Sunday 17 July 2011

कंटेम्प्ट की घ..ब..रा..ह..ट...!


जनतंत्र में वाक् स्वतंत्रता एवं अवमान कानून के दायरे

स्वतंत्र विचार प्रकटन जनतंत्र का  मूल आधार है| भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) में सभी नागरिकों को वाक् स्वातंत्र्य एवं अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का अधिकार दिया गया है वहीँ न्यायालयों की गरिमा की रक्षा के लिए न्यायालय अवमान अधिनयम, 1971 बना कर इस स्वतंत्रता पर अंकुश भी लगाया गया है| किन्तु अनुच्छेद 13 के अनुसार ऐसा कोई कानून जो संविधान के इस भाग से विरोधाभास रखता है विरोधाभास की सीमा तक शून्य होगा| आइये हम प्रासंगिक कानून का विवेचन करते हैं| न्यायालय अवमान अधिनयम, 1971 की धारा 5 के अनुसार न्यायालय द्वारा सुने गए और अंतिम रूप से निर्णित किये गए मामले के गुणावगुणों  पर उचित टिप्पणियां प्रकाशित करने पर एक व्यक्ति अवमान का दोषी नहीं होगा| धारा 6 में यह प्रावधान है कि किसी न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के विषय में  किसी अन्य अधीनस्थ न्यायालय या उच्च न्यायालय में सद्भाविक कथन के लिए अवमान का दोषी नहीं होगा| धारा 10 में यद्यपि उच्च न्यायालय को दण्ड का अधिकार दिया गया है किन्तु परंतुक में कहा गया है कि यदि ऐसा अवमान यदि भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत दंडनीय हो तो उच्च न्यायालय प्रसंज्ञान नहीं लेगा| भारतीय दण्ड संहिता की धारा 193 में झूठी गवाही बनाना, 196 में झूठी गवाही देना, 228 में न्यायिक अधिकारी का साशय अपमान, डराना आदि अपराध आते हैं|
व्यवहार में देखा जाये तो स्थिति बिलकुल भिन्न है| न्यायाधीशों के साथ पक्षकारों या वकीलों की गरमागरमी होती  है जिसमें गाली गलोज, अपशब्दों का प्रयोग, जूते फेंकना, मारपीट करना आदि कृत्य शामिल होते हैं| न्यायधीशों द्वारा प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि अपने पक्ष में निर्णय प्राप्त करने के लिए उन्हें डराया गया जबकि संभवतः उन्हें याद नहीं रहता कि वे सेवा ग्रहण करते समय शपथ पत्र दे चुके हैं कि वे बिना भय और पक्षपात के कार्य करेंगे| इस प्रकार भयभीत करने सम्बंधित उनका आरोप कानूनन  पूर्णतः निराधार है| भारतीय दण्ड संहिता में उपरोक्त समस्त कृत्यों को अपराध बताया गया है व उनके लिए अभियोजन के प्रावधान हैं| मानहानि के लिए भी संहिता की धारा ५०० में प्रावधान है| इतिहास के पन्नों से पुष्टि होती है कि भारत में संहिता के उक्त प्रावधानों का न्यूनतम प्रयोग किया जाता है और न्यायाधीशों के अहम की संतुष्टि के लिए अवमान कानून का  ही सहारा लिया जाता है| इसके दूसरे पहलू को देखें तो स्थिति और बदतर है| मात्र नागरिकों द्वारा ही नहीं अपितु पुलिस द्वारा झूठी गवाही बनाने व झूठी गवाही देने के अनेकों मामले प्रकाश में आते हैं किन्तु उनमें सम्यक कार्यवाही नहीं होती है| इन अपराधों का निर्बाध जारी रहना स्वयं इस तथ्य का प्रमाण है| इस प्रकार भारत में अवमान कानून न्यायधीशों के अहम की तुष्टि का साधन अधिक एवं न्यायिक गरिमा की रक्षा का साधन कम है| अवमान कानून की धारा 13 (क) में यह भी प्रावधान है की कोई भी न्यायालय जब तक संतुष्ट नहीं हो जाये कि अवमानकारी कृत्य से न्यायिक प्रक्रिया में मौलिक रूप से हस्तक्षेप हुआ है या ऐसी प्रवृति रखता है तो दण्डित नहीं करेगा| धारा 13 (ख) में यह भी प्रावधान है कि यदि न्यायालय संतुष्ट हो तो जनहित में सत्य को वैध बचाव अनुमत कर सकता है |
स्वतंत्रता के विषय में उल्लेखनीय है कि माननीय  न्यायाधिपति कृपाल ने वर्ष 1991 में नग्न कैबरे चलाने  के लिए, दिल्ली पुलिस की प्रार्थना के विरुद्ध, यह कहते हुए अनुमति दे दी थी कि लोग वहाँ अपने आप जाते हैं और ऐसे शो बिना उपयुक्त  लाइसेंस चलाना महत्वहीन है| माननीय  न्यायाधिपति कृपाल द्वारा दी गयी यह निषेधाज्ञा 9 वर्ष तक जारी रही| इलाहाबाद उच्च न्यायलय के न्यायाधीशों क्रमशः बी चौहान एवं डी गुप्ता की पीठ ने सुखदेव स्टील कटर्स( 2006 (2) ए डब्लू सी 1119) के मामले में याची पर टिप्पणियां करते हुए कहा है कि उसका  तोते जैसा जवाब आया नहीं| न्यायाधिपतिगण का  उक्त आचरण सर्वथा न्यायिक गरिमा के प्रतिकूल रहा है| उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि न्यायाधीश लोकतंत्र में जनता के सेवक हैं उनके स्वामी नहीं  तथा वे भी सामान्य नागरिकों की ही तरह हाड़ मांस के मनुष्य नस्ल के ही पुतले हैं कोई अवतार या श्रेष्ठ पुरुष अथवा भिन्न नस्ल से नहीं हैं |

