Tuesday 26 July 2011

जमानत का कानून

सुप्रीम कोर्ट ने कल्याण चन्द सरकार बनाम राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव (2004 (07, एससीसी 528) में कहा है कि जमानत देने या मना करने का कानून निश्चित है। न्यायालय को जमानत देते समय अपने विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायिकतः करना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने रविन्द्र सक्सेना बनाम राजस्थान राज्य के निर्णय दिनांक 15.12.09 में कहा है कि चूंकि जमानत से मनाही व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित करती है। न्यायालय को धारा 438 के प्रतिबन्धों के लगाये जाने के विरूद्ध झुकना, विशेषतः तब जबकि विधायिका ने इस धारा में ऐसे कोई प्रतिबन्ध  नहीं लगाये तो, चाहिये। धारा 438 व्यक्ति की स्वतन्त्रता से सम्बन्धित एक प्रक्रियागत प्रावधान है जो कि इस बात का लाभ पाने का अधिकारी है कि वह निर्दोष, क्योंकि वह आवेदन की तिथि को जिस अपराध के लिए जमानत मांग रहा है का, दोषसिद्ध नहीं है। ऐसे प्रतिबन्ध एवं शर्तें जो धारा 438 में नहीं उसे संवैधानिकतः जोखिमपूर्ण बनाते हैं क्योंकि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को अनुचित प्रतिबन्धों की अनुपालना के अधीन नहीं किया जा सकता। धारा 438 के लाभप्रद प्रावधान को बचाया जाना चाहिये न कि उसे फेंका जाना चाहिये। धारा 438 जिस रूप में है जिसे कि विधायिका ने सोचा समझा है किसी भी आधार जो अन्य अनुचित एवं अन्यायपूर्ण हो के अपवाद के लिए खुली है। हमें ऐसे शब्दों,जो कि इसमें नहीं है, के पठन से इसे किसी भी संवैधानिक चुनौति से बचाना चाहिए ।

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