Saturday 31 December 2011

सूचना अधिकारी सभी प्रश्नों के जवाब दे

केन्द्रीय सूचना आयोग ने प्रकरण सी आई सी/डब्ल्यू बी/ए/2006/00766: डा एस एन शर्मा बनाम इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ पेट्रोलियम के निर्णय में कहा है कि डा शर्मा ने तर्क दिया कि उसे दूसरे प्रश्न के खंड ए से डी तक का जवाब नहीं दिया गया है| उन्होंने कहा कि उन्हें प्रश्न 1 से 3 तक के लिए सूचना मिल गयी है किन्तु वे उससे पूर्णतया संतुष्ट नहीं है| उक्त के आलोक में जन सूचना अधिकारी को निर्देश दिए जाते हैं कि वे प्रश्न संख्या २ और उसके भाग ए से ई तक का जवाब एक सप्ताह के भीतर देंगे|

Friday 30 December 2011

स्टोक एक्सचेंज कानूनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए अधिनियम की धारा 2 (एच) के अंतर्गत लोक प्राधिकारी है

केन्द्रीय  सूचना आयोग ने प्रकरण सी आई सी/ए टी/ए/2006/00684: राजकुमारी अग्रवाल बनाम जयपुर स्टोक एक्सचेंज लिमिटेड  के निर्णय में कहा है कि कानून के अंतर्गत जयपुर स्टोक एक्सचेंज एक अर्ध सरकारी संस्था होते हुए और कानूनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए अधिनियम की धारा 2 (एच) के अंतर्गत लोक प्राधिकारी है| अतः यह निर्णय प्राप्त होने के एक माह के भीतर वे अधिनियम को लागू कराने की व्यवस्था करें| वे जन सूचना अधिकारी को नियुक्त कर अधिसूचित करें और उससे वरिष्ठ  अधिकारी को अधिनियम के अंतर्गत  अपीलीय अधिकारी नियुक्त करें| वे धारा 4(1) के बाध्यकारी प्रावधानों की भी अनुपालना करें| अन्य स्टोक एक्सचेंजों को  तीन माह के भीतर अधिनियम की आवश्यकताओं की अनुपालना के लिए अनुमति दी जाती है|

Tuesday 27 December 2011

नाम निर्देशित व्यक्तियों या मृतक के उत्तराधिकारियों को सूचना दी जाय

केन्द्रीय  सूचना आयोग ने प्रकरण सी आई सी/पी बी/ए/2007/00217 : पी नागज्योति  बनाम डाक  विभाग   के निर्णय में कहा है कि मासिक आय योजना का दावा कानूनी प्रक्रिया से निपटाया जाय| तदनुसार मासिक आय योजना के नाम निर्देशित व्यक्तियों  या मृतक के उत्तराधिकारियों को सूचना दी जाय| जन सूचना अधिकारी को तदनुसार निर्देश दिए जाते हैं|

Monday 26 December 2011

सरकारी विभाग की कार्यप्रणाली में अधिकतम प्रकटन का अनुसरण करें

केन्द्रीय  सूचना आयोग ने प्रकरण सी आई सी /पी बी/ए /2007/ 00078  : मैथ्यू पल्मतम  बनाम दूर संचार विनियामक प्राधिकरण के निर्णय में कहा है कि प्रत्यर्थी ने आवेदक द्वारा मांगी गयी सूचना के प्रकटन में अनावशयक प्रतिरोध दिखाया है| यदि वे अपने  साथियों के लिए इस प्रकार की गोपनीयता बरतते हों तो वे आम नागरिक के लिए किस प्रकार खुलापन व पारदर्शिता अपना सकते हैं| पक्षकारों को  सरकारी विभाग की कार्यप्रणाली में  अधिकतम प्रकटन  का अनुसरण कराने व खुलापन प्रोन्नत करने का परामर्श दिया जाता है| 

Sunday 25 December 2011

अधिसूचना जारी करने का कारण आवेदक को सूचित करे

केन्द्रीय सूचना आयोग ने प्रकरण सी आई सी/डब्ल्यू बी/सी/2007/00112  : नविन प्रकाश गुप्ता  बनाम कार्मिक व प्रशिक्षण विभाग  के निर्णय में कहा है कि अपीलार्थी की यह आपति है कि उसे अधिसूचना की प्रति मिल गयी है किन्तु  विभाग ने करण नहीं बताया है कि रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन को  अधिनियम की दूसरी अनुसूची में क्यों डाला गया है| हम पते हैं कि श्री गुप्ता को रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन को  अधिनियम की दूसरी अनुसूची में डालने की अधिसूचना की प्रति मिल गयी है | फिर भी श्री गुप्ता ने इसे शामिल कराने का कारण की सूचना मांगी है| हम पाते हैं कि विभाग ने श्री गुप्ता के मूल आवेदन पत्र के इस बिंदु विशेष पर कोई कारण नहीं बताया है|जन सूचना अधिकारी को निर्देश दिया जाता है कि वह इस आदेश के जारी होने के एक सप्ताह के भीतर उक्त अधिसूचना जारी करने का कारण आवेदक को सूचित करे|

