Wednesday 26 November 2014

जवाबदेही के अभाव में वर्तमान शासन प्रणाली में राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों, नीतियों, कार्यक्रमों का अभिप्रायः समाप्त हो गया है

तमिलनाडू राज्य में जब भ्रष्टाचार की दोषी पायी गयी जे. जयललिता को अनिर्वाचित मुख्यमन्त्री बना दिया गया तब  सुप्रीम कोर्ट  में बी. आर. कपूर द्वारा दायर जनहित याचिका बी. आर. कपूर बनाम तमिलनाडू राज्य में निर्णय दि. 21.09.01 में कहा है कि जब एक निचले न्यायालय द्वारा अभियुक्त को दोषसिद्ध किया जाता है और दण्डित किया जाता है तो अभियुक्त निर्दोष  है यह मान्यता समाप्त हो जाती है। दोषसिद्धि प्रभावी हो जाती है और अभियुक्त को सजा काटनी होती है। अपील न्यायालय द्वारा सजा स्थगित की जा सकती है और अभियुक्त को जमानत पर छोड़ा जा सकता है। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था द्वारा न्यायिक पुनरीक्षण का मौलिक एवं आवश्यक विशेष कृत्य  न्यायपालिका को सौंपा गया है। विधि शासन का सारतत्व यह है कि राज्य द्वारा शक्ति का प्रयोग, चाहे विधायिका या कार्यपालिका या अन्य प्राधिकारी द्वारा हो ,संवैधानिक सीमाओं के भीतर ही किया जाना चाहिए और यदि किसी कार्यपालक द्वारा अपनायी गयी कार्यप्रणाली संवैधानिक मर्यादा के उल्लंघन में है तब उसकी न्यायालयों द्वारा परीक्षा की जा सकती है।   
       पायोनियर पत्रिका में श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रकाशित(1996), ‘‘जवाबदेही किधर’’ में हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की वर्तमान अशुद्धता की सफाई के लिए समस्त संभव प्रक्रियागत बदलावों पर राष्ट्रीय  बहस का आह्वान किया था। उन्होंने असंतोष व्यक्त किया है कि विधायी कार्य को जिस सीमा तक सक्षमता या प्रतिबद्धता से करना चाहिए  न तो संसद, न ही राज्य विधान सभाएं कर रहीं है। उनके अनुसार, कुछ अपवादों को छोड़कर जो लोग इन लोकतान्त्रिक संस्थानों के लिए चुने जाते है, वे औपचारिक या अनौपचारिक रूप से विधि-निर्माण में न तो प्रशिक्षित हैं और न ही अपने पेशे में सक्षमता और आवश्यक ज्ञान का विकास करने में प्रवृत प्रतीत होते हैं। समाज के वे लोग जो मतदाताओं की सेवा में सामान्यतः रूचि रखते हैं और विधायी कार्य कर रहे हैं, आज की मतदान प्रणाली में सफलता प्राप्त करना कठिन पाते हैं और मतदान प्रणाली धन-बल, भुज-बल और जाति व समुदाय आधारित वोट बैंक द्वारा लगभग विध्वंस की जा चुकी है। शासन के ढांचे में भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र के सार-मताधिकार- को ही जंग लगा दिया है, उनके अनुसार शासन -ढांचे में भ्रष्टाचार की सुनिश्चित संभावना के कारण राजनैतिक पार्टियों में अवसरवाद व बेशर्मी बढ़ी है जिससे बिना लोकप्रिय जनादेश  के प्रायः अवसरवादी गठबन्धन व समूहीकरण हुआ है। प्रणाली में कमियों के कारण वे सत्ता पर फिर भी काबिज हो जाते है तथा बने रहते हैं। जातिवाद, भ्रष्टाचार तथा राजनीतिकरण ने हमारी सिविल सेवाओं की दक्षता व निष्ठा में भी कमी की है। जवाबदेही के अभाव में वर्तमान शासन प्रणाली में राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों, नीतियों, कार्यक्रमों का अभिप्रायः समाप्त हो गया है।  जे. जयललिता की मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्ति निरस्त कर दी गयी ।




