Sunday 31 July 2011

आपराधिक न्यायतंत्र की निष्क्रिय भूमिका

सुप्रीम कोर्ट ने सोमनाथ पुरी बनाम राजस्थान राज्य (1972 एआईआर एस सी 1490) में कहा है कि भा00सं0 की धारा 405 प्रथम घटक के रूप में किसी भी प्रकार सम्पति का सौंपना या अखतियार प्रदान करना आपराधिक न्यास भंग के लिए आवश्यक बनाती है। शब्द किसी भी प्रकार सेइस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। जब तक अभियुक्त को संपति पर कब्जा एक विशेष उद्देश्य या विशेष तरीके से व्यवहार करने के लिए अभियुक्त से अलग व्यक्ति में स्वामित्व रखते हुए दिया जाय तो यह कहा जा सकता है कि उसे सम्पति स्वामी के लाभ के लिए सौंपी गई थी। धारा 409 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति सौंपी गई विस्तृत अर्थ में है और सभी मामले जिसमें विशेष उद्देश्य के लिए सम्पति स्वैच्छिक रूप से सौंपी गयी हो और जिन शर्तों पर कब्जा दिया गया था उनसे विपरीत बेईमानीपूर्वक निपटान कर दिया गया हो। एक व्यक्ति जब दूसरे की ओर से धन संग्रह करने के लिए अधिकृत है तो उसकी ओर से दिये जाने वाले का उस धन पर कोई स्वामित्व हित नहीं है। लेकिन जिसकी तरफ से राशि संग्रहित की गई वह उसको धन सौम्पते ही मालिक बन जाता है। रकम यात्रियों द्वारा अभियुक्त को इस प्रकार नहीं दी गई किन्तु इण्डियन एयरलाईन्स कॉरपोरेशन को दी गई और जैसे ही रकम प्राप्त हुई और उसकी रसीद यात्री को दी गई उसे रकम सौंप दी गई उसका बाद का आचरण जिसमें प्रतिपर्ण में मिथ्याकरण किया गया। उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अधीन आपराधिक न्यास भंग के साथ-साथ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (2) के साथ-साथ 5 (1) सी दोषी  बनाती है।
फलकशेर बनाम राजस्थान राज्य (1978 क्रि.ला.रि. राज 613) में राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा है कि यह निःसंदेह ठीक है कि संज्ञेय अपराध के मामले में एफआईआर यथाशीघ्र दर्ज कराई जानी चाहिए और जहां रिपोर्ट कराने में देरी होती है वहां इसका रंगीन कथन, सोची समझी कहानियां, तोड़े-मरोड़े गये तथ्य और उनमें से कुछ झूठा गवाह दिखाया जाना और कुछ निर्दोष  लोगों को फंसाना  और उन्हें दोषी ठहराना प्रभाव है । इसी कारण से न्यायालय ने तुरन्त रिपोर्ट लिखाने और निकटतम मजिस्ट्रेट को तुरन्त प्रति भेजने पर बल दिया है ।दी गई परिस्थितियों के मद्देनजर मजिस्ट्रेट को एफआईआर 24 घण्टे के बाद भेजी गई। अतः सोची समझी गई कहानी की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

(लेखकीय टिपण्णी :एफ आई आर में विलम्ब के सम्बन्ध में भारतीय न्यायालयों का उक्त दृष्टिकोण दोषपूर्ण  है क्योंकि मात्र एफ आई आर दर्ज हो जाने से ही न्याय हित को क्षति नहीं पहुँच जाती है| एफ आई आर तो मात्र परिवादी का एक कथन है जिसके आधार पर किसी को सजा नहीं हो सकती है |सजा के लिए तो तथ्यों का प्रमाणित होना आवश्यक है | वैसे भी एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में दर्ज होने वाली एफ आई आरों में से मात्र १.५% में ही सजाएँ  होती हैं |यदि कहानी झूठी हो हो तो न्यायालयों के पास दण्ड एवं क्षतिपूर्ति के दोनों उपचार हैं| मात्र विलम्ब के कारण किसी मामले को निरस्त करना नवजात शिशु के वध के समान है| पुलिस द्वारा कितनी जल्दी एफ आई आर दर्ज की जाती है इससे न्यायाधीश (भूतपूर्व वकील) अनभिज्ञ नहीं हैं| स्वयं मजिस्ट्रेट भी महीनों तक परिवाद ( बाबूलाल बनाम राजस्थान) को लटका देते हैं | मजिस्ट्रेट के माध्यम से भेजे गए परिवादों में भी महीनों बाद एफ आई आर दर्ज होती हैं और स्वयं न्यायालय कोई सम्यक अनुवर्ती कार्यवाही करने के स्थान बेबस मूकदर्शक बने रहते हैं| जब देश के मजिस्ट्रेटों और पुलिस की यह स्थिति हो तो .... परिणति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है |एफ आई आर दर्ज होने के बाद पुलिस को तुरंत घटना स्थल पर जाकर साक्ष्य एकत्रित करना चाहिए ताकि साक्ष्यों के साथ कोई छेड़छाड़ न हो किन्तु अनुसन्धान एवं परीक्षण में प्राय इतना विलम्ब होता है कि पक्षकार मामले को भूल जाते हैं अथवा महत्वपूर्ण साक्ष्य तब तक उपलब्ध नहीं रहते| परीक्षण पूरा न होने तक पक्षकार न्यायिक प्रक्रिया के बंधक बने रहते हैं यह  बात  न्यायालयों की अंतरात्मा को भी झकझोर नहीं पाती है| न्याय का आतंक नहीं अपितु मानवीय चेहरा होना नितांत आवश्यक है यह स्मरणीय है|)




क्या आपको ज्ञान है कि कई बार जब न्यायालय में कोई जमानत आवेदन नहीं आता तो अक्सर न्यायधीश और उनका स्टाफ उदास हो जाता है |

1 comment:

  1. “क्या आपको ज्ञान है कि कई बार जब न्यायालय में कोई जमानत आवेदन नहीं आता तो अक्सर न्यायधीश और उनका स्टाफ उदास हो जाता है”

    नहीं, हमें नहीं पता क्या राज है इसके पीछे.क्या यहाँ पर सौदेबाजी का चक्कर है.

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