Saturday 24 December 2011

भ्रष्ट व्यवहार के सन्दर्भ में जांच सार्वजनिक जानकारी हेतु रखा जाना चाहिए

केन्द्रीय  सूचना आयोग ने प्रकरण सी आई सी /पी बी/ए/2007/00527 : ए गणेशन बनाम डाक विभाग  के निर्णय में कहा है कि भ्रष्ट व्यवहार के सन्दर्भ में जांच रिपोर्ट को जैसे ही जांच व उसकी अनुवर्ती कार्यवाही पूर्ण हो , सार्वजनिक जानकारी हेतु रखा जाना चाहिए  ताकि भ्रष्टाचार को उखाडने के लिए प्रयासों की जन संवीक्षा हो सके| जन सूचना अधिकारी को तदनुसार आदेशित किया जाता है|

Friday 23 December 2011

सूचना हेतु शुल्क जमा कराने में 10 से 15 मिनट से अधिक समय नहीं लगे

केन्द्रीय  सूचना आयोग ने प्रकरण सी आई सी/ओ के/ए/2007/00058  के निर्णय में कहा है कि अपीलार्थियों को पहले मंडलीय कार्यालय के जन सूचना अधिकारी के यहाँ आवेदन पत्र जमा कराने हेतु पंक्ति में खड़ा रहना पड़ा और तत्पश्चात धनबाद रेलवे स्टेशन जोकि 300 मीटर दूर है वहाँ शुल्क जमा करवाने जाना पड़ा| इस प्रक्रिया में  आवेदक को 600 मीटर मात्र शुल्क जमा करवाने चलना पड़ा, वह भी एक सामान्य बुकिंग काउंटर पर जहां सामान्य प्रतीक्षा समय 20 मिनट है| इसलिए निर्धारित शुल्क जमा कराने में औसतन डेढ़ घंटा समय लगता है| मंडल रेल प्रबंधक को निर्देश दिया जाता है कि वह सुनिश्चित करे कि  सूचनार्थ आवेदकों को शुल्क जमा कराने सामान्य  बुकिंग काउंटर पर खड़ा नहीं रहने पड़े| उसे इस आदेश की प्राप्ति के 10 दिवस में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संशोधित प्रणाली से शुल्क जमा कराने सहित कार्य भागदौड़ रहित हों और न्यूनतम समय लगे , किन्तु किसी भी स्थिति में 10 से 15 मिनट से अधिक समय नहीं लगे|

Thursday 22 December 2011

एक सूचना उसी प्रारूप में दी जायेगी जिस रूप में मांगी गयी

केन्द्रीय  सूचना आयोग ने प्रकरण सी आई सी/डबल्यू/ए/2007/00751 के निर्णय में कहा है कि अधिनियम की धारा 7 की उपधारा 9 में प्रावधान है कि एक सूचना सामान्यतया उसी प्रारूप में दी जायेगी जिस रूप में मांगी गयी है| अतः अपीलार्थी हरिन्द्र तिवारी द्वारा प्रारंभिक आवेदनपत्र में उठाये गए पाँचों प्रश्नों का बिन्दुवार जवाब दिया जाना चाहिए| चूँकि आदेशानुसार सूचना नहीं दी गयी है अतः अपील अनुमत की जाती है| जन सूचना अधिकारी अब इस आदेश की प्राप्ति के दस कार्यदिवसों के भीतर उपरोक्त चार्ट के अनुसार  सूचना देगा| चूँकि सूचना विहित समायावधि के भीतर नहीं दी गयी है यह धारा 7(6) के अंतर्गत  निशुल्क दी जायेगी|

Wednesday 21 December 2011

सूचना का अधिकार में हिंदी में अनुदित प्रति देने के आदेश प्रदान किये

उतराखण्ड उच्च न्यायालय ने राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष  आयोग बनाम उतराखण्ड राज्य सूचना आयोग के निर्णय दिनांक 27/03/10 में कहा है कि सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों को भारतीय संविधान के आलोक के साथ-साथ उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के साथ पढ़ने से बड़ा स्पष्ट एवं जोरदार कथन मिलता है कि वर्तमान प्रकरण में राज्य उपभोक्ता आयोग जैसे ही अपेक्षा की गई, अपने आदेश /निर्णय की अनुदित प्रति देने के लिए कर्तव्य बाध्य था। लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा उनके परिचय तथा संस्कृति की प्रतिनिधि है। यह राष्ट्र  के साथ-साथ राज्य के परिचय के लिए भी महत्वपूर्ण है। हमें हमारी भाषा पर गर्व होना चाहिए। हिन्दी मात्र संघ की ही राज भाषा नहीं है अपितु यह उतराखण्ड की भी राज भाषा है। जिन्होंने भारत के संविधान का एकाकी निर्माण किया उनके लिए भी भाषा जटिल प्रश्न रही है। किन्तु भारत के संविधान को लागू हुए 60 वर्ष  हो गये है। अब किसी के मानस में विशेषकर  राज्यों में राज भाषा की स्थिति के विषय में लोक प्राधिकारियो के -संदेह नहीं रहना चाहिए । रिट याचिका गुणहीन है और इसलिए निरस्त की जाती है। याची को आज से दो माह के भीतर अनुदित प्रति देने के आदेश  प्रदान किये जाते हैं।