Sunday 23 November 2014

सरकारी बैंकों में डूबते ऋणों की समस्या व सुरक्षा

गत वर्षों से बैंकों के डूबत ऋणों में  भारी वृद्धि हो रही है  किन्तु सरकार को इनकी कोई विशेष चिंता नहीं है| बैंकों में ऊँचे पदों पर नियुक्तियां तो राजनैतिक हस्तक्षेप से होती ही हैं किन्तु निचले स्तर पर भी हस्तक्षेप से इनकार नहीं किया जा सकता| बड़े उद्योगपतियों को ऋण देना ऊँचे अधिकारियों की शक्तियों में आता है जिन पर राजनेताओं के उपकार होते हैं अत: उनमें कायदे कानून गुणवता सब ताक पर रख दी जाती है और ये ऋण कालांतर में डूबते हैं, मूल धन और ब्याज माफ़ कर दिए जाते हैं| दूसरी ओर बैंकों द्वारा इन ऋणियों की सम्पतियों का निर्धारित निरीक्षण  भी नहीं किया जाता| बैंकों को यह निर्देश हैं कि  वे एक लाख से बड़े ऋणों  का मासिक अंतराल से निरीक्षण  करें और इससे छोटे ऋणों का त्रैमासिक निरीक्षण  करें| जहां संदेह हो वहां  कम अवधि में निरीक्षण करें किन्तु वास्तविक स्थिति बहुत भिन्न है| बैंक ऋणों के अधिकाँश मामलों में ऋण देने के बाद कोई निरीक्षण किया ही नहीं जता है किन्तु फिर भी ऋणियों से निरीक्षण  व्यय नियमित वसूल किये जाते हैं| निरीक्षण  व्यय एक खर्चे की पूर्ति है जो लगे हुए खर्चे  की भरपाई के लिए होते हैंऐसी  स्थिति में बिना निरीक्षण  किये इनकी  वसूली बिलकुल अवैध और अनुचित है| इस स्थिति को जानते हुए भी  रिजर्व बैंक, भारत सरकार और ऑडिटर  मौन हैं |

बैंकों की वार्षिक विवरणी में बीमा के समान ऋणीवार निरीक्षण  का कोई ब्यौरा नहीं दिया जता है बल्कि अंत में एक साथ यह सामान्य और झूठी पुष्टि प्रबंधक द्वारा कर दी जाती है कि ऋणों का निर्धारित निरीक्षण  किया जाता रहा है वे सब ठीक हैं| इस प्रकार बैंक प्रबंधकों द्वारा अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर एक और ऋणों को डूबत बना दिया जता है वहीं ऋणियों से ऐसे खर्चे की वसूली की जा रही जो बैंकों  ने उठाये ही नहीं |

Sunday 16 November 2014

न्यायपालिका को अपने गिरेबान में जनता की नजर से झांककर देखना चाहिए के स्वयं किस श्रेणी में आते हैं

राजस्थान पत्रिका में आज राजस्थान उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश का लेख पढ़ने का सौभाग्य मिला जिसमें माननीय न्यायाधिपति ने अन्य बातों के साथ यह कहा है कि यह आवश्यक  कर दिया जाए कि यदि थाने  में रिपोर्ट दर्ज नहीं की  जाए तो सम्बंधित अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी| किन्तु माननीय को शायद यह ज्ञान नहीं है कि राजस्थान पुलिस अधिनियम, 2007  की धारा 31 में यह प्रावधान पहले से ही मौजूद है परन्तु यक्ष  प्रश्न यह है कि इसे लागू कौन और क्यों करेगा| किसी भी कार्य करने के लिए कोई कारण होना आवश्यक है |बिना प्रेरणा के कोई कार्य नहीं होता यह कानून की भी धारणा है|  सरकारी अधिकारी, पुलिस और न्यायिक अधिकारियों का  मानना है कि वेतन तो वे पद का लेते हैं, जनता को काम करवाना है तो पैसे देने पड़ेंगे | और तरक्की तो अपने बड़े अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों  को खुश करने, सेवा करने मात्र से मिलती है, कर्तव्य पालन से नहीं | इनके लिए कोई आचार संहिता भी नहीं है | इन्हें दण्डित करने के लिए कोई मंच भी  नहीं है|  सेवा से हटाने के लिए उन्हें संविधान का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है और न्यायालय से दण्डित होने पूर्व उन्हें दंड प्रक्रिया संहिता की धरा 197 का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है|  जब कर्तव्य पालन में विफलता पर पुलिस को स्वतंत्र कहे जाने वाले न्यायाधीश भी दण्डित नहीं करते तो फिर उनके वरिष्ठ उनको दंड क्यों और कैसे दे सकते हैं जिनकी वे दिन रात सेवा करते हैं| न्यायिक अधिकारियों को पुलिस विभिन्न  सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध करवाती है और न्यायिक  अधिकारियों के घर जाकर मिलती रहती है व  फोन, मोबाइल से निरंतर संपर्क में रहती है तो फिर यह तो एक सपना ही हुआ कि उन्हें कोई दण्डित कर सकता है | पुलिस अधिकारी के पद पर एक बार 5 साल सेवा कर ली जाए तो इतना कमा लिया जता है कि वह अपना सम्पूर्ण  जीवन निर्वाह कर सकता है | और यदि संयोग या दुर्भाग्यवश उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया जाए तो भी पुलिस की दलाली करने का काम तो फिर भी बचा रहेगा|  
वैसे भी देश के निकम्मे और भ्रष्ट  जन प्रतिनिधि मुश्किल से ही कोई ऐसा कानून बनाते हैं जिसमें जनता के हाथों में कोई शक्ति दी  गयी हो | शक्तियां तो अधिकारियों को ही दी जाती हैं जबकि उन्हें शक्ति न दें तो भी वे धक्केशाही से झूठी शक्तियां प्राप्त कर लेते हैं |  फिर भी यदि चूक  से  कोई जन प्रिय कानून बन भी जाए तो उसकी धार को न्यायिक, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी भोंथरा कर देते हैं और वह भी निष्प्रभावी हो जाता है | सूचना का अधिकार कानून इसका जीवंत उदाहरण है |
देश और राज्य में ऐसे न्यायिक अधिकारी भी हैं जो जनता से आवेदन नहीं लेते –रजिस्टर्ड डाक को भी  लेने ही मना कर देते हैं और उनका कुछ नहीं बिगड़ता| जहां कानून में मौखिक बात कहने का प्रावधान है वहां न्यायिक अधिकारी लिखित  के लिए आदेश देते हैं और जहां लिखित का प्रावधान हैं वहां मौखिक के लिए |  देश में शायद ही कोई न्यायालय, न्यायिक, पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी होगा जो संविधान या कानून के अनुसार चलता है | जनोन्मुखी प्रावधानों  की तो 10% भी अनुपालना नहीं होती है | पुलिस पर अंगुली उठाने से पूर्व न्यायपालिका को अपने गिरेबान में जनता की नजर से  झांककर  देखना चाहिए के स्वयं किस श्रेणी में आते हैं |

