Wednesday 30 January 2013

न्यायिक सुधारार्थ प्रथम कदम


न्यायिक सुधारार्थ प्रथम कदम
देश के न्यायालयों में बकाया तीन करोड से अधिक मुकदमों का अम्बार आम नागरिक के लिए चिंता का विषय है किन्तु उक्त अम्बार के बकाया होने के मूल कारण पर पहले चिंतन होना चाहिए| सम्पूर्ण भारत वर्ष में मौलिक कानून- संविधान, साक्ष्य अधिनियम, दंड प्रक्रिया संहिता, सिविल प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता- समान रूप से लागू हैं अत: न्यायिक अनुशासन का सम्मान करते हुई देश के सभी न्यायालयों का कार्य निष्पादन लगभग समान होना चाहिए|   
 
माननीय उच्चतम न्यायालय के आंकडों के अनुसार वर्ष 2011 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने 5000 प्रकरण प्रति न्यायाधीश की दर से निपटारा किया है और देश के सभी उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 900 पद हैं व उनमें 43,00,000 मामले बकाया हैं। यदि प्रति न्यायाधीश 5000 प्रकरणों का निपटान दिया जाये तो उक्त समस्त पुराने बकाया मामले मात्र एक वर्ष में और सभी मामले दो वर्ष में निपटाए जा सकते हैं|

अधीनस्थ न्यायालयों में भी, केरल राज्य के न्यायाधीशों ने वर्ष 2011 में प्रति न्यायाधीश  2500  प्रकरणों  का निस्तारण किया है और देश के सभी अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 18000 पद हैं व 2,70,00000 मामले बकाया हैं। यदि प्रति न्यायाधीश 2500 प्रकरणों का निपटान दिया जाये तो उक्त समस्त पुराने और नए मामले मात्र एक वर्ष से भी कम अवधि में निपटाए जा सकते हैं| किन्तु खेद का विषय है कि स्वतन्त्रता के 65 वर्षों की बाद भी देश में अथवा किसी राज्य में न्यायाधीशों के पद सृजन के लिए कोई सम्यक नीति नहीं है|
अमेरिका में प्रति व्यक्ति औसत आय 48000/= डॉलर, उचित मजदूरी 15000/= डॉलर  और एक जिला न्यायाधीश का वेतन 25000/= डॉलर प्रति वर्ष है जबकि भारत में प्रति व्यक्ति औसत आय 36000/= रुपये, न्यूनतम मजदूरी 72000/= रुपये और एक जिला न्यायाधीश का वेतन 720000/= रुपये प्रति वर्ष है| अमरीका में न्यायाधीशों का वेतन बहुत से अन्य सरकारी कर्मचारियों से कम है(http://www.uscourts.gov/JudgesAndJudgesh...eFact.aspx  ) व उन्हें बढ़ी हुई मंहगाई राहत का भुगतान नहीं किया जा रहा है जबकि भारत में न्यायाधीशों को सर्वोच्च वेतनमान दिया जा रहा है| भारतीय नागरिक अपनी जेब से न्यायाधीशों को न केवल अपनी क्षमता से अधिक भुगतान कर रहे हैं बल्कि उनका शोषण हो रहा है| इस प्रकार भारत के न्यायालयों में आवश्यकता से बहुत अधिक न्यायाधीश हैं और न्याप्रशासन के नाम पर देश का धन बर्बाद किया जा रहा है और उसका कोई दृश्यमान लाभ आम नागरिक को नहीं मिल रहा है| न्याय की वर्तमान व्यवस्था से आम व्यक्ति तो हताश है ही शक्तिशाली लोगों को भी इसमें कोई विश्वास नहीं है और वे अपनी जान व सम्पति की सुरक्षा के लिए अपनी व्यक्तिगत ब्रिगेड रख रहे हैं|

दूसरी ओर, अमेरिका की तुलना में भारत एक आध्यात्मिक एवं उन्नत सांस्कृतिक चिंतन वाला राष्ट्र है जिसमें लोग ईश्वरीय सत्ता में विश्वास रखते हैं| पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित महानगरों को छोड़ दिया जाये तो , गान्धीजी के शब्दों में,  भारत आज भी गाँवों का देश है|   अमरीका में 60% से ज्यादा लोग अपनी रक्षा के लिए शस्त्र (लाइसेंस) रखते हैं जबकि भारत में मात्र 2% से भी कम लोगों के पास शस्त्र (लाइसेंस) हैं| तदनुसार अमरीका में होने वाले अपराधों की प्रकृति एवं संख्या भी भारत से काफी भिन्न है| अत: भारत के न्यायविदों द्वारा प्रति लाख जनसँख्या पर न्यायाधीशों की संख्या की अमेरिका या अन्य देशों से तुलना करना उचित नहीं है|

