Monday 14 October 2013

संवेदनहीन पुलिस के दिए जख्मों पर न्यायालय की मानवीय मरहम

यह शर्मिला शर्मा के बच्चों का दुर्भाग्य था या पंचकुला पुलिस की घोर लापरवाही कि अक्टूबर 2012 में एक सडक दुर्घटना में शर्मिला के पति की मृत्यु हो गयी थी| हरियाणा सरकार ने कहने को तो ऐसे मामलों में मुआवजा देने की घोषणा कर रखी है किन्तु पीड़ितों को अभी तक कोई मुआवजा नहीं दिया गया| शर्मिला अपने बच्चों का येन केन प्रकारेण पालन पोषण कर रही थी और अपने पति की मृत्यु के लिए मुआवजे हेतु संघर्ष कर रही थी कि 6 माह बाद दिनांक 07.05.13 को उसके परिवार पर दुखों का एक और पहाड़ टूट पडा| चंडीगढ़ के सेक्टर 10 में चंडीगढ़ परिवहन उपक्रम की एक बस उसे कुचलते हुए निकल गयी| शर्मिला के सिर में गहरी चोट आयी थी| जिस स्थान पर यह दुर्घटना हुई वहां से मल्टी स्पेसीलिटी अस्पताल मात्र 100 मीटर की दूरी पर ही है| किन्तु अपने आचरण के लिए ख्यात लापरवाह और अमानवीय पुलिस अधिकारी वहां 2 घंटे बाद पहुंचे जिससे शर्मिला को बचाया नहीं जा सका| सेक्टर 3 पुलिस थाने के प्रभारी श्री प्रकाश जब 2 घंटे बाद घटना स्थल पर पहुंचे तो शर्मिला सडक पर खून से लथपथ पड़ी थी यद्यपि अधीनस्थ पुलिस उस स्थान पर पहले से ही उसकी प्रतीक्षा करते रहे| इस घटना से शर्मिला के दो किशोरवय बच्चे पूरी तरह से अनाथ हो गये| यह भी ध्यान देने योग्य है कि शहरी क्षेत्र में परिवहन के लिए अधिकतम 10 मीटर तक लम्बाई की बसें ही उपयुक्त हैं जबकि 13.5 मीटर तक लम्बी असुरक्षित बसों को प्रयोग किया जा रहा है|   

उक्त तथ्य पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय के ध्यान में आने पर दिनांक 10.05.13 को स्व-प्रेरणा से संज्ञान लिया गया और अग्रिम कार्यवाही की गयी| उच्च न्यायालय ने अपने हाल ही के आदेश दिनांक 25.09.13 में कहा और आदेश दिया है कि पुलिस के संवेदनहीन आचरण से दो बच्चे अनाथ हो गये| किसी सामाजिक सुरक्षा की योजना के अभाव में इन दुखान्तिकाओं से नाबालिग बच्चे और अधिक पीड़ित हैं| न्यायालय ने मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए आदेश दिया कि हरियाणा सरकार की योजनानुसार 15 दिन के भीतर एक लाख रुपये की राशि भुगतान की जाए| न्यायालय की टिप्पणी थी कि संघ राज्य क्षेत्र चंडीगढ़ की संवेदनहीन पुलिस पीड़ित को मदद करने की बजाय क्षेत्राधिकार के मुद्दे को उलझाने में अधिक रुचिबद्ध रही है| न्यायालय के हस्तक्षेप से पहले तक तो दोषी अधिकारियों का अनुचित बचाव किया जाता रहा| सुनवाई के दौरान यह बताया गया है कि अब कई अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही प्रारंभ की गयी है जिसका अभी तक निष्कर्ष नहीं निकला है किन्तु इससे अवयस्क अनाथ बच्चों को कोई सांत्वना प्राप्त नहीं होती है| कम से कम, बच्चों को आर्थिक मदद तो दी ही जा सकती है| अत: चंडीगढ़ प्रशासन को आदिष्ट किया जाता है कि दोनों बच्चों के नाम से 1-1 लाख रूपये की राशि अंतरिम राहत के तौर पर 15 दिन के भीतर जमा करवाए| सत्यापन के बाद बच्चों को प्रतिमाह शिक्षा व पालन पोषण खर्चे के लिए 14200 रूपये भुगतान किये जाएँ| यह राशि सितम्बर माह से प्रारंभ होगी जोकि 7 अक्तूबर या इससे पूर्व देय होगी| न्यायमित्र की सहायता से तदनुसार आवेदन का निपटान किया गया|
फिर भी चंडीगढ़ प्रशासन और पंजाब सरकार से हरियाणा की तर्ज पर ऐसे मामलों में एक सम्यक नीति बनाने की अपेक्षा की गयी| इस प्रकार की घटनाओं को टालने के उपाय करने और दोषी पुलिस अधिकारियों पर अधिकतम एक माह की अवधि में कार्यवाही करने की रिपोर्ट के लिए मामले को पुन: दिनांक 19.11.13 को सूचीबद्ध करने के आदेश दिए गए व आदेश की दस्ती प्रति पक्षकारों को दी गयी|   