http://epaper.patrika.com/c/3836949

Saturday 15 November 2014

गिरफ्तारी और जमानत – एक दुधारू गाय

   गिरफ्तारी  और जमानत – एक दुधारू गाय
वैसे तो संविधान में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को एक अमूल्य मूल अधिकार माना गया है और भारत के सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्ट ने गिरफ्तारी के विषय में काफी दिशानिर्देश दे रखें हैं किन्तु मुश्किल से ही इनकी अनुपालना पुलिस द्वारा की जाती है| सात साल तक की सजा वाले अपराधों के अभियुक्तों को गिरफ्तार करने की कानूनन भी कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु छिपे हुए उद्देश्यों के लिए पुलिस तो असंज्ञेय और छिटपुट अपराधों में भी गिरफ्तार कर लेती है और जमानत भी नहीं देती| निचले न्यायालयों द्वारा जमानत नहीं लेने के पीछे यह जन चर्चा का विषय होना स्वाभाविक है कि जिन कानूनों और परिस्थितियों में शीर्ष न्यायालय जमानत ले सकता है उन्हीं परिस्थितियों में निचले न्यायालय अथवा पुलिस जमानत क्यों नहीं लेते| देश का पुलिस आयोग भी कह चुका है कि 60 % गिरफ्तारियां अनावश्यक होती हैं तो आखिर ये गिरफ्तारियां होती क्यों हैं और जमानत क्यों नहीं मिलती? इस प्रकार अनावश्यक रूप से गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत छोड़ दिया जाना चाहिए व पुलिस आचरण की भर्त्सना की जानी चाहिए  किन्तु न तो वकीलों द्वारा ऐसी प्रार्थना कभी की जाती है और न ही मजिस्ट्रेटों द्वारा ऐसा किया जाता है| ये यक्ष प्रश्न आम नागरिक को रात दिन कुरेदते हैं| दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 में प्रावधान है कि किसी  गैर-जमानती अपराध के लिए  पहली बार गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को पुलिस द्वारा भी जमानत दी सकती है यदि अपराध मृत्यु दंड अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय न हो| किन्तु स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण मिलना मुश्किल जहां पुलिस ने इस प्रावधान की  अपनी शक्तियों का कभी विवेकपूर्ण उपयोग किया हो और किसी व्यक्ति को जमानत दी  हो| पुलिस का बड़ा अजीब तर्क होता  है कि यदि वे इस प्रावधान में जमानत स्वीकार कर लेंगे तो उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगेंगे इसलिए वे जमानत नहीं लेते|   इस प्रकार जमानत जो भी अधिकारी लेगा उस पर भ्रष्टाचार के आरोप तो लगेंगे ही चाहे उसका स्तर कुछ भी क्यों न हो | आश्चर्य की बात है कि जो कार्य पुलिस को करना चाहिए वह कार्य देश के न्यायालय प्रसन्नतापूर्वक  करते हैं और वे पुलिस से जमानत नहीं लेने का कारण तक नहीं पूछते, न ही वकील निवेदन करते कि पुलिस ने जमानत लेने से इन्कार  कर दिया इसलिए उन्हें न्यायालय आना पडा | क्या यह स्पष्ट दुर्भि संधि नहीं है ? न ही कभी सुप्रीम कोर्ट ने अपने इतिहास में इस हेतु किसी पुलिस अधिकारी से जवाब पूछा है कि उसने जमानत क्यों नहीं ली|

हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की स्थापना संवैधानिक प्रावधानों  कि व्याख्या करने के लिए की जाती है किन्तु राजस्थान उच्च न्यायालय में एक वर्ष में लगभग 18000 जमानत आवेदन आते हैं जिससे इस रहस्य को समझने में और आसानी होगी| अन्य हाई कोर्ट  की स्थिति भी लगभग समान ही है|  जमानत के बहुत से प्रकरण सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचते हैं | जमानत देने में निचले न्यायालयों और पुलिस द्वारा मनमानापन बरतने के अंदेशे के कारण प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन को सीधे ही सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दी थी | शायद विश्व में भारत ही ऐसा देश है जहां लोगो को जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट तक की यात्रा करनी पड़ती है  फिर  अंतिम न्याय किस मंच से मिलेगा ...विचारणीय प्रश्न है |
गिरफ्तारी का उद्देश्य यह होता है कि अभियुक्त न्यायिक प्रक्रिया से गायब न हो और न्याय निश्चित किया जा सके | किन्तु भारत में तो  मात्र 2% से भी कम मामलों में सजाएं होती हैं अत: 2% दोषी लोगों के लिए 98% निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी करना अथवा उन्हें पुलिस, मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायालय अथवा हाई कोर्ट द्वारा जमानत से इन्कार कर सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए विवश करने  का क्या औचित्य रह जाता है –समझ से बाहर है | बम्बई उच्च न्यायालय ने आपराधिक अपील संख्या  685/ 2013 के निर्णय में कहा है कि यदि एक मामले में दोषी सिद्ध होने की संभावना कम हो व अभियोजन से  कोई उद्देश्य पूर्ति न हो तो न्यायालय को मामले को प्रारम्भिक स्तर पर ही निरस्त कर देना चाहिए | मेरे विचार से जब भी किसी मामले में अनावश्यक गिरफ्तार किया जाए या जमानत से इन्कार  किया जाए तो अभियुक्त की ओर  से यह निवेदन भी  किया जाना चाहिए कि मामले में दोष सिद्धि की अत्यंत क्षीण संभावना है अत: उसकी गिरफ्तारी या जमानत से इन्कारी  अनुचित होगी और यदि अभियुक्त आरोपित अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया गया तो हिरासत की अवधि के लिए उसे उचित क्षति पूर्ति दी जाए | इस दृष्टि से तो भारत के अधिकाँश मामले, आपराधिक न्यायालय, अभियोजन  और पुलिस के कार्यालय ही बंद हो जाने चाहिए|   
इंग्लैंड में पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम की  धारा 44  के अंतर्गत  पुलिस द्वारा रिमांड की मांग करने पर उसे शपथपत्र देना पडता है| कहने के लिए भारत में कानून का राज है और देश का कानून सबके लिए समान है किन्तु अभियुक्त को तो जमानत के लिए विभिन्न प्रकार के वचन देने पड़ते हैं और न्यायालय भी जमानत देते समय कई अनुचित शर्तें थोपते हैं और दूसरी ओर पुलिस को रिमांड माँगते समय किसी प्रकार के वचन देने की कोई आवश्यकता नहीं है मात्र जबानी तौर मांगने पर ही रिमान्ड दे दिया जाता है| पुलिस द्वारा रिमांड मांगते समय न्यायालयों को पुलिस से अंडरटेकिंग लेनी चाहिए कि वे रिमांड के समय देश के संवैधानिक न्यायालयों द्वारा जारी समस्त निर्देशों और मानवाधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय संधि की समस्त बातों की अनुपालना करेंगे|
यद्यपि देश का कानून गिरफ्तारी के पक्ष में नहीं है फिर भी  गिरफ्तारियां महज  इसलिए  की जाती हैं कि पुलिस एवं जेल अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति को यातना न देने और सुविधा देने, दोनों के लिए वसूली करते हैं तथा अभिरक्षा के दौरान व्यक्ति पर होने वाले भोजनादि व्यय में  कटौती का लाभ भी जेल एवं पुलिस अधिकारियों को मिलता है| इस प्रकार गिरफ्तारी में समाज का कम किन्तु न्याय तंत्र से जुड़े सभी लोगों का हित अधिक निहित है|

