Friday 8 March 2013

देश आईसीयू के सहारे चल रहा है


शेयर बाजार में हुए घोटालों में देश के निवेशक कई बार अपने हाथ जला चुके हैं और  देश की जनता का धन कहीं भी सुरक्षित नहीं है| सरकार इन घोटालों से अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के लिए किसी न किसी आयोग, मंडल, प्राधिकरण, कमिटी आदि का गठन कर देती है परन्तु इनका दायित्व कहीं पर भी तय नहीं होता| जनता से शिकायत प्राप्त होने पर ये मंडल, कमिटी, आयोग या प्राधिकरण जवाब में जनता को उपभोता फॉर्म या सक्षम न्यायालय में जाने का परामर्श देकर अपने कर्तव्य की औपचारिक पूर्ति कर देते हैं| वास्तव में देखा जाये तो हमारी विधायिकाएं और मंत्रिमंडल भी बहु सदस्यीय निकाय हैं| अत: यदि कमिटी, मंडल, आयोग या प्राधिकरण के गठन से कोई अभिप्राय: सिद्ध होता तो ये तो पहले से ही कार्यरत हैं| इसके विपरीत इन बहु सदस्यीय निकायों के गठन के कुछ नकारत्मक पहलू हैं| प्रथम तो किसी निकाय के बहुसदस्यीय होने पर किसी अनुचित कृत्य या निर्णय के लिए दायित्व ही हवा में विलीन हो जाता है| दूसरा, यदि इन निकायों के सदस्य यदि स्वच्छ छवि वाले न हों (जिसकी भारतीय वातावरण में पर्याप्त संभावनाएं हैं) तो फिर भ्रष्टाचार के रूप में इन सभी सदस्यों के पेट भरने तक भारी कीमत चुकानी पड़ेगी जबकि एकल सदस्य के होने पर मात्र एक सदस्य का ही पेट भरना पर्याप्त रहेगा| अत: बहु सदस्यीय निकाय भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही देते हैं| वास्तव में निकाय के बहु सदस्यीय होने की बजाय निर्णायक व्यक्तियों का जवाबदेय होना ही अधिक महत्वपूर्ण है| तीसरा बहु सदस्यीय निकाय द्वारा किसी निर्णय तक पहुँचने के लिए तुलनात्मक रूप में विलम्ब होगा|      
जब जनता किसी मुद्दे पर उद्वेलित हो जाती है या आक्रोशित होकर सड़कों पर उतर आती है तो उसे ठन्डे छींटे देने के लिए फिर किसी कमेटी या आयोग का गठन कर दिया जाता है| बाद में ये रिपोर्टें धूल  चाटती हैं| स्वतंत्रता के बाद देश के विधि आयोग ने 300 से अधिक रिपोर्टें और परामर्श पत्र भारत सरकार को प्रस्तुत किये हैं किन्तु मुश्किल से ही इनमें से 10% पर कोई कार्यवाही की गयी है| इन रिपोर्टों पर की गयी कार्यवाही की जानकारी को सार्वजनिक पहुँच के भीतर भी नहीं रखा जा रहा है व इस प्रकार विधि आयोग पर किया गया खर्चा मात्र सार्वजनिक धन का अपव्यय साबित हो रहा है| इसी कूटनीति की बैशाखियों पर स्वतंत्रता के बाद की हमारी राजनीति की धुरी केन्द्रित है, चाहे सत्ता या विपक्ष में कोई सा ही राजनैतिक दल शामिल रहा हो| भारत में कानून बनाने और उसमें संशोधन के परामर्श के लिए विधि आयोग का स्थायी कार्यालय है किन्तु विधि आयोग के समस्त पद 1 सितम्बर 2012 से रिक्त होने वाले थे और  सरकार ने इन पदों पर अभी तक नियुक्तियां नहीं की हैं| और जब दिल्ली बलात्कार काण्ड के बाद जनता सड़कों पर उतरी तो इसके एवज में आनन-फानन में एक नई वर्मा कमिटी का गठन कर दिया| यह हमारी अपनी चुनी गयी सरकार की संजीदगी, संवेदनशीलता, जागरूकता और जनोन्मुखी होने का श्रेष्ठ नमूना है|