Tuesday 20 December 2011

अधिकांश सूचनाएं लोक प्राधिकारी द्वारा स्वप्रेरणा से धारा 4 के अन्तर्गत देनी है

उतराखण्ड उच्च न्यायालय ने राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष  आयोग बनाम उतराखण्ड राज्य सूचना आयोग के निर्णय दिनांक 27/03/10 में कहा है कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का मौलिक सिद्धान्त है कि सूचना जैसा कि अधिनियम में परिभाषित है  नागरिकों को सूचना बिना बाधा या नौकरशाही के व्यवधान के दी जानी चाहिए। अधिनियम इसके उद्देश्य तथा कारणों में कहता है कि यह नागरिकों को सूचना के अधिकार के व्यावहारिक शासन देने के लिए अधिनियमित किया गया है। यहां तक कि आज भी यह भ्रान्त धारणा है कि सूचना नागरिकों द्वारा मांगने पर ही दी जाती है। मामला यह नहीं है अधिकांश  सूचनाएं लोक प्राधिकारी द्वारा स्वप्रेरणा से धारा 4 के अन्तर्गत देनी है तथा इन्टरनेट सहित विभिन्न साधनों से अद्यतन करनी है ताकि सूचना प्राप्ति हेतु इस अधिनियम का प्रयोग न्यूनतम करना पड़े। दूसरे शब्दों में लोक प्राधिकारी को इस प्रकार प्रयास करने चाहिये कि नागरिकों को सूचना उपलब्ध संचार संसाधनों इन्टरनेट सहित से तैयार मिले ताकि उन्हें धारा 6 के अन्तर्गत आवेदन ही न करना पड़े। एक सूचना नागरिक को ऐसी भाशा में दी जानी चाहिए जिसे वह समझता हो। यह विधायी आदेश  है कि क्षेत्र की स्थानीय भाषा को देखते हुए सूचना प्रसारित की जानी चाहिए। ऐसा ही आदेश  संविधान के अनुच्छेद 350 सहपठित अनुच्छेद 345 में दिया गया है। चूंकि लोक प्राधिकारी द्वारा पारित आदेश  एक प्रलेख है तथा धारा 2 (आई) एवं 2 (एफ) में सूचना है। इस बात में कोई विवाद नहीं है कि राज्य उपभोक्ता आयोग राज्य का उपकरण है। उन्हें राज्य के समेकित कोष  से वेतन दिया जाता है तथा राज्य सरकार द्वारा उनकी सेवा शर्तें नियत की जाती है। एक लोक प्राधिकारी को नागरिकों को सुगम तरीके से नागरिकों को  सूचनाएं देने में सुविधा देनी चाहिए।

Monday 19 December 2011

व्यक्तिगत सूचना का दायरा सीमित है

केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपील सं0 सीआईसी /एटी /ए /2007/00245 के निर्णय दिनांक 07/06/07 में कहा है कि नागरिकों द्वारा जनसंख्या, कृषि  समंक या इसी प्रकार से स्वेच्छा से दिये गये आंकड़े लोक प्राधिकारी को इस आश्वासन के साथ दिये जाते हैं कि ऐसी सूचना गोपनीय रखी जावेगी।ऐसी सूचनाओं में महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि गोपनीय होने के अतिरिक्त यह किसी भी प्रकार से वीसा या हथियार लाईसेन्स प्राप्ति के विशेषाधिकार से जुड़ी हुई नहीं है। इसलिए प्रथमोक्त सूचना व्यक्तिगत एवं गोपनीय है जबकि बाद वाली नहीं। वीसा देना कानून द्वारा अधिकृत गतिविधि है जो इस प्रकार की स्वीकृति के लिए मौलिक साक्ष्य  है वह व्यक्तिगत सूचना नहीं कही जा सकती। इसलिए ऐसी सूचना धारा 8 (1) (जे) के अन्तर्गत छूट अकर्षित नहीं करेगी। ऐसे मामलों में सूचना का प्रकटन नियम होगा तथा मनाही अपवाद होगा। मैं अपीलीय प्राधिकारी के तर्क को अस्वीकार करता हूं तथा धारित करता हूं कि विदेशी द्वारा वीसा के लिए दी गई सूचना या वीसा प्रदानगी हेतु अन्य गतिविधि के लिए दी गई सूचना यदि नागरिक सूचना मांगता है तो सार्वजनिक करनी होगी। ये निर्देश  विभिन्न सम्बन्ध गतिविधियों जैसे कि आवास अनुज्ञा पत्र, कार्य अनुज्ञा पत्र आदि जारी करने के लिए भी प्रभावी होगी।