आस्ट्रेलिया में जमानत को व्यक्ति का अधिकार बताया गया है तथा जमानत के लिए अलग से एक कानून है  किन्तु हमारे यहाँ तो धन खर्च करके स्वतंत्रता खरीदनी पड़ती है | उत्तर प्रदेश में तो सत्र न्यायाधीशों द्वारा अग्रिम जमानत लेने का अधिकार ही दिनांक 01.05.1976   से छीन लिया गया है और इस लोक तंत्र में स्वतंत्रता के अधिकार को  एक फरेब व मजाक बनाकर रख दिया है | पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार मात्र तभी होना चाहिए जब कोई सात साल से अधिक अवधि की सजा वाला अपराध उसकी मौजूदगी में किया जाए अन्यथा जब मामला न्यायालय में चला जाए व  गिरफ्तारी उचित और वांछनीय हो तो सक्षम मजिस्ट्रेट  से वारंट प्राप्त किया जा सकता |  गिरफ्तारियों और जमानत का यह सिलसिला इसलिए जारी है क्योंकि यही भारतीय न्याय प्रणाली उर्फ़  मुकदमेबाजी उद्योग की रीढ़ है  और सम्बद्ध लोगों के लिए दुधारू गाय है | सत्तासीन लोग भी पुलिस क्रूरता और पुलिस की भय उत्पन्न करने वाली कर्कश आवाज़ के दम पर ही शासन कर रहे हैं | 

Thursday 6 November 2014

भारत में पुलिस राज के पद सोपान और शासन तंत्र पर मजबूत पकड़

सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे रखी है कि किसी भी व्यक्ति पर उसकी सहमति के बिना नार्को या पॉलीग्राफ टेस्ट नहीं किया जाए| किन्तु यह आदेश कितना प्रभावी है कहना आसान नहीं होगा| हिरासत में व्यक्ति से पूछताछ के लिए पुलिस द्वारा थर्ड डिग्री इस्तेमाल किया जाना कोई नया नहीं है| फिर भी जब हिरासती व्यक्ति किसी प्रकार के नशे का आदी हो तो पुलिस के लिए यह कार्य और आसान है| नशीले पदार्थ और अवैध हथियार तो पुलिस के पास उपलब्ध रहते ही हैं| उसे मित्रतापूर्वक नशा करवाके पूछताछ की जाती है| यदि सामन्य नशे से बात न बने तो फिर बहुत ज्यादा नशा दिया जाता है और होश खोने पर उससे पूछताछ की जाती है|     