सरकार विभिन्न क्षेत्रो में विदेशी पूंजी निवेश के लिए अपनी सहमति देती है किन्तु इस कटु सत्य को भूल रही है कि पूरे देश को गुलाम बनाने के लिए मात्र एक ईस्ट इंडिया कंपनी ही पर्याप्त थी तो विदेशी व्यापारियों को देश में निवेश की खुली छूट देने की क्या परिणति हो सकती है| विदेशी निवेशक एक रणनीति तैयार कर अपने आपको सुरक्षित कर लेते हैं| हर्षद मेहता काण्ड के समय जांच में पाया गया कि सीमित शाखाओं वाले संलिप्त सिटी बैंक ने 20 स्टाफ सदस्य आई ए एस या आई पी एस के रिश्तेदार लगा रखे थे ताकि उनके रसूक के बल पर किसी अनहोनी को टाला जा सके| इस काण्ड में अहम् भूमिका के बावजूद सिटी बैंक का कुछ भी नहीं बिगड़ा| इसी तर्ज पर भारत में भी चतुर लोग अपने व्यवसाय की रक्षा के लिए सेवानिवृत कर, प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों को सेवा में रखते हैं क्योंकि भारत में कानून नाम की कोई चीज नहीं है अत: इनके संपर्कों के आधार पर काम बनाया जा सकता है| सरकारी क्षेत्र के संगठित कर्मचारियों के लिए भी छठा वेतन आयोग वरदान साबित हुआ है और उनकी परिलब्धियों में वर्ष 2006  में 200% की वृद्धि कर हमारे जन प्रतिनिधियों ने अपने लिए वेतन वृद्धि का मार्ग सुगम, निर्विघ्न और निष्कंटक बना लिया| सरकारी कर्मचारियों की परिलब्धियों में वृद्धि के अध्ययन के लिए वेतन आयोग ने विदेशी दौरे भी किये और वहां की वेतन सम्बंधित स्थिति का जायजा लिया| किन्तु इस दल ने विदेशी कार्मिकों के कार्य निष्पादन, जवाबदेही, आचरण के नियम, कार्यप्रणाली आदि के विषय में कोई जानोपयोगी जानकरी नहीं ली है| न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण हेतु भी देश से कोई दल शायद ही विदेशों में अध्यन हेतु भेजा गया हो| देश के सांसदों का प्रतिमाह वेतन, वर्ष जो 2005 तक 4000 रूपये था, को दिनांक 12.09.2006 से 16000  और शीघ्र ही दिनांक 18.05.09 से बढाकर 50000 रूपये कर दिया गया है! दूसरी ओर न्यूनतम मजदूरी की ओर देखें तो यह वर्ष 2005  में रुपये 2500 रूपये थी जो 2009  में बढ़कर मात्र 4000 रूपये ही हो पायी है| इस प्रकार हमारे माननीय जन प्रतिनिधियों की परिलब्धियों में 4 वर्ष में 1100% से अधिक बढ़ोतरी हुई और महंगाई की मार से त्राहीत्राही करते आम मेहनतकश मजदूर की मजदूरी में समान अवधि में मात्र 60% वृद्धि हुई है| जहां आम आदमी के लिए 30 रुपये रोजना पर्याप्त बताये जाते हैं वहीं एक दिन के समारोह पर करोड़ों फूंक दिये जाते हैं और जनता के धन से खुद पर रोजाना 10000 रुपये से भी ज्यादा खर्च किये जाते हैं !  दिल्ली उच्च न्यायालय अनुसार निचले तबकों में तो शादियाँ टूटने का एक कारण मुद्रास्फीति भी है जिसके चलते वे इस महंगे शहर में जीवन निर्वाह करना मुश्किल पाते हैं| हमारे वित्तमंत्री इस उपलब्धि और नियोजन के लिए धन्यवाद के पात्र हैं| आशा है वे जल्दी ही गांधीजी के सपनों को साकार कर देंगे| देश के गैर सरकारी और असंगठित कार्मिकों को अपने पारिश्रमिक में वृद्धि के लिए फिर भी हड़ताल, धरने, प्रदर्शन, विरोध जूलूस आदि का आयोजन करना पड़ता है| जब हम ऐसी जनविरोधी नीतियों का अनुसरण कर रहे हों तो देश में सामाजिक-आर्थिक न्याय, समाजवाद की सभी बातें बेमानी लगाती हैं और यह कल्पना भी नहीं कर पाते कि जिस समाजवाद का सपना अपने पूर्वजों ने देखा था वह कितनी पीढ़ियों बाद पूरा हो सकेगा| इस प्रकार भारतीय गणतंत्र तो नौकरशाहों और नेताओं के गठबंधन से संचालित है व पांच वर्ष में एक दिन मतदान के अतिरिक्त जनता की इसमें कोई सक्रिय भागीदारी नहीं है| क्या यही हमारा लोकतंत्र है और लोकतंत्र के इसी स्वरुप के लिए हमारे पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी| वास्तव में देखा जाये तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की आज जो भव्य अट्टालिका दिखाई दे रही है उसकी नींव तो मेहनतकश और मजदूर लोगों के शोषण पर टिकी हुई है| अब समय आ गया है देश में विगत 65 वर्षों से जो लोकतंत्र का जो स्वांग चल रहा है उसका शीघ्र पटाक्षेप होना चाहिए|

