Sunday 3 July 2011

पुलिस को पूर्ण अभयदान


यह बात इस देश की जनता ही नहीं जानती बल्कि एशियाई मानवाधिकार आयोग ने भी कहा है कि भारत में अधिकांश लोक अभियोजक कार्यालय ऐसी दलाली के कार्यालयों की तरह कार्य करते हैं जहाँ पुलिस , बचाव के वकील और लोक अभियोजक के बीच अपवित्र लेनदेन संपन्न होते हैं |जब एक लंबी खरीद फरोख्त के बाद भ्रष्ट राजनेताओं की इच्छा और पसंद के अनुसार राज्य द्वारा अभियोजक नियुक्त किये जाते हों तो इसे बुरा नहीं माना जा सकता | भारत में न्याय प्रदानगी निकाय की नींव को ही क्षति पहुँच चुकी है |यह निकाय भ्रष्टाचार और अक्षमता की बदबूदार नाली में रेंगता है . जो अधिकारी जन सामान्य के हितों की रक्षा करने के बहाने से कार्य ग्रहण करते हैं वे भी इस गंदी नाली में जहरीले साँपों की तरह जहर छोड़ते हुए और अपनी शैतानी पूंछ हिलाते हुए रेंगते हैं व आम नागरिक ,जो मात्र उनकी दया पर आश्रित होते हैं, का उपहास करते हैं |

पुलिस थानों में तो स्थिति और खराब है |पुलिस थाने राज्य द्वारा प्रायोजित यातना गृह हैं और पुलिस अधिकारी वर्दी में राज्य से वेतन लेने वाले अपराधी हैं |पुलिसीय कार्य एक वस्तु है मानो कि एक सड़ी हुई मछली को बाजार में सस्ते दामों पर ख़रीदा जा सकता हो |अनुसन्धान का तरीका वही है जो कि कुछ शताब्दियों पूर्व हुआ करता था,पूछताछ किये जाने वालों के साथ भी की जाने वाली बर्बरता से शर्म आती है | सम्पूर्ण अनुसन्धान बलपूर्वक कबूलाने पर आधारित है |संदिग्ध का भारत में एक ही अर्थ है –कि व्यक्ति को कानून लागू करने वाले अमानुषिक अधिकारियों की फौलादी मुठियों में पीसा जायेगा |इस प्रकार पुलिस थानों में दण्ड दिया जाता है |आपराधिक परिक्षण तो एक औपचारिकता मात्र है . वैसे भी दोषसिद्धि तो मात्र १.५ % मामलों में ही हो पाती है |आज भारत में इस पुलिस राज से छुटकारा दिलाने वाला कोई तंत्र नहीं है .

