Sunday 20 April 2014

भारत का फलताफूलता मुकदमेबाजी उद्योग

भारतीय न्यायतंत्र उर्फ मुकदमेबाजी उद्योग ने बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध करवा रखा है। देश में अर्द्धन्यायिक निकायों को छोड़कर 20,000 से ज्यादा न्यायाधीश, 2,50,000 से ज्यादा सहायक स्टाफ, 25,00,000 से ज्यादा वकील, 10,00,000 से ज्यादा मुंशी टाइपिस्ट, 23,00,000 से ज्यादा पुलिसकर्मी इस व्यवसाय में नियोजित हैं और वैधअवैध ढंग से जनता से धन ऐंठ रहे हैं। अर्द्ध-न्यायिक निकायों में भी समान संख्या और नियोजित है। फिर भी परिणाम और इन लोगों की नीयत लाचार जनता से छुपी हुई नहीं हैं। भारत में मुक़दमेबाजी उद्योग एक चक्रव्यूह  की तरह संचालित है, जिसमें सत्ता में शामिल सभी पक्षकार अपनी-अपनी भूमिका निसंकोच और निर्भीक होकर बखूबी निभा रहे हैं। प्राय: झगड़ों और विवादों का प्रायोजन अपने स्वर्थों के लिए या तो राजनेता स्वयं करते हैं या वे इनका पोषण करते हैं। अधिकाँश वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से चिपके रहते हैं और उनके माध्यम से वे अपना व्यवसाय प्राप्त करते हैं, क्योंकि विवाद के पश्चात पक्षकार सुलहसमाधान के लिए अक्सर राजनेताओं के पास जाते हैं और कालांतर में राजनेताओं से घनिष्ठ संपर्क वाले वकील ही न्यायाधीश बन पाते हैं। इस बात का खुलासा सिंघवी सीडी प्रकरण ने भी कर दिया है। इस प्रकरण ने यह भी दिखा दिया कि न्यायाधीश बनने के लिए आशार्थी को किन कठिन परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। भारत में किसी चयन प्रक्रिया में न्यायाधीशों या विपक्ष को भी शामिल करने का कोई लाभ नहीं है, क्योंकि जिस प्रक्रिया में जितने ज्यादा लोग शामिल होंगे; उसमें भ्रष्टाचार उतना ही अधिक होगा। प्रक्रिया में शामिल सभी लोग तुष्ट होने पर ही कार्यवाही आगे बढ़ पाएगी। यदि निर्णय प्रक्रिया में भागीदारों की संख्या बढाने या विपक्ष को शामिल करने से स्वच्छता आती तो हमें विधायिकाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्था की आवश्यकता क्यों पड़ती। इसलिए प्रक्रिया में जितना प्रसाद मिलेगा, उसका बँटवारा प्रत्येक भागीदार की मोलभाव शक्ति के अनुसार होगा और अंतत: यह बंदरबांट का रूप ले लेगी। कहने को चाहे संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीश करते होंगे, किन्तु वास्तव में यह भी राजनीति की इच्छाशक्ति की सहमति से ही होता है। जहां राजनीति किसी नियुक्ति पर असहमत हो तो, देश में वकील और न्यायाधीश कोई संत पुरुष तो हैं नहीं, वे प्रस्तावित व्यक्ति के विरुद्ध किसी शिकायत की जांच खोलकर उसकी नियुक्ति बाधित कर देते हैं। अन्यथा दागी के विरुद्ध किसी प्रतिकूल रिपोर्ट को भी नजर अंदाज कर दबा दिया जाता है। विलियम शेक्स्पेअर ने भी (हेनरी 4 भाग 2 नाट्य 4 दृश्य 2) में कहा है , “हमारा सबसे पहला कार्य वकीलों को समाप्त करना है।

वैसे भी भारत की राजनीति किसी दलदल से कम नहीं है और लगभग सभी नामी और वरिष्ठ वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हुए हैं, जिसमें दोनों का आपसी हित है और दोनों एक दूसरे का संरक्षण करते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया तो वैसे ही गोपनीय है और उसमें पारदर्शिता का नितांत अभाव है। न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए मात्र कानून का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह व्यक्ति चरित्र, मनोवृति और बुद्धिमता के दृष्टिकोण से भी योग्य होना चाहिए, क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति के भी कुटिल होने का जोखिम बना रहता है। अमेरिका में न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के समय उसकी पात्रताबुद्धिमता, योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी आदि की कड़ी जांच होती है और प्रत्येक पद के लिए दो गुने प्रत्याशियों की सूची राज्यपाल को नियुक्ति हेतु सौंपी जाती है, जबकि भारत में ऐसा कदाचित नहीं होता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों पर यौन शोषण के आरोप लगे और यह पाया गया कि उन्होंने शराब का सेवन किया तथा पीड़ित महिला को भी इसके लिए प्रस्ताव रखा। इससे यह प्रामाणित होता है कि वे लोग अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने वाले रहे हैं, जिनमें सात्विक और सद्बुद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती। निश्चित रूप से ऐसे चरित्रवान लोगो को इन गरिमामयी पदों पर नियुक्त करने में देश से भारी भूलें हुई हैं, चाहे उन्हें दण्डित किया जाता है या नहीं। न्यायाधीश होने के लिए मात्र विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह मन से सद्बुद्धि और सात्विक होना चाहिए। अन्यथा सद्चरित्र के अभाव में ऐसा पांडित्य तो रावण के समान चरित्र को ही प्रतिबिंबित कर सकता है और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।