Sunday 18 December 2011

असूचित नागरिकता लोकतन्त्र को षड्यन्त्र बना देती है

केन्द्रीय सूचना आयोग ने परिवाद सं0 सीआइसी /डब्ल्यू बी/ सी/2009/000352 में कहा है कि उपराष्ट्रपति का सचिवालय भारत सरकार के गजट में प्रकाशित अधिसूचनानुसार धारा 27 के अन्तर्गत लोक प्राधिकारी है तद्नुसार उपराष्ट्रपति सचिवालय को सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 19 (8)(ए) के अन्तर्गत निर्देश  दिया जाता है कि सूचना चाहने के प्रारूप को इस प्रकार संशोधित करे कि यह अधिनियम तथा उसके अधीन बनाये गये किसी भी नियम के प्रावधान टकराव में न आये।
सुप्रीम कोर्ट ने सचिव सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय बनाम बंगाल क्रिकेट एसोसिअशन  (1995 एआईआर 1236) में कहा है कि लोकतन्त्र मुक्त विचार विमर्श से लोगों की सरकार है। लोकतांत्रिक शासन स्वयं अपने नागरिकों की समाज के मामलों में सक्रिय तथा बुद्धिमतापूर्वक भागीदारी की मांग करता है। लोगों की भागीदार के साथ सार्वजनिक विचार विमर्श  मूल तत्व है तथा लोकतन्त्र एक तर्कसंगत प्रक्रिया है जो कि इसे दूसरी शासन प्रणालियों से भिन्न बनाती है। एक तरफा सूचना, सूचना नहीं होना, गलत सूचना सभी समान रूप से असूचित नागरिकता को जन्म देती है जो कि लोकतन्त्र को षड्यन्त्र बना देती है।

Saturday 17 December 2011

सूचना चाहने वाले धारा 8 या 9 में उल्लिखित आधारों के अतिरिक्त को मना नहीं किया जा सकता

दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारत संघ बनाम केन्द्रीय सूचना आयोग      रिट याचिका सं0 8396/2009 के निर्णय में कहा है कि याची का कथन कि प्रत्यर्थी सं0 2 को दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन एफ आई आर  की प्रति नहीं दी जा सकती है गुणहीन है, जैसे कि कथित सूचना सूचना का अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत चाही गयी है और सूचना देय है या नहीं इसका निर्णय सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रावधान लागू करके ही जांच की जा सकती है। अधिनियम की धारा 22 के अनुसार कथित अधिनियम संहिता सहित पूर्ववर्ती किसी भी कानून पर अभिभावी है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 सूचना का अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत मनाही का आधार नहीं हो सकती। जहां कहीं भी सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों तथा दूसरे कानून जो इसके अधिनियम की तिथि को विद्यमान थे के मध्य टकराव हो तो सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 2 (एफ) में परिभाषित सूचना मांग लेता है तो उसके लिए धारा 8 या 9 में उल्लिखित आधारों के अतिरिक्त सूचना चाहने वाले को मना नहीं किया जा सकता। लोक सूचना अधिकारी या अपील प्राधिकारी सूचना देने के लिए नये कारण या आधार नहीं जोड़ सकते।

Friday 16 December 2011

न्यायपालिका में पारदर्शिता न्यायिक शक्तियों के दुरूपयोग पर नियंत्रण है

सुप्रीम कोर्ट ने क्रान्ति एण्ड एसोसियेटेड बनाम मसूद अहमद खान की अपील सं0 2042/8 में कहा है कि इस बात में संदेह नहीं है कि पारदर्शिता न्यायिक शक्तियों के दुरूपयोग पर नियंत्रण है। निर्णय लेने में पारदर्शिता न केवल न्यायाधीशों तथा निर्णय लेने वालों को गलतियों से दूर करती है बल्कि उन्हें विस्तृत संवीक्षा के अधीन करती है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मुजीबर रहमान बनाम केन्द्रीय सूचना आयोग के निर्णय दिनांक 28/04/09 में कहा है कि न्यायालय, जिन परिस्थितियों में सूचना का अधिकार अधिनियम बनाया तथा लागू किया गया है, के प्रति असावधान नहीं रह सकता। यह खुलेपन की संस्कृति को राज्य एजेन्सियों तथा लोक प्राधिकारियों के व्यापक भाग जिनके कार्य लोगों तथा उनके जीवन पर लम्बे तथा महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। सूचना मांगने वालों को वह सब कुछ दिया जाना चाहिए यदि उनका प्रकटन अधिनियम द्वारा मना नहीं है। उन्हें बिल्कुल अकर्मण्यता या लोक प्राधिकारियों या उनके अधिकारियों द्वारा दूर नहीं भगाया जाना चाहिए। यह इन लक्ष्यों को सुनिश्चित करने के लिए है कि निरपेक्ष शब्दों में दण्ड प्रावधानों के साथ-साथ समय सीमा निर्धारित की गई है। वे सूचना प्रकटन की संस्कृति को सुनिष्चित करने के लिए जिससे कि सशक्त लोकतन्त्र कार्य कर सके। न्यायालय का विचार है कि जहां तक विच्छेपित आदेश  छठे प्रत्यर्थी पर अर्थ दण्ड नहीं लगाता है अवैध घोषित किया जाता है। प्रकरण की परिस्थितियों में तीसरा प्रत्यर्थी रूपये 50000- खर्चा आज से छह सप्ताह के भीतर प्रार्थी को देगा तथा तीसरा प्रत्यर्थी रूपये 25000- अर्थ दण्ड देगा।