देश के ऐसे हालात में समाजवाद और लोकतंत्र कैसे स्थापित हो सकता है जब संसद में चिंतन के स्थान पर मात्र निरर्थक बहस हो और जनप्रतिनिधियों व संविधान के रक्षकों के स्वयम चरित्र व आचरण में समाजवाद का नितांत अभाव हो| देश के शासन की बागडोर आज गैर जिम्मेदार हाथों में है और रेल पटरी से उतर चुकी है| पटरीवाले इंजीनियर कहते हैं कि पहियों का अलाइअनमेंट दोषपूर्ण है और गाड़ीवाले इंजीनियर कहते हैं कि पटरी का अलाइअनमेंट दोषपूर्ण है और अंत में दंड दिया जाता है बेचारे गैंगमेन को| देश में आज पंचतत्वों न्यायिक व पुलिस अधिकारियों, राजनेताओं, धनासेठों, प्रशासनिक अधिकारियों और अपराधियों का शासन है व उनकी समानांतर सरकारें और सत्ताएँ चल रही हैं| लोकतंत्र तो सर धुन रहा है| देश की पुलिस तो किसी आतंककारी से भी अधिक भयावह है जो अफजल, कसाब जैसे खून्कारों को तो ढूढकर फांसी तक पहुंचा सकती है किन्तु किसी पुलिस वाले को ढूंढकर उसे समन भी तामिल नहीं करवा सकती| देश में आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से ये 10% लोग ही सुरक्षित हैं और तुष्टिकरण की नीति के तहत हमारे राजनेता लैंगिक आधार पर महिलाओं, व जातिगत आधार पर दलितों व वंचितों के लिए आरक्षण की बात करके वोट बैंक की राजनीति करते हैं|  वास्तव में आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता तो देश के 90% लोगों को है जब देश में 65% लोग गरीब और अशिक्षित हों तथा मात्र 3% लोग आयकर देते हों व 121 करोड़ के देश में 20 लाख से अधिक आय वाले  मात्र 4 लाख लोग हों| देश में कालेधन को लेकर बवाल मच रहा है किन्तु काले धन की सुरक्षा के लिए हमारे आयकर कानून में पर्याप्त स्थान है और हमारा आयकर कानून भी  अपराधियों और कर चोरों के बड़ा अनुकूल है| आयकर अधिनियम की धारा 142 के अनुसार आयकर अधिकारी मात्र 3 पूर्व वर्षों तक की विवरणियाँ दाखिल करने की ही अपेक्षा कर सकता है अर्थात 3 वर्ष से पुराना कोई कला धन हो तो सरकार के पास उस पर कर वसूलने का कोई अधिकार नहीं है| इसी कानून का लाभ देश के उद्योगपति उठा रहे हैं| यद्यपि विश्व के चुनिन्दा पूंजीपतियों में भारत के कई उद्योगपतियों के नाम आते हैं किन्तु देश के शीर्ष 10 आयकर दाताओं में मात्र 3 ही उद्योगपति हैं और शेष अन्य क्षेत्रों से ही हैं| दूसरी ओर अमेरिका में 50% लोग आयकरदाता हैं और  कुल आयकर में उपरी 1% लोगों का 95% योगदान है जबकि भारत में मात्र 0.3% लोग ही कुल आयकर में 90% योगदान देते हैं| यह स्वतन्त्रता के बाद की अनुसरण की गयी हमारी संविधान विरोधी नीतियों का ही परिणाम है कि आज आय के स्रोत, धन व आर्थिक सत्ता कुछ हाथों में ही केन्द्रित हो गयी है और संविधान में समाहित आर्थिक व सामाजिक न्याय के सपने आज 65 वर्ष बाद भी अधूरे हैं|     
        
