Tuesday 5 July 2011

आवश्यकता है भारतीय लोकतंत्र को मजबूत प्रहरी की

आपवादिक तौर पर हमारे न्यायालयों द्वारा प्रकाशित रिपोर्टों में उनके कार्यनिष्पादन के बारे में कम एवं न्यायालय भवन, तथा न्यायालय भवनों व न्यायधीशों के रंगीन लुभावने चित्र और उनका गुणगान अधिक होता है . वैसे भी पर्यटन के अतिरिक्त अन्य विभागों की रिपोर्टें सूचना परक अधिक व चित्रमय कम से कम होनी चाहिए .इन रिपोर्टों में न्यायालयों द्वारा व्यय किये गए जनता के धन का कोई उल्लेख नहीं होता है अर्थात इन रिपोर्टों से जनता यह भी नहीं जान सकती कि प्रति मामले के निर्णय पर क्या लागत आ रही है और धन का कितना युक्तियुक्त उपयोग हो रहा है . लाखों करोड रुपये के दूरसंचार, चारा, राष्ट्रमंडल, कोलतार, पाम तेल, स्टांप आदि घोटाले सहन कर राजनेताओं को लाभ पहुँचाने वाली हमारी लोकप्रिय सरकारों के पास न्यायिक एवं पुलिस सुधार के लिए बजट का अभाव बताया जाता है .

न्यायिक स्वतंत्रता का कदापि अभिप्राय न्यायिक स्वछंदता या अकर्मण्यता, व भ्रष्टाचार को पनपानेवाली गोपनीयता नहीं है .देश के न्यायविदों औए जन प्रतिनिधियों की क्षमता और निष्ठा के प्रश्न का निर्धारण पाठकों पर छोड़ते हुए ज्ञातव्य है कि इन पंक्तियों के लेखक ने वर्ष 2010 में कानून की डिग्री प्राप्त कर अपने स्वल्प ज्ञान व अनुभव से सामाजिक न्याय की अवधारणा के आधार पर यह विषय वस्तु प्रस्तुत की है किन्तु यह दुखदायी है कि सवा अरब की आबादी वाले इस देश में कभी भी उपरोक्त समग्र मुद्दों को जनता के सामने नहीं उठाया गया है . जब कभी न्यायिक सुधारों का जिक्र हुआ तो मात्र कुछ न्यायाधीशों पर व्यक्तिगत लांछन लगाने को प्राथमिकता दी गयी और समग्र न्याय प्रणाली में मौलिक परिवर्तन कर पारदर्शिता लाने का कभी भी हार्दिक प्रयास नहीं किया गया है . इंग्लॅण्ड में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के साथ साथ प्रेस के लिए सार और जारी किया जाता है और अपनी वेबसाइट पर 6 विदेशी भाषाओं में भी गाइड प्रकाशित कर रखी है .