एशियाई मानवाधिकार आयोग में भी भारत के कई भागों से मामले प्राप्त हुए हैं जो विभिन्न पुलिस थानों में बंदी व्यक्तियों के साथ हुए क्रूर व्यवहार का खुलासा करते हैं .नवीनतम मामला केरल के कोलम पुलिस थाने से है | ऐसा अभियोग है कि जिस पुलिस अधिकारी ने गिरफ्तार किया,पांच अन्य पुलिस सिपाहियों सहित पुलिस थाने में पीड़ित पर चढ गए ,जिससे गिरफ्तारव्यक्ति की घंटों के भीतर ही मृत्यु हो गयी |स्थानीय लोगों के अनुसार पुलिस थाना में “संग्रहालय” नाम का एक कमरा है जहाँ पुलिस अधिकारी यातना के उपकरण रखते हैं |इनमें से किसी भी मामले में उचित रूप से अनुसन्धान ,अभियोजन और अपराधियों को न्याय तक नहीं लाया गया है |यदि एक मामले में अनुसन्धान हो भी जाये तो , विद्यमान प्रणाली में उचित अनुसन्धान और अभियोजन सुनिश्चित करने का कोई तंत्र नहीं है | उदाहरणार्थ यदि एक मानव शारीर का विधि वैज्ञानिक परीक्षण करना हो तो भारत में ऐसी पर्याप्त सुविधाएँ नहीं है जहाँ से समय पर उचित रिपोर्ट प्राप्त हो सके |पश्चिम बंगाल में उपलब्ध विधि विज्ञान सुविधाओं पर किसी भी सरकार को शर्म आनी चाहिए | मानव शवों को फर्श पर सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है क्योंकि मुर्दाघर में उपयुक्त फ्रिज नहीं हैं , और यह बड़ा ही भयानक दृश्य होता है जब आवारा कुते व चूहे मानव अवशेषों को खाते हुए देखे जाते है |प्राय मुर्दाघरों के दरवाजा भी नहीं होता जिससे कुत्तों को दूर रखा जा सके |मानव अवशेषों के बारे में जिन्हें कोई अनुभव , प्रशिक्षण और योग्यता नहीं होती उनके द्वारा शवों का परीक्षण किया जाता है |जो लोग सफाई कर्मी नियुक्त होते हैं, के द्वारा ये रिपोर्टें तैयार की जाती हैं और इन कमरों में प्रवेश तक किये बिना डाक्टरों द्वारा इन पर हस्ताक्षर किये जाते हैं |प्राय ये रिपोर्टें भी पुलिस के निर्देशानुसार तैयार की जाती हैं |यह कहावत है कि अभिरक्षा में हुई मृत्यु की रिपोर्ट उसी पुलिस के निर्देश में तैयार की जाती है |वही पुलिस इस मामले में अनुसन्धान भी करती है| .
भारत में विद्यमान कानूनी ढांचा इस प्रणाली को ठीक करने में किसी प्रकार से मददगार नहीं है |पुलिस को पूर्ण अभयदान प्राप्त है , और राष्ट्रीय व राज्य मानवाधिकार आयोग इस नृशंस्ता को असहाय होकर देखते रहते हैं |उनके पास मामलों की जाँच के लिए स्वतंत्र तंत्र ही नहीं है |यह स्थानीय पुलिस या प्रतिनियुक्त पुलिस अधिकारी पर छोड़ दिया जाता है जो कि अंततोगत्वा स्थानीय पुलिस की दया पर निर्भर रहता है |आयोग के आदेश मात्र सिफारिश होते हैं जिन्हें सरकार द्वारा नजरंदाज कर दिया जाता है |भारत ने यद्यपि यातना और अन्य निर्दयता , अमानवीय व्यवहार या दण्ड के विरुद्ध संधि पर हस्ताक्षर किये थे किन्तु इस बहाने से इसकी पुष्टि नहीं की कि देश में संधि के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पहले से ही तंत्र विद्यमान है | यद्यपि यह तंत्र कौओं को भगाने के लिए भी पर्याप्त नहीं है | प्राय कहा जाता है कि लोगों को वेसी ही पुलिस प्राप्त होती है जैसी के वे लायक हैं |यदि ऐसा है तो भारतीय लोगो ने क्या बुरा किया है जो अपनी ही पुलिस के भय और यातना से शासित हो ? भारत को यातना के विरुद्ध संधि की यथा संभव शीघ्र पुष्टि की आवश्यकता है| .

यद्यपि श्रीलंका को अभी भी यातना से मुक्त होना है किन्तु यह अंतर है कि वहाँ यदि एक व्यक्ति को यातनाएं दी जाएँ तो एक कानून है जिसका उपयोग किया जा सकता है |वहाँ एक विशेष और स्वतंत्र इकाई है जो यातना के मामलों में अनुसन्धान करती है |वहाँ ऐसे मामले हैं जिनमें मात्र प्रभावी व्यक्तियों , सामाजिक कार्यकर्ताओं और गैर सरकारी संगठनों द्वारा ही नहीं अपितु आम नागरिकों द्वारा दोषियों को न्यायालय तक लाया गया है |भारत को इस सम्बन्ध में श्रीलंका के स्तर तक पहुँचने में निश्चित रूप से लंबा समय लगेगा |इस प्रक्रिया के लिए काफी साहस की आवश्यकता है , ऐसा साहस जो प्राथमिक तौर पर अपनी कमियों को स्वीकार कर सके और भारत में इसका नितांत अभाव है |
हमारी संस्कृति यह उपदेश देती है कि व्यक्ति का अंतिम संस्कार भी उसके धर्म के अनुसार ससम्मान होना चाहिये | हमारी समृद्ध संस्कृति का शर्मनाक संरक्षण आज सामने है |
सामग्री सौजन्य -   एशियाई मानवाधिकार आयोग 
  

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