Tuesday 19 July 2011

पुलिस अभिरक्षा एवं गिरफ़्तारी

सुप्रीम कोर्ट ने बालचन्द जैन बनाम मध्यप्रदेश राज्य (1977 एआईआर 366) में कहा है कि आपातकालीन परिस्थितियों में  न्यायालय अग्रिम जमानत का अंतरिम आदेश  दूसरे पक्ष को नोटिस जारी किये बिना दे सकते है। धारा 438 में  अधिनियम में विधायिका का उद्देश्य स्पष्ट  है कि गैर जमानती अपराधों में लागू होता है कि जनता की स्वतन्त्रता का बनावटी आधारों पर गैर जिम्मेवार व्यक्तियों या अधिकारियों जो कि अभियोजन प्रभारी हो सकते हैं द्वारा हनन न हो। हम इसे तर्कसंगत समझते हैं कि विधायिका विरोधाभासी अधिनियमों को बनाये रखना नहीं चाहती और इसलिए ऐसा अर्थ स्वीकार किया जाना चाहिए जो कि दोनों विरोधाभास से बचे।
सुप्रीम कोर्ट ने सी.बी.आई. बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी (1999 3 एससीसी 141) में कहा है कि कानून सामान्यतया पुलिस अभिरक्षा के पक्ष नहीं  है। यदि किसी बाद के चरण पर और अधिक या गंभीर अपराध प्रकट हो तो प्रथम 15 दिन के बाद ऐसी स्थिति में भी पुलिस अभिरक्षा में निरूद्ध नहीं रखा जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने अरविन्दर सिंह बग्गा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1993 सप्ली (3 एसीसीसी 716) में कहा है कि हमने दोनों पक्षों के पैरोकारों को सुना है। जब याचिका दायर की गई थी लड़की पुलिस अभिरक्षा में थी। अब वह छोड़ दी गई है। किन्तु हमें भय है कि यह मामले का अन्त नहीं हो सकता इस बात के निर्धारण के लिए कि क्या याची को अवैध बन्दी बनाये जाने पर उसके अनुच्छेद 21 में मूल अधिकार के उल्लंघन के लिए रिट याचिका बन्दी प्रत्यक्षीकरण में आपराधिक या सिविल दायित्व जो कि सामान्य कानून से तय किया जा सकता है के अतिरिक्त सार्वजनिक कानून के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति का पात्र है।

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