    

Wednesday 2 October 2013

सांसदों का वेतन छ: लाख रुपये प्रतिमाह करने की साजिश

देश के सांसदों का प्रतिमाह वेतन, वर्ष जो 2005 तक 4000 रूपये था, को दिनांक 12.09.2006 से 16000  और शीघ्र ही दिनांक 18.05.09 से बढाकर 50000 रूपये कर दिया गया है! दूसरी ओर न्यूनतम मजदूरी की ओर देखें तो यह वर्ष 2005  में रुपये 2500 रूपये थी जो 2009  में बढ़कर मात्र 4000 रूपये ही हो पायी है| इस प्रकार हमारे माननीय जन प्रतिनिधियों की परिलब्धियों में 4 वर्ष में 1100% से अधिक बढ़ोतरी हुई और महंगाई की मार से त्राहीत्राही करते आम मेहनतकश मजदूर की मजदूरी में समान अवधि में मात्र 60% वृद्धि हुई है| ठीक इसी प्रकार कृषि उत्पादों के मूल्यों की तुलना में औद्योगिक उत्पादों की कीमतों में वृद्धि भी 50% अधिक हुई है और देश के अन्न उत्पादक आत्म हत्याएं कर रहे हैं| देश का संविधान कहता है कि इस प्रकार की आर्थिक नीतियाँ अपनायी जाएँगी कि क्षेत्रीय और वर्गवार विषमता में कमी आये| आम नागरिक यह समझने में असमर्थ है कि इन नीतियों से किस प्रकार विषमता दूर हो रही है| जहां आम आदमी के लिए 30 रुपये रोजना पर्याप्त बताये जाते हैं वहीं एक दिन के समारोह पर करोड़ों फूंक दिये जाते हैं और जनता के धन से खुद पर रोजाना 10000 रुपये से भी ज्यादा खर्च किये जाते हैं| यदि 30 रूपये प्रतिदिन पर्याप्त हों तो, कार्य करने के बदले वेतन को छोड़ भी दिया जाए,  कम से कम सरकारी कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों को बिना कार्य किये  मिलने  वाली पेंशन तो 900 रूपये प्रतिमाह किया जाना  उचित ही है|
सरकार जनता को विभन्न प्रलोभन देकर सब्ज बाग़ दिखाकर बना रही है|  एक ओर यह वक्तव्य दिये जाते हैं कि देश में मात्र 20% लोग गरीब हैं, वहीं दूसरी ओर दो तिहाई जनता को अन्न उपलब्ध करवाने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून बनाकर सच्चाई की अनूठी बानगी प्रस्तुत की जाती है| केंद्र सरकार के कर्मचारियों की परिलब्धियों में वृद्धि के अध्ययन के लिए वेतन आयोग ने पूर्व में विदेशी दौरे भी किये और वहां की वेतन सम्बंधित स्थिति का जायजा लिया| किन्तु इस दल ने विदेशी कार्मिकों के कार्य निष्पादन, जवाबदेही, आचरण के नियम, भूमिका, कार्यप्रणाली आदि के विषय में कोई जानोपयोगी जानकरी नहीं ली है| न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण हेतु देश से कोई दल शायद ही विदेशों में अध्ययन हेतु भेजा गया हो| दिल्ली उच्च न्यायालय अनुसार निचले तबकों में तो शादियाँ टूटने का एक कारण मुद्रास्फीति/महंगाई की मार भी है जिसके चलते वे इस महंगे शहर में जीवन निर्वाह करना मुश्किल पाते हैं| हमारे वित्तमंत्री इस उपलब्धि और सुन्दर (शोषणकारी)  नियोजन के लिए धन्यवाद के पात्र हैं|