विश्वविद्यालयों द्वारा समान परीक्षाओं के लिए ही स्वयंपाठी छात्रों से नियमित छात्रों की तुलना में दुगुना परीक्षा शुल्क लिया जाता है| वे नब्ज टटोल लेते हैं कि स्वयंपाठी छात्र संगठित नहीं अत: उनका शोषण किया जा सकता है जबकि नियमित छात्र संगठित होकर विरोध करेंगे| हमारी सरकारें पशुओं की भांति हैं जो मात्र हांकने पर गतिमान होती हैं और जनता की सहिष्णुता और धैर्य की परीक्षा लती है -विरोध का इन्तजार करती रहती हैं| हमारी लोकप्रिय सरकारें सनकपूर्ण नीतियाँ का अनुसरण कर रही हैं और वे एक ओर बेरोजगारी भता देने की बातें करती हैं, दूसरी ओर बेरोजगारों से विभिन्न नौकरियों के लिये भारी फीस वसूलती और शोषण करती हैं| राजस्थान सरकार ने तो बेरोजगारों का शोषण करने में निर्लजतापूर्वक सारी सीमाएं ही पार कर दी हैं और हाल में पंचायत राज की भर्तियों में, जिनमें कोई परीक्षा नहीं होनी और मात्र उच्च माध्यमिक परीक्षा के प्राप्तांकों के आधार पर चयन करना है, 500 रूपये शुल्क निर्धारित किया है| राज्य का शासन कहने को लोकतांत्रिक सरकार द्वारा चलाया जा रहा है न कि किसी व्यापारी द्वारा किन्तु मन गवाही नहीं देता है| शुल्क लेने का उद्देश्य मात्र उस गतिविधि पर होने वाले व्यय की प्रतिपूर्ति प्राप्त करना होता है न कि ऐसी गतिविधि से कोई लाभ कमाना| जब कोई परीक्षा नहीं आयोजित हो रही तो इतने शुल्क का  क्या औचित्य है? ठीक इसी प्रकार स्वास्थ्य रक्षा के नाम पर सरकार मुफ्त दवाइयां उपलब्ध करवाने का स्वांग कर रही हैं और दूसरी ओर अपनी लागत से 20 गुणा विक्रय मूल्य लिखी दवाइयां बाजार में बिक रही हैं, क्योंकि इन दवा निर्माताओं ने सरकार को, भेंट पूजा के अतिरिक्त, इस बीस गुणा मूल्य पर कर देना स्वीकार कर लिया है| सरकार को इस बात की कोई फ़िक्र नहीं है कि जनता के साथ कितना बड़ा अन्याय हो रहा है, उसे तो अपना छोटा सा हित मात्र अपना राजस्व देखना है| मिलावटी व नकली दवाओं और खाद्य पदार्थों की धरपकड के लिए बाजारों में छापे मारे जाते हैं किन्तु शक्तिशाली उत्पादकों के यहाँ छापे मरकर इस मानव जाति के विरुद्ध व्यवसाय को जडमूल से नष्ट नहीं किया जाता है| राजस्थान राज्य में वर्ष 1989 से पूर्व स्थानीय निकायों में पेंशन योजना लागू नहीं थी| वोट बैंक और सस्ती लोकप्रियता की नीतियों के चलते  सामाजिक सुरक्षा की दुहाई देते हुए 1989 से स्थानीय निकायों में भी पेंशन लागू कर दी गयी| किन्तु केंद्र सरकार ने जल्दी ही 2001 में चालू पेंशन योजना को नयी भर्तियों के लिए बंद कर दिया और मात्र अंशदायी पेंशन योजना लागू कर दी| तत्पश्चात राज्य सरकारों ने भी इसी मार्ग का अनुसरण किया| वहीं समाज कल्याण विभाग ने विभिन्न प्रकार की पेंशने चालू की हैं|  हमारी योजनाओं में चिंतन और दीर्घकालीन सोच का सदा ही अभाव रहा है फलत: देश का समुचित आर्थिक विकास नहीं हुआ है और जो थोड़ा बहुत विकास हुआ है वह भी असंतुलित है और उसका फल लक्षित समूह तक नहीं पहुंचा है| ठीक इसी प्रकार कुछ वर्ष पूर्व आठवीं कक्षा के लिए बोर्ड परीक्षा का प्रावधान किया गया और उसके बाद पांचवीं कक्षा के लिए भी बोर्ड परीक्षा का प्रावधान किया गया| किन्तु थोड़े ही समय पश्चात मात्र इन बोर्ड परीक्षाओं के प्रावधान को नहीं हटा दिया गया बल्कि दसवीं कक्षा के लिए भी बोर्ड परीक्षा वैकल्पिक कर दी गयी| मानव संसाधनों के विकास के नाम पर देश में बहुत से प्रशिक्षण संस्थान तो मात्र कागजों में चल रहे हैं| देश में वाहन तो 75 टन से भी अधिक क्षमता के बनाए जा रहे हैं किन्तु सड़कें 20 टन के भी योग्य नहीं हैं| लगभग यही हाल बिजली, पेयजल, दूरसंचार, नगर नियोजन आदि का है| हमारी योजनाओं में सुसंगतता और परिपक्वता का भी नितांत अभाव है |