हिरासती व्यक्ति पर प्रयुक्त यातनाओं के मामले समय समय पर मिडिया के माध्यम से उजागर होते  रहते  है और पुलिस द्वारा नए–नए तथा अमानवीय  तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि मानवाधिकार पर 1955 में अंतर्राष्ट्रीय संधि के बावजूद इन्हें रोकने के लिए भारत में कोई कानून नहीं है और न ही हमारे संविधान में कहीं मानव अधिकार शब्द का उपयोग तक किया गया है| 6 करोड़ की आबादी वाले फिलीपींस ने इस सम्बन्ध में एक व्यापक कानून बना दिया है और भारत सरकार को इसके अनुसरण के लिए मैंने काफी समय पहले परामर्श भी दिया है| मारपीट तो पुलिस अपना अधिकार समझती है| गुप्तांगों में मिर्ची, पेट्रोल, केरोसिन, कंकड़, डंडे आदि का इस्तेमाल तो सर्व विदित हैं और ये तरीके अब पुराने पड़ गए हैं| छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी के साथ की गयी अमानवीय बर्बरता से पूरा देश परिचित है| संवेदनशील अंगों को बिजली के नंगे तार से स्पर्श भी पुलिस द्वारा प्रयोग किया जाता है| हवालात में बंद व्यक्ति को सिर्फ अधो वस्त्रो में रखा जाता है और उसे न पेशाब के लिए बाहर लाया जाता और न ही उसे पीने के लिए पानी दिया जाता बल्कि एक घडा हवालात में ही रख दिया जता है और हिरासती व्यक्ति को यह कहा जाता है कि वह उस घड़े में पेशाब कर ले और प्यास लगने पर वही पी ले| कई बार तो हिरासती व्यक्ति को एक दम निर्वस्त्र करके रखा जाता है और साथ में उसकी माँ, बहन, सास आदि को भी उसी हवालात में निर्वस्त्र रखा जाता है तथा हिरासती व्यक्ति को दुष्कर्म के लिए विवश किया जाता है| पुलिस को जब लगे कि हिरासती व्यक्ति साधारण यातना से जुबान नहीं खोलेगा या अपराध (चाहे किया हो या नहीं ) कबूल नहीं करेगा और शिकायतकर्ता ने पुलिस को खुश कर दिया हो तो यातना के और उन्नत व बर्बर तरीके अपना सकती है| हिरासती व्यक्ति के मुंह पर मजबूत टेप चिपका दी जाती है, टेबल पर सीधा लेटा दिया जाता है, हाथ पीछे की ओर बाँध दिए जाते हैं| अब उसकी नाक में पाइप से पानी चढ़ाया जाता है, व्यक्ति का दम घुटने लगता है और कई बार तो सांस भी चढ़ जाती है जो काफी देर बाद लौटती है| मल-मूत्र का बलपूर्वक सेवन करवाना, गर्म तेल या ठन्डे पानी, सिगरेट के  टुकडे, तेजाब,  पानी में डुबोना, दुष्कर्म, खींचकर नाख़ून-दांत-केश निकालना, धूप या तेज रोशनी, प्लास्टिक की थेली से सर ढककर दम घोटना, नींद और विश्राम के बिना लम्बी पूछताछ, सार्वजानिक स्थल पर बदनामी, परिवार के सदस्यों को हानि की धमकी, गांधी कटिंग आदि पुलिस बर्बरता की कहानी के कुछ प्रचलित नमूने हैं|   
बर्बर पुलिस टांगों के बीच में चारपाई फंसाने व गुप्तांगों पर तेज चोट पहुंचाकर नपुंसक बनाने का कृत्य भी निस्संकोच कर देती है और चुनौती देकर हिरासती व्यक्ति को यह कहती है कि अब तुम्हारी बीबी किसी और की ही प्रतीक्षा करेगी| स्मरणीय है कि पुलिस बर्बरता से निपटने के लिए देश में कोई प्रभावी कानून नहीं है| मानवाधिकार आयोगों में भी जांच के लिए पुलिस अधिकारी ही हैं और वे भाई चारे के मजबूत बंधन में बंधे हुए अपनी बिरादरी के विरुद्ध कोई न्यायोचित व सही रिपोर्ट नहीं करते| हमारी पुलिस वैसे भी तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने में सिद्धहस्त और भ्रष्ट है| इस कारण आपराधिक मामलों में मात्र 2% को ही सजाएं होती हैं| जेल  में बंद हिरासती व्यक्तियों को पैसे के बदले सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाना तो समय समय पर मिडिया में उजागर होता रहता है और यदि कोई कैदी जेल से इस बीच भाग जाए तो जेल के सरियों को बाद में लोहे की आरी से काटकर जेल तोड़ने के मामले का रूप दे दिया जाता है| यह भारतीय लोकतंत्र की रक्षक की पुलिस की कहानी का एक अंश मात्र है जोकि अंग्रेजी शासन काल से भी ज्यादा शर्मनाक है| आम नागरिक की तो हैसियत ही क्या है जब नडियाद (सुशासन वाले गुजरात राज्य) में एक मजिस्ट्रेट को जबरदस्ती शराब पिलाकर पुलिस ने उसका सरे बाज़ार आम जुलूस निकाल दिया था व डॉक्टरों से फर्जी प्रमाण पत्र हासिल कर लिया और सुप्रीम कोर्ट ने मामले में कहा कि गुजरात प्रशासन पुलिस से डरता है| किन्तु किसी भी सरकार ने गत 67 वर्षों से इसमें सुधार का कोई निष्ठापूर्वक प्रयास नहीं किया है क्योंकि भारत में सभी सरकारें पुलिस की बर्बरता और भय उत्पन्न करने वाली कर्कश आवाज की ताकत पर ही चल रही हैं –पार्टी या लेबल चाहे कुछ भी रहा हो|


