Saturday 28 May 2011

हमारा सुप्रीम कोर्ट और उसकी मनमानी व्याख्याएं


सुप्रीम कोर्ट ने मुनिसिपल कमेटी पटियाला बनाम मॉडल टाऊन निवासीगण के निर्णय दिनांक 01.08.07 में स्पश्ट किया है कि यह सुनिष्चित है तथा बार-बार कथन की आवष्यकता नहीं है कि अपने क्षेत्र में संविधान में प्रावधान की गई मर्यादा के अधीन विधायिका ही सर्वोपरि है। विधायिका को ही यह तय करना है कि किस विशय में कब और कैसे कानून बनाये जाने हैं। जब जन भावना से ओतप्रोत कोई व्यथित व्यक्ति या सामाजिक कार्यकर्ता समूह न्यायलय पहंुचता है या न्यायालय यह पाता है कि किसी कार्यपालक ने अपने संविधान सम्मत कर्त्तव्यों के निर्वहन में विफल रहा है जिससे गरीब और वंचित व्यक्ति को षोशण और अन्याय वहन करना पड़ रहा है या कोई सामाजिक कानून जो उनके लाभ के लिए अधिनियमित किया गया है, लागू नहीं किया जाता है न्यायालय को अवष्य ही हस्तक्षेप करना चाहिए और कार्यपालक को अपने कानूनी तथा संवैधानिक दायित्वों को पूर्ण करने के लिए विवष करना चाहिए और सुनिष्चित करना चाहिए कि समाज के वंचित और क्षतिग्रस्त व्यक्ति षोशण और अन्याय के षिकार न हो व वे अपना सामाजिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त कर सकें।
सुप्रीम कोर्ट ने चिरंजीत लाल चौधरी बनाम भारत संघ (एआईआर 1951 सु.को. 41) में कहा है कि अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत सुप्रीम कोर्ट को रिट बनाने के मामले में व्यापक विवेकाधिकार है जिसके माध्यम से मामले विषेश की परिस्थितियों की आवष्यकतानुसार और इस अनुच्छेद के अन्तर्गत कोई आवेदन पत्र मात्र इस आधार पर फैंकी नहीं जा सकती कि उसमें उचित रिट के लिए समुचित आधार अथवा उचित राहत के लिए निर्देष हेतु प्रार्थना नहीं की गयी है।
सुप्रीम कोर्ट ने ई.पी.रियोअप्पा बनाम तमिलनाडू राज्य के निर्णय (1974 एआईआर 555) में कहा है कि जब कोई कार्य स्वैच्छाचारी है यह स्पश्ट है कि यह राजनीतिक तर्क और संवैधानिक कानून दोनों के अनुसार असमान है और इसलिए यह अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में है और यदि यह किसी सार्वजनिक रोजगार को प्रभावित करता है तो यह अनुच्छेद 16 का भी उल्लंघन करता है। उनकी अपेक्षा है कि राज्य कार्य सुसंगत नियमों के अनुरूप हो जो कि समान रूप से है। यह किसी बाहरी या असंगत विचारण से निर्देषित नहीं होने चाहिए क्योंकि ऐसा करना समानता से मनाही होगा। दुर्भावनापूर्ण षक्ति का प्रयोग और मनमानापन एक ही दूराचार से निकलने वाले अलग-अलग घातक हथियार हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अषोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ के निर्णय दिनांक 10.04.08 में कहा है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह मानववाद तथा वैज्ञानिक दृश्टिकोण का विकास करे। उसका मूलभूत कर्त्तव्य है कि वह सभी क्षेत्रों में व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों में उत्कृश्टता की ओर आगे बढ़े ताकि देष हमेषा उच्च उपलब्धियों की ओर आगे बढ़ता रहे। राज्य सभी नागरिकों का समूह है इसलिए अनुच्छेद 51 ए के अन्तर्गत राज्य पर स्पश्टतया कोई मूल कर्त्तव्य नहीं डाला गया है। अपितु तथ्य यह है कि हर नागरिक का सामूहिक कर्त्तव्य राज्य का कर्त्तव्य है जो कि मुद्दे के हल करने के लिए केवल निर्देष के रूप में ही वहीं काम करता बल्कि न्यायालयों द्वारा दी जाने वाली राहत को बनाने में भी कार्य करता है। मूल कर्त्तव्यों का संवैधानिक विधायन यदि इसका कोई अर्थ हो तो न्यायालयों द्वारा इसे सहारे के रूप में प्रयोग करना चाहिये यहां तक कि राज्य के संवैधानिक मूल्यों से भटकते हुए कार्य को मना करने के लिए भी प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति, वर्ग या क्षेत्र का हित राश्ट्र हित से बड़ा नहीं है।
रितेष तिवाड़ी बनाम उत्तर प्रदेष राज्य में निर्णय दिनांक 21.09.10 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सिविल प्रक्रिया के अन्तर्गत सुनवाई और रिट या जवाबी हलफनामों में फर्क है। एक दावे या लिखित कथन में तथ्यों का उल्लेख होता है या साक्ष्यों का नहीं। एक रिट या जवाबी हलफनामें में केवल तथ्य ही नहीं अपितु प्रमाण में तथ्यों को भी कथन तथा संलग्न करना पड़ता है।
सुप्रीम कोर्ट ने श्रीमती षैलवी बनाम कर्नाटक के निर्णय दिनांक 05.05.10 में कहा है कि हम धारित करते हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के साथ प्रष्न के उत्तर के लिए चाहे आपराधिक मामले में अनुसंधान हो या अन्यथा कोई जबरदस्ती नहीं की जायेगी। ऐसा करने का अभिप्राय व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में अनुचित हस्तक्षेप होगा फिर भी हम इस बात को अनुमत करते हैं कि इन तकनीकों के आपराधिक न्याय में प्रयोग के लिए स्वैच्छिक प्रषासन के लिए स्वतन्त्रता देते हैं कि बषर्ते कुछ सुरक्षा उपाय अपनाये जाये। यहां तक कि सहमति देने वाला व्यक्ति इन तकनीकों से गुजरता है तो भी उन्हें साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि इन जांचों से गुजरते समय वह होष हवास में नहीं रहता फिर भी यदि इस सूचना के आधार पर बाद में साक्ष्य खोजा जाता है तो साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 27 के अन्तर्गत प्रयोग किया जा सकता है।

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