Monday 16 May 2011

संवैधानिकता


सुप्रीम कोर्ट ने बैंगलोर मेडीकल ट्रस्ट बनाम बी.एस. मुडप्पा (ए.आई.आर. 1991 सु.को. 1902) के मामले में स्पश्ट किया है जो कि कानून के उल्लंघन में षक्ति के प्रयोग को कानून में सुरक्षित रखी गयी सामान्य षक्तियों के संदर्भ में इसके प्रभावी एवं उचित ठहराव के लिए प्रयास नहीं किया जा सकता है। यह धारा सरकार को यह निर्देष जारी करने के लिए अधिकृत करती है कि कानूनी प्रावधानों की अनुपालना सुनिष्चित की जा सके न कि कानून के विपरीत कार्य करने के लिए सषक्त करती है। जो कार्य करने के लिए अधिनियम अनुमत नहीं करता उसे करने के लिए राज्य सरकार द्वारा वैध नहीं किया जा सकता। एक अवैधता मात्र इसलिए ठीक नहीं की जा सकती है क्योंकि यह सरकार ने की है। कानून से ऊपर कुछ भी नहीं है। लोकतन्त्र में कानून और नियम ही विद्यमान रहते हैं और षक्तियों के प्रयोग करने वाले व्यक्ति का कद नहीं। परिणामतः यह अपील निरस्त की जाती है और हम निर्देष देते है कि प्रत्यर्थीगण को सम्पूर्ण खर्चे दिये जावें।
दिल्ली हाईकोर्ट ने भारत संघ बनाम श्रीमती किरण बाला षर्मा के निर्णय दिनांक 03.02.10 में कहा है कि ट्राईब्यूनल ने जवाहर लाल नेहरू विष्वविद्यालय के मामले पर निर्भर रहते हुए धारित किया है कि नौकरी में स्थानान्तरण एक सामान्य घटना है जिस पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता और प्रषासनिक आवष्यकता के आधार पर स्थानान्तरण में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता जब तक कि अधिकारी की ओर से दुर्भावना साबित न हो जावे। यह धारित किया गया कि दुर्भावनायें दो प्रकार की हो सकती है। पहली तथ्य की दुर्भावना तथा दूसरी कानूनी दुर्भावना। आगे यह धारित किया गया कि यदि एक स्थानान्तरण आदेष ऐसे तथ्यों से उद्भूत नहीं होता जिन पर स्थानान्तरण आधारित है और कुछ अन्य असंगत या दण्डात्मक प्रकृति के आधारों से उत्पन्न होता हो तो उसे प्रषासनिक आवष्यकता नहीं कहा जा सकता और ऐसा स्थानान्तरण आदेष दण्ड के स्थान पर है और निरस्त करने योग्य है।
सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक राज्य बनाम विष्ववर्ती हाऊस बिल्डिंग कोऑपरेटिव सोसायटी (ए.आई.आर. 2003 सु.को. 1043) के प्रकरण में कहा है कि ये अर्द्धन्यायिक ट्राईब्यूनल है जिनका अस्तित्व उपभोक्ताओं को त्वरित व सस्ते में उपचार उपलब्ध कराने के लिए है। समान रूप से यह स्पश्ट है कि ये उपभोक्ता मंच/आयोग न्यायिक कार्य के पूरक है न कि प्रतिस्थापक । वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्तिकर्ताओं और उपभोक्ताओं के मध्य विवादों के निपटान हेतु कम खर्चीली एवं त्वरित न्याय प्रणाली हेतु अतिरिक्त मंच उपलब्ध करवाना है।
