Thursday 19 May 2011

वैधता और पुराने कानून


इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने जे.बी. चोपड़ा बनाम भारत संघ (ए.आई.आर.1967 सु.को. 357) में धारित किया है कि यह अर्थ निकलता है कि प्रषासनिक ट्राईब्यूनल (अधिकरण) उच्च न्यायालय का स्थानापन्न है तथा आवष्यकीय क्षेत्राधिकार, षक्ति तथा अधिकार है कि सेवा सम्बन्धित मामलों में समस्त मामलों, यहां तक कि संविधान के अनुच्छेद 14 तथा 16 (1), की वैधता या अन्यथा व्यवहृत कर विनिष्चय करने का है।
इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने एल.चन्द्रकुमार बनाम भारत संघ (ए.आई.आर. 1997 सु.को. 1125) में स्पश्ट किया है कि हमारे समक्ष यह तर्क रखा गया है कि जब विधायन की वैधता के प्रष्न का मुद्दा उठाया जाये तो ट्राईब्यूनल को उसका निर्णयन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और उन्हें मात्र उन मुद्दों तक सीमित रहना चाहिए जहां संवैधानिक मुद्दे नहीं उठाये जाते हैं। हम उक्त प्रस्ताव से सहमत नहीं है क्योंकि इससे कार्यवाही बंट जायेगी और परिहार्य विलम्ब होगा। यदि ऐसा दृश्टिकोण अपनाया गया तो विवाद्यकों के लिए संवैधानिक मुद्दे उठाना खुला रहेगा जिसमें से कुछ बिल्कुल बनावटी हो सकते हैं और वे सीधे उच्च न्यायालय जायेंगे व ट्राईब्यूनल के क्षेत्राधिकार का सत्यनाष कर देंगे। चूंकि इन विषाखाओं में भी कुछ संवैधानिक मामले नियमित रूप से उठते रहते हैं, उदाहरणार्थ सेवा सम्बन्धित मामलों में अनुच्छेद 14,15 और 16 की व्याख्या अंतर्वलित हो सकती है। यदि यह धारित किया जावे कि ट्राईब्यूनल को संवैधानिक मुद्दे व्यवहृत करने का कोई अधिकार नहीं है तो जिस उद्देष्य के लिए उनकी स्थापना हुई थी वही विफल हो जायेगा।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने इसी क्रम में प्रेम नारायण षर्मा बनाम राजस्थान राज्य (आर.एल.डब्ल्यू 2005 (4) राज 2916) में स्पश्ट किया है कि राजस्थान सि.से.अ. ट्राईब्यूनल को अनुच्छेद 14 तथा 16 (1) के उल्लंघन सहित समस्त प्रकरणों जिनमे संवैधानिकता या अन्यथा का मुद्दा षामिल है सहित सभी सेवा सम्बन्धित मामलों के निर्धारण का अधिकार है और यह प्रक्रियागत तकनीकियों के बहाने पर क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से मना नहीं कर सकती। जब सारभूत न्याय और तकनीकियां आमने-सामने हो तो ट्राईब्यूनल को तकनीकियों को छोड़कर सारभूत न्याय देने में आगे आना चाहिए।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एयरसेल डिजीलिंक इंडिया लि. बनाम नगर निगम इलाहाबाद (2000 (1) ए.डब्ल्यू.सी. 562) में कहा है कि याची यह स्थापित करने में पूरी तरह विफल रहा है कि भवन की हालत ऐसी है जिस पर 60 फिट ऊँचा टॉवर छत पर बनाया जा सके, जो गिरेगा नहीं तथा वहां रहने व वहां से होकर गुजरने वाले लोगों के लिए खतरनाक साबित नहीं होगा। अतः हमारा विचार है कि निगम द्वारा जारी नोटिस न तो स्वैच्छाचारी है और न ही दुर्भावनावपूर्ण और न ही षक्तियों का रंगीन प्रयोग है।
सुप्रीम कोर्ट ने मिठू बनाम पंजाब राज्य (ए.आई.आर. 1983 473) में कहा है कि ऐसा लगता है कि उनके मानस में एक किस्म का मामला था कि आजीवन कारावास से दण्डित व्यक्ति द्वारा जेल अधिकारियों की हत्या करना। यह स्मरणीय है कि उन दिनांे में जेल अधिकारी प्रायः विदेषी -अधिकांष अंग्रेज होते थे और कुछ प्रावधान विषेशतः उनके अनुकूल बनाये जाते थे, न्यायिकगणों की पसंद के अनुसार धारा 303 देषीय जाति के लोगों द्वारा सफेद अधिकारियों पर हमले रोकने के लिए अधिनियमित की गयी थी। विधि आयोग की 42वीं रिपोर्ट में कहा गया है कि इस धारा के अन्तर्गत मृत्यदण्ड का प्राथमिक उद्देष्य जेल के स्टाफ को सुरक्षा प्रदान करना है। एक आजीवन कारावासी को जेल के अन्य साथी द्वारा उसकी पत्नी के सतीत्व पर लांछन लगाकर गंभीर किन्तु अचानक नहीं या अचानक किन्तु गंभीर प्रकोपन किया जा सकता है, । यदि वह प्रकोपक की हत्या करता है तो धारा 303 के तहत एक मात्र दण्ड मृत्युदण्ड है। प्रष्न यह है कि क्या उसे न्यायालय को इस बात से संतुश्टि के अवसर से वंचित करना उचित है कि उसने हत्या का अपराध उसकी पत्नी की गंभीर मानहानि करने पर किया, अतः उसे मृत्यदण्ड नहीं दिया जाये। हमारे विचार से आजीवन कारावास से दण्डित व्यक्ति द्वारा जेल की चार दीवारी के भीतर हत्या करने के लिए मृत्यु दण्ड निर्धारित करना तर्कसंगतता के उत्तर में कठिन है। अब आजीवन कारावासित व्यक्ति द्वारा दूसरी श्रेणी के अपराध जिन्हें वह पैरोल या जमानत पर होकर करता है पर विचारण हेतु लिए जाते हैं। यदि आजीवन कारावासित व्यक्ति जमानत या पैरोल पर रिहाई होने पर पाता है कि उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर पड़ौसी ने उसकी पत्नी के साथ अनुचित सम्बन्ध स्थापित कर लिये हैं। यदि वह उन्हें आपतिजनक अवस्था में पाता है और बहलाने वाले की गोली मारकर हत्या कर देता है तो उसके हत्या के आरोप से बचने के पर्याप्त अवसर है क्योंकि प्रकोपन गंभीर एवं अचानक है।

1 comment:

  1. deep flaxibility and political pressure is the main reason for the decay of indian judiciary. quoted examples in your articles are very few but if we go in details then no. of similar cases can be observe. shortly speaking it can only we reformed when hard core process and implementation will not be adopted.

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