Sunday 15 May 2011

वकीलों का आचरण


वकीलों के सम्बन्ध में:ः-
सुप्रीम कोर्ट ने हरिषंकर रस्तोगी बनाम गिरधारी षर्मा (ए.आई.आर. 1978 सु0को0 1019) में स्पश्ट किया है कि एक व्यक्ति जो वकील नहीं है अधिकार के रूप न्यायालय में पैरवी नहीं कर सकता तथा एक पक्षकार की ओर से बहस करने का दावा नहीं कर सकता। उसे न्यायालय से पूर्व अनुमति लेनी ही चाहिए जिसका प्रस्ताव स्वयं पक्षकार द्वारा आना चाहिए। न्यायालय के विवेकाधिकार में है कि वह अनुमति दे या रोके। वास्तव में न्यायालय अनुमति को बीच में भी वापिस ले सकता है यदि प्रतिनिधि दोशी साबित होता है । चरित्र, सम्बन्ध, निजी व्यक्ति को सेवाएं लेने के कारण और बहुत सी अन्य परिस्थितियांे पर अनुमति देने या मना करने से पूर्व विचार किया जाना चाहिए। प्रस्तुत मामले में मैंने देखा है कि वे दोनों आपसी विष्वास से साथ-साथ आये हैं। मुझे भी निजी व्यक्तियों के संगठनों पर दिषाहीन पक्षकार के षोशण पर संदेह करना चाहिए था किन्तु संदेह किसी निश्कर्श का आधार नहीं होना चाहिए। अतः जो पक्षकार अपना मामला स्वयं प्रस्तुत करने में असमर्थ है उसे अपनी व्यथा मित्र के माध्यम से कहने की अनुमति देना ठीक रहेगा। जो टिप्पणियां तैयार कर रखी है उन्हें देखने से लगता है वह मित्र कानून से परिचित है यद्यपि मूर्ख मित्र दुर्भाग्यपूर्ण हो सकते हैं। 
सुप्रीम कोर्ट ने डी.पी.चढ्ढा बनाम त्रिपुरी नारायण मिश्रा (2001 (2) एस.सी.सी. 221) में कहा है कि कर्त्तव्य निर्वहन में पारस्परिक सद्विष्वास और बार तथा बेंच के मध्य मधुर सम्बन्ध रथ को सौहार्दपूर्ण गति प्रदान करते है। जैसा कि उन्हें न्यायालय के जिम्मेदार अधिकारी कहा जाता वे न्याय के उचित प्रषासन में न्यायालय की न्यायोचित सहायता करने का दायित्व निभाते हैं। एक वकील को निर्विवादित और न्यायपालिका को सही कानूनी सिथति बताने के साथ स्वीकार करने में झिझक नहीं होनी चाहिए। एक वकील न्यायालय का अधिकारी होने के नाते न्यायाधीष केा कानून की सही स्थिति बतायेगा चाहे वह किसी भी पक्षकार के पक्ष में या विरूद्ध में हो।
सुप्रीम कोर्ट ने एम.वाई. षरीफ बनाम नागपुर उच्च न्यायालय के न्यायाधीष (1995 ए.आई.आर. 19) के मामले में कहा है कि यह घोशणा सार्वजनिक रूप से की जानी चाहिए कि ऐसे वकील जो तर्कसंगत रूप से स्वयं को संतुश्ट किये बिना यदि न्यायालय को बदनाम करने वाले आवेदन पत्र हस्ताक्षरित करते हैं या न्याय के रास्ते केा अवरूद्ध  करने या विलम्ब करने वाला कार्य करते हैं तो अवमान के दोशी हैं और वकील का ऐसे आवेदन पत्र हस्ताक्षरित करने का कोई कर्त्तव्य नहीं है। अपितु अपने मुवक्किल को ऐसा करने से मना करने की सूचना देनी चाहिए। एक मर्यादित क्षमायाचना इस न्यायालय द्वारा विचार की जाती है।
इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने के.ए. मोहम्मद अली बनाम सी.एन. प्रसन्न (ए.आई.आर.1995 सु.को. 454) में कहा है कि यह सभी को स्मरण रखना चाहिए कि वकील न्यायालयों के लिए बनाये जाते हैं न कि न्यायालय वकीलों के लिए।
पटना उच्च न्यायालय ने (एआईआर 1986 पटना 65 में ) कहा है कि हम न्यायाधीष तथा बार (वकील) न्यायालय के दो पांव है और हम सभी जो कि पूर्ण बेंच का निर्माण करते है और विपक्षी पहले से ही बार के सदस्य है।

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