सुप्रीम कोर्ट ने नरोतम किषोर देव वर्मा बनाम भारत संघ(ए.आई.आर. 1964 सु.को. 1590)  के निर्णय में कहा है कि इस मामले को छोड़ने से पहले हम केन्द्र सरकार का ध्यान गंभीर रूप से आकर्शित करना चाहेंगे कि क्या धारा 87बी सिविल प्रक्रिया संहिता हमेषा के लिए जारी रखना आवष्यक है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारतीय राज्यों के राजाओं के साथ हुए करार को स्वीकार करना है और दिये गये विष्वास की अनुपालना करनी है। लेकिन कानून के समक्ष समानता के सिद्धान्त के आलोक में यह अजीब सा लगता है कि धारा 87बी हमेषा के लिए चलती रही। भूतकालीन लेन देनों और व्यवहारो के लिए भूतपूर्व भारतीय राज्य के राजाओं को न्यायोचित रूप से संरक्षण दिया जा सकता है लेकिन केन्द्र सरकार इस बात की जांच कर सकती है कि 26 जनवरी 1950 के बाद लेनदेनों को ऐसे संरक्षण की आवष्यकता है या चालू रहना चाहिए। यदि संविधान के अन्तर्गत सभी नागरिक समान हैं तो धारा 87 बी को भूतकालिक लेन देनों तक सीमित रखना वांछनीय है और इस विसंगति को सदा-सदा के लिए बाकी नागरिकों तथा राजाओं के बीच नहीं रखा जाना चाहिए। समय व्यतीत होने के साथ ही जिन ऐतिहासिक कारणों से धारा 87बी की वैधता घिस जायेगी और इस धारा का बाद में चालू रहना गंभीर चुनौती के लिए खुला होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने श्री कुमार प्रदम प्रसाद बनाम भारत संघ (1992 (2) एस.सी.सी. 428) में कहा है कि यदि एक व्यक्ति को राश्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा भी संवैधानिक पद पर नियुक्त किया गया है तो अधिकारपृच्छा कार्यवाही में उस व्यक्ति के वह पद धारण करने में योग्यता को जांचा जा सकता है और नियुक्ति निरस्त की जा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने मोटर जनरल टेªडर्स बनाम आंध्रप्रदेष राज्य (1984 ए.आई.आर.121) में कहा है कि समय विधायन के पक्ष में नहीं चलता यदि यह अधिकारों से बाहर है तो भी वकीलों द्वारा लम्बे समय से अवैधता स्थापित करने में असफलता से भी इसे कोई षक्ति प्राप्त नहीं होती। इन सभी मामलो में यह सही है कि किसी भी प्रावधान को अवैध नहीं ठहराने से जो स्थिति एक कानून में गैर विभेदकारी थी समय व्यतीत होने से विभेदकारी बन गई है और संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में इसको सफलतापूर्वक चुनौती दी जा सकती है।
मध्य प्रदेष उच्च न्यायालय ने ठाकुर भरतसिंह बनाम मध्यप्रदेेष राज्य (ए.आई.आर. 1964 म0प्र0 1757) में कहा है कि यह निर्णय स्पश्ट करता है कि राज्य की कार्यकारी षक्तियां सिर्फ उन मामलों तक सीमित नहीं है जिन पर कानून बनाये जा चुके हैं। बल्कि यह उन मामलों तक विस्तृत है जिन पर कानून बनाने के लिए राज्य विधायिका सक्षम है और कार्यकारी अधिकारी संविधान या किसी कानून के विपरीत किसी षक्ति का प्रयोग नहीं कर सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने डालमिया (1959 एससीआर 279) में कहा है कि हमेषा से यह मान्यता है कि कानून को संवैधानिक माना जाता है  और यह दायित्व उस व्यक्ति पर है जो यह कहता है कि यह स्पश्टतः संवैधानिक सिद्धान्तों का अतिक्रमण है और यह माना जाता है कि विधायिका अपने लोगों की आवष्यकताओं को अच्छी तरह से समझती और मूल्यांकन करती है और इसके कानून अनुभव द्वारा सामने आयी समस्याओं की ओर निर्देषित होते हैं तथा भेदभाव पर्याप्त आधारों पर निर्धारित होते हैं।

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