Friday 8 July 2011

क्षतिपूर्ति

सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय बार संघ बनाम पंजाब राज्य (1996 एससीसी (4) 742) में कहा है कि सिविल एवं राजनैतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय संधि 1966 के अनुच्छेद 19(5) के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति हेतु अधिकार गारंटीकृत अधिकार से भिन्न नहीं है जो कि निम्नानुसार कहता है:-
जो कोई भी अवैध गिरफ्तारी या बन्दी बनाये जाने का शिकार होगा उसे क्षतिपूर्ति का प्रवर्तनीय अधिकार होगा हम गृह सविच के माध्यम से पंजाब सरकार को निर्देश देते हैं कि सम्बन्धित पुलिस अधिकारियों के अभियोजन के मामले की धारा 197 द0प्र0सं0 की स्वीकृति के प्रश्न को ले तथा इस आदेश प्राप्ति के एक माह के भीतर निर्णय ले।
सुप्रीम कोर्ट ने भीमसिंह बनाम जम्मू कश्मिर राज्य (1986 एआईआर एसी 494) में कहा है कि हमें इस बात में संदेह नहीं है कि भीमसिंह को या तो 11 तारीख को मजिस्ट्रेट या 13 तारीख को उप न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया। यद्यपि उसे 10 तारीख की सुबह ही गिरफ्तार कर लिया गया था। अनुच्छेद 21 तथा 22 (2) के अन्तर्गत भीमसिंह के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ। चूंकि अब वह निरूद्ध नहीं है अतः उसे मुक्त करने का आदेश देने की आवश्यकता नहीं है किन्तु उसे उचित एवं पर्याप्त रूप से क्षतिपूर्ति दी जानी चाहिए। हमें उदाहरणात्मक खर्चे के रूप में मौद्रिक क्षतिपूर्ति देने का अधिकार है। हम निर्देश देते हैं कि प्रथम प्रत्यर्थी जम्मू कश्मीर राज्य आज से 2 माह के भीतर भीमसिंह को रूपये 50000 देगा। यह राशि इस न्यायालय के रजिस्ट्रार के यहां जमा होगी तथा श्री भीम सिंह को भुगतान की जावेगी।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अश्वीनी कुमार शर्मा बनाम ऑरियेन्टल बैंक ऑफ कॉमर्स (2003 (3) एस एल जे 405 देहली) में कहा है कि पेंशन कोई नियोक्ता की एक मात्र इच्छा पर सशर्त भुगतान अथवा दान नहीं है। यह लम्बी सेवा करने से अर्जित होती है और प्रायः लम्बी सेवा के लिए आस्थगित भुगतान कहलाती है। यह वास्तव में एक सामाजिक सुरक्षा की प्रकृति की है जो कि अधिवर्षिता पर सेवानिवृति पर लोक सेवक को देय है। यदि एक अस्थायी सरकारी सेवक ने भी 20 वर्ष की सेवा की है तो वह पेंशन का पात्र है। यदि वह स्वैच्छा से सेवानिवृति लेता है तो जब उसे सार्वजनिक हित में सेवानिवृत होने दिया जाता है तो भी उसे इस अधिकार से मना करने का कोई औचित्य नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने मलय कुमार गांगुली बनाम डॉ. सुकुमार मुखर्जी के निर्णय दिनांक 07.08.09 में कहा है कि तापमान, नाड़ी, रक्तचाप आदि परिमान का रिकॉर्ड नहीं रखा गया जो कि एक गंभीर लापरवाही है। रिकॉर्ड पर लाये गये टेलीफोन बिलों से स्पष्टतया दर्शित होता है कि प्रत्यर्थी सं. 3 के घर व उसके कार्यालय भी जब अनुराधा ए.एम.आर.आई. में थी, डॉ. कुणाल ने कई बार बात की जिससे स्पष्ट स्थापित होता है कि प्रत्यर्थी सं. 3 अनुराधा के इलाज में संलग्न था। एक विशेषज्ञ तथ्य का साक्षी नहीं है। उसकी साक्ष्य परामर्शी प्रकृति की है। एक विशेषज्ञ साक्षी का कर्त्तव्य है कि वह जांच की शुद्धता के बारे में न्यायाधीश को आवश्यक वैज्ञानिक उसूल बताये जिससे न्यायाधीश उसूलों को लागू कर स्वतन्त्र रूप से मामले के तथ्यों के साक्ष्यों तक पहुंच सके। लिए गए आधार पर हम एएमआरआई तथा डॉ0 मुखर्जी के आचरण को ध्यान में रखते हुए निर्देश देते हैं कि एएमआरआई तथा डॉ0 मुखर्जी द्वारा क्रमशः खर्चे के रूपये 500000 तथा 100000 भुगतान किये जायेंगे। हम आगे निर्देश देते हैं कि यदि किसी विदेशी विशेषज्ञ का परीक्षण करना हो तो यह वीडियो कॉन्फ्रेसिंग के जरिये और प्रत्यर्थीगण के खर्चे पर होगा । रोगी प्रायः दवाओं के प्रतिकूल प्रभाव व बीमारी से अनभिज्ञ होते हैं। सामान्यतया रोगियों को संभावित जोखिम सूचित की जानी चाहिए। यदि कुछ दवाओं के प्रतिकूल प्रभाव हो या प्रतिक्रिया संभावित हो तो वह उसके विषय में सूचित होना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण में ऐसा नहीं हुआ।

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