हमारे न्यायालयों द्वारा सामान्यतया डाक से प्राप्त प्रलेख पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती है तथा हमारे सुप्रीम कोर्ट नियम ,1966 के आदेश 10 नियम 6 (1) में कहा गया है कि सभी प्रलेख, याचिकाएं, अपील आदि काउंटर पर ही फाइल किये जाने चाहिए जबकि इंग्लॅण्ड एवं अमेरिका में डाक द्वारा फाइल करना भी अनुमत है. इंग्लॅण्ड में सुप्रीम कोर्ट नियम 2009 के नियम 7(1)(ख) में प्रावधान है कि एक प्रलेख को प्रथम श्रेणी (रजिस्टर्ड ) डाक द्वारा फाइल किया जा सकता है . हमारे न्यायालयों की जन विरोधी एवं अलोकतांत्रिक परम्परा है कि पक्षकार की अनुपस्थिति में प्रायः मामला ख़ारिज कर दिया जाता है जबकि इंग्लॅण्ड में सुप्रीम कोर्ट नियम 2009 के नियम 9 में प्रावधान है कि निश्चित प्रकार के प्रक्रियागत मामलों में बिना मौखिक सुनवाई के कार्यवाही की जा सकती है व नियम 8 में यह भी प्रावधान है कि इन नियमों की अनुपालना नहीं करने पर भी कार्यवाही अवैध नहीं होगी . लोकप्रियता के लिए, स्थापित परम्परा को छोड़कर आपवादिक मामलों में, हमारे न्यायालय पत्र याचिका पर अथवा स्वप्रेरणा से भी संज्ञान लेते हैं किन्तु दूसरी ओर नगण्य कमियों वाली याचिकाओं को भी न्यायाधीशों के आदेशों के बिना रजिस्ट्रारों द्वारा मनमाने प्रशासनिक आदेश से ख़ारिज अथवा फाइल कर दिया जाता है .कई बार पत्र याचिका के योग्य प्रकरणों में भी न्यायिक आदेश के स्थान पर सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार प्रशासनिक पत्र लिखते हैं तथा इस पत्र को भी साधारण डाक से भेजना दिखाकर प्रकरण का असामयिक पटाक्षेप कर देते हैं ताकि पक्षकार को वास्तव में कोई राहत न मिल सके .जिस प्रकार पुलिस थानों में एफ आई आर दर्ज करने में आनाकानी की जाती ठीक उसी प्रकार पक्षकार द्वारा न्यायालय में व्यक्तिशः याचिका प्रस्तुत करने पर सुविदित कारणों से उसे रजिस्टर करने में परहेज किया जाता है .इस दृष्टि से न्यायालयों एवं पुलिस थानों की कार्यशैली में कोई अंतर नहीं रह जाता है .मुख्य न्यायाधिपति को प्रेषित इस आशय की प्रशासनिक शिकायत को भी बिना समुचित कार्यवाही के निरस्त कर दिया जाता है जिससे आम जनता को विश्वास नहीं होता कि जो न्यायालय प्रशासनिक हैसियत में न्याय नहीं दे रहा है वह न्यायिक हैसियत में न्याय दे सकता है |स्पष्ट है इनमें विधि के शासन का अभाव है तथा न्यायालयों द्वारा इस प्रकार अनुच्छेद 14 द्वारा गारंटीकृत विधि के समक्ष समानता के अधिकार का खुला उल्लंघन किया जाता है और पुनः ऊपरी न्यायालय इसके साक्षी बनते हैं.जब देश का कानून , याचिकाएं व उनके जवाब तथा आदेश सभी लिखित में हों तो व्यक्तिगत उपस्थिति की उपयोगिता एवं आवश्यकता दोनों संदिग्ध हो जाती हैं.
ब्रिटिश शासन से लेकर नडियाद (गुजरात) में 25.09.89 तक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट( पीटकर जबरदस्ती शराब पिलाना) व जन सामान्य के साथ आज भी जारी पुलिस बर्बरता से भारतीय गणराज्य में आमजन ही नहीं अपितु न्यायाधीश भी भयभीत हैं . ब्रिटिश भारत में सरकार की जन विरोधी नीतियों के विरुद्ध जनता को धरने ,प्रदर्शन सत्याग्रह आदि का सहारा लेना पड़ता था और सरकार उसे कुचलने के लिए पुलिस की कर्कश आवाज़ के भय का प्रयोग करती थीं .भारतीय गणराज्य में आज भी स्वयं जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की सरकार में जन विरोधी नीतियों के विरुद्ध जनता को धरने ,प्रदर्शन ,सत्याग्रह आदि का सहारा लेना पड़ता है . आज भी भारतीय गणराज्य की पुलिस को आधी रात रामलीला मैदान में सोते बच्चों व महिलाओं पर लाठियां बरसाकर रावणलीला खेलने से रोकने वाला कोई कानून नहीं है .जहाँ किसी मामले में लंबे समय तक समन या वारंट तामिल नहीं होने से वह बकाया रहता है तो न्यायाधीश दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपने अधिकारों का प्रयोग कर कोई न्यायिक आदेश पारित करने के स्थान पर डी ओ लेटर लिखकर उच्च पुलिस अधिकारियों से गवाह या अभियुक्त की शीघ्र तलबी की विनती करते हैं .


हमारे न्यायालयों द्वारा प्रायः निचले स्तर के न्यायालय द्वारा चूक रहने पर मामले को लंबी अवधि के बाद भी उसे निचले न्यायालय द्वारा पुनः सुनवाई के लिए रिमांड किया जाता है जबकि इंग्लॅण्ड में सुप्रीम कोर्ट नियम 2009 के नियम 29 में प्रावधान है कि सुप्रीम कोर्ट को निचले न्यायालय के सभी अधिकार हैं . विदेशों में जिला न्यायालयों को रिट क्षेत्राधिकार प्राप्त है तथा हमारे संविधान के अनुच्छेद 32 (3) में भी ऐसा ही प्रावधान है अतः हमारी संसद को चाहिए कि जिला न्यायालयों को रिट क्षेत्राधिकार प्रदान करे ताकि लोगों को सस्ता व सुलभ न्याय मिल सके और ऊपरी न्यायलयों में कार्यभार कम हो .


न्यायाधीशों के चयन की हमारी प्रक्रिया भी बड़ी दोषपूर्ण है . हमारे यहाँ मात्र एक वकील ही न्यायाधीश बन सकता है जबकि इंग्लॅण्ड के संवैधानिक सुधार अधिनयम,2005 की धारा 1 में विधि के शासन पर बल दिया गया है तथा धारा 2 के अनुसार वहाँ के लोर्ड चांसलर की योग्यता के लिए सदन के सदस्य या मंत्री या विश्वविद्यालय में कानून के अध्यापक का अनुभव भी शामिल है . हमारे सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट के न्यायाधीश के लिए कोई योग्यता परीक्षा पास करने की आवश्यकता नहीं है किन्तु सुप्रीम कोर्ट नियम ,1966 के आदेश 4 नियम 6 (ख) में कहा गया है कि कोई भी वकील एडवोकेट ओन रिकोर्ड के बिना किसी पक्षकार की ओर से कार्यवाही करने और उपस्थित होने के लिए अधिकृत नहीं होगा व कोई भी वकील जब तक नियम के अनुसार एडवोकेट ओन रिकोर्ड की परीक्षा पास नहीं कर लेता एडवोकेट ओन रिकोर्ड के रूप में रजिस्टर्ड नहीं हो सकता . यद्यपि राज्य सभा की समिति ने अपनी 44 वीं रिपोर्ट दिनांक 9.12.10 में उच्च न्यायालयों में न्यायधीशों की भर्ती हेतु लिखित परीक्षा की अनुशंषा की है

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