Saturday 9 July 2011

न्यायिक शक्तियों की सीमाएं एवं उपयोग

सुप्रीम कोर्ट ने चिंतराम रामचन्द्र बनाम पंजाब राज्य (1996 एआईआर एससी 1406) में कहा है कि सिविल रिट दायर करना तथा पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा अपने निर्णय दिनांक 08.04.94 द्वारा अनुमत करना इस विषेश अनुमति याचिका में यहां प्रकट नहीं किया गया जबकि कुछ याची दोनों याचिकाओं में है। इस बात में गुण है कि यहां तक कि इस न्यायालय में भी पूर्ण विवरण प्रकट न करने का प्रयास किया गया है ताकि उन्हें पक्ष में निर्णय मिल सके। इस प्रकार का प्रयास हतोत्साहित किया जाना चाहिए न कि प्रोत्साहित। तद्नुसार इन अपीलों को निरस्त करते हुए प्रत्येक याची पर रूपये 5000- खर्चा लगाया जाता है। खर्चा पंजाब सरकार को देय होगा।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने (1998 क्रि.ला.रि.(राज.)240 बुपुलारी भिन्न ब्रलन्ना बनाम राज्य में कहा है कि यह अत्यन्त दुखद है कि एक सार्वजनिक परिवहन कम्पनी जो जनता के धन से चल रही है दूसरी सार्वजनिक कम्पनी पर बिना उचित कारण के झूठे व बनावटी आपराधिक अभियोजन कर इसे सौंपे गये धन को बर्बाद कर रही है। जिससे कि वह कम्पनी भी सार्वजनिक कम्पनी अपने बचाव में सार्वजनिक धन बर्बाद करने पर विवश है। मैंने परिवादी कम्पनी के पैरोकार से पूछा कि उन पर झूठे बनावटी पीड़ादायक अभियोजन तथा अधीनस्थ एवं इस न्यायालय का समय नष्ट करने के लिए उन पर खर्चा क्यों न लगाया जाये तो इसका कोई प्रत्युतर नहीं । प्रकरण के तथ्यों एवं परिस्थितियों को देखते हुए ध्यान दिया गया कि सार्वजनिक कं. तथा उसके अधिकारियों को पिछले 10 वर्षों से हैरान परेशान करने हेतु बिना उचित अधिकार के तथा दुराशयपूर्वक झूठी मुकदमेबाजी चल रही है तथा मजिस्ट्रेट न्यायालय व इस न्यायालय का समय बर्बाद किया जा रहा है जिसके लिए धारा 359 के अन्तर्गत उदाहरणात्मक क्षतिपूर्ति न्याय प्रशासन के हित में न्यायालय की प्रक्रिया का दुरूपयोग करने की बुराई का नियंत्रण के लिए आवश्क है। स्वतन्त्र रूप से दं.प्र.सं. की धारा 250, 357, 358 तथा 359 उचित प्रकरण में लागू करते हुए भी इस न्यायालय में धारा 482 सपठित धारा 483 दं.प्र.सं. में अन्तनिर्हित शक्तियों का प्रयोग करते हुए कानून/न्यायालय की प्रक्रिया का दुरूपयोग करते हैं की रोकथाम के लिए, न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिए इस प्रकरण के विशेष तथ्यों तथा परिस्थितियों के अनुसार इस प्रकार का रास्ता अपना सकता है ।
सुप्रीम कोर्ट ने मैरी एंजिला बनाम तमिलनाडू राज्य (1999 एआईआर एससी 2245) में कहा है कि इस न्यायालय ने पाया है कि उच्च न्यायालय द्वारा सत्र न्यायालय को यथा शीघ्र मामले का निपटान करने के लिए निर्देश के बावजूद अपीलार्थियों ने सत्र न्यायालय को उच्च न्यायालय के निर्देशों की अनुपालना नहीं करने दी। उक्त आचरण को देखते हुए उच्च न्यायालय ने प्रत्येक अपीलार्थी पर रूपये 10000- खर्चा लगाया है जो कि सूचितकर्ता (परिवादी) को दिया जाना है और सत्र न्यायालय को इस आदेश के संप्रेषण के 2 माह के भीतर निपटान का आदेश दिया है, यह आदेश हमारे समक्ष चुनौती अधीन है। न्यायालय धारा 482 के अन्तर्गत जहां प्रक्रिया का दुरूपयोग किया गया है जहां मामले को घसीटा गया है कोई दूसरा आदेश पारित कर सकता है किन्तु खर्चे का आदेश नहीं।

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