विधि आयोग की 197 वीं रिपोर्ट के अनुसार भारत में दोषसिद्धि की दर मात्र 2 प्रतिशत है, जिससे सम्पूर्ण न्यायतंत्र की क्षमतायोग्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि अमेरिका के संघीय न्यायालयों की दोष सिद्धि की जो दर 1972 में 75 प्रतिशत थी, वह बढ़कर 1992 में 85 प्रतिशत हो गयी है। वहीं वर्ष 2011 में अमरीकी न्याय विभाग ने दोष सिद्धि की दर 93 प्रतिशत बतायी है। भारत में आपराधिक मामलों में पुलिस अनुसंधान में विलंब करती है, फिर भी दोष सिद्धियाँ मात्र 2 प्रतिशत तक ही सीमित रह जाती हैं। इसका एक संभावित कारण है कि पुलिस वास्तव में मामले की तह तक नहीं जाती, अपितु कुछ कहानियां गढ़ती है और झूठी कहानी गढ़ने में उसे समय लगना स्वाभाविक है। दोष सिद्धि की दर अमेरिकी राज्य न्यायालयों में भी पर्याप्त ऊँची है। रिपोर्ट के अनुसार यह टेक्सास में 84 प्रतिशत, कैलिफ़ोर्निया में 82 प्रतिशत, न्यूयॉर्क में 72 प्रतिशत उतरी कैलिफ़ोर्निया में 67 प्रतिशत और फ्लोरिडा में 59 प्रतिशत है। इंग्लॅण्ड के क्राउन कोर्ट्स में भी दोष सिद्धि की दर 80 प्रतिशत है। हांगकांग के सत्र न्यायालयों में 92 प्रतिशत, वेल्स के सत्र न्यायालयों में 80 प्रतिशत, कनाडा के समान न्यायालयों में 69 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया के न्यायालयों में 79 प्रतिशत है। ऐसी स्थिति में क्या भारत में मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धि जनता पर एक भार नहीं हैं? क्या इतना परिणाम यदि देश में बैंकिंग या अन्य उद्योग दें तो सरकार इसे बर्दास्त कर सकेगी? फिर न्यायतंत्र के ऐसे निराशाजनक परिणामों को सत्तासीन और विपक्ष दोनों क्योंकर बर्दास्त कर रहे हैं? इससे न्यायतंत्र के भी राजनैतिक उपयोग की बू आती है। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा वसूली हेतु दायर किये गए मामलों में भी, जहां पूरी तरह से सुरक्षित दस्तावेज बनाकर ऋण दिए जाते हैं, वसूली मात्र 2 प्रतिशत वार्षिक तक सीमित है, जबकि इनमें लागत 15 प्रतिशत आ रही है। देश की जनता को न्यायतंत्र की इतनी विफलता में क्रमश: न्यायपालिका, विधायिका, पुलिस व वकीलों के अलग-अलग योगदान को जानने का अधिकार है।

जहां तक नियुक्ति या निर्णयन की किसी प्रक्रिया में पक्ष-विपक्ष को शामिल करने का प्रश्न है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि जो पक्ष आज सता में है-कल विपक्ष में हो सकता है और ठीक इसके विपरीत भी। अत: इन दोनों समूहों में वास्तव में आपस में कोई संघर्ष-टकराव नहीं होता है, जो भी संघर्ष होता है-वह मात्र सस्ती लोकप्रियता व वोट बटोरने और जनता को मूर्ख बनाने के लिए होता है। यद्यपि प्रजातंत्र कोई मूकदर्शी खेल नहीं है, अपितु यह तो जनता की सक्रिय भागीदारी से संचालित शासन व्यवस्था का नाम है। जनतंत्र में न तो जनता जनप्रतिनिधियों के बंधक है और न ही जनतंत्र किसी अन्य द्वारा निर्देशित कोई व्यवस्था का नाम है। न्यायाधिपति सौमित्र सेन पर महाभियोग का असामयिक पटाक्षेप और राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भल्ला द्वारा अपर सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले को देश की जनता देख ही चुकी है, जहां मात्र अनुचित नियुक्तियों को निरस्त ही किया गया और किसी दोषी के गिरेबान तक कानून का हाथ नहीं पहुँच सका। जिससे यह प्रमाणित है कि जहां दोषी व्यक्ति शक्तिसंपन्न हो, वहां कानून के हाथ भी छोटे पड़ जाते हैं। देश के न्यायाधीशों की निष्पक्षता, तटस्थता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई देती है। देश का न्यायिक वातावरण दूषित है और इसकी गरिमा प्रश्नास्पद है। इस वातावरण में प्रतिभाशाली और ईमानदार लोगों के लिए कोई स्थान दिखाई नहीं देता है। न्यायाधीशों के पदों पर नियुक्ति हेतु आशार्थियों की सूची को पहले सार्वजनिक किया जाना चाहिए, ताकि अवांछनीय और अपराधी लोग इस पवित्र व्यवसाय में अतिक्रमण नहीं कर सकें। वर्तमान में तो इस व्यवसाय के संचालन में न्याय-तंत्र का अनुचित महिमामंडन करने वाले वकील, उनके सहायक, न्यायाधीश और पुलिस ही टिक पा रहे हैं।