Sunday 2 November 2014

दुर्जनों का बल सज्जनों को सताने के लिए होता है

दुर्जनों का बल सज्जनों को सताने के लिए होता है   

फेसबुक पर एक मित्र ने कहा कि जब पुलिस एक आम नागरिक को यातना देकर सब कुछ उगलवा सकती है तो फिर इन काले धन वालों के लिए यही सब कुछ क्यों नहीं करती| किन्तु पुलिस की क्या औकात है शायद उन्हें ज्ञात नहीं है| नीतिशास्त्र में कहा गया है दुर्जनों का बल सज्जनों को सताने के लिए होता है| एक पुलिस वाले से बातचीत में किसी अपराधी के भाग जाने का जिक्र किया तो पुलिस वाले ने कहा कि भागकर वह कहाँ जायेगा पुलिस पूरे खानदान को बुला लेगी| जनाब यह है पुलिसिया अंदाज और रोब|
किन्तु क्या पुलिस सभी के साथ ऐसा कर पाती है? आपात स्थिति के समय सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी का युवा बेटा और बेटी रात को सिनेमा देखकर आ रहे थे और उनको पुलिस वालों ने रोक लिया तथा थाने ले गए| पुलिस वालों के देखने में वे बच्चे किसी संभ्रांत और कुलीन परिवार के लगे इसलिए सोचा मुर्गा फंस गया आज अच्छी बरकत होगी| उस समय मोबाइल नहीं थे इसलिए बच्चों को उनके पिताजी से फोन पर बात करवाई गई ताकि माल मिल सके| सेना के अधिकारी अपने दल बल के साथ थाने आये  और पूरे थाने के स्टाफ को ही ट्रक में डालकर मिलिट्री एरिया में ले गए| राज्य के मुख्य सचिव को फ़ोन किया और कहा कि ये लोग मिलिट्री एरिया में रात को घुसपेठ करते पकडे गए हैं इन्हें गोली से उड़ा देंगे | आखिर समझाईश से मामला शांत हुआ|  
इसी तरह एक अति उत्साही थानेदार के पास वार्ता करने आये एक नगरपालिका के भूतपूर्व अध्यक्ष के उन्होंने  थप्पड़ रसीद कर दिया जोकि उनकी भाषा और संस्कृति है| उन नेताजी ने वहीं कह दिया कि इस थप्पड़ का बदला 3 दिन के भीतर ही ले लेंगे, याद रखना| एक रात को थानेदार महोदय गश्त पर निकले और उनके चारों और गाड़ियां लगाकर बिलकुल फ़िल्मी अंदाज में अपहरण कर लिया गया| उनके साथ वाले सब पुलिस वाले अलग हो गये| सात दिन तक उन्हें गुप्त स्थान पर रखा गया और पैरों के तलवों को पीट पीट कर चलने योग्य भी नहीं छोड़ा| आखिर में उन्हें यह कहते हुए छोड़ा गया कि हम चाहते तो तुम्हें मार भी सकते थे किन्तु हम चाहते हैं कि तुम्हें यह जीवन भर याद रहे इसलिए जीवित छोड़ रहे हैं| उन्होंने कोई रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करवाई और बाद में जिला पुलिस अधीक्षक को पता चला तो उन्होंने थानेदार महोदय से कहा कि तुमने मुझे बताया ही नहीं| थानेदार महोदय ने जवाब दिया -साहेब बताकर क्या करता पुलिस की बदनामी होती| बाद में वही थानेदार महोदय एक जगह शराब की भट्टी पर दबिश देने जीप लेकर पहुँच गये|  वहां उपस्थित लोगों ने उन्हें समझाया कि आप अपनी गाडी को स्टार्ट करके उलटी ही वापिस ले जाएँ वरना भट्टी में लकड़ियों की जगह आपको झोंक देंगे| थानेदार महोदय बड़े आज्ञाकारी निकले और कहना मानके जीप को बेक करके लौट आये|   

आम निहत्थे नागरिक को पुलिस फर्जी मुठभेड़ में मार देती है और पुलिस को खरोंच तक नहीं आती और जब असली मुठभेड़ होती है तो विकास दुबे जैसे लोग पुलिस को उसकी औकात बता देते हैं |    