हमारे नेताओं को अब स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि लोकतंत्र को प्रशासकों या प्रशासनिक अधिकारियों के स्थान पर ऐसे प्रबंधकों की आवश्यकता है जो जन भावनाओं के अनुरूप कार्य कर सकें व जनता के सीमित साधनों के आधार पर सर्वोतम परिणाम दें| जनतंत्र में सभी लोक पदधारी जनता के ट्रस्टी होते हैं| एक ट्रस्टी का कर्तव्य अपने नियोक्ता की भावना और निर्देशों के अनुरूप कार्य करना होता है और ऐसा करने में उसे न तो कोई विवेकाधिकार है और न ही वह अपने कोई व्यक्तिगत विचार रखने की कोई छूट का उपयोग कर सकता बल्कि वह तो अपने नियोक्ता का प्रवक्ता होता है| जनतंत्र एक सतत संवाद वाली प्रक्रिया है जिसमें जन प्रतिनिधियों का यह कर्तव्य है कि वे सरकार की नीतियों के सम्बन्ध में जनता के विचार जानें और उन्हें सदन तक पहुंचाएं व उनके अनुरूप ही मतदान करें, चाहे उनके व्यक्तिगत विचार अथवा हित कुछ भी क्यों न हों क्योंकि  उन्हें प्रतिनिधि की हैसियत में ही सदन में जाने का अधिकार है|            

हमारा लोकतंत्र आज सरकारी अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के बंधक है, मतदान के अतिरिक्त जनता का कोई महत्व नहीं है| जनता की चीख पुकार के बावजूद भी हमारी संवेदनहीन सरकारों के कान पर जूं तक नहीं रेंगती है| बीकानेर में विश्वविद्यालय खोलने के लिए वर्ष 1973-74 में संभाग स्तर पर हड़ताल हुई थी किन्तु सरकार ने जनता की यह वाजिब मांग आखिर 31 वर्ष बाद 2005 में पूरी की है| स्वतंत्रता से पूर्व बीकानेर राज्य में अपना उच्च न्यायालय था उसे बंद कर दिया गया और आज मुकदमेबाजी व जनसंख्या दोनों बढ़ जाने के बावजूद देश के सबसे बड़े राज्य में अतिरिक्त बेंचें खोलने के मुद्दे पर सरकार राजनीति  कर रही है जबकि राजस्थान से लगभग समान आबादी और कम क्षेत्रफल वाले मध्यप्रदेश राज्य में तीन बेंचें कार्यरत हैं| सरकार एक ओर जहां पेयजल की आपूर्ति करने में असमर्थ है और नागरिकों को बिना पम्पों की सहायता के जल नहीं मिल पाता वहीं पानी खेंचने के लिए पम्पों का उपयोग अपराध घोषित कर रखा है| सरकार का निशुल्क दवा  और चिकित्सा का दावा भी खोखला है| विधान सभा की भी जानकारी में है कि 6 लाख आबादी वाली तहसील में 20 से अधिक सरकारी डॉक्टर कार्यरत हैं वहां पूरे वर्ष में एक भी ओपरेशन नहीं होता| डाक्टरों द्वारा यह बहाना बनाया जाता है कि निश्चेतक विशेषज्ञ के अभाव में ओपरेशन नहीं किये जा रहे हैं, वहीँ परिवार कल्याण के लक्ष्य प्राप्ति के लिए ओपरेशन किये जाते रहते हैं| आखिर सरकारी सेवा के लिए वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं को प्रसन्न रखना-खुशामद करना मात्र पर्याप्त है, जनता की सेवा कोई मायने नहीं रखती है और न ही जनता की अप्रसन्नता कोई मायने रखती है| उचित भी हो सकता है, किसी भी कार्य के लिए प्रेरक बिंदु- सकारात्मक (प्रोत्साहन) या नकारत्मक (दंड)- होना  आवश्यक है और आज की हमारी इस व्यवस्था में दोनों का ही लगभग अभाव है अत: कोई भी सरकारी कर्मचारी जनता की सेवा करना अपना धर्म नहीं समझता है| कमोबेश यही स्थिति अन्य राज्यों की है बल्कि संभव है कुछ इससे भी आगे हों |आज लोकपद तो जनता का शोषण करने और लूटने के लाइसेंस की तरह प्रयोग हो रहे  हैं और शासन एक व्यापार की भांति संचालित है| अधिकाँश महत्वपूर्ण पदों पर दागी लोगों को बैठा दिया जाता है ताकि सत्तासीन लोग उनके पूर्व के दुराचरण के लिए उन्हें ब्लैकमेल करते रहें और उनसे मनपसंद कार्य करवाते रहें| सरकारी नियुक्तियां नीलाम हो रही हैं और कर्मचारियों के ट्रांसफर ने एक फलते-फूलते उद्योग का रूप ले लिया है| अत: ट्रांसफर के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं बनायी जाती है| लगभग सरकारी कार्यालयों ने सत्ता की दलाली के केन्द्रों का रूप धारण कर लिया है| राजनेताओं को को भी इस स्थिति का स्पष्ट ज्ञान है और वे इसमें कोई मौलिक सुधार नहीं लाना चाहते अपितु तुष्टिकरण के तौर पर चुनाव से पूर्व प्रशासन आपके द्वार, प्रशासन आपके संग जैसे अभियान चलाते हैं| रिश्वत के सम्बन्ध में सरकारी कार्यालयों में एक बड़ी लोकप्रिय कहावत प्रचलित है कि वेतन तो वे पद का लेते हैं और जनता को काम निकलवाना हो तो पैसे देने ही पड़ेंगे| कहने को तो देश में जन समस्याओं के निराकरण के लिए कई न्यायालय, आयोग, कमेटियां, बोर्ड, मंच, विधायिकाएं आदि हैं किन्तु इनमें से प्रभावी और अचूक कोई नहीं है| आज अधिकाँश जन प्रतिनिधियों  का आचरण निरंकुश तानाशाह जैसा है, और जो शेष हैं वे कायर है व उनका कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं है| अब जनता की फ़रियाद सुनने के लिए कोई मंच शेष नहीं रह गया है जब जनता के किसी आवेदन की निर्धारित रसीद पुलिस थानों में तो क्या लोकसभा सचिवालय द्वारा भी नहीं दी जाती है| नीतिगत मामलों को भी जनप्रतिनिधियों की अनुमति के बिना सचिवों द्वारा ही निरस्त कर दिया जाता है| बस यूँ समझिये कि देश चल रहा है तो आईसीयू - विटामिन, ग्लूकोज, ओक्सिजन की कृत्रिम मदद के सहारे से|             