हाल ही में उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीश की पदस्थापना के लिए यह नीति बनायी गयी कि मुख्य न्यायाधीश किसी बाहरी राज्य का होकिन्तु यह नीति न तो उचित है और न ही व्यावहारिक है। न्यायाधीश पूर्व वकील होते हैं और वे राजनीति के गहरे रंग में रंगे होते हैं। इस वास्तविकता की ओर आँखें नहीं मूंदी जा सकती। अत: देशी राज्य के वकीलों का ध्रुवीकरण हो जाता है और बाहरी राज्य का अकेला मुख्य न्यायाधीश अलग थलग पड़ जाता है तथा वह चाहकर भी कोई सुधार का कार्य हाथ में नहीं ले पाता, क्योंकि संवैधानिक न्यायालयों में प्रशासनिक निर्णय समूह द्वारा लिए जाते हैं। वैसे भी यह नीति देश की न्यायपालिका में स्वच्छता व गतिशीलता रखने और स्थानान्तरण की सुविचारित नीति के विरूद्ध है। जहां एक ओर सत्र न्यायाधीशों के लिए समस्त भारतीय स्तर की सेवा की पैरवी की जाती है, वहीं उच्च न्यायालयों के स्तर के न्यायाधीशों के लिए इस तरह की नीति के विषय में कोई विचार तक नहीं किया जा रहा है, जिससे न्यायिक उपक्रमों में स्वच्छता लाने की मूल इच्छा शक्ति पर ही संदेह होना स्वाभाविक है। उच्च न्यायालयों द्वारा आवश्यकता होने पर पुलिस केस डायरी मंगवाई जाती है, किन्तु उसे बिना न्यायालय के आदेश के ही लौटा दिया जाता है। जिससे यह सन्देश जाता है कि न्यायालय और पुलिस हाथ से हाथ मिलाकर कार्य कर रहे हैं न कि वे स्वतंत्र हैं। क्या न्यायालय एक आम नागरिक द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज को भी बिना न्यायिक आदेश के लौटा देते हैं? केरल उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक बार राज्य के महाधिवक्ता द्वारा प्रकरणों में तैयार होकर न आने पर न्यायालय से ही वाक आउट कर दिया, बजाय इसके कि कार्यवाही को आगे बढ़ाते अथवा महाधिवक्ता पर समुचित कार्यवाही करते अर्थात जहां सामने सशक्त पक्ष हो तो न्यायाधीश भी अपने आपको असहाय और लाचार पाते हैं-उनकी श्रेष्ठ न्यायिक शक्तियां अंतर्ध्यान हो जाती हैं। भारत का आम नागरिक तो न्यायालयों में चलने वाले पैंतरों, दांव-पेंचों आदि से परिचित नहीं हैं, किन्तु देश के वकीलों को ज्ञान है कि देश में कानून या संविधान का अस्तित्व संदिग्ध है। अत: वे अपनी परिवेदनाओं और मांगों के लिए दबाव बनाने हेतु धरनों, प्रदर्शनों, हड़तालों, विरोधों आदि का सहारा लेते हैं। आखिर पापी पेट का सवाल है। कदाचित उन्हें सम्यक न्यायिक उपचार उपलब्ध होते तो वे ऐसा रास्ता नहीं अपनाते। सामान्यतया न्यायार्थी जब वकील के पास जाता है तो उसके द्वारा मांगी जानी वाली आधी राहतों के विषय में तो उसे बताया जाता है कि ये कानून में उपलब्ध नहीं हैं और शेष में से अधिकाँश देने की परम्परा नहीं है अथवा साहब देते नहीं हैं।