आज से 16 वर्ष पूर्व भारत में सेवा कर नाम का कोई कर नहीं था और आज इस नाम से 100000 करोड़ रुपयों की जनता की जेब प्रतिवर्ष काटी जाती है| लगभग सभी सेवाओं पर कर लगा दिया गया है तथा आज सेवा कर न लगने वाली सेवाओं की (नकारात्मक) सूची है व इन सेवाओं को छोड़कर सभी सेवाओं पर सेवा कर देय है| देश के अपरिपक्व या अस्वच्छ बुद्धि वाले नागरिक इसे अच्छा नियोजन भी कह सकते हैं| एक तरफ देश की आम आदमी से प्रत्येक सेवा और वस्तु पर कर वसूलो और बाद में दो तिहाई लोगों को गरीबी के नाम पर नरेगा, अनुदान आदि के नाम पर बांटो| पहले करों की वसूली में भ्रष्टाचार और बाद में जनता का ही धन जनता को बांटने में| नौकरशाही और जनप्रतिनिधियों की पौ बारह है| सरकार का कुतर्क हो सकता है कि इससे राजस्व में वृद्धि हो रही है किन्तु राजस्व और भ्रष्टाचार में क्या अनुपात है शायद सरकार को ज्ञान नहीं है| भारत आज भ्रष्टाचार के मामले में मात्र चौथे पायदान पर है| जब देशी बंदूक के लाइसेंस का शुल्क एक रुपया पचास पैसा था तब नवीनीकरण के लिए पांच रूपये रिश्वत ली जाती थी| जमीन के एक कारोबारी से बातचीत में उसने बताया कि जमीन के उपयोग परिवर्तन के लिए जितना शुल्क जमा करवाया उससे दुगुना पैसा कलेक्टर को देना पडा| नगर नियोजक, राजस्व विभाग, स्थानीय निकाय, पटवारी आदि को दी जाने वाली भेंटे अलग हैं| सरकार कर संग्रहण के आंकड़ों से भी बड़ी खुश होती है और राजस्व विभाग के अधिकारियों की पीठ थपथपाती है| किन्तु देश में 2% प्रतिवर्ष जनसंख्या वृद्धि से सेवाओं और वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि हो रही है तथा गत दशकों से 10% से ऊपर महंगाई दर में वृद्धि हो रही है| अत: 12% तक कर संग्रहण में वृद्धि तो स्वाभाविक है और इससे कितनी अधिक वृद्धि हो रही है, यह सरकार और जनता दोनों जानते हैं| 12% तक जनहित के किसी मद में बजट में प्रतिवर्ष वृद्धि का अभिप्राय तो मात्र स्थिरता है और वास्तव में कोई वृद्धि नहीं है|