Thursday 15 December 2011

सेवा ग्रहण करने पर सरकार कर्मचारी के शरीर तथा आत्मा की मालिक नहीं बन जाती

कैप्टन एम पॉल एंथोनी बनाम भारत गोल्ड माइन्स के निर्णय दिनांक 30/03/99 में सुप्रीम कोर्ट ने  कहा है कि सरकारी सेवा ग्रहण करने पर एक व्यक्ति अपने मानव होने के नाते मौलिक अधिकारों को बन्धक नहीं रख देता या उसके मूल अधिकारों सहित सरकार के पक्ष में बदले में छोड़ नहीं देता है। सरकार मात्र इस कारण की वह नियुक्ति करने का अधिकार रखती है कर्मचारी के शरीर तथा आत्मा की मालिक नहीं बन जाती है सरकार अपने नागरिकों को कार्य का अवसर देकर राज्य के नीति निर्देशक तत्वो सहित अपने संविधान सम्मत दायित्वों की पूर्ति करती है। नियोजन ग्रहण करने पर एक कर्मचारी मात्र उसकी सेवा से सम्बन्धित नियामक उपायों पर सहमत होता है उसका सरकार या अन्य नियोक्ता यथा सरकारी उपकरण या संविधिक या स्वशासी निकाय आदि सम्बन्द्धता केन्द्र या राज सरकार द्वारा नियत सेवा नियमों या सेवा अनुबन्ध से शासित होता है। मूल अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीवन के अधिकार सहित या मूलरूप से मानवीय अधिकार कर्मचारी द्वारा समर्पित नहीं किये जाते हैं।

Wednesday 14 December 2011

विदेशों में ओम्बडस मैन की कार्य प्रणाली

एक सेवा अनुबन्ध में प्रविष्ट होने पर एक व्यक्ति गुलामी का बन्धपत्र हस्ताक्षरित नहीं कर देता

सुप्रीम कोर्ट ने सेन्ट्रल इनलैण्ड वाटर ट्रांसपोर्ट बनाम ब्रजोनाथ गांगुली (1986 एआईआर 1571) में कहा है कि एक सेवा अनुबन्ध में प्रविष्ट होने पर एक व्यक्ति गुलामी का बन्धपत्र हस्ताक्षरित नहीं कर देता व एक स्थायी कर्मचारी को पदत्याग के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। एक पदत्याग के प्रभावी होने के लिए सामान्यतया नियोक्ता द्वारा स्वीकृति की आवश्यकता है।

Tuesday 13 December 2011

कर्मचारी ने आवश्यक न्यूनतम सेवा की है तो कर्मचारी पेंशन का पात्र होगा

श्रीमती सत्या श्री नाथ बनाम सिंडीकेट बैंक (एआईआर 2003 कर्नाटक 2605) में कहा है कि एक कर्मचारी की पेंशन तथा अन्य अनुसंगिक लाभ की पात्रता निर्धारित करने के लिए न्यायालय को आवश्यक रूप से ध्यान रखना चाहिये कि कानून में स्थिति स्पष्ट है कि जब एक कर्मचारी ने पेंशन के लिए आवश्यक न्यूनतम सेवा की है तो विनियमों- नियमों के अधीन चाहे उसने योग्यता प्राप्त सेवा पूर्ण करने के बाद सेवा त्यागी हो कर्मचारी पेंशन का पात्र होगा और अन्यथा यह नियम की कर्मचारी ने यद्यपि निर्धारित सेवा पूर्ण कर ली है किन्तु पद त्याग है इस आधार पर पेंशन के लिए मना करना अनुच्छेद 14 तथा 16 का उल्लंघन है।