न्यायाधिपति काटजू के शब्दों में जब यह मान लिया जाये कि भारत में लोकतंत्र है तो लोक ही श्रेष्ठ हैं और उसका समाधान यही है कि लोगों के वाक् स्वातंत्र्य एवं अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का अधिकार प्राथमिक और अवमान की शक्तियां गौण हैं| दूसरे शब्दों में लोग स्वतंत्र हैं और न्यायधीशों की आलोचना करने का उन्हें अधिकार है किन्तु उन्हें न्यायपालिका के कृत्यों  को मुश्किल अथवा असंभव नहीं बनाना चाहिये| अवमान की शक्तियां ब्रहमास्त्र हैं और उनका प्रयोग पात्र पर ही किया जाना चाहिए| राजतन्त्र में राजा श्रेष्ठ होता है और जनता चूँकि उसकी प्रजा होती है अतः वह निम्न होती है| न्यायपालिका चूँकि राजा की शक्तियों का प्रयोग करती है उन्हें अपनी प्रजा से आज्ञा पालन करवाने के लिए इक़बाल की आवश्यकता होती है| दूसरी और प्रजातंत्र में प्रजा ही श्रेष्ठ है और न्यायाधीशों सहित समस्त राज्य अधिकारी उनके सेवक होने से वे निम्न हैं| इसलिए लोकतंत्र में न्यायाधीशों को अपनी शक्ति प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं है|
इंग्लॅण्ड का एक रोचक मामला इस प्रकार है कि एक भूतपूर्व जासूस पीटर राइट ने अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक लिखी| ब्रिटिश सरकार  ने इसके प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए याचिका दायर की कि पुस्तक गोपनीय है और इसका  प्रकाशन राष्ट्र हित के प्रतिकूल है| हॉउस ऑफ लोर्ड्स ने 3-2  के बहुमत से रोक लगा दी| प्रेस इससे क्रुद्ध हुई और डेली मिरर ने न्यायाधीशों के उलटे चित्र प्रकाशित करते हुए ये मूर्ख शीर्षक दिया| किन्तु इंग्लॅण्ड में न्यायाधीश व्यक्तिगत अपमान पर ध्यान नहीं देते हैं| न्यायाधीशों का विचार था कि उन्हें विश्वास है वे मूर्ख नहीं हैं किन्तु अन्य लोगों को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है|
भारत में भी अवमान कानून का एक रोचक उदाहरण इस प्रकार है कि केन्द्रीय उत्पाद शुल्क एवं सेवा कर अपीलीय ट्रिबुनल बंगलौर में काफी गंभीर गडबडियां चल रही थीं जिसे एक्साइज ला टाइम्स के संपादक आर के जैन ने समय समय पर साहसिक संपादकीय के माध्यम से उजागर किया था| श्री जैन ने इस प्रसंग में उच्चाधिकारियों व सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधिपति को पत्र भी लिखे थे| इस प्रसंग में इंडायरेकट टैक्स प्रैक्टिसनर संघ द्वारा सम्पादकीय के विरुद्ध शिकायत में जाँच भी प्रारंभ हो गयी थी | किन्तु संघ के सदस्य स्वयं जाँच में उपस्थित नहीं हुए और उन्होंने अनुपस्थित रहकर मामला शांत करवाना बेहतर समझा क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि जाँच से सत्य उजागर हो सकता है जो कि ट्रिबुनल और संघ के कुछ सदस्यों के लिए प्रतिकूल हो सकता है| अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने भारत के महाधिवक्ता से इस प्रसंग में अवमान याचिका दायर करने के लिए सहमति हेतु पत्र लिखे तथा सुप्रीम कोर्ट में अवमान याचिका दायर कर दी|

