Sunday 10 July 2011

पूर्ण न्याय के औजार

राजस्थान उच्च न्यायालय ने सुनील कुमार बनाम लादूराम सुनाणियां (2003 डीएनजे राज 1428) में कहा है कि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के मामले में प्रार्थी ने 75700- रूपये की भरपाई का दावा दायर किया। यह साबित हुआ पाया गया कि प्रत्यर्थी ने गलत जानते हुए भी एफआईआर लिखाई थी तथा अपने आप को चश्मदीद गवाह बताया था। यद्यपि संभावित तथा तर्क संगत कारण का अभाव रिकॉर्ड पर साक्ष्य से स्थापित हो चुका है कि एफआईआर दुर्भावना से लिखाई गई थी तथा बिना तर्कसंगत कारण के प्रार्थी का अभियोजन हुआ। अन्वीक्षण जज द्वारा क्षतिपूर्ति के लिए दावा खारिज करना न्यायोचित नहीं था। अन्वीक्षण न्यायालय द्वारा पारित डिक्री तथा निर्णय को अपास्त कर मामले को क्षतिपूर्ति की राशि निर्धारण हेतु अन्वेक्षण न्यायालय को प्रतिप्रेषित किया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने शकुन्तला बाई बनाम नारायण दास के निर्णय दिनांक 05.05.04 में कहा है कि मकान मालिक की जायज आवश्कता को दावा दायरी के समय परखा जाना चाहिए। यह सुनिश्चित कानूनी स्थिति है और यदि खाली करने की डिक्री पारित कर दी जाती है तो भी अपील बकाया होने के दौरान मकान मालिक की मृत्यु से कोई अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि उसके उत्तराधिकारियों को वाद रक्षा करने का पूर्ण अधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट ने निलावती बहेड़ा उर्फ ललिता बहेड़ा बनाम उड़ीसा राज्य (1993 एआईआर एससी) में कहा है कि हमें इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यदि याची अवैध बन्दी बनाने के विरूद्ध क्षतिपूर्ति के लिए दावा दायर करती है तो न्यायालय को हर्जाने का आदेश देना पड़ेगा। क्षतिपूर्ति का अधिकार एक प्रकार से उपकरणों द्वारा किये गये अवैध कृत्यों के लिए क्षमा याचना के रूप में है जो कि जनहित के नाम पर काम करते हैं जो कि उनमें अपनी शक्तियों के संरक्षण में राज्य की ढाल की तरह काम कर रहे हैं। उच्च न्यायालय द्वारा परीक्षणाधीन व्यक्तियों के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के लिए क्षतिपूर्ति की प्रदानगी जिसे कि हथकड़ी लगाकर अनुसंधान के दौरान गलियों में से गुजारा गया यह न्यायालय असहाय नहीं है। अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत दी गई विस्तृत शक्तियों जो कि अपने आप में मूल अधिकार है इस न्यायालय पर नये औजार गढने का जो कि पूर्ण न्याय के लिए आवश्यक हो, संवैधानिक दायित्व डालते है। न्यायालय का दायित्व है कि वह नागरिकों की सामाजिक प्रेरणाओं को संतुष्ट करें क्योंकि न्यायालय तथा कानून लोगों के लिए है और उनसे अपेक्षा है कि वे उनकी भावनाओं का प्रत्युतर दे। उदाहरणात्मक क्षतिपूर्ति के लिए गलत काम करने वाले के खिलाफ दिया गया आदेश उसके लोक कर्त्तव्यों के उल्लंघन के लिए क्षतिपूर्ति है और यह व्यथित पक्षकार के द्वारा दुष्कृति के आधार पर सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में और या अपराधी के विरूद्ध व्यक्तिगत कानून में उपलब्ध अधिकार से पूर्णतया स्वतन्त्र है।
सुप्रीम कोर्ट ने रतन आर्य बनाम तमिलनाडू राज्य (एआईआर 1986 एस सी 1444) में कहा है कि हम इस बात का न्यायिक संज्ञान लेने के लिए अधिकृत है कि देश में और विशेषकर शहरी क्षेत्रों में कई गुना वृद्धि हुई है। यह सर्वविदित है कि जो सुविधा 1973 में 400- रूपये प्रतिमाह में मिलती थी वह आज कम से कम 5 गुनी हो गई है। आज के युग में 1973 में धारा 30 (2) के अन्तर्गत अधिरोपित किराये बढोतरी की सीमा अब बिल्कुल कृत्रिम तथा असंगत हो गई है।

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