Monday 12 December 2011

अवमान कानून का दुरूपयोग करने पर न्यायाधीश दण्डित

अमेरिका के मिसिसिपी प्रान्त के सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीश लीघ एन डर्बी के विरुद्ध अपने निर्णय दिनांक 29.08.11 में पाया है कि न्यायाधीश डर्बी ने न्यायिक आचार संहिता के नियम 1, 2ए, और 3बी (2) का उल्लंघन किया है और परिणाम स्वरूप मिसिसिपी के संविधान की धारा 177ए के अंतर्गत कार्यवाही योग्य है| मामले के तथ्य इस प्रकार हैं कि दिनांक 13.08.09 को एल जे की एक पन्द्रह वर्षीय पुत्री टी को गिरफ्तार किया गया और उस पर आरोप लगाया गया कि उसने शांति भंग की है| 14.08.09 को इस  प्रकरण की सुनवाई में न्यायाधीश डर्बी ने उसे घर में बंदी बनाये रखे जाने का आदेश दिया| आगे सुनवाई में टी के मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा उठा तो न्यायाधीश डर्बी को ज्ञात हुआ कि टी ने स्वास्थ्य बीमा नहीं करवा रखा है| न्यायाधीश डर्बी ने मौखिक आदेश दिया कि टी की माता टी की ओर से स्वास्थ्य सहायता के लाभों के लिए आवेदन करे|
दिनांक 07.06.10  को टी की पुनः गिरफ़्तारी पर न्यायाधीश डर्बी ने दूसरी सुनवाई की| इस सुनवाई में न्यायाधीश को ज्ञात हुआ कि टी ने अभी तक स्वास्थ्य बीमा  नहीं करवाया है जबकि उसकी माँ को उसके नियोक्ता ने स्वास्थ्य बीमा का प्रस्ताव रखा था| न्यायाधीश डर्बी ने टी की माँ द्वारा स्वास्थ्य बीमा न करवाने पर भर्त्सना की और मौखिक रूप से माँ को स्वास्थ्य सहायता के लिए आवेदन करने को कहा| न्यायाधीश ने आगे यह भी मौखिक निर्देश दिया कि इस हेतु वह पार्कवूड  अस्पताल से संपर्क करे| दिनांक 08.06.10 को, न्यायाधीश के मौखिक निर्देशानुसार टी की माँ उसे पार्कवूड ले गयी | पार्कवूड  के स्टाफ ने निश्चय किया कि टी का इनडोर रोगी के तौर पर उपचार किया जाये किन्तु टी चूँकि बीमित नहीं थी अतः ऐसा उपचार प्रारम्भ नहीं किया जा सका| बाद में उसकी माँ ने स्वास्थ्य सहायता हेतु आवेदन किया वह भी मना कर दिया गया क्योंकि वह पात्रता की शर्तें पूरी नहीं करती थी|
यद्यपि टी को बाल स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम के लिए मंजूरी दी गयी और टी की माता से एक गारंटी समझौते को हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया कि इस कार्यक्रम में यदि किसी खर्चे से मना कर दिया गया तो वह व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेगी| रोजाना आने जाने के खर्चों व उससे जुडी परेशानी को देखते हुए टी की माता ने निष्कर्ष निकाला कि वह आउटडोर रोगी के रूप में यह खर्च वहन नहीं कर सकेगी|
न्यायाधीश डर्बी के न्यायालय के सलाहकार ने टी की माँ से यह कहा कि यदि उसने टी को पार्कवूड  में नहीं छोड़ा तो वह न्यायालय के अवमान की दोषी होगी| आगे उस सलाहकार ने (टी की) माँ को डर्बी के न्यायालय में अपरान्ह 2 बजे सुनवाई के लिए उपस्थित होने को कहा| न्यायाधीश डर्बी ने माँ को ताते काउंटी जेल में 3 बजे रिपोर्ट करने के लिए आदेश दिया ताकि उसे अभिरक्षा में लिया जा सके और आगामी आदेश तक उसे अभिरक्षा में रखा जा सके| तीन दिन बाद दिनांक 19.07.10 को न्यायाधीश डर्बी के समक्ष लाने के बाद माँ को छोड़ा गया|
मामले के तथ्यों से स्वस्पष्ट था कि (1) माँ पर जो आरोप लगाये गए उनके लिए कोई कथन दाखिल नहीं किये गए थे (2) माँ को सुनवाई के लिए कोई नोटिस नहीं दिया गया था (3) माँ को सुनवाई के लिए उपयुक्त समय नहीं दिया गया था और (4) माँ को उपयुक्त सलाहकार के लिए भी अवसर नहीं दिया गया था| फिर भी निष्कर्ष रूप में टी की माँ को पार्क वूड में टी के इलाज करवाने में असफल रहने पर अवमान का दोषी ठहराया गया जिसका कि कोई रिकोर्ड नहीं था|
दिनांक 18.12.10 को माँ की नागरिक शिकायत पर न्यायिक आयोग ने न्यायाधीश  डर्बी के विरुद्ध एक औपचारिक शिकायत दर्ज की| शिकायत में आरोप था कि न्यायाधीश डर्बी ने न्यायिक आचार संहिता के विभिन्न नियमों का उल्लंघन किया है जिसके लिए उसे संविधान की धारा 177ए के अंतर्गत दण्डित किया जाना चाहिए|
कार्यवाही के दौरान न्यायाधीश डर्बी भी इस बात से सहमत हो गयी कि आपराधिक अवमान के लिए टी की माँ को उसने उचित प्रक्रिया के अंतर्गत अधिकार को उसे अपनाने दिए बिना गलत रूप से दण्डित किया जिससे नियमों का उल्लन्घन हुआ है| न्यायाधीश इस बात पर भी सहमत थी कि उसका आचरण संविधान की धारा 177ए के अंतर्गत दंडनीय था क्योंकि ऐसा आचरण; दुराचरण व न्याय प्रशासन के हित के विपरीत था जो कि न्यायिक पद की बदनामी करता है| सार्वजानिक भर्त्सना, 500 डॉलर अर्थदंड  और 100 डॉलर खर्चे की संयुक्त रूप से सिफारिश की गयी|
सुप्रीम कोर्ट ने आगे यह भी पाया कि टी की माँ ने बिना लिखित आदेश के भी न्यायाधीश डर्बी के  निर्देशों की अनुपालना की थी|  सुप्रीम कोर्ट का यह भी मत था कि अप्रत्यक्ष या रचनात्मक आपराधिक अवमान की स्थिति में जब मामले में ट्रायल न्यायाधीश की सारभूत संलिप्सा हो तो अवमानकारी  की ट्रायल अन्य न्यायाधीश  द्वारा की जानी चाहिए| न्यायाधीश डर्बी ने इस मामले से दूर न रहकर अपनी अवमान शक्तियों का दुरूपयोग किया है| अवमान  की शक्तियों का यह दुरूपयोग न्याय-प्रशासन के हित के विपरीत है| तदनुसार न्यायाधीश डर्बी को सार्वजानिक भर्त्सना, 500 डॉलर जुर्माने और 100 डॉलर खर्चे से दण्डित किया गया|

उल्लेखनीय है की भारत में अमेरिका के समान इस प्रकार के न्यायिक उदाहरण मिलना दुर्लभ है जहाँ स्वयं न्यायाधीश को ही अवमान कानून के दुरुपयोग का दोषी पाया गया हो| यहाँ तो स्थिति यह है कि अत्यंत तुच्छ मामलों में भी नागरिकों को दण्डित कर नियंत्रणहीन  न्यायिक शक्तियों का एहसास करवा दिया  है और सुप्रीम कोर्ट तक भी इस सजा से मुक्ति दिया जाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है| भारत में यह सब इसलिए घटित हो रहा है कि न्यायिक एजेंसी पर नियंत्रण के लिए अलग से कोई स्वतंत्र  निकाय का अभाव  है और अनियंत्रित न्यायपालिका स्वानुशासन की परिधि से बाहर स्वछन्द विचरण कर रही है| कोई भी वरिष्ठ न्यायाधीश सामान्यतया अपने कनिष्ठ भाई-बंधुओं के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करना चाहता है क्योंकि स्वाभाविक रूप से आखिर वे सभी एकजुट हम-पेशेवर हैं|

भारत के न्यायालय अवमान अधिनियम की धारा 10 के परंतुक में कहा गया है कि कोई भी उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों के संबंध में ऐसे अवमान का संज्ञान नहीं लेगा जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय हैं| न्यायाधीशों के साथ अभद्र व्यवहार, गली गलोज, हाथापाई आदि ऐसे अपराध हैं जो स्वयं भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत  दंडनीय हैं और उच्च न्यायालयों को ऐसे प्रकरणों में संज्ञान नहीं लेना चाहिए| किन्तु उच्च न्यायालय अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न समझकर ऐसे तुच्छ मामलों में भी कार्यवाही करते हैं|

भारत में कई उदाहरण यह गवाही देते हैं कि देश की न्यायपालिका स्वतंत्र एवं निष्पक्ष नहीं होकर स्वछन्द है| अभी हाल ही में माननीय कृषि मंत्री शरद पंवार के थप्पड़ मरने पर हरविन्द्र सिंह को पुलिस ने तत्काल गिरफ्तार कर लिया और उन पर कई अभियोग लगाकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया| मजिस्ट्रेट ने भी हरविंदर सिंह को 14 दिन के लिए हिरासत में भेज दिया| देश की पुलिस एवं न्यायपालिका से यह यक्ष प्रश्न है कि क्या, संविधान के अनुच्छेद 14 की अनुपालना  में, वे एक सामान्य नागरिक के थप्पड़ मारने पर भी यही अभियोग लगाते, इतनी तत्परता दिखाते और इतनी ही अवधि के लिए हिरासत में भेज देते|  

Sunday 11 December 2011

एक कर्मचारी के लिए पदोन्नति हेतु उसका रिकॉर्ड बेदाग हो

सुप्रीम कोर्ट ने भारत संघ बनाम के वी जानकीरमन (1991 एआईआर सुको 2010) में कहा है कि एक कर्मचारी के लिए पदोन्नति हेतु न्यूनतम यह अपेक्षा है कि उसका रिकॉर्ड बेदाग हो। एक स्वच्छ तथा दक्ष प्रशासन और सार्वजनिक हित के संरक्षण के लिए यह न्यूनतम अपेक्षा है ।
सुप्रीम कोर्ट ने यूको बैंक बनाम सांवरमल (एआईआर 2004 सुको 2135) में कहा है कि पदत्याग मालिक या सेवक के बीच में सम्पूर्ण सम्बन्धों को समाप्त करता है जबकि स्वैच्छिक सेवानिवृति सेवान्त लाभ की स्वीकृति के लिए सम्बन्ध को बनाये रखता है। ठीक इसी प्रकार पदत्याग को स्वीकार करना नियोक्ता के विवेकाधिकार पर है जबकि सेवानिवृति विनियमों तथा नियमों के अधीन सेवा पूर्ण होने पर । पदत्याग सेवा अवधि के ध्यान दिये बिना किया जा सकता है जबकि सेवानिवृति सेवान्त लाभों के लिए निर्धारित सेवाकाल पूरा होने पर ही स्वैच्छिक सेवानिवृति ली जा सकती है।

