Friday 29 July 2011

प्रसंज्ञान का विवेकाधिकार नहीं है

सुप्रीम कोर्ट ने ए.सी. अग्रवाल बनाम रामकली (1968 एआईआर 1) में कहा है कि धारा 190 (1) (बी) द0प्र0सं0 में मजिस्ट्रेट उसके ध्यान में लाये जाने पर संज्ञेय अपराध का प्रसंज्ञान लेने के लिए बाध्य है। संज्ञान ले सकता है शब्दों को इस संदर्भ में अर्थ है संज्ञान लेना चाहिए। उसे ऐसा करने का कोई विवेकाधिकार नहीं है अन्यथा यह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने रामनरेश प्रसाद बनाम झारखण्ड राज्य के निर्णय दिनांक 12.02.09 में कहा है कि दूसरी ओर उच्च न्यायालय ने ऐसी शक्ति को माना है अपने निर्णय को दो आधारों पर निर्भर रहते हुए (क) जहां ऐसी रिपोर्ट पुलिस द्वारा प्रस्तुत की जाती है, अनुसंधान के पश्चात मजिस्ट्रेट को इसे न्यायिकतः व्यवहृत करना है जिसका अर्थ है कि यदि रिपोर्ट अस्वीकार की जाती है तो मजिस्ट्रेट पुलिस को उचित निर्देश दे सकता है और (ख) पुलिस द्वारा अनुसंधान के कार्य पर मजिस्ट्रेट को पर्ववेक्षण का कार्य दिया गया है और इसलिए मजिस्ट्रेट में ऐसी शक्ति राज्य बनाम मुरलीधर गोवर्धन तथा रामनन्दन बनाम राज्य के द्वारा मानी गयी है।
के. शंकरैया बनाम आन्ध्रप्रदेश राज्य (1983 क्रि.ला.ज. 1296) में कहा गया है कि उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मजिस्ट्रेट एक अपराध का प्रसंज्ञान ले सकता है यदि वह निष्कर्ष निकालता है कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है। फिर भी यदि वह रिपोर्ट या सूचना में यह पाता है कि विषशय-वस्तु पर्याप्त नहीं है तो वह मामला पुलिस अनुसंधानार्थ भेज सकता है और यदि अनुसंधान पर फिर भी विषय वस्तु अपर्याप्त हो तो तब भी मामले का प्रसंज्ञान ले सकता है और धारा 190 (1) (सी) ( स्वयं के ज्ञान अथवा अन्यथा सूचना मिलने पर द्धमें निर्धारित प्रक्रिया; अन्य मजिस्ट्रेट को स्थानंतरित करना ) का अनुसरण कर सकता है। ऐसे लोग हैं जो मजिस्ट्रेट को धारा 190 (1) (ए) के अन्तर्गत शक्तियों के प्रयोग हेतु सूचना देने को तैयार हैं। अनुसंधान प्रक्रिया मजिस्ट्रेट से सोच समझकर ली गई है चूंकि यह मुख्यतया पुलिस का मामला है।

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