पारदर्शिता और भ्रष्टाचार में कोई मेलजोल नहीं होता है, इस कारण न्यायालयों एवं पुलिस का स्टाफ अपने कार्यों में कभी पारदर्शिता नहीं लाना चाहता है। देश के 20,000 न्यायालयों के कम्प्यूटरीकरण की ईकोर्ट प्रक्रिया 1990 में प्रारंभ हुई थी और यह आज तक 20 उच्च न्यायालयों के स्तर तक भी पूर्ण नहीं हो सकी है। दूसरी ओर देखें तो देश की लगभग 1,00,000 सार्वजनिक क्षेत्र की बैंक शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण का कार्य 10 वर्ष में पूर्ण हो गया। इससे न्यायतंत्र से जुड़े लोगों की कम्प्यूटरीकरण में अरुचि का सहज अनुमान लगाया जा सकता है जो माननीय कहे जाने वाले न्यायाधीशों के सानिध्य में ही संचालित हैं। देश के न्यायालयों में सुनवाई पूर्ण होने की के बाद भी निर्णय घोषित नहीं किये जाते तथा ऐसे भी मामले प्रकाश में आये हैं, जहां पक्षकारों से न्यायाधीशों ने मोलभाव किया और निर्णय जारी करने में 6 माह तक का असामान्य विलम्ब किया। वैसे भी निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के 5-6 दिन बाद ही घोषित करना एक सामान्य बात है। कई बार पीड़ित पक्षकार को अपील के अधिकार से वंचित करने के लिए निर्णय पीछे की तिथि में जारी करके भी न्यायाधीश पक्षकार को उपकृत करते हैं। जबकि अमेरिका में निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के बाद निश्चित दिन ही जारी किया जाता है और उसे अविलम्ब इन्टरनेट पर उपलब्ध करवा दिया जाता है। अपने अहम की संतुष्टि और शक्ति के बेजा प्रदर्शन के लिए संवैधानिक न्यायालय कई बार भारी खर्चे भी लगाते हैं, जबकि इसके लिए उन्होंने ऐसे कोई नियम नहीं बना रखे हैं, क्योंकि नियम बनाने की उन्हें कोई स्वतंत्र शक्तियां प्राप्त भी नहीं हैं। एक मामले में बम्बई उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने 40 लाख रुपये खर्चा लगाया जो उच्चतम न्यायालय ने घटाकर मात्र 25 हजार रुपये कर दिया। इस दृष्टांत से स्पष्ट है कि न्यायाधीश लोग अहम व पूर्वाग्रहों से कूटकूट कर भरे होते हैं व देश की अस्वच्छ राजनीति की ही भांति उनका आपसी गठबंधन व गुप्त समझौता होता है और समय पर एक दूसरे के काम आते हैं। अत: निर्णय चाहे एक सदस्यीय पीठ दे या बहु सदस्यीय पीठ दे, उसकी गुणवता में कोई ज्यादा अंतर नहीं आता है। न्यायालयों द्वारा कई बार नागरिकों पर भयावह खर्चे लगाए जाते हैं, जबकि खर्चे शब्द का शाब्दिक अर्थ लागत की पूर्ति करना होता है और उसमें दंड शामिल नहीं है व लागत की गणना भी किया जाना आवश्यक है। जिस प्रकार न्यायालय पक्षकारों से अपेक्षा करते हैं। यदि किसी व्यक्ति पर किसी कानून के अंतर्गत दंड लगाया जाना हो तो संविधान के अनुसार उसे उचित सुनवाई का अवसर देकर ही ऐसा किया जा सकता है, किन्तु वकील ऐसे अवसरों पर मौन रहकर अपने पक्षकार का अहित करते हैं।

वकालत का पेशा भी कितना विश्वसनीय है, इसकी बानगी हम इस बात से देख सकते हैं कि परिवार न्यायालयों, श्रम आयुक्तों, (कुछ राज्यों में) सूचना आयुक्तों आदि के यहाँ वकील के माध्यम से प्रतिनिधित्व अनुमत नहीं है अर्थात इन मंचों में वकीलों को न्याय पथ में बाधक माना गया है। फिर वकील अन्य मंचों पर साधक किस प्रकार हो सकते हैं? उच्च न्यायालयों में भी सुनवाई के लिए वकील अनुकूल बेंच की प्रतीक्षा करते रहते हैं-स्थगन लेते रहते हैं, यह तथ्य भी कई बार सामने आया है। जिसका एक अर्थ यह निकलता है कि उच्च न्यायालय की बेंचें फिक्स व मैनेज की जाती हैं व कानून गौण हो जाता है। कोई भी मूल प्रार्थी, अपवादों को छोड़कर, किसी याचिका पर निर्णय में देरी करने के प्रयास नहीं करेगा, फिर भी देखा गया है कि मूल याची या याची के वकील भी अनुकूल बेंच के लिए प्रतीक्षा करते हैं, जिससे उपरोक्त अवधारणा की फिर पुष्टि होती है।

देश में आतंकवादी गतिविधियाँ भी प्रशासन, पुलिस और राजनीति के सहयोग और समर्थन के बिना संचालित नहीं होती हैं। आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में भी परिवहन, व्यापार आदि चलते रहते हैं, जो कि पुलिस और आतंकवादियों व संगठित अपराधियों दोनों को प्रोटेक्शन मनी देने पर ही संभव है। वैसे भी इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें व्यापारी वर्ग को किसी शासन व्यवस्था से कभी कोई शिकायत रही हो, क्योंकि वे पैसे की शक्ति को पहचानते हैं तथा पैसे के बल पर अपना रास्ता निकाल लेते हैं। चाहे शासन प्रणाली या शासन कैसा भी क्यों न हो। पूंजीपति लोग सभी राजनैतिक पार्टियों को चन्दा देते हैं व अपने अनुकूल नीतियाँ  व नियम बनवाते हैं तथा सरकारें तो कठपुतली की भांति  उनके इशारों पर नृत्य मात्र करती हैं| पुलिस के भ्रष्टाचार का अक्सर यह कहकर बचाव किया जाता है कि उन्हें उचित प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है। अत: कार्य सही नहीं किया गया, किन्तु रिश्वत लेने का भी तो उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता फिर वे इसके लिए किस प्रकार रास्ता निकाल लेते हैं। ठीक इसी प्रकार एक व्यक्ति को गृहस्थी के संचालन का भी प्रारम्भ में कोई अनुभव नहीं होता, किन्तु अवसर मिलने पर वह आवश्यकतानुसार सब कुछ सीख लेता है। देश में प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ गिरफ्तारियां होती हैं, जिनमें से 60 प्रतिशत अनावश्यक होती हैं। ये गिरफ्तारियां भी बिना किसी अस्वच्छ उद्देश्य के नहीं होती हैं, क्योंकि राजसत्ता में भागीदार पुलिस, अर्द्ध-न्यायिक अधिकारी व प्रशासनिक अधिकारी आदि को इस बात का विश्वास है कि वे चाहे जो मर्जी करें, उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है और देश में वास्तव में ऐसा कोई मंच नहीं है जो प्रत्येक शक्ति-संपन्न व सत्तासीन दोषी को दण्डित कर सके। जहां कहीं भी अपवाद स्वरूप किसी पुलिसवाले के विरुद्ध कोई कार्यवाही होती है, वह तो मात्र नाक बचाने और जनता को भ्रमित करने के लिए होती है। यदि पुलिस द्वारा किसी मामले में गिरफ्तारी न्यायोचित हो तो वे, घटना समय के अतिरिक्त अन्य परिस्थितियों में, गिरफ्तारी हेतु मजिस्ट्रेट से वारंट प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु न तो ऐसा किया जाता है और न ही देश का न्याय तंत्र ऐसी कोई आवश्यकता समझता है और न ही कोई वकील अपने मुवक्किल के लिए कभी मांग करता देखा गया है। यदि न्यायपालिका पुलिस द्वारा अनुसंधान में के मनमानेपन को नियंत्रित नहीं कर सकती, जिससे मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धियाँ हासिल हो रही हों, तो फिर उसे दूसरे नागरिकों पर नियंत्रण स्थापित करने का नैतिक अधिकार किस प्रकार प्राप्त हो जाता है?