Wednesday 6 March 2013

भ्रष्टाचार ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है


देश के आम आदमी की बात आखिरकर कौन करेगा ये यक्ष प्रश्न है। राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता या फिर मीडिया। आम आदमी किसी की प्राथमिकता नहीं है। अगर देश के किसी कोने से आम आदमी के लिए आवाज उठती है तो उसमें स्वार्थ की चासनी लिपटी होती है। नि:स्वार्थ भाव से कोई आम आदमी के दु:ख-दर्द, परेशानियों व दुश्ववारियों को उठाने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। पिछले एक दशक में जितने भी सामाजिक आंदोलन आम आदमी की परेशानियों व संकटों को दूर करने के लिए हुए उन सब का परिणाम जगजाहिर है जनता की समस्याओं का कोई दूरगामी ठोस उपाय करने की बजाय सामाजिक संगठन और कार्यकर्ता सरकारी मशीनरी से सांठ-गांठ, मोल-भाव और तालमेल बिठाते दिखते हैं। सरकारी स्तर पर वोट बैंक को ध्यान रखकर योजनाएं चलाई और बंद की जाती हैं। आम आदमी की परेशानियों का स्थायी हल खोजने की बजाय फौरी कार्रवाई और आंखों में धूल झोंकने पर सरकार का जोर रहता है। स्वतंत्रता के 65 वर्षों में आम आदमी की परेशानियां कम होने की बजाय बढ़ी हैं यह कड़वी सच्चाई है। सरकारी फाइलों में तो आम आदमी और गरीब भरपेट खाना खा रहे हैं, बच्चे काम करने की बजाय स्कूल पढऩे जा रहे हैं, महिलाएं सुरक्षित हैं और उन्हें समाज में उचित स्थान मिल गया है, बुजुर्ग सुरक्षित व खुशहाल हैं, नौजवान रोजगार में लगे हैं, भू्रण हत्या, बाल श्रम, बाल वेश्यावृत्ति, विधवा विवाह का उन्मूलन हो चुका है। दहेज हत्या और बलात्कार की घटनाओं पर प्रभावी रोक लग चुकी है। खेतों में सिंचाई का पानी उपलब्ध है, किसान खुशहाल हैं, मजदूर संतुष्ट हैं और नागरिक सुरक्षित हैं। गुण्डे, बदमाश जेलों में सड़ रहे हैं। कहानी का सार यह है कि सावन की अंधी सरकार को हर ओर हरा ही हरा दिखाई दे रहा है। सरकारी चंदे, सहायता और सम्मान की भूखी सामाजिक संस्थाएं और उनके कर्ता-धर्ता सरकारी मशीनरी की हां में हां मिलाते और गर्दन हिलाते दिखाई देते हैं। जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है लेकिन सरकारी तंत्र और अमला आंकडेबाजी से लोगों को मन बहला रहा है।
भ्रष्टाचार ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया था कि दिल्ली से विकास के लिए चला एक रुपया नीचे तक पहुंचने में दस पैसे में तब्दील हो जाता है। पिछले दो दशकों में जिस तरह से भ्रष्टाचार के हाइड्रोजन और परमाणु बम फटे है उससे ये आभास होता है कि दिल्ली से चला रुपया नीचे पहुंचता ही नहीं है हवा में उसकी लूट हो जाती है। यूपी में बसपा शासन काल में हुआ राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के साढे पाँच हजार के घोटाले ने भ्रष्टाचार की किताब में नया अध्याय तो जोड़ा ही है वहीं यह भी साबित किया है कि किस तरह राजनीतिक दल और सरकारी मशीनरी आम आदमी के स्वास्थ्य पर खर्च होने वाले पैसे से अपनी जेबें भरती है। घोटालों, घपलों की लंबी कतार है, नित नए भ्रष्टाचार के मामले प्रकाश में आ रहे हैं। केन्द्र से लेकर राज्यों तक आम आदमी के हिस्से के पैसे को मिलकर सफेदपोश और सरकारी तंत्र लूट रहा है। इस भ्रष्ट, नाकाम और नपुंसक व्यवस्था, तंत्र और ताने-बाने में आम आदमी की कोई चिंता करेगा ऐसा सोचना भी निरर्थक और बेमानी है।
पिछले एक दशक के सामाजिक आंदोलनों का इतिहास खंगाला जाए तो बहुसंख्य आंदोलनों में जनता की ताकत का प्रयोग निजी स्वार्थ साधने के लिये ही हुआ। जनता का नेतृत्व सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों ने ही किया। इक्का-दुक्का छोडकऱ एक भी आंदोलन अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाया। चालाक और भ्रष्ट व्यवस्था ने सीधे-सादे मामलों को जलेबी की तरह घुमावदार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नर्मदा और टिहरी बांध के आंदोलन हमारे समक्ष हैं। इन आंदोलनों का नेतृत्व करने वालों का कद तो जरूर बढ़ा लेकिन सरकार ने आम आदमी को कुछ हासिल नहीं हुआ। पर्यावरणविद, वैज्ञानिक, सामाजिक संगठन खूब चिल्लाए लेकिन सत्ता हाथी की चाल से चलती रही और उसने जो सोचा था वही किया। जन लोकपाल कानून और काला धन वापस लाने के चले आंदोलनों का हश्र देशवासी भूले नहीं हैं। दो-चार दिन चिल्लाने के बाद सामाजिक संगठन, कार्यकर्ता और मीडिया शांत होकर बैठ जाता है या फिर किसी दूसरे मुद्दे के पीछे भागने लगते हैं। टीम अन्ना और रामदेव ने आम आदमी का जगाया हिलाया लेकिन भ्रष्ट सत्ता ने इन आंदोलनों की हवा निकाल कर ही दम लिया। टीम अन्ना का एक धड़ा राजनीतिक दल बना बैठा और रामदेव ने भी राजनीति में आने के संकेत दिये हैं अर्थात भ्रष्ट सत्ता ने भ्रष्टाचार के कीचड़ में उन्हें फिसलने का विवश कर आम आदमी की आवाज को कुंद करने का काम किया। यह विडंबना है कि आजादी के लंबे वक्त के बाद भी जनता कभी इसके, कभी उसके पीछे भागती, पिटती और लुटती रही और उसकी हालत में तिनका भर भी परिवर्तन नहीं आया। आबादी का बड़ा हिस्सा बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। देश में 64 फीसदी आबादी को शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं है तो देश के बड़े हिस्से में पीने का साफ पानी मुहैया नहीं है। गांवो में वैसे तो बिजली के खंभे ही नहीं पहुंचे अगर गलती से खंभा लग गया तो बिजली को ईद का चांद समझिए। वो अलग बात है कि उदारीकरण का गाना गा रही सरकार का पूरा जोर हर हाथ में मोबाइल थमाना है। हजारों गांवों में बच्चे ढिबरी की रोशनी में कच्ची-पक्की पढ़ाई पूरी करते हैं और सरकार का जोर आईटी सिटी और टेबलेट बांटने पर है। किसान खुदकुशी कर रहे हैं और सरकार जीएम बीजों और विदेश व्यापार समझौतों में व्यस्त है। करोड़ों के पास एक वक्त खाने के दाने नहीं है, तन ढकने का कपड़े नहीं है, सर्दी-गर्मी से मरने वालों का संख्या अच्छी खासी है तो सडक़ किनारे, फुटपाथ पर खुले आसमान के नीचे रात बिताने वालों की संख्या करोड़ों में है। ये किसी फिल्मी कहानी का हिस्सा नहीं है बल्कि वो कड़वी हकीकत है जिससे देश का आम आदमी हर दिन दो चार होता है। सारे कानून नियम, सिद्धांत, अनुशासन और सख्ती आम आदमी के हिस्से में है सत्ताधारी, नौकरशाह और उनके इर्द-गिर्द रहने वालों की फौज मौज उड़ा रही है। बालश्रम, बाल वेश्यावृत्ति, बाल विवाह की गर्म हवाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। मजदूरों का शोषण बढ़ा है तो वहीं बेरोजगार युवक अपराध की काली सडक़ पर चलने को विवश है। बच्चे स्कूल की बजाय काम करने को मजबूर हैं। युवतियों और महिलाओं का घर से निकलना मुश्किल हो रहा है। महिलाएं सुरक्षित नहीं है। आम आदमी के लिए चलने वाली हजारों योजानाएं का लाभ किसे मिल रहा है ये किसी को मालूम नहीं है। चीनी से हेलीकाप्टर घोटाले तक हर मामले में सत्ता भ्रष्टाचार के कीचड़ में सनी है। भ्रष्टाचार से परिपूर्ण वातवारण में सरकार, सामाजिक संगठन और मीडिया आम आदमी की चिंता नहीं कर रहा है तो आखिरकर कौन आम आदमी के दु:ख-दर्दे दूर करेगा और उसकी आवाज को उठाएगा। दामिनी बलात्कार कांड में बिना किसी नेतृत्व के सडक़ों पर उतरकर जनता अपनी बहादुरी और समझदारी का परिचय दे चुकी है। अब वक्त आ चुका है किसी दूसरे के कंधे का प्रयोग करने की बजाय जनता अपनी लड़ाई खुद लड़े तभी उसे अधिकार और स्वतंत्रता मिल पाएगी।