Saturday 1 November 2014

खाकी – चरितमानस

पुलिस तो एक रासायनिक यौगिक है जो पैसा +पॉलिटिक्स+प्रेशर से तैयार होता है |हम भ्रम में रहते हैं तो यह कसूर हमारा है| पुलिस और ईमानदार दो  विरोधा भाषी बातें हैं| मैंने सुना तो बहुत है पर आजतक एक भी ईमानदार पुलिसवाला नहीं देखा|अगर कोई ईमानदार है भी तो वह साहसी नहीं है| उसकी ईमानदारी किस काम की| पुलिस में रहकर जो ईमानदार दिखाई देते हैं समझिये वे ईमानदार तो नहीं किन्तु खुले रूप से भ्रष्ट नहीं हैं| पुलिस से ज्यादा डरपोक और कोई नहीं होता जोकि साल में  भारत में ही दस हज़ार से ज्यादा लोगों को फर्जी  मुठभेड़ और हिरासत में मारती है| पुलिस में ऐसा वातावरण ही नहीं होता कि वहां ईमानदारी  पनपे| गलती से यदि कोई ईमानदार पुलिस में भर्ती हो भी जाए तो वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकता| पुलिस में भर्ती  होने वाले भी परिस्थितियाँ जानते हैं और सोच  समझकर भर्ती होते हैं| जिस तरह तेज हवा से तालाब में तैरता कचरा एक तरफ इकठा हो जाता है उसी तरह का कचरा यह पुलिस है  जो एक तरफ इकठा हो जाता है| जो कुछ थोड़ा बहुत अच्छा दिखाई दे रहा है वह नाक बचाने के लिए  ईमानदारी का नाटक ही है| किरण बेदी जैसी साहसी कही जाने वाली महिला सेवानिवृति के 5 साल बाद कहती है कि उससे रिश्वत मांगी गयी -जो स्वयं के साथ हुए अन्याय  का विरोध नहीं कर सके वह दूसरों को क्या न्याय दिल देंगी| पुलिस का मतलब पुलिस है चाहे उसका पद, जाति या वर्ग कुछ भी हो| इन्हीं कारणों से बिहार और उत्तर प्रदेश में पुलिस को बड़े लोक प्रिय नामों से जाना जाता है| पुलिस वाले राजनेताओं से भी अधिक कूटनीतिज्ञ होते हैं | पुलिस वाला यदि किसी प्रभाव में है तो वह आपका स्वागत सत्कार तो कर देगा, चाय नाश्ता दे देगा किन्तु फिर भी वह आपका काम कभी नहीं करेगा| यह मेरा अनुभव है कोई कल्पना नहीं है| जमीन के फर्जी बेचान के मामले में जांच मेरे एक सहपाठी पुलिस निरीक्षक के पास थी और 3 साल तक उसमें कोई कार्यवाही नहीं हुई| बाद में वही फाइल मेरे एक सह कर्मी के बड़े भाई  के पास आ गयी किन्तु टस से मस नहीं हुई|  बाद में गियर लगाने पर ही गाड़ी आगे बढी| पुलिस  को ट्रेनिंग  में ही यह सब बताया जाता है – कैसे उत्पीडन करना है, किस प्रकार पैसा ऐंठना है,  कैसे गालियाँ बकनी हैं आदि आदि | वहां हवलदार होता है जो डी एस पी तक को गालियाँ बकता है और गलियां सुनते सुनते ये पुलिस वाले ढीठ हो जाते हैं | बाद में इन्हें बड़े अधिकारी या नेता गालियाँ बकें तो इन पर कोई ज्यादा असर नहीं होता है| यों तो पुलिस लोगों से हफ्ता लेती है किन्तु पत्रकार समुदाय को यह इस बात के लिए हफ्ता देती है कि वे उसके सराहनीय कार्यों को उजागर करें और बदनामी वालों को दबा दें| इसके लिए वे पत्रकारों तक समाचार स्वयम पहुंचा देते हैं अथवा छापा मरने के लिए जाते समय उन्हें सूचित कर देते हैं| तभी तो छापे के समाचार सचित्र आ जाते हैं |  
एक रिटायर्ड  पुलिस वाले ने बातचीत में बताया कि रिटायरमेंट के बाद सबसे ज्यादा दुर्गति उनकी ही होती है| समाज में उन्हें कोई सम्मान से नहीं देखता |यह पुलिस वालों को भी ज्ञान है | सी बी आई के एक भूतपूर्वक निदेशक फेसबुक पर हैं किन्तु उन्होंने अपनी पुलिस सेवा का खुलासा नहीं किया है| एक सेवानिवृत पुलिस महानिदेशक, जो पुलिस सुधार के नाम पर सुर्ख़ियों में हैं, से एक सेवा निवृत कनिष्ठ पुलिस अधिकारी ने पुलिस सुधार के प्रसंग में संपर्क करना चाहा किन्तु उन्होंने  समयाभाव बताकर मना कर दिया| किन्तु उन्ही महानिदेशक से जब 15 मिनट  बाद ही उसी कनिष्ठ ने एक विदेशी महिला के साथ जाकर भेंट की तो वे बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने न सिर्फ उन्हें चाय नाश्ते से स्वागत किया बल्कि दोपहर का भोजन भी करवाया!