Saturday 16 July 2011

गिरफ़्तारी एवं जब्ती

सुप्रीम कोर्ट ने दीपक बजाज बनाम महाsराष्ट्र राज्य के निर्णय दिनांक 12.11.08 में स्पष्ट किया है कि यह सुनिश्चित है कि न्यायालय के निर्णय को मशीन की तरह नहीं पढ़ना है और न ही ऐसे मानो कि वह कानून हो। यदि एक व्यक्ति जिसके विरूद्ध निवारक नजरबन्दी आदेश पारित किया है वह न्यायालय को यह दर्शित कर सके कि उक्त निरूद्धीकरण आदेश स्पष्टतया अवैध है तो उसे जेल जाने के लिए क्यों विवश किया जावे। ऐसे व्यक्ति को यह कहना कि यद्यपि विरूद्धीकरण आदेश अवैध है उसे जेल जाना चाहिए और उसे बाद में छोड़ दिया जावेगा यह अर्थहीन एवं व्यर्थ का अभ्यास है।
सुप्रीम कोर्ट ने इंजी के.के. जेराठ बनाम संघ शासित प्रदेश चण्डीगढ़ (1998 एआईआर 1934) में कहा है कि उच्च न्यायालय का यह दृष्टिकोण की याची ने विश्वास दिलाया है कि वह अनुसंधान एजेन्सी को पूछताछ में सहयोग करेगा यह मात्र रस्म अदायगी है और ऐसे मामलों में अभिरक्षा में पूछताछ ही अच्छा है। उच्च न्यायालय ने ध्यान दिया है कि दो एफआईआरों - एक सी.बी.आई. तथा दूसरी चण्डीगढ प्रशासन द्वारा- दोनों का क्षेत्र अलग-अलग है। इसलिए दूसरी एफ.आई.आर अलग से दर्ज करने का कोई अवरोध नहीं है और इस आधार पर प्रार्थी द्वारा दिया गया तर्क कि तथ्यों के एक ही समूह पर दो विभिन्न एजेन्सियों द्वारा समानन्तर अनुसंधान नहीं की जा सकती, निरस्त कर दिया गया।
लेखकीय टिप्पणी:-सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब राज्य बनाम बलवीर सिंह (1994 एआईआर 1872) में कहा है कि अभियुक्त को चुप रहने का अधिकार है अर्थात् वह पुलिस को कुछ भी न बताये तो ऐसी स्थिति में रिमाण्ड का औचित्य नहीं रह जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने सुन्दर भाई अम्बालाल देसाई बनाम गुजरात राज्य (एआईआर 2003 एस सी 638) में कहा है कि किसी भी सूरत में ऐसी वस्तु जब्ती के एक सप्ताह के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत की जानी चाहिए। यदि आवश्यक हो तो ऐसी वस्तु न्यायालय अनुसंधान अधिकारी को आगे अनुसंधान करने या पहचान के लिए सौंप सकता है। फिर भी अनुसंधान अधिकारी को ऐसी वस्तु अनुसंधान एवं पहचान के लिए लम्बे समय तक अपने पास नहीं रखनी चाहिए। करेन्सी नोटों के लिए भी ऐसी ही प्रक्रिया अपनायी जा सकती है।

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