Wednesday 25 May 2011

हमारे अधिकार


सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल राज्य बनाम उम्मेद राम षर्मा (1986 एआईआर 847) में कहा है कि सड़क तक पहंुच अपने आप में जीवन तक पहुंच है। यह प्रस्ताव सुस्थापित है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने नाज फाउन्डेषन बनाम दिल्ली सरकार के निर्णय दिनांक 02.07.09 में कहा है कि यह हमारे संविधान के मूलभूत सिद्धान्तों में है कि राज्य का प्रत्येक अंग और अधिकारी अपने अधिकार या षक्ति संविधान से प्राप्त करता है और उसे इन षक्तियों की सीमाओं के भीतर कार्य करना पड़ता है। न्यायपालिका का गठन संविधान के अन्तिम व्याख्याकार के रूप में हुआ है और इसे ये निर्धारित करने का संवेदनषील कार्य दिया गया है कि सरकार की प्रत्येक षाखा को दिये गये अधिकार का क्षेत्र तथा उनका विस्तार क्या है ? संविधान के अन्तर्गत ऐसी षक्तियां प्रयोग करने की सीमाएं क्या है ? और क्या किसी षाखा का कोई कार्य इन सीमाओं का अतिक्रमण करता है? न्यायपालिका की भूमिका मूल अधिकारों की रक्षा करना है। आज का लोकतन्त्र जो कि बहुमत षासन के सिद्धान्त पर आधारित है। गर्भित रूप से इस सिद्धान्त को मान्यता देता है कि जो बहुमत के दृश्टिकोण से विमत या विमुख होते हैं उनके मूल अधिकारों की रक्षा करे। न्यायपालिका का यह सुनिष्चित करना कर्त्तव्य है कि वह इस बात में सन्तुलन स्थापित करे कि सरकार संख्या बल के आधार पर मूलभूत अधिकारों पर अभिभावी न हो जावे।
कलकता उच्च न्यायालय ने राज्य बनाम भारत संघ (एआईआर 1996 कल 181) में स्पश्ट किया है कि लोकहित वाद विधिक सहायता अभियान की विषेश भुजा है जो कि न्याय लाने का उद्देष्य रखती है। विधि के षासन का यह अभिप्राय नहीं है कि कानून का संरक्षण कुछ भाग्यषाली लोगों को ही मिले या निहित हितों को विधि का दुरूपयोग करने की अनुमति दी जाय।
सुप्रीम कोर्ट ने अनिल यादव बनाम बिहार राज्य (एआईआर 1982 सु.को.1008) के निर्णय में कहा है कि सत्य की अपने आप में प्रकट होने की अजीब प्रवृति है। अर्जुन गोस्वामी नामक कैदी को भागलपुर केन्द्रीय जेल में भेजा गया था उसने 20 नवम्बर 1979 को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को आवेदन पत्र भेजा कि उसे दी गई यंत्रणा - विषेश रूप से उसे आखों से अंधा करने -की जांच की जाय । बाद में 11 अन्य कैदियों ने भागलपुर के सत्र न्यायाधीष को ऐसी ही षिकायतें भेजी तथा ध्यान देकर तुरन्त कार्यवाही का आग्रह किया। लेकिन आरोपों के विशय में पूर्ण एवं उचित जांच करने के स्थान पर विद्वान सत्र न्यायाधीष ने बड़ा ही संवेदनहीन एवं ठंडा जवाब भेजा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में किसी भी षिकायतकर्ता को वकील उपलब्ध करवाने का प्रावधान नहीं है। अतः विधि अनुसार उपयुक्त कार्यवाही करने के लिए याचिकाएं मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अग्रेशित की जाती हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने भारत संघ बनाम राहुल रस्गोत्रा (एआईआर 1995 सु.को. 223) के मामले में कहा है कि यह उपयुक्त समय है कि दोशी लोगों को जवाबदेह ठहराया जाये और उनकी ओर से कमियों से हुई जनधन की हानि के लिए दायी ठहराया जावे। सरकार सबसे बड़ी विवाद्यक होने के कारण अनावष्यक मुकदमे बाजी को घटाने तथा यह सुनिष्चित करने के लिए आवष्यक मुकदमेबाजी का संचालन उचित रूप से हो सरकारी मषीनरी मंे आमूलचूल सुधार की आवष्यकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने एस.पी.गुप्ता बनाम भारत संघ (1981 सपली एस.सी.सी. 87) के प्रसिद्ध प्रकरण में कहा है कि जहां किसी व्यक्ति के साथ किसी कानून या संविधान के उल्लंघन द्वारा या अन्यथा कोई अवैध क्षति पहुंचायी जाती है और ऐसा व्यक्ति यदि गरीबी, असहायता या असमर्थता या सामाजिक या आर्थिक पिछड़ेपन के कारण न्यायालय में राहत के लिए पहुंचने में असमर्थ है तो समाज का कोई व्यक्ति उपयुक्त निर्देष, आदेष या रिट के लिए ऐसे व्यक्ति के लिए आवेदन पत्र से अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय और यदि ऐसे व्यक्ति के मूल अधिकार का हनन हुआ है तो कानूनी क्षति या अनुचित कृत्य के लिए न्यायिक उपचार हेतु अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत इस न्यायालय से मांग कर सकता है।

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