सरकार से जानमाल की रक्षा पाना मूल अधिकार है और इसके हनन पर नागरिक सरकार से मुआवजा पाने के अधिकारी हैं

देश में समय समय पर होने वाले साम्प्रदायिक और जातिगत दंगे सौहार्द और समरसता पर गंभीर आक्रमण कर देश की सामासिक संस्कृति, अखंडता और एकता को चुनौती देते रहे हैं| समय समय  पर होनेवाले इन दंगों के मामलों में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने समय समय पर हस्तक्षेप कर पीड़ित लोगों को राहत दी है| गत वर्ष उत्तरप्रदेश राज्य के मुज़फरनगर जिले में भी  साम्प्रदायिक दंगों के वीभत्स रूप से देश का सामना हुआ जिसमें मुस्लिम समाज के बड़ी संख्या में लोगों को मृत्यु के घाट उतार दिया गया, उन्हें अपना निवास छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया और महिलाओं को यौन हिंसा का शिकार बना लिया गया | इस घटनाक्रम के प्रसंग में इलाहाबाद उच्च न्यायालय व  उच्चतम न्यायालय में कई याचिकाएं दायर हुई | उच्चतम न्यायालय में दायर याचिका मोहमद हारुन बनाम भारत संघ के मामले में न्यायालय ने पाया की यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना दिनांक 7 सितम्बर 2013 को हुई| उत्तरप्रदेश के मुज़फरनगर जिले में सांप्रदायिक तनाव के कारण दंगे भड़के जिस कारण बहुत से लोगों को जान से हाथ धोना पडा और बहुत से लोग चिंता व भय के कारण घरबार छोड़कर जान बचाकर भाग गए|
याचिका में यह कहा गया कि  दंगे मुजफरनगर , शामली और इसके आसपास के ग्रामीण इलाकों में महापंचायत, जोकि नागला मन्दौर में जाट समुदाय दारा आयोजित की गयी थी, के बाद भड़के| इस महापंचायत में दिल्ली, हरियाणा व उत्तरप्रदेश से डेढ़ लाख से अधिक लोग दिनांक 27  अगस्त 2013 की घटना के विरोध में भाग लेने आये थे| उक्त घटना मुज़फरनगर जिले की जानसठ तहसील के कवल गाँव में दिनांक 27 अगस्त को घटित हुई थी जिसमें दो समुदायों के बीच हिंसा भड़की और मामूली घटना के कारण दोनों पक्षों के तीन युवक मारे गए तथा बाद में इस घटना को साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया| याचिकाकर्ता का आरोप रहा कि स्थानीय प्रशासन ने कानून लागू करने के स्थान पर न  केवल इन लोगों को संगठित होने की अनुमति दी बल्कि उपेक्षापूर्वक व संभवत: मिलीभगत से इस कार्यवाही पर निगरानी रखने में विफल रहा| यह भी आरोप लगाया गया कि  इस तिथि से लेकर अब तक 200 से अधिक मुस्लिम लोगों की नृशंस हत्या की गयी और लगभग 500 लोग, इन 50 जाट बाहुल्य   गाँवों में  जहां मुस्लिम  समुदाय अल्पसंख्या  में हैं, अभी भी गायब हैं| कई हजार शिशु, बच्चे, औरतें और बूढ़े विभिन्न गांवों में बिना भोजन और आश्रय के रह गए हैं और प्रशासन द्वारा उन्हें कोई सुविधा मुहैया नहीं करवाई गयी है| इसके अतिरिक्त बड़ी मात्रा में मुज़फरनगर के आसपास अवैध और अनाधिकृत गोला –बारूद, हथियार बरामद हुए हैं| सभी समुदायों के विस्थापित लोगों को आश्रय कैम्पों में रहने के लिए विवश किया जा रहा है जहां पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं | इन सबके परिणाम स्वरुप विभिन्न व्यक्तियों, सुप्रीम कोर्ट बार संघ, गैर सरकारी संगठनों ने दंगा पीड़ितों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए कई याचिकाएं दायर की | इन याचिकाओं में  विस्थापित लोगों के पुनर्वास , संरक्षण, और बचाव के लिए केंद्र व राज सरकार को निर्देश देने की प्रार्थना की गयी| जो बच्चे हिंसा या कैम्पों में सर्दी के कारण मर गए उसके लिए उनके माता-पिता को हर्जाना देने की प्रार्थना भी शामिल थी| समस्त तथ्यों व तर्कों पर गौर करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने निम्नानुसार निर्देश दिए :