विदेशों में समान प्रकृति के कार्य के लिए सरकारी क्षेत्र में निजी क्षेत्र से 2-3 गुणा वेतन दिया जाता है जबकि भारत में समान कार्य के लिए सरकारी सेवा में 6-8 गुणा वेतन दिया जा रहा है| भारत में सरकारी कार्यालय डाक घर की भांति मात्र पत्रों को इधर-उधर भेजने का कार्य कर रहे हैं और प्रतिमाह लाखों रुपये जनता के खजाने से लेने वाले कई आई ए एस तो पूरे महीने में जनता से सम्बन्धित 10 निर्णय लेने/टिपण्णी हस्ताक्षर करने का कार्य भी नहीं करते हैं| वे मात्र ऊँचे अधिकारियों से आने वाले पत्रों का जवाब देना आवश्यक समझते हैं | सरकारी क्षेत्र के लगभग 4 करोड़ संगठित कर्मचारियों के 20 करोड़ परिजनों के लिए भी छठा वेतन आयोग वरदान साबित हुआ था और उनकी परिलब्धियों में पूर्व में वर्ष 2006  में 150% से अधिक की वृद्धि कर हमारे जन प्रतिनिधियों ने अपने लिए वेतन और सुख- सुविधा वृद्धि का मार्ग सुगम, निर्विघ्न और निष्कंटक बना लिया| केंद्र सरकार के वेतन आयोग के बाद सभी राज्य सरकारों, सार्वजनिक उपक्रमों और शासन के अन्य अंगों में वेतन वृद्धियां आवश्यक हो जाती है| अभी हाल ही में केंद्र सरकार ने सातवें वेतन आयोग की स्वीकृति दे दी है| आखिर दे भी क्यों नहीं चुनावी वर्ष है और करों के रूप में वसूली गयी जनता की गाढे पसीने की कमाई को ये लोग अपनी पैत्रिक सम्पति समझते आये हैं| अब जनता को समझ लेना चाहिए कि वेतन आयोग के गठन से जनप्रतिनिधियों के वेतन में न केवल बढ़ोतरी का मार्ग पुन: निष्कंटक होगा बल्कि सत्तासीन  दल अपने पक्ष में अधिक मतों की भी अपेक्षा रखता है| मंहगाई में वृद्धि होगी जिससे सांसदों को प्रत्यक्ष लाभ मिलेगा और व्यापारियों, जमाखोरों  व उद्योगपतियों के मुनाफे में वृद्धि होने से वे अच्छा चुनावी चन्दा दे सकेंगे| पसीने तो आम जनता के छूटने हैं| इस प्रकार सातवें वेतन आयोग के गठन से सरकार ने एक ही ढेले में कई चिड़िया मारने की योजना बनाई है| अब जनता को सावधान हो जाना चाहिए कि जन प्रतिनिधियों के नापाक मंसूबों को सिरे न चढ़ने दें और मांग करें कि वेतन आयोग में बहुमत में सिविल सोसायटी के लोग सदस्य हों जो जनहित पहलू पर विचार कर सकें क्योंकि नौकरशाह और जन प्रतिनिधि तो अपना हित त्याग नहीं सकते| नौकरशाहों और जन प्रतिनिधियों का  स्पष्ट हित तो जनता की जेब से अधिकतम दोहन करने में है| हमारे माननीय प्रधान मंत्री और वित्तमंत्री दोनों ही विदेशों में अंग्रेजी वातावरण में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त हैं| भारत पूर्व में भी अंग्रेजों  की कुटिल नीतियों का लम्बे समय तक शिकार रह चुका है| छठे वेतन वेतन आयोग के बाद सांसदों के वेतन में 4 वर्षों में 16 गुणी वृद्धि कर उसे 50000 रुपये प्रतिमाह कर दिया था और अब इसमें यदि इसी दर से वृद्धि की गयी तो अगली लोकसभा में सांसदों का वेतन 600000 रुपये प्रतिमाह हो जाएगा| अत: मेरे प्रिय भारतवासियों जागो समय आ गया है, सरकार की संविधान विरोधी और जन विरोधी नीतियों का एकजुट होकर पुरजोर विरोध करने का – याद रहे|     

Tuesday 1 October 2013

बंदर कहना महँगा पड़ा ...

