Wednesday 11 May 2011

लोक सेवक और हम -2


सुप्रीम कोर्ट ने एस.पी.भटनागर बनाम् महाराश्ट्र राज्य (1979 ए.आई.आर. सु.को. 826) में कहा है कि पद के दुरूपयोग को साबित करने के लिए आवष्यक है कि दोशी ने बेईमानी के इरादे से सरकार को जानबूझकर हानि पहुंचायी है। अभियोजन द्वारा संग्रहित परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से हमारे विचार में अचूक निष्चितता से इस निश्कर्श पर नहीं पहुंचा जा सकता कि अभियुक्त सं0 1 व 2 ने किसी बेईमानी, भ्रश्ट उद्देष्य या अपने पद का दुरूपयोग कर कार्य किया हो। भ्रश्ट या अवैध साधनों से या अन्यथा दुरूपयोग हो सकता है। षब्द अन्यथा का विस्तृत अर्थ है और यदि इस पर मर्यादा न लगाई जावे तो षब्द ‘भ्रश्ट’ ‘अवैध’ और ‘अन्यथा’ फालतू हो जायेंगे क्योंकि इसमें पद का प्रत्येक दुरूपयोग समाविश्ट हो जायेगा। इसलिए इस षब्द पर कुछ सीमा लगाना आवष्यक है और सीमा यह है कि यह षब्द पिछले षब्दों से अपना असर लेता है अर्थात् कहने का अभिप्राय यह है कि अपने कृत्यों मंे बेईमानी के कुछ स्वाद से है।
सुप्रीम कोर्ट ने एन.नगेन्द्र राव एण्ड कम्पनी बनाम आन्ध्र प्रदेष राज्य (ए.आई.आर. 1994 सु.को. 2663) में कहा है कि कोई भी सभ्य निकाय एक सरकारी अधिकारी को देष की जनता के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं दे सकता और वह यह दावा नहीं कर सकता कि वह जो चाहे कर सकता है क्योंकि वह संप्रभु है। समाज के ढांचागत परिवर्तन के साथ ही सार्वजनिक हित की अवधारणा बदल गयी है। कोई भी कानूनी या राजनैतिक प्रणाली आज राज्य को कानून से ऊपर नहीं मानती है क्योंकि राज्याधिकारियों की लापरवाही से किसी नागरिक को बिना किसी उपचार के सम्पति से वंचित करना अन्यायपूर्ण एवं अनुचित है। उन्नीसवी सदी के न्यायिक व्यक्ति के रूप में राज्य की सत्यनिश्ठ दक्षता और गरिमा को प्राप्त सुरक्षा चक्र दूर हो गया है और अब स्वतन्त्रता, समानता तथा विधि के षासन पर बल दिया जा रहा है। प्रगतिषील समाज की आधुनिक सामाजिक विचारधारा और न्यायिक दृश्टिकोण राज्य या सरकार को न्यायिक कानूनी व्यक्तित्व की भांति मानता है। राज्य के कार्यों को ‘संप्रभु व ‘गैर-संप्रभु’ या ‘राजकीय’ और ‘अराजकीय’ मंे कड़ाई से विभाजित करना अच्छा नहंी है। यह आधुनिक न्यायिक विचारधारा के विपरीत है। किन्तु जब ऐसी षक्तियों किसी कानून के आनुशंगिक या सहायक के तौर उसके उद्देष्यों की पूर्ति में सौंपी जाती है तो ऐसा कृत्य जो राज्य का प्राथमिक या आगे सौंपने योग्य कृत्य नहीं है यदि एक अधिकारी लापरवाहीपूर्वक कार्य करता है तो वह व्यक्तिगत रूप से एवं राज्य प्रतिनिधिरूप से जिम्मेदार है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने रविषंकर श्रीवास्तव बनाम राजस्थान राज्य (आर.एल.डब्ल्यू. 2005(3) राज. 1736) में कहा है कि याची ने अपने जयपुर कार्यालय से दूर रिष्वत ली है और प्रकरण के गुणावगुण पर विचारण किये बिना, चूंकि अन्वीक्षण प्रारम्भ हो चुका है,  इस निर्णय के मद्देनजर यह प्रष्न अन्वीक्षण के साथ उठा सकता है। यह याची के लिए है कि वह अन्वीक्षण न्यायालय में प्रष्न उठाये कि स्वीकृति आवष्यक है या नहीं। जहां वह सेवा कर रहा हो वहां की राज्य सरकार द्वारा ऑल इण्डिया सेवा के सदस्य को नियम 3 के अन्तर्गत निलम्बित किया जा सकता है। राज्य सरकार निलम्बित करने, जांच करने और कानूनी प्रावधानों के अनुसार षिकायत व ऐसे व्यक्ति के विरूद्ध एफ.आई.आर. दर्ज करवाने के लिए सषक्त है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने प्रतापसिंह बनाम राजस्थान राज्य (1991 क्रि.ला.रि. राज0 125) में कहा है कि चूंकि याची ने वारंट और नोटिस नहीं लिया इसलिए जो कार्य उसके द्वारा किया जाना चाहिए था वह नहीं करके अपराध किया है। यह चूक और लापरवाही याची की ओर से उसके षासकीय कृत्यों के निर्वहन में हुई है। मेरे विचार से जिस कार्य को करने की षिकायत है और लोक सेवक के नाते याची का जो कर्त्तव्य है। इसलिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 187 और 218 के अन्तर्गत अभियोजन हेतु स्वीकृति आवष्यक है।
सुप्रीम कोर्ट ने बक्सीससिंह बराड़ बनाम गुरूमेज कोर (1987 क्रि.लॉ.रि. सु.को. 649) में कहा है कि लोक सेवक को उसके षासकीय कृत्यों के निर्वहन में संरक्षित किया जाना आवष्यक है। उन्हें अभियोजन एवं आपराधिक कार्यवाही से तंग करने से बचाव के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 196 और 197 के पीछे यही अवधारणा है। समान रूप से यह भी आवष्यक है कि नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा की जाये और कोई भी ज्यादती की अनुमति नहीं दी जाय। यह सही है कि धारा 196 कहती है कि कोई भी प्रसंज्ञान नहीं लिया जाये और यदि प्रसंज्ञान के बाद यह प्रकाष में आता है कि जिन कृत्यों की षिकायत है वे षासकीय कृत्यों के निर्वहन में हुए थे तो जब तक कि अभियोजन स्वीकृति प्राप्त नहीं कर ली जाती अन्वीक्षा को रोक दिया जाय । ठीक इसी समय इस बात पर भी बल दिया जाना चाहिए कि आपराधिक अन्वीक्षा प्रारम्भिक चरण में कभी नहीं रोकी जानी चाहिए क्योंकि इससे साक्ष्य को गंभीर नुकसान पहंुच सकता है। मामले के तथ्यों के विशय में हमारा विचार है कि विद्वान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीष कपूरथला द्वारा पारित आदेष उचित है और इसमें हस्तक्षेप से मनाही करके उच्च न्यायालय ने भी ठीक ही किया है अतः हम इस याचिका को खारिज करते हैं।

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