राज्य सभी चोटग्रस्त लोगों व हिंसा में मृतकों  को चिन्हित करे  और उनके आश्रितों को  कुल 15 लाख रूपये मुआवजा दे| हिंसा के कारण उनकी चल-अचल सम्पति को हुए नुक्सान के लिए भी, यदि उन्हें पहले प्राप्त नहीं हुई है तो, क्षतिपूर्ति दी जाए | उपरोक्त  में से जो भी हिंसा, बलात्कार आदि से पीड़ित जिन्हें कोई राशि नहीं मिली हो, उन्हें  भी स्थानीय प्रशासन को आज से एक माह के भीतर आवेदन करने की अनुमति दी जाती है| ऐसे आवेदन की जांच करने के बाद प्रशासन एक माह के भीतर उचित राहत राशि स्वीकृत करेगा|जिला प्रशासन पात्र लोगों के लिए रानी लक्ष्मीबाई पेंशन योजना भी लागू करेगा और  जो लोग विस्थापित हो गए हैं उनके मामलों पर भी विचार करेगा|
यदि कोई पीड़ित आवश्यक समझे तो वह जिला कानूनी सहायता प्राधिकारी से संपर्क कर सकता है जिसे सहायता करने के निर्देश दिए जाते हैं| जिन्हें 5 लाख रूपये की सहायता मिल चुकी है और वे घटना स्थल के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं बसने का मानस बना लिया हो अब यदि वे अपना व्यावसाय पूर्व स्थान पर करना चाहें व अपने सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहना चाहें तो राज्य को यह निर्देश दिया जाता है कि उनसे इस राशि की वसूली नहीं  की जाए| जिला प्रशासन  यह सुनिश्चित करे की वे लोग अपने पूर्व स्थान पर शांतिपूर्वक अपना व्यसाय कर सकें व अपने रिश्तेदारों और मित्रों के साथ रह सकें| जिन अधिकारियों को यह शिकायत है कि  इस घटना क्रम के कारण उन्हें बदले की भावना से अन्यत्र दूर स्थानांतरित कर दिया गया वे भी अपना प्रतिवेदन एक माह के भीतर सक्षम अधिकारी को प्रस्तुत कर सकते हैं| सक्षम अधिकारियों को निर्देश दिए जाते हैं कि  वे ऐसे प्रतिवेदनों पर नए सिरे से विचार करें| जिन किसानों ने अपनी आजीविका – ट्रेक्टर , मवेशी , गन्ने की फसल आदि खो दी हो उन्हें भी उचित मुआवजा दिया जाए| जिन किसानों को अभी तक कोई क्षतिपूर्ति प्राप्त  नहीं हुई हो वे एक माह के भीतर स्थानीय/ जिला प्रशासन से आवेदन कर सकते हैं जिनका निपटान एक माह के भीतर किया जाएगा|

न्यायालय ने आगे कहा कि पुन: बल दिया जाता है की यह राज्य प्रशासन का कर्तव्य होगा की वे केंद्र व राज्य की इंटेलिजेंस एजेंसियों के साथ मिलकर इस प्रकार की सांप्रदायिक घटनाओं की रोकथाम करें| यह भी स्पष्ट किया जाता है कि  कानून व व्यवस्था बनाए रखने के दायित्वाधीन अधिकारियों की यदि कोई लापरवाही हो तो उनके पद को ध्यान में रखे बिना उन्हें कानून के दायरे में लाया जाए|  समस्त पीड़ितों को उनके धर्म पर ध्यान दिए बिना सहायता दी  जाए | उक्त निर्देश देते हुए याचिका का दिनांक 26 मार्च 2014 को निपटान दिया गया| साथ ही यह भी निर्देश दिए गए की यदि कोई पीड़ित बाधा अनुभव करता हो और जिला प्रशासन से समाधान नहीं हुआ हो तो वह इस न्यायालय से संपर्क कर सकता है| इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जो मामले यहाँ स्थानांतिरत नहीं हुए हों उनमें उच्च न्यायालय  द्वारा  इसी अनुरूप आदेश पारित किये  जायेंगे|    

Wednesday 2 April 2014

आय चाहे भ्रष्ट साधनों से हो गुजारा भत्ते के लिए गणना की जायेगी

परिवार के न कमानेवाले सदस्यों के भरण  पोषण का नैतिक दायित्व परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर माना जाता रहा  है| किन्तु इसे कानूनी रूप देने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता में धारा 125 जोड़कर इसे बाध्यकारी रूप दिया गया है| इस प्रावधान  के अनुसार व्यक्ति की सन्तान, पत्नी व माता पिता जो अपना भरण पोषण करने में असमर्थ हैं वे भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकारी हैं|   
शोभा सैनु विरकर ने तलाक याचिका के साथ परिवार न्यायालय स. 3 मुंबई में गुजारा भत्ते के लिए याचिका दायर की और दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद न्यायाधीश ने दिनांक 7.7.12 को अंतरिम तौर पर शोभा के पति पुलिस कर्मचारी सैनु बाबा विरकर को  8000 रूपये प्रति माह गुजारा भाता अपनी पत्नी व 8000 रूपये बच्चों को देने का आदेश दिया| इसके साथ ही आदेश दिया गया कि वे जिस मकान में वर्तमान में रह रहे हैं उसमें उसकी पत्नी व बच्चे रहते रहेंगे| इस आदेश से असंतुष्ट होकर सैनु बाबा ने  बम्बई उच्च न्यायालय में अपील दाखिल की| अपील में प्रार्थी शोभा के पति  पुलिसमैन का कहना था कि वह एक पुलिसमैन है और मात्र 15,822 रूपये कमाता है इसलिए इतना अधिक गुजारा भत्ता वह वहन नहीं कर सकता |
उसकी वेतन पर्ची से ज्ञात हुआ है कि उसका सकल मासिक वेतन 26,278 रूपये है जिसमें से सामान्यतया होने वाली कटौतियों के अतिरिक्त 5,883 रूपये सोसाइटी को चुकाने पड़ते हैं| इसके अतिरक्त उसे आवासीय फ्लैट के लिए  भी मासिक क़िस्त चुकानी पडती है यद्यपि उसने फ्लैट  का कोई करारनामा प्रस्तुत नहीं किया |
प्रत्यर्थी शोभा ने कहा  कि फ्लैट तो वर्ष 2004 में लिया गया था जबकि तलाक हेतु आवेदन मई 2011 में व गुजारा भत्ता हेतु आवेदन नवम्बर  2011 में प्रस्तुत किया गया था और ऋण के लिए आवेदन अप्रैल 2011 में में किया गया |  प्रार्थी पुलिस कर्मी ने यह भी कहा कि सोसाइटी की किस्तों के अतिरिक्त उसे 3128 रूपये बैंक को भी क़िस्त देनी है| प्रार्थी ने यद्यपि  2,992 रूपये सोसाइटी को रखरखाव पेटे देने की रसीद पेश की किन्तु उसने 5,883 रूपये वेतन में से कटौती की मांग की |
स्वयम याची प्रार्थी ने अप्रैल 2010 का 1220 रूपये बिजली बिल प्रस्तुत किया जिससे स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति 15,000 रूपये कमाता है वह प्रतिमाह 1200 रूपये की बिजली का उपभोग कर रहा है और बड़े ठाठबाठ  से रह रहा है तथा अपनी आय को तोडमरोड़कर प्रस्तुत कर रहा है | सुनावाई  के दौरान पत्नी शोभा ने बताया कि याची पुलिस वाला होने के नाते रिश्वत लेता है और उसने प्रतिवर्ष ली जाने वाली रिश्वत की राशि भी गणना कर बतायी| याची अपनी आय के ज्ञात स्रोतों से वास्तव में अधिक आरामदायक जीवन व्यतीत कर रहा था|

संभव है भ्रष्टाचार सम्बंधित कानून के अंतर्गत चाहे याची के विरुद्ध कोई कार्यवाही हो या न हो किन्तु उसकी पत्नी के तर्क व पुलिस अधिकारियों के कार्य की प्रकृति जोकि भ्रष्ट दिखाई देते हैं इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती | पत्नी का यह भी तर्क रहा कि पुलिस अधिकारी के तौर पर आय के अतिरिक्त उसके पास 5 एकड़ कृषि भूमि भी है| राजस्व रिकार्ड से ज्ञात होता है कि इसमें प्याज, कपास, ज्वार और गेहूं उपजता है और भूमि कोई बेकार नहीं बल्कि उपजाऊ है| अत: भूमि भी अच्छी आय का स्रोत है|


इस प्रकार बम्बई उच्च न्यायालय की न्यायाधीश रोशन दलवी ने अपने आदेश दिनांक 30 नवम्बर 2012 से अधीनस्थ न्यायालय का आदेश पुष्ट कर दिया और कहा  कि अधीनस्थ न्यायालय का आदेश उचित है और विद्वान् अधीनस्थ न्यायाधीश ने तथ्यों का सही मूल्यांकन किया है अत: आदेश में हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है |  रिट याचिका खारिज कर दी गयी| 

