान्वयन अन्यथा अनुचित रूप से भटक गया है तो यह न्यायालय उसके निश्कर्शों में हस्तक्षेप के लिए स्वतन्त्र है। इस न्यायालय के लिए अनुच्छेद 136 की षक्तियों का प्रयोग करना बहुत ही अपवादिक मामलों में खुला है जबकि आम नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण विधि का प्रष्न उठता है या निर्णय से न्यायालय की आत्मा को आधात लगता है। 3. जबकि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य विष्वनीयता एवं स्वीकार्यता की जांच में कम पड़ती है और इस पर कार्यवाही करना अत्यधिक असुरक्षित है और 5. साक्ष्य और निश्कर्श का मूल्यांकन प्रक्रिया सम्बन्धि कानून की भूल से दूशित है या प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के विपरीत है। अभिलेख सम्बन्धी भूल और साक्ष्य का गलत पठन या जहां उच्च न्यायालय द्वारा निश्कर्शों में स्पश्ट भटकाव और अभिलेख पर साक्ष्य द्वारा असमर्थनीय हो।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमप्रकाष रेखी बनाम भारत संघ (एआईआर 1981 सु.को. 212) में कहा है कि जब एक व्यक्ति राज्य के एजेण्ट या उपकरण के रूप में कार्य करता है तो षक्ति सार्वजनिक है। इसलिए इस बात की तलाष करनी है क्या अधिनियम राज्य के एजेण्ट या उपकरण के रूप में षक्ति देता है जिससे स्वयं के या अन्यों के कानूनी सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ता है। अब यह राज्य का कृत्य है कि वह विचार अभिव्यक्ति, विष्वास और पूजा की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय सुरक्षित करने के लिए कार्य करे और हैसियत तथा अवसर की समानता सुनिष्चित करे। हमें संविधान के मौलिक सिद्धान्तों के जीवन सार पर चर्चा करनी चाहिए कि क्या हम लोगों के मूल अधिकारों को कागजी आषाओं तक सीमित रखकर लोगों को भोंदू बना रहे है। इस आधारभूत विष्वास के संरक्षण के लिए न्यायिक षाखा ऐसा विष्वास भंग नहीं करेगी जिस व्याख्या से लोगों के अधिकारों से राज्य मुक्त हो जाये। इसी प्रकार गहन सरकारी नियंत्रण यह संकेत देता है कि निगम सरकारी एजेन्सी या उपकरण है। सामाजिक न्याय हमारे संविधान की अन्तरात्मा है। राज्य आर्थिक न्याय, जो कि आधारभूत विष्वास है, जिस पर हमारा संविधान टिका हुआ है का प्रोन्नतकर्ता है और वह देष भारतीय मानवता है। कानून और न्याय के बीच में आपसी तालमेल होना चाहिए और हमारी संवैधानिक योजना में निर्दयी कानूनी नहीं अपितु मानवीय वैधता है। हमारी षासन व्यवस्था की सच्ची षक्ति एवं स्थिरता समाज की सामाजिक न्याय में विष्वसनीयता है, न कि पूर्णतया कानूनीकरण।

No comments:

Post a Comment