ओंटारियो की एक कृषि फर्म को अपने एक कर्मचारी को बंदर कहना महँगा पडा जबकि वहां के मानवाधिकार ट्रिब्यूनल ने चर्चित प्रकरण एड्रिअन मोंरोसे बनाम डबल डायमंड एकड़ लिमिटेड (2013 एच आर टी ओ 1273)  में दोषी पर भारी जुर्माना लगाया| किंग्सविले की एक टमाटर उत्पादक कंपनी डबल डायमंड एकड़ लिमिटेड  को मानवाधिकार ट्रिब्यूनल ओंटारियो (कनाडा)  ने शिकायतकर्ता एड्रिअन मोंरोसे को बकाया वेतन और गरिमा हनन के लिए कुल 23,500 पौंड क्षतिपूर्ति देने के आदेश दिया है| 
तथ्य इस प्रकार हैं कि शिकायतकर्ता ने प्रतिवादी संस्थान में प्रवासी मौसमी कृषि मजदूर के रूप में दिनांक 9.1.09 से कार्य प्रारंभ किया था| शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि प्रतिवादी संस्थान के एक कर्मचारी करिरो ने चिल्लाते हुए मुझे कहा कि तुम पेड़ शाखा पर बंदर जैसे लगते हो और वह चला गया| मौसमी मजदूरों के करार के अनुसार उनके वेतन का पच्चीस प्रतिशत वेतन उन्हें बाद में भेजे जाने के लिए काटा जाता है किन्तु उसे समय पर भुगतान नहीं किया गया| आवेदक –शिकायतकर्ता-एड्रिअन मोंरोसे के अनुसार उसने यह मामला प्रतिवादी के समक्ष माह जनवरी व फरवरी 2009 में उठाया था| किन्तु उसकी  शिकायत के फलस्वरूप बदले की भावना से उसे नौकरी से ही निकाल दिया जिससे वह 5500 पौंड मजदूरी से वंचित हो गया| मामला जब ट्रिब्यूनल के सामने निर्णय हेतु आया तो ट्रिब्यूनल का यह विचार रहा कि क्षतिपूर्ति के उचित मूल्याङ्कन के लिए बदले की भावना से प्रेरित कार्यवाही से उसकी गरिमा, भावना और स्व-सम्मान को पहुंची ठेस के लिए प्रार्थी क्षतिपूर्ति का पात्र है| प्रार्थी  ने अपने देश वापिस भेज दिए जाने सहित मजदूरी के नुक्सान आदि इन सबके लिए कुल 30000 पौंड के हर्जाने की मांग की है| ओंटारियो मानवाधिकार संहिता की धारा 46.3 के अनुसार किसी संगठन के कर्मचारियों, अधिकारियों या एजेंटों द्वारा भेदभाव पूर्ण आचरण करने पर संस्था का प्रतिनिधित्मक दायित्व है, तदनुसार करेरो और मस्टरोनारडी के कृत्यों के लिए डबल डायमंड एकड़ लिमिटेड जिम्मेदार हैट्रिब्यूनल ने आवेदक को 15000 पौंड का हर्जाना बदले के भावना से हुए मानवाधिकार हनन के लिए स्वीकृत किया और मजदूरी के नुक्सान की भरपाई के लिए 5000 पौंड मय ब्याज के देने के आदेश दिए|
आवेदक ने यह भी मांग की कि प्रत्यर्थी अपने यहाँ मानवाधिकार नीति को लागू करने के लिए ओंटारियो मानवाधिकार आयोग से अनुमोदन करवाकर एक निश्चित प्रक्रिया लागू करे| इस पर ट्रिब्यूनल ने आदेश दिया कि प्रत्यर्थी 120 दिन के भीतर मानवाधिकार कानून विशेषज्ञ की सहायता से एक व्यापक मानवाधिकार और भेदभाव विरोधी नीति विकसित करे व प्रत्यर्थी के सभी अधिकारीकर्मचारी, जिन पर किसी भी प्रकार के पर्यवेक्षण का दयित्व हो वे, 101 मानवाधिकारों के विषय में 120  दिन के भीतर ऑनलाइन प्रशिक्षण प्राप्त करें |
वहीं भारतीय परिपेक्ष्य में मानवाधिकारों पर नजर डालें तो स्थिति अत्यंत दुखद कहानी कहती है| ओड़िसा में जुलाई 2008 में संजय दास को पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की निस्संकोच अवहेलना करते हुए गिरफ्तार कर लिया था अत: पुलिस की इस अनुचित कार्यवाही से व्यथित होकर पीड़ित ने वर्ष 2009 में उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिल की| खेद का विषय है कि इस याचिका पर उच्च न्यायालय ने 4 वर्ष बाद अब वर्ष  2013 में सरकार से जवाबी हलफनामा दायर करने को कहा हैप्रकरण में जवाब देते हुए राज्य के पुलिस महानिदेशक ने कहा है कि अब दोषी की पहचान करना कठिन है| वास्तव में देखा जाए तो भारत भूमि के अधिकाँश लोगों, चाहे वे कोई भी पद धारण करते हों, के चिंतन से लोकतंत्र का मूल दर्शन ही गायब है| विधायिकाएं आधे-अधूरे और जनविरोधी कानून बनाती हैं, न्यायपालिका उन्हें लागू करते हुए और भोंथरा बना देती परिणामत: पुलिस का मनोबल और दुस्साहस-दोनों इस वातावरण में मुक्त रूप से पनपते  रहते  है|   पुलिस द्वारा न केवल आम नागरिक के साथ अभद्र व्यवहार करने और सरे आम गाली गलोज करने के  मामले मानवाधिकार तंत्र के सक्रिय या निष्क्रिय सहयोग और सानिद्य में जारी हैं बल्कि हिंसा तक  बेहिचक की जाती है| देश की सवा अरब की आबादी  में ढूंढने से भी उदाहरण मिलना मुश्किल है जहां बीस लाख में से एक भी पुलिस वाले को अपशब्दों के लिए या मानव गरिमा हनन के लिए दण्डित किया गया हो|

