एफ.आई.आर. के मामले पर विस्तृत विवेचना करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कुलदीप सिंह बनाम राज्य (1994 क्रि.ला.ज. 2502 दिल्ली) में कहा है कि यदि यह पुलिस के विवेक पर छोड़ दिया जावे कि संज्ञेय अपराध के किस मामले में वह पहले जांच करेगी और तब दर्ज करने या नहीं करने का निर्णय करेगी तो इससे अपराध दर्ज करने में विलम्ब होगा और इस बीच महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध नहीं रहेगा। स्वयं जांच में लम्बा समय लग सकता है और तब इस प्रारम्भिक जांच को भी चुनौति दी जा सकती है। पुलिस को संज्ञेय मामले मे भी अपराध दर्ज न करने की शक्ति देना और इसके बजाय प्रारम्भिक जांच कर बाद में दर्ज करने से मना करने का प्रभाव यह होगा कि मामला न्यायिक जांच से हमेशा के लिए वंचित हो जायेगा, संहिता में ऐसा नहीं माना गया है। नियम न तो संवैधानिक प्रावधानों पर अभिभावी हो सकते और न ही अधिनियमों के उल्लंघन में कोई प्रभाव रख सकते हैं। पुलिस को संज्ञेय अपराध को दर्ज करने या न करने का अनियंत्रित एवं पूर्ण विवेकाधिकार देना संविधान में वर्णित समानता के अनुच्छेद का उल्लंघन है। संहिता में न्यायपालिका को पुलिस के विवेकाधिकार को नियंत्रण का अधिकार है। यद्यपि पुलिस को अनुसंधान नहीं करने का अधिकार है किन्तु वह भी न्यायिक नियंत्रण के अध्यधीन है।
एक मजिस्ट्रेट जब भी एक परिवाद पर पुलिस को अनुसंधान का निर्देश देता है तो पुलिस को परिवाद को एफआईआर समझते हुए संज्ञेय मामला दर्ज करना होता और पुलिस नियमों की अनुपालना करनी होती है। वास्तव में यदि मजिस्ट्रेट निर्देश न भी तो भी धारा 156 (1) के मद्देनजर जो कि पुलिस को संज्ञेय मामले में अनुसंधान के लिए अधिकृत करती है और पुलिस अधिनियम 1884 के अन्तर्गत बनाये गये नियमों में पुलिस मामला दर्ज करने के लिए और अनुसंधान के लिए कर्तव्य बाध्य है।
इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने इन्द्रसिंह बनाम पंजाब राज्य (1995 3 एससीसी 702) में कहा है कि जो वर्दी में हैं उनका प्राथमिक कर्त्तव्य कानून व्यवस्था बनाये रखना तथा नागरिकों की रक्षा करना है। केन्द्र सरकार का गृह मंत्रालय भी बेसहारा दर्शक की तरह नहीं रह सकता। जब एक राज्य का पुलिस बल पंजाब पुलिस के नाम पर कार्य करता है तो जिस राज्य के अंग के रूप में वह कार्य कर रहा है उसे परिणाम भुगतान चाहिए। उसे चाहिए कि वह जब कानून और व्यवस्था को लागू करने में विफल होता है तब ऐसी विफलता के परिणामस्वरूप नागरिकों को क्षतिपूर्ति प्रदान करे। बाद में जब दोषियों का पता लग जावे तो राज्य को उनसे वसूली करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि वह करदाताओं का धन है। उपमहानिरीक्षक, पुलिस कप्तान एवं अन्य सभी दोशी लोगों जिन्होंने शिकायत दर्ज करने से मना किया की पहचानकर उनके विरूद्ध अनुशासनिक कार्यवाही अवश्य की जानी चाहिए।
पुलिस द्वारा संज्ञेय मामले में भी प्राथमिक सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से मना करने के प्रमुख मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने लक्ष्मी नारायण गुप्ता बनाम कमीश्नर पुलिस (बीओ (2006) डीएलटी 490) के निर्णय में स्पष्ट किया है कि इस बात पर बल देने की आवश्यकता नहीं है कि यह पुलिस अधिकारी की इच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता कि वह अन्वीक्षण न्यायालय की भूमिका अदा करे और सूचितकर्ता की सूचना के सार और गुणावगुण के निर्णय के ऊपर बैठ जाये। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 157 (1) के अन्तर्गत पुलिस अनुसंधान नहीं करने का निर्णय कर सकती है। पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि उसे दी गई किसी संज्ञेय अपराध की किसी सूचना को दर्ज करने से मना कर दे और इसके स्थान पर पहले जांच करे और परिणामस्वरूप प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से मना कर दे। यदि इस बात का निर्णय करने पुलिस पर छोड़ दिया जावे कि किन मामलों में वह पहले प्राथमिक जांच करेगी तथा उसके बाद दर्ज करेगी या मना करेगी तो अपराधों के दर्ज होने में विलम्ब होगा तथा इस बीच महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध नहीं रहेगा। प्राथमिक जांच अपने आप में लम्बा समय ले सकती है। तत्पश्चात इस जांच को भी चुनौती दी जा सकती है।
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