याचिका के निर्णय दिनांक 13.08.2010 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह स्मरणीय है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मनुष्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार माना गया है| गौतम बुद्ध, महावीर और महात्मा गाँधी के इस देश में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हमेशा सम्मान किया गया है| एक बार महात्मा गाँधी से प्रश्न किया गया कि आपको सत्य और अभय में से यदि एक का चयन करना पड़े तो आप किसका चयन करेंगे| गांधीजी का जवाब अभय के पक्ष में था| उनका कहना  था कि जो भय मुक्त नहीं है वह सत्य नहीं बोल सकता अतः सत्य की रक्षा के लिए अभय होना प्राथमिक आवश्यकता है| स्वतंत्रता के बाद न्यायालयों ने मनुष्य के इस अधिकार की उत्साहपूर्वक रक्षा की है| किसी भी निकाय की स्वस्थ आलोचना उसमें सुधार का मार्ग प्रशस्त करती है| सामान्यतया न्यायालय अनुच्छेद 19 में दिए गए अधिकार को प्रतिबंधित करने हेतु अवमान के लिए दण्डित करने की शक्ति का प्रयोग नहीं करते हैं| जब आलोचना शालीनता की सीमाओं को पार  कर जाये तब ही न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग करते हैं |

सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा है कि हमें खुले और उचित रूप में स्वीकार करना चाहिए कि न्यायालयों की गरिमा और कानून की महिमा में विश्वास में कमी आई है और यह सब राजनेताओं की टिप्पणियों से नहीं अपितु न्यायालयों द्वारा जरूरतमंद को मौलिक और शीघ्र न्याय देने में विफलता से हुआ है| आज कई उपचारहीन बुराइयां हैं जिनका समाधान करने में न्यायपलिका असमर्थ है | (लेखकीय टिपण्णी :यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने रूपा हुर्रा (ए आई आर 2002 सु को 1771) के मामले में कहा है कि  यह न्यायालय देश में प्रत्येक शिकायत के लिए मंच है|) न्याय लंबे समय से चुपचाप चिल्ला रहा है जिसके लिए वकिलों एवं न्यायधीशों को अपना दायित्व समझना चाहिए| हमें रोशनी का  रुख भीतर की ओर  करना चाहिए| प्रतिवादी ने जो कुछ उजागर किया वह प्रशासनिक पक्ष और कुछ सीमा तक न्यायिक पक्ष के कार्य करने की सचाई थी| ऐसे करने में उसने मात्र अनुच्छेद 51 क (ज) {सुधार की भावना का विकास} के अपने कर्तव्यों की पूर्ति की है| प्रतिवादी ने अपने किन्हीं छिपे उद्देश्यों के लिए नहीं किया है| इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि प्रतिवादी ने यह कलंकित करने के उद्देश्य के लिए किया हो| हम प्रतिवादी के पैरोकार से सहमत हैं  कि प्रस्तुत याचिका में सद्भावना का  अभाव है और न्यायालय की प्रक्रिया का  दुरूपयोग है| वादी ने महाधिवक्ता से जाँच समिति के तथ्य को छिपाकर सहमति प्राप्त की है| हमें खेद है कि एक पेशेवर निकाय ने कानून के गलत रास्ते का  चयन किया| परिणामतः याचिका निरस्त की जाती है और तुच्छ याचिका दायर करने के लिए वादी रूपये 200000 खर्चे के देगा जिसमें से रु 100000 विधिक सेवा समिति  में जमा किये जायेंगे और रु 100000 प्रतिवादी को दिए जायेंगे |

इन पंक्तियों के लेखक का विचार है कि जब वादी ने महाधिवक्ता से जाँच समिति के तथ्य को छिपाकर सहमति प्राप्त की और यह याचिका प्रस्तुत की तो इसमें न्याय को कलंकित करने का  प्रयास किया गया जोकि अवमान के स्पष्ट दायरे में आता है| पूर्ण न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट को याची के विरुद्ध अवमान की कार्यवाही प्रारम्भ करनी चाहिए थी| आछेपित ट्रिबुनल आदेशों में करोड़ों रुपये की हेराफेरी (जिससे याची संस्था के सदस्य निश्चित रूप से लाभान्वित हुए हैं) सामने आयी है जिसे देखते हुए मामले में लगाया  गया खर्चा तो प्रत्यर्थी के लिए नगण्य है| घावों पर मात्र शाब्दिक मरहम लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को भी पूर्ण न्याय का दर्जा नहीं दिया जा सकता है| सम्यक न्याय के लिए आवश्यक है कि दोषी को कम से कम इतना दण्ड अवश्य मिलना चाहिए की वह पुनः अपराध करने का विचार मानस में नहीं लावे| जहाँ तक प्रतिवादी को दी गयी प्रतिपूर्ति का प्रश्न है इतनी राशि तो सुप्रीम कोर्ट में वकिलों को ही देनी पड़ जाती है तो प्रतिवादी का इस कार्यवाही में बेवजह उत्पीडन, मानसिक संताप,कार्य से वंचित, आवागमन आदि पर व्यय/नुकसान  हुआ उसके लिए वस्तुतः उसे कोई क्षतिपूर्ति नहीं मिली है| 

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