---साभार उगता भारत 

Tuesday 5 March 2013

भारत में समाजवाद और आर्थिक-सामाजिक न्याय का सपना


देश की आजादी के समय हमारे पूर्वजों के मन में बड़ी उमंगें थी और उन्होंने अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए सुन्दर सपने संजोये थे| आज़ादी से लोगों को आशाएं बंधी थी कि वे अपनी चुनी गयी सरकारों के माध्यम से खुशहाली और विकास का उपभोग करेंगे| देश में कुछ विकास तो अवश्य हुआ है लेकिन किसका, कितना और इसमें किसकी भागीदारी है यह आज भी गंभीर प्रश्न है जहां एक मामूली वेतन पाने वाला पुलिस का सहायक उप निरीक्षक निस्संकोच होकर धड़ल्ले से अरबपति बन जाता है उच्च लोक पदों पर बैठे लोगों की तो बात क्या करनी है| वहीं आम नागरिक दरिद्रता के कुचक्र में जी रहा है- उसे दो जून की रोटी भी सम्मानपूर्वक उपलब्ध नहीं हो रही है| शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे झूझना पड़ता है| स्वयं योजना आयोग ने लगभग 40 वर्ष पहले भी माना था कि आज़ादी के बाद अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ी है जबकि हमारा पवित्र संविधान सामाजिक और आर्थिक न्याय का पाठ पढाता है| आज तो यह खाई इतनी बढ़ चुकी है कि शायद आने वाली कई पीढ़ियों के लिए भी इसे पाटना मुश्किल हो जाएगा|
एक नागरिक पर उसके सम्पूर्ण परिवार के भरण पोषण का नैतिक और कानूनी दायित्व होता है| इस तथ्य को स्वीकार करते हुए अमेरिका में आयकर कानून बनाया गया है और वहां नागरिकों का कर दायित्व उनकी पारिवारिक व आश्रितता की स्थिति पर निर्भर करता है| यदि करदाता अविवाहित या अलग रहता हो तो भी यदि उस पर आश्रित हों तो उसे आयकर में काफी छूटें उपलब्ध हैं| उदाहरण के लिए एक अविवाहित पर यदि कोई आश्रित नहीं हों तो उसकी मात्र 9750 डॉलर तक की वार्षिक आय करमुक्त है वहीँ यदि उस पर आश्रितों की संख्या 6 हो तो उसे 32550 डॉलर तक की आय पर कर देने से छूट है| ठीक इसी प्रकार यदि एक व्यक्ति घर का मुखिया हो व उस पर आश्रितों की संख्या 6 हो तो उसे 35300 डॉलर तक की आय पर कोई कर नहीं देना पडेगा| इसी प्रकार आश्रितों की विभिन्न संख्या और परिवार की संयुक्त या एकल स्थति के अनुसार अमेरिकी कानून में छूटें उपलब्ध हैं| इस प्रकार अमेरिका पूंजीवादी व्यवस्था वाला देश होते हुए भी समाज और सामाजिक-आर्थिक न्याय को स्थान देता है|  
भारत में अंग्रेजी शासनकाल में 1922  में राजस्व हित के लिए 64 धाराओं वाला संक्षिप्त आयकर कानून का निर्माण किया गया था और तत्पश्चात स्वतंत्रता के बाद 1961 में नया कानून बनया गया| इस कानून को बनाने में यद्यपि संवैधानिक ढांचे को ध्यान में रखा जाना चाहिए था किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं किया गया है| कानून को समाज का अनुसरण करना चाहिए और इनके निर्माण में जन चर्चाओं के माध्यम से जनभागीदारी होनी चाहिए क्योंकि कानून समाज हित के लिए ही बनाए जाते हैं| भारत के संविधान में यद्यपि समाजवाद, सामजिक न्याय और आर्थिक न्याय का उल्लेख अवश्य किया गया है किन्तु इन तत्वों का हमारी योजनाओं, नीतियों और कानूनों में अभाव है| भारत में सभी नागरिकों को एक सामान रूप से कर देना पड़ता है चाहे उन पर आश्रितों की संख्या कुछ भी क्यों न हो| संयुक्त परिवार प्रथा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है| हमारे यहाँ  परिवार के कमाने वाले सदस्य पर शेष सदस्यों के भरण-पोषण का नैतिक और कानूनी दायित्व है क्योंकि भारत में पाश्चात्य देशों के समान सामजिक सुरक्षा या बीमा की कोई योजनाएं लागू नहीं हैं| जबकि पश्चात्य संस्कृति में परिवार नाम की कोई इकाई नहीं होती और विवाह वहां एक संस्कार के स्थान पर अनुबंध मात्र है| पाश्चात्य देशों में एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में औसतन 5-6 विवाह करता है| परिस्थितिवश जब परिवार में एक मात्र कमाने वाला सदस्य हो और उस पर आश्रितों की संख्या अधिक हो तो भारत में उसके लिए आयकर चुकाने की क्षमता तो दूर रही अपना गरिमामयी जीवन यापन भी कठिन हो जाता है | वैसे भी भारत में आश्रितता की औसत संख्या 5 के लगभग आती है| इन सबके अतिरिक्त समय समय पर विवाह जन्मोत्सव आदि सामाजिक समारोहों पर होने वाले व्यय का भार अलग रह जता है| इस प्रकार हमारा आयकर कानून हमारे सामाजिक ताने बाने पर आधारित नहीं और न ही यह अमेरिका जैसे पूंजीवादी समर्थक देशों की प्रणाली पर आधरित है| बल्कि हमारे बजट, कानून और नीतियाँ तो, जैसा कि एक बार पूर्व प्रधान मंत्री श्री चंद्रशेखर ने कहा था, आयातित हैं जिनका देश की परिस्थितियों से कोई लेनादेना या तालमेल नहीं है| उक्त विवेचन से यह बड़ा स्पष्ट है कि देश में न तो अमेरिका की तरह पूंजीवाद है और न ही समाजवाद है बल्कि अवसरवाद है तथा हम आर्थिक न्याय, समाजवाद और सामजिक न्याय का मात्र ढिंढोरा पीट रहे हैं, उसका हार्दिक अनुसरण नहीं कर रहे हैं|  

देश में सत्तासीन लोग नीतिगत निर्णय लेते समय राजनैतिक लाभ हानि व सस्ती लोकप्रियता पर अधिक और जनहित पर कम ध्यान देते हैं| हमारे पास दूरगामी चिंतन, दीर्घकालीन तथा टिकाऊ लाभ देने वाली नीतियों  का सदैव अभाव रहा है| सामाजिक हितों के सरोकार से देश में 14 बैंकों का 1969 में राष्ट्रीयकरण किया गया और 1980 में फिर 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया किन्तु कुछ समय बाद ही इन्हीं बैंकों के निजीकरण पर मंथन होने लगा| यह हमारी अपरिपक्व और विदेशी इशारों पर संचालित नीतियों की परिणति है| देश में बैंकों और वितीय कंपनियों, जिनमें जनता का धन जमा होता है,  पर निगरानी रखने और उनके लिए नीतियाँ निर्धारित करने का कार्य रिजर्व बैंक को सौंपा गया है| किन्तु ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में नई-नई निजी वितीय कम्पनियां और बैंकें मैदान में बारी बारी से  आती गयी हैं और इनमें जनता का पैसा फंसता रहा है| इन कमजोर और डूबंत बैंकों का अन्य बैंकों में विलय कर दिया गया या अन्य तरीके से उनका अस्तित्व मिटा दिया गाया| रिजर्व बैंक अपने कानूनी दायित्वों के निर्वहन में, और कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा करने में विफल रहा है| देश को राष्ट्रीय सहारा जैसी कंपनियों द्वारा दिए गए जख्म भी अभी हरे हैं| आज देश में राष्ट्रीय स्तर का ऐसा कोई भी निजी क्षेत्र का बैंक या वितीय कंपनी नहीं है जिसका 20 वर्ष से ज्यादा पुराना और उज्ज्वल इतिहास हो| कुल मिलाकर वितीय और बैंकिंग क्षेत्र में हमारी नीतियाँ जनानुकूल नहीं रही हैं| जो निजी  क्षेत्र के बैंक आज देश में कार्यरत हैं उनकी भी वास्तविक वितीय स्थिति मजबूत  नहीं है चाहे उन्होंने चार्टर्ड अकाऊटेन्ट की मदद से कागजों में कुछ भी सब्ज बाग़  दिखा रखे हों|  

प्रकृति ने समस्त संसाधन सभी प्राणियों के लिए समान रूप से निशुल्क उपलब्ध करवाए हैं और सभी नागरिकों को इन संसाधनों के दोहन करने के समान अधिकार हैं| एक व्यक्ति अपनी स्वयं की क्षमता से इन प्राकृतिक संसाधनों का सीमित दोहन कर सकता है किन्तु कुछ लोग अन्य लोगों की सहायता से इन संसाधनों का अधिक दोहन कर धन कमाते हैं और अपने इन सहायकों को कम प्रतिफल कर देकर धन संचय करते हैं| स्वस्प्ष्ट है कि अन्य लोगों का हक़ छीनकर और उनका शोषण कर धन संचयन कर धनपति-पूंजीपति बना जा सकता है| आज देश में बहुत सी ऐसी कहानियां मिल सकती हैं जिनमें फुटपाथ पर सामान बेचने वाले लोग सत्तासीन लोगों से मिलकर किसी न किसी रूप में सार्वजनिक धन को लूटकर या कर चोरी कर शीघ्र ही धनाढ्य हो गए हैं| देश के संविधान में यद्यपि समाजवाद का समावेश अवश्य है किन्तु देश के सर्वोच्च वितीय संस्थान रिजर्व बैंक के केन्द्रीय बोर्ड में ऐसे सदस्यों के चयन में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है जिनकी समाजवादी चिंतन की पृष्ठभूमि अथवा कार्यों से कभी भी वास्ता रहा है| सर्व प्रथम तो बोर्ड के अधिकाँश सदस्य निजी उद्योगपति पूंजीपति हैं| जिन सदस्यों को उद्योगपतियों के लिए निर्धारित कोटे के अतिरिक्त -  समाज सेवा , पत्रकारिता आदि क्षेत्रों से चुना जाता है वे भी समाज सेवा, पत्रकारिता आदि का मात्र चोगा पहने हुए होते हैं व वास्तव में वे किसी न किसी  औद्योगिक घराने से जुड़े हुए हैं| एक उद्योगपति का स्पष्ट झुकाव स्वाभाविक रूप से व्यापार के हित में नीति निर्माण में होगा| इससे भी अधिक दुखदायी तथ्य यह है कि  केन्द्रीय बोर्ड के 80% से अधिक सदस्य विदेशों से शिक्षा प्राप्त हैं फलत: उन्हें जमीनी स्तर की भारतीय परिस्थितियों का कोई व्यवहारिक ज्ञान नहीं है अपितु उन्होंने तो इंडिया को मात्र पुस्तकों  में पढ़ा है| ऐसी स्थिति में रिजर्व बैंक बोर्ड द्वारा नीति निर्माण में संविधान सम्मत और जनोन्मुख नीतियों की अपेक्षा करना ही निरर्थक है| रिजर्व बैंक, स्वतन्त्रता पूर्व 1934 के अधिनियम से स्थापित एक बैंक है अत: उसकी स्थापना में संवैधानिक समाजवाद के स्थान पर औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की बू आना स्वाभाविक  है| देश के 65% गरीब, वंचित और अशिक्षित वर्ग का रिजर्व बैंक के केन्द्रीय बोर्ड में वास्तव में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है| दूसरी ओर भारत से 14 वर्ष बाद 1961 में स्वतंत्र हुए दक्षिण अफ्रिका के रिजर्व बैंक के निदेशकों में से एक कृषि व एक श्रम क्षेत्र से होता है|  हमारे पडौसी देश पाकिस्तान के केन्द्रीय बैंक में निदेशक मंडल में प्रत्येक राज्य से न्यूनतम एक निदेशक अवश्य होता है जबकि हमारे देश में ऐसे  प्रावधान का नितांत अभाव है|