सूचना आयोग 45 दिन में अपील पर निर्णय करें

स्वतंत्र भारत के इतिहास में सूचना का अधिकार अधिनियम को मील का पत्थर माना जा रहा है | निश्चित तौर पर इस कानून को बनाने में जनहित का काफी ध्यान रखा गया है किन्तु फिर भी इसमें, अन्य भारतीय कानूनों की ही तरह,  नौकरशाही के मनमानेपन पर अंकुश लगाने का इस कानून में भी कोई प्रावधान नहीं है | मेरे विचार से भारतीय शासन को आज भी वास्तव में ब्रिटिश राज की भांति नौकरशाह ही संचालित करते हैं और कोई कानून बनाने से पहले उनसे सलाह मशविरा  किया जाता है कि इससे उनको तो कोई तकलीफ नहीं है मानो कि जनप्रतिनिधियों को जनता की बजाय नौकरशाहों की तकलीफें सुनने के लिए चुना गया हो| सूचना कानून की उद्देशिका में जो उद्देश्य बताये गए हैं उनको पूरा करने का किसी का कोई दायित्व नहीं बताया गया है और न ही इन शब्दों की आगे अधिनियम में कोई पुनरावृति की गयी है|
यद्यपि सूचना कानून में 30 में सूचना प्रदानगी की कल्पना की गयी व सूचना प्राप्त नहीं होने पर अपीलें दायर करने का प्रावधान है | कानून के अनुसार प्रथम अपील अधिकरी अधिकतम 45 दिन में अपील पर निर्णय देगा|  किन्तु प्रथम अपील अधिकारी द्वारा अपने कर्तव्यों की निष्ठापूर्वक अनुपालना न करने पर कोई दंड का प्रावधान अधिनियम से गायब है| ठीक इसी प्रकार आयोगों द्वारा निर्णय देने की कोई समय सीमा कानून में नहीं है अत: सूचना देने हेतु निर्धारित 30 दिन की प्रारम्भिक समय सीमा अर्थहीन व शून्य है और अपरिपक्व लोगों को मात्र एक भ्रमजाल में फंसाने का उपकरण है| सूचना आयोग  ट्रिब्यूनल है और ट्रिब्यूनल का गठन जनता को शीघ्र और सस्ता न्याय देने के लिए किया जाता है जहां जटिल कानूनी प्रक्रियाओं का अनुसरण नहीं होता है | किन्तु “सूचना आयोग”  आज आयोग कम और “अयोग्य” ज्यादा दिखाई देते हैं |   

मद्रास उच्च न्यायालय का एक औसत न्यायाधीश, जहां जटिल विधिक व तथ्य सम्बंधित प्रश्न भी अन्तर्वलित होते हैं,  प्रतिदिन 25 मामले निर्णित करते हैं जबकि केन्द्रीय सूचना आयोग में एक बेंच प्रतिदिन मात्र 10 निर्णय कर रही है और जम्मू –कश्मीर सूचना आयोग ने तो इसकी पराकाष्ठा  ही पार कर दी है जहां एक बेंच एक दिन में मात्र 3 निर्णय ही पारित करती है| परिणाम यह है कि केन्द्रीय सूचना आयोग में आज 4 वर्ष पुराने बहुत से मामले भी निर्णय की प्रतीक्षा में हैं| सूचना का कानून भारत में कितना सफल है  इसका इस तथ्य से सहज अनुमान लगाया जा सकता है|  अब जनता को किसी भुलावे में नहीं रहना चाहिए|

सूचना आयुक्तों द्वारा अधिनियम के उद्देश्यों के विपरीत आचरण करने से आम नागरिक व्यथित हैं| ऐसा ही एक प्रकरण कलकता उच्च न्यायालय के समक्ष आया जिसमें अखिल कुमार रॉय ने दिनांक 25 मई 2009 को प.बंगाल सूचना आयोग के समक्ष द्वितीय अपील प्रस्तुत की किन्तु उस पर समय पर निर्णय नहीं हुआ क्योंकि आयोग के पास बकाया मामलों का अम्बार लगा हुआ था और प.बंगाल राज्य सूचना का अधिकार नियमों के अंतर्गत अपील पर निर्णय के विषय में कोई समय सीमा निर्धारित नहीं थी|  कानून में यद्यपि प्रथम अपील के लिए निर्णय हेतु 30 दिन की समय सीमा निर्धारित है व आपवादिक परिस्थितियों में वह सकारण 45 दिन के भीतर निर्णय दे सकता है |
उच्च न्यायालय का विचार रहा कि द्वितीय अपील का निस्तारण  इस लिए नहीं किया गया है क्योंकि कानून में द्वितीय अपील के निस्तारण के लिए कोई समय सीमा नियत नहीं है| फिर भी द्वितीय अपील अधिकारी सूचना आयोग का कर्तव्य है कि वह द्वितीय अपील पर निर्णय एक तर्कसंगत समय सीमा में करे| प्रथम अपील में असंतोषजनक निर्णय से द्वितीय अपील की जाती है व धारा 7 के अंतर्गत दिए निर्णय से व्यथित होने पर प्रथम अपील की जाती है| ऐसा प्रतीत होता है कि अधिनियम द्वारा प्रदत्त चिंगारी रुपी शक्ति की गति द्वितीय अपील में कुंद व लुप्त हो गई है| अधिनियम के तैयार  किये गए दिसम्बर 2004 के प्रारम्भिक प्रारूप में द्वितीय अपील के विनिश्चय की समय सीमा 30 दिन रखने का प्रावधान था किन्तु बाद में इसका त्याग कर दिया गयाइस कारण द्वितीय अपील की योजना ने धारा 6 के अंतर्गत आवेदन को दरदर भटकने, हिचकोले खाने के लिए और इस प्रकरण की भांति न्यायालयों की  अवांछनीय कार्यवाही की ओर धकेल दिया है|   न्यायाधीश का मत रहा कि मेरे विचार से प्रथम अपील के निर्णय हेतु व सूचनार्थ आवेदन के निपटान हेतु  निश्चित अधिकतम समय सीमा को ध्यान रखते हुए अपील दायर करने के 45 दिन के भीतर द्वितीय अपील पर निर्णय हो जाना चाहिए| अधिनियम की भावना को ध्यान में रखते हुए यह समय सीमा मेरे विचार से तर्कसंगत है | तदनुसार न्यायाधीश ने द्वितीय अपील का निपटान 45 दिन में देने के निर्देश दिए और रिट याचिका अखिल कुमार रॉय बनाम प. बंगाल सूचना आयोग का दिनांक 7 जुलाई 2010  को निपटान दिया गया |