भारत के समस्त न्यायालयों के लिए उपरोक्तानुसार व्यावहारिक और आदर्श लक्ष्य व नीति निर्धारित होनी चाहिए व साथ ही व्यवस्था हो कि समस्त न्यायाधीश पूर्ण समय बैठकर  दक्षता से निष्ठापूर्वक कार्य करें ताकि जनता को समय पर न्याय मिल सके| इस प्रकार लक्ष्य और नीति निर्धारण से भारत के अधिकाँश न्यायाधीश और वकील रोजगार-हीन हो जायेंगे व न्यायाधीशों को पदोन्नति के लाले पड़ जायेंगे अत: वे एकजुट होकर इसका पुरजोर विरोध करेंगे जिससे सावधान भी रहना है| किन्तु निर्भीक होकर जन हित का ही पक्षपोषण किया जा सकता है| 

Wednesday 23 January 2013

कर्मचारियों के तबादलों में अब नेताओं की मर्जी और डिजायर नहीं चलेगी




यद्यपि कानून में तबादला दंड के रूप में परिभाषित नहीं है किन्तु फिर भी इसे एक दंड के औजार या हिसाब बराबर करने के रूप में काम में लिया जा रहा है जिसे कानून की भाषा में न्यायिकेतर (Extra-judicial Punishment) दंड कहा जता है| तबादला किसी शिकायत का कोई हल भी नहीं है | यदि कर्मचारी ने वास्तव में कोई कदाचार किया है तो उसे दण्डित किया जाना चाहिए अन्यथा जो कर्मचारी आज यहाँ कदाचार से जनता को परेशान कर रहा है आगे नए स्थान पर जाकर भी जनता को परेशान ही करेगा | तबादले को एक शोर्टकट के रूप में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए | वैसे तबादले करने वाले अधिकारी अपना सिरदर्द टालने व राजनेतिक तुष्टिकरण के लिए यह सब कर रहे हैं और देश के न्यायालय भी इस समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच रहे थे|  
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने अमिर चंद बनाम हिमाचल राज्य के मामले में दिनांक 09.01.2013 को अपने आदेश से प्रदेश के लाखों सरकारी कर्मचारियों के लिए बनाई गई तबादला नीति में संशोधन करने के आदेश दिए हैं ताकि सभी कर्मचारियों को राजनीतिक द्वेष के चलते प्रताडऩा से बचाया जा सके। न्यायालय ने सरकार को 28 फरवरी तक का समय देते हुए हिदायत दी है कि यदि तबादला नीति में अदालत के दिशा-निर्देशों के अनुसार संशोधन नहीं किए जाते तो यह अदालत की अवमानना माना जाएगा।
न्यायाधीश दीपक गुप्ता व न्यायाधीश राजीव शर्मा की खंडपीठ ने कुछ कर्मचारियों द्वारा तबादला आदेशों को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं का एक साथ निपटारा करते हुए उपरोक्त आदेश पारित किए। न्यायालय ने खेद प्रकट करते हुए कहा कि प्रदेश में कर्मचारी राजनीतिक आकाओं के इशारे पर धड़ल्ले से बदले जाते हैं और जिन कर्मचारियों का कोई राजनीतिक या प्रशासनिक आका नहीं है, को बेवजह प्रताडि़त किया जाता है। कुछ कर्मचारी दुर्गम क्षेत्रों में फंसे रहते हैं तो कुछ पूरा सेवाकाल शहरों में ही निकाल देते हैं।
मंत्रियों, विधायकों व राजनीतिक लोगों द्वारा तबादला आदेशों में दखल को बेवजह व नाजायज ठहराते हुए न्यायालय ने कहा कि यदि किसी नेता की किसी कर्मचारी की सेवाओं से शिकायत है तो वह इसकी शिकायत कर सकता है परंतु संबंधित कर्मचारी का तबादला शिकायत की जांच के बाद ही सही पाए जाने पर किया जाना चाहिए। हाईकोर्ट ने अपने आदेशों में स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि सरकार तबादला नीति में संशोधन करे और विभिन्न स्टेशनों को अलग-अलग दर्ज श्रेणियों के हिसाब से बांटे।
सरकार को 4 या 5 श्रेणियों में विभिन्न स्टेशनों को बांटने के आदेश देते हुए कहा गया है कि सरकार शिमला, धर्मशाला व मंडी जैसे शहरों को श्रेणी में रखे और डोडरा क्वार, काजा जैसी जगहों को डीया श्रेणी में रखे। श्रेणी से शुरूआत करते हुए कर्मचारी को सभी श्रेणी की जगहों में बदला जाए और श्रेणी की जगहों में कर्मचारी केवल एक बार ही अपनी सेवाएं दे।
इन सेवा शर्तों में केवल अति संवेदन मामलों में ही छूट दी जाए और इस बारे में विस्तृत आदेश पारित किए जाएं। न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि चुने गए प्रतिनिधियों का कोई हक नहीं बनता कि कोई कर्मचारी उसकी इच्छा की जगह में सेवाएं दे। यह इच्छा केवल प्रशासनिक मुखिया की होती है। प्रशासनिक मुखिया प्रतिनिधियों की ऐसी मांगें वापस लौटाने के लिए स्वतंत्र है। माना जा रहा है कि इस आदेश से कर्मचारियों को राजनैतिक कोप भाजन से बड़ी राहत मिलेगी और नेताओं का राजकीय सेवा में अनुचित दखल समाप्त हो सकेगा|