Tuesday 31 January 2012

अंग क्षति होने पर अर्जन क्षमता पर प्रभाव देखा जाना चाहिए

मोटर वाहन दुर्घटना अधिकरण ने कुल क्षतिपूर्ति 170000 रुपये दी और अपील में उच्च न्यायालय ने दर्द, पीड़ा, चिकित्सा व्यय , भावी चिकित्सा व्यय,सुख सुविधाओं से वंचना और भावी आय से वंचित होने की एवज में 222600 रुपये क्षतिपूर्ति निर्धारित की| सुप्रीम कोर्ट में प्रकरण नाग्रजप्पा बनाम संभागीय प्रबंधक ओरिएंटल इन्सुरांस ( मनु/सुको/0393/2011)आने पर निर्धारित किया गया कि अपीलार्थी एक शारीरिक श्रमिक के रूप में कार्यरत था जिसके लिए उसे दोनों हाथों की जरुरत थीं| इस प्रकार क्षतिपूर्ति राशि निर्धारित करते समय यह ध्यान  रखा जाना चाहिए था कि अपीलार्थी को शेष रहे जीवन में एक हाथ के पूर्ण प्रयोग बिना कार्य करना था और इस प्रकार उसे कार्य ढूंढने में कठिनाई होती| इसलिए भावी आय की हानि की गणना के लिए निशक्तता  को 68% न कि 20% आँका जाना चाहिए| इस प्रकार भावी आय की हानि को 318240रुपये आँका गया और कुल क्षति पूर्ति 477240 रुपये स्वीकार कर अपील अनुमत की गयी|

Monday 30 January 2012

जहरखुरानी के लिए रेलवे जिम्मेदार नहीं

दिल्ली उच्च न्यायालय ने रोशन लाल बनाम भारत संघ ( मनु/दिल्ली/0932/2011) में कहा है कि मृतक का शव प्लेटफोर्म से बरामद हुआ था व पाया गया कि उसकी मृत्यु जहर से हुई है | यह तर्क दिया गया कि मृतक एक सद्भावी यात्री था| ट्राइब्यूनल ने दावा अस्वीकार कर दिया | किन्तु ऐसा कुछ भी रिकार्ड पर नहीं था जिससे यह साबित होता हो कि रेल्वे अधिकारियों का जहर खुरानी से कोई लेनादेना हो  या वे इस तरह जहरखुरानी को टालने में लापरवाह रहे हों | अतः दावा याचिका निरस्त कर दी गयी|

Sunday 29 January 2012

अपीलार्थी को अनुसूची के अनुसार 400000 रुपये क्षतिपूर्ति देय

याची चलती ट्रेन से गिर पड़ा था और उसने रेल्वे से 400000 रुपये के मुआवजे की मांग की किन्तु रेल्वे ट्राइब्यूनल ने यात्रा टिकट नहीं होने के कारण दावा निरस्त कर दिया| दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील संजय कुमार बनाम भारत संघ(मनु/दिल्ली/0821/2011) में कहा है कि चूँकि यात्री ने  टिकट प्रस्तुत नहीं किया इसका यह अर्थ नहीं है कि वह ट्रेन में अनधिकृत रूप से या बेटिकट यात्रा कर रहा था| वह ट्रेन से गिर पड़ा था और उसका शरीर कुछ घंटों बाद रास्ते के किनारे से बरामद हुआ और उसे निकट के अस्पताल में भर्ती करवाया गया | इस बात में सन्देह को कोई स्थान नहीं है कि उसे ट्रेन से गिरने पर चोटें आयीं थीं न की ट्रेन से टकराने पर जैसा कि प्रत्यर्थी ने कहा है|

 अतः ट्राइब्यूनल के निष्कर्ष टिक नहीं सकते|अपीलार्थी को अनुसूची के अनुसार 400000 रुपये क्षतिपूर्ति देय  है अतः अपीलार्थी को घटना के दिन से 9% प्रतिवर्ष ब्याज सहित क्षतिपूर्ति दी जाय| अपील अनुमत की गयी|!

Saturday 28 January 2012

संदेह पर जमानत मुचलके की तस्दीक करवाई जा सकती है

 दिल्ली उच्च न्यायालय ने जगवंती बनाम भारत संघ के निर्णय दिनांक 30.08.07 में कहा है कि  जहाँ तक अभियक्त को मुक्त करने के लिए जमानती के बंध पत्र  (मुचलके) को तस्दीक करने के लिए भेजने का प्रश्न है, मैं यह समझता हूँ कि इस न्यायालय को ऐसे कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए| न्यायालयों में ऐसे अनेकों मामले हो चुके हैं जहां फर्जी जमानती दे दिए गए जिन्होंने जाली परिचय पत्र , राशन कार्ड और आर्थिक सक्षमता के कागजात पेश किये हैं| इस प्रकार के फर्जी जमानतियों के विरुद्ध, जो कुछ अभियुक्तों के लिए उपस्थित हुए, आपराधिक मामले दर्ज हुए हैं और अन्वीक्षण न्यायालयों में विचाराधीन हैं| जब ऐसी स्थिति उत्पन्न होती हो कि न्यायालयों में फर्जी जमानती उपस्थित होते हों, तो इसमे कुछ भी अनुचित नहीं है कि जमानती के मुचलके की तस्दीक कराने के लिए आदेश दिए जांय|  अभियुक्त की परीक्षण के समय उपस्थिति सुनिश्चित कराने के लिए न्यायालय प्रायः जमानत का आदेश पारित करते समय जमानती के लिए प्रावधान करते हैं| बम्बई उच्च न्यायालय ने हाल ही एक मामले(सुबोध प्रसाद उर्फ अनिल छोटू बनाम महाराष्ट्र राज्य) में  घोषित किया है कि स्थानीय जमानती की अपेक्षा करना देश के कानून का उल्लंघन है| उच्च न्यायालय सरकार के परिपत्र दिनांक 16.12.08 जिसके द्वारा अन्य राज्यों से आने वाले अपराधियों से महाराष्ट्र राज्य के भीतर से ही जमानती की अपेक्षा की गयी थीं|  

Friday 27 January 2012

न्यायालयों को गैरजमानती वारंट जारी करने से परहेज करना चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने इन्दरमोहन  गोस्वामी बनाम उत्तराँचल राज्य के निर्णय दिनांक 09.10.07 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि गैर जमानती वारंट जारी करना व्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करता है| गिरफ्तारी एवं बंदीकरण एक व्यक्ति को सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित करते हैं| इसलिए न्यायालयों को गैरजमानती वारंट जारी करते समय अत्यधिक सावधान रहना चाहिये| जहां तक संभव हो यदि न्यायालय का मत है कि  अभियुक्त की न्यायालय में उपस्थिति के लिए समन पर्याप्त रहेगा तो समन या जमानती वारंट को ही वरीयता दी जानी चाहिए| जमानती या गैरजमानती वारंट, गंभीर परिणामों और प्रभावों के कारण जो वारंट जारी करने के हो सकते हैं, तथ्यों की पूर्ण अन्वीक्षा किये बिना व पूर्ण विचारण के बिना कभी भी जारी नहीं किये जाने चाहिए| न्यायालय को अत्यधिक ध्यानपूर्वक परीक्षण करना चाहिये  कि आपराधिक शिकायत या एफ आई आर किसी छिपे उद्देश्य के लिए तो दर्ज नहीं करवाई गयी| परिवाद के मामलों में प्रथम चरण पर परिवाद की प्रति के साथ समन तामिल के निर्देश देने चाहिए | यदि अभियुक्त समन टाल रहा प्रतीत हो तो न्यायालय को दूसरे चरण में जमानती वारंट जारी करने चाहिए | तृतीय चरण में जब न्यायालय पूरी तरह संतुष्ट हो कि यदि अभियुक्त आदेशिका की तामिल जानबूझकर टाल रहा हो तो  गैरजमानती वारंट जारी करने की प्रक्रिया का सहारा लिया जाना चाहिए| व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोपरि है इसलिए हम न्यायालयों को सावचेत करते हैं कि पहले और दूसरे चरण पर गैरजमानती वारंट जारी करने से परहेज करना चाहिए |

Thursday 26 January 2012

पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में उन्हें मृत्यु दण्ड ही दिया जाना चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश कदम बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता (मनु/सुको/0610/2011) के निर्णय में कहा है कि यह कोई निरपेक्ष नियम नहीं है कि एक बार अभियुक्त को जमानत दे दी जाय तो मात्र जमानत का दुरूपयोग होने की सम्भावना पर ही निरस्त की जा सकती है| बहुत से दूसरे कारण भी हैं जब उन पर भी जमानत निरस्त करते समय विचार किया जा सकता है| यह बड़ा ही गंभीर मामला है जिसमें प्रथम दृष्टया कुछ पुलिस अधिकारी और स्टाफ को निजी व्यक्तियों ने अपने विरोधियों को मारने के लिए नियुक्त किया गया| यदि कुछ पुलिस अधिकारी और स्टाफ का निजी व्यक्तियों द्वारा अपने विरोधियों को मारने के लिए ठेके पर उपयोग किया जाये तो गवाहों के दिमाग में भी अपनी सुरक्षा के प्रति पर्याप्त भय हो सकता है| यदि पुलिस अधिकारी और स्टाफ तीसरे पक्षकार के कहने पर मार सकते हैं तो इस बात की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अपने आप को बचाने के लिए वे महत्वपूर्ण गवाह या उसके रिश्तेदार को भी मार सकता हैं  या अन्वीक्षण के समय उसे धमकी दे सकते हैं|

जमानत देते समय सत्र न्यायाधीश ने इस पहलू की पूर्णतः उपेक्षा कर दी है| उच्च न्यायालय ने अभियुक्त अपीलार्थी की जमानत निरस्त करने में पूर्णतः ठीक है| आगे परीक्षण में पुलिसवाले द्वारा फर्जी मुठभेड़ साबित होने पर इसे दुर्लभतम मामला समझकर उन्हें  मृत्यु दण्ड ही दिया जाना चाहिए| फर्जी मुठभेड़, जिस व्यक्ति से कानून को बनाये रखने की जिम्मेदारी हो उसके द्वारा, एक शीत रंजित नृशंस संहार है|अपीलें निरस्त की जाती हैं|

Wednesday 25 January 2012

गैरजमानती वारंट जारी करते समय अत्यