Thursday 26 May 2011

औपचारिक नहीं वास्तविक न्याय


इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मोती सुनार उर्फ मोतीलाल बनाम उ0प्र0 राज्य (1997 क्रि.ला.ज. 2260 इलाहा.) में कहा है कि यहां तक कि एक अपराधी या आदतन अपराधी के जीवन में ऐसा अवसर आता है कि वह षांतिपूर्ण जीवनयापन प्रारम्भ कर देता है। जब पुलिस के अनुसार उसने बाद में अपनी गतिविधियां सुनारी के पेषे तक सीमित कर दी हो और रिपोर्ट के अनुसार उसने इस पेषे के अतिरिक्त किसी अन्य गतिविधि में रूचि नहीं ली। इसलिए याची के मामले में पुलिस निगरानी ने याची की निजता का गंभीर अतिक्रमण हुआ है और उसीे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यथा संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत हैं के मूल अधिकार और अनुच्छेद 19 (1) (घ) के अन्तर्गत विचरण की स्वतन्त्रता का गंभीर अतिक्रमण हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट ने सचिव हरियाणा राज्य बिजली बोर्ड बनाम सुरेश के निर्णय दिनांक 04.04.99 में कहा है कि न्यायालय का अस्तित्व समाज के लिए है और विधायन के किसी लाभप्रद हिस्से के अर्थान्वयन के प्रश्न पर उसकी पांडित्यपूर्ण संकीर्ण व्याख्या न्यायोचित नहीं होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने महाराश्ट्र राज्य बनाम प्रभु (1994 एससीसी (2)481) में कहा है कि उच्च न्यायालय सरकार के कार्य करने पर नियंत्रण रखता है और कर्त्तव्यों के उचित, न्यायपूर्ण एवं सही निश्पादन द्वारा नियम और कानून की अनुपालना सुनिष्चित करता है। यदि सरकारी या कोई प्राधिकारी नियम या कानून के विरूद्ध कोई आदेष पारित करता है तो उसे न्यायालय रिट क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत संषोधन कर सकता है। यह (दागदार का षिक्षा बोर्ड का सदस्य रहना) व्यवस्था में समाज का विष्वास व आस्था को हिला देता है और यहां तक कि ईमानदार एवं निश्ठावान को भी अपने रास्ते से भटकने के लिए लालायित कर देता है। उच्च न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह संविधान का संरक्षक होने के नाते सामाजिक संतुलन बनाये रखने के लिए जहां आवष्यक हो न्याय के लिए हस्तक्षेप करे और जहां ऐसा करना सामाजिक हित व लोक भलाई के नहीं हो हस्तक्षेप करने से मना करे।
सुप्रीम कोर्ट ने रमनकुटी गुप्तान बनाम आवारा (एआईआर 1994 सु.को. 1699) में कहा है कि प्रक्रिया न्याय के लिए एक नौकरानी है और यदि प्रक्रिया क्षेत्राधिकार सम्बन्धित बिन्दु को नहीं छूती है तो इसे सारभूत न्याय के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए। अतः तकनीकी बारिकियां सारभूत न्याय के रास्ते में आडे़ नहीं आनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने रफीक बनाम मुंषीलाल ( 1981 एआईआर 1400) में कहा है कि अपील की सुनवाई में पक्षकार की उपस्थिति न केवल अनावष्यक है अपितु मुष्किल से ही कोई उपयोगी है। चूंकि एक पक्षकार के वकील ने चूक की इस कारण अन्याय भुगतने वालों निर्दोश पक्षकार के अन्याय में हम भागीदार नहीं बन सके।
सुप्रीम कोर्ट ने राम एण्ड ष्याम कम्पनी बनाम हरियाणा राज्य (एआईआर 1985 सु.को. 1147) में कहा है कि प्रायः यह स्पश्ट कहा जाता है कि नियम जो यह अपेक्षा करता है कि वैकल्पिक उपचार निषेश करे यह सुविधा और विवेकाधिकार का नियम है न कि विधि का नियम। किसी भी प्रकार से यह न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर नहीं करता । यह विषेश रूप से स्पश्ट कर दिया जाना चाहिए कि जहां षिकायत किया गया आदेष अवैध या विधि विरूद्ध है, प्रतिकूल रूप से प्रभावित व्यक्ति द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत रिट लगेगी और ऐसी याचिका इस आधार पर निरस्त नहीं की जा सकती कि इसकी अपील राज्य सरकार या उच्चाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत होगी। एक अपील सभी मामलों में वैकल्पिक उपचार क्षेत्राधिकार एवं गुणावगुण के मध्य बारीक अन्तर को छोड़ते हुए राहत प्रदान नहीं कर सकती है। लेकिन यदि समाजवादी या यह षब्द समाज या सार्वजनिक सम्पति केे सार्वजनिक उद्देष्य से किसी के साथ कठोर संव्यवहार करता है। एक अन्य जगह कहा गया है कि सरकार को सार्वजनिक हित में कार्य करना चाहिए यह स्वेच्छाचारी या बिना कारण के कार्य नहीं कर सकती और यदि ऐसा करती है तो उसे अवैध घोशित किया जा सकता है।

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