Saturday 10 December 2011

नियुक्ति विज्ञापन के अनुसार ही होनी चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने जिला कलेक्टर बनाम एम त्रिपुरा सुंदरी देवी (1990 (4) एसएलआर 237) में कहा है कि जब एक विज्ञापन विशेष योग्यता के लिए जारी किया जावे और नियुक्ति उसके अवमान में की जाये तो यह मामला नियुक्ति प्राधिकारी तथा नियुक्त व्यक्ति के मध्य ही नहीं है इसमें वे सभी व्यथित है जो कि ऐसी हो अथवा अच्छी योग्यता धारित करते हैं जो कि नियुक्त व्यक्तियों के पास है किन्तु जिन्होंने आवेदन नहीं किया क्योंकि उनके पास विज्ञापन में लिखित उपयुक्त योग्यता नहीं थी। यदि स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा गया हो कि योग्यता में छूट दी जा सकती है तो यह जनता के साथ धोखा है कि एक व्यक्ति को ऐसी परिस्थितियो में कम योग्यता होते हुये भी नियुक्ति दी गई। कोई भी न्यायालय अनवरत रूप से ऐसी जालसाज परम्परा का पक्षकार नहीं बनना चाहिये।

Tuesday 6 December 2011

प्राकृतिक न्याय

बम्बई उच्च न्यायालय ने डी.पी. भपू बनाम पारसमल नेमाजी भिमाणी (1976 (78)बीओएमएलआर500) में कहा है कि जहां नष्ट होने या छेड़छाड़ करने का भय हो वहां ( वस्तु)प्रस्तुत करने के आदेश दिये जाने चाहिये। जहां निरीक्षण का अधिकार हो निरीक्षण करने की अनुमति दी जाने चाहिये और प्रतियां वहां दी जानी चाहिये जहां निरीक्षण तथा ऐसी प्रतियां प्राप्त करने का अधिकार तो यदि अधिकार समय विशेष के बिन्दु पर उठता है तो निरीक्षण या प्रतियां उस समय से पहले देने का आदेश नहीं दिया जा सकता। नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त कानूनी नियमों को प्रतिस्थापित नहीं करते हैं बल्कि उसकी पूर्ति मात्र करते हैं। जहां क्षेत्र कानूनी प्रावधानों से आच्छादित हो वहां नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों से मदद लेने की कोई गुंजाइश नहीं है।

Saturday 3 December 2011

पेंशन व् ग्र्चुइटी एक ही धरातल पर हैं

सुप्रीम कोर्ट ने इंदू भूषण द्विवेदी बनाम झारखण्ड राज्य की अपील सं0 4888/10 में कहा है कि अपीलार्थी को प्रतिकूल टिप्पणियां जो कि वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में समाहित थी, नहीं बतायी गयी उच्च न्यायालय द्वारा निर्णय कि उसकी सेवाये बर्खास्त करने की अनुसंशा की आधार बनी और इन टिप्पणियों के प्रस्तावित विचारण के विषय में उसे सूचित नहीं किया गया। यह धारित किया जाना चाहिये कि अपीलार्थी इससे गंभीर पूर्वाग्रह से ग्रसित हुआ।
सुप्रीम कोर्ट ने सुधीरचन्द्र सरकार बनाम टाटा आयरन एण्ड स्टील कंपनी लिमिटेड (1984 एआईआर 1064) में कहा है कि पेंशन तथा ग्रेच्यूटी जिन्हें सेवान्त लाभ के रूप में पहचाना जाता है यह सामाजिक सुरक्षा के उपाय है। अब यह सुनिश्चित है कि पेंशन एक अधिकार है जिसका भुगतान नियोक्ता के विवेक पर निर्भर नहीं है और न ही नियोक्ता की इच्छा अथवा सनक पर मना किया जा सकता है। यदि पेंशन को सिविल दावे के रूप में वसूल किया जा सकता है तो इसमें कोई औचित्य नहीं है कि ग्रेच्यूटी को अलग धरातल पर रखा जाये। सेवान्त लाभ के मामले में और वसूली के दृश्टिकोण से पेंशन तथा ग्रेच्यूटी को समान समझा जाना चाहिये। हमारा संविधान कानून द्वारा शासित समाज की परिकल्पना करता है। पूर्ण विवेकाधिकार जो कि अनियंत्रित हो तथा कानून के सामने बराबरी की मनाही करता हो स्पष्ट रूप से विधि शासन का विरोधी है। विधि के समक्ष समानता तथा स्वीकृत करना अथवा कानून का लाभ न देने का पूर्ण विवेकाधिकार एक दूसरे के विरोधी हैं तथा साथ-साथ नहीं रह सकते।