एक बार जब भारत ने मानवाधिकार संधि का अनुमोदन कर दिया तो उसके बाद सम्पूर्ण देश में मानवाधिकार की रक्षा करना, प्रोन्नति करना और उसका उल्लंघन रोकना सरकार का दायित्व हो जाता है ऐसा उल्लंघन चाहे किसी सरकारी सेवक द्वारा किया जा रहा हो या किसी नीजि व्यक्ति द्वारा| सरकार मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में ऐसा कोई भेदभाव नहीं बरत सकती किन्तु भारत के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 12 में मात्र लोक सेवकों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में ही आयोग द्वारा जांच का प्रावधान रखा गया है और इस प्रकार नीजि व्यक्तियों को मानवाधिकार उल्लंघन की खुली छूट दे दी गयी है कि उनके विरुद्ध शिकायतों पर आयोग कोई कार्यवाही नहीं करेगा| वहीं ओंटारियो राज्य ने अपने लिए एक विस्तृत और व्यापक मानवाधिकार संहिता बना रखी है| संहिता की धारा 29 में मानवाधिकार संरक्षण और प्रोन्नति के व्यापक प्रावधान है और यह कहा गया है कि आयोग का कार्य मानवाधिकारों (न केवल रक्षा करना बल्कि) के सम्मान को आगे बढ़ाना और प्रोन्नत करना आयोग का कार्य है तथा इसमें नीजि या सरकारी उल्लंघन के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है| मानवाधिकार ट्रिब्यूनल ओंटारियो न केवल अपने मुख्यालय पर बल्कि कैम्प लगाकर घटना स्थल के नजदीक सुनवाई का अवसर देता है ताकि पीड़ित पक्ष अपना दावा आसानी से प्रभावी ढंग प्रस्तुत कर सके| उक्त मामले से यह भी स्पष्ट है कि वर्ष 2009  के मामले में ओंटारियो के ट्रिब्यूनल ने अपना निर्णय सुना दिया है जबकि समान अवधि के मामले में ओड़िसा उच्च न्यायालय ने अभी सरकार से जवाब ही मांगा है, निर्णय  में लगने वाले समय और मिलने वाली राहत के विषय में कोई सुन्दर पूर्वानुमान  नहीं लगाया  जा सकता| उल्लेखनीय है कि भारत जब मानवप्राणी  के रूप में प्राप्त अधिकारों के विषय में कनाडा से इतना पीछे है तो नागरिक के तौर पर उपलब्ध मूल अधिकारों के विषय में अभी चर्चा करना ही अपरिपक्व होगा, चाहे कागजी तौर पर वे संविधान में सम्मिलित हों| यह भी ध्यान देने योग्य है कि कनाडा, ब्रिटिश संसद के नियंत्रण से वर्ष 1982 में ही अर्थात भारत से 35 वर्ष बाद पूरी तरह से मुक्त हुआ है| अब देश की जनता कर्णधारों से जवाब मांगती है कि इस अवधि में इन्होंने आम भारतीय के लिए अब तक क्या किया और भविष्य में जो करने जा रहे हैं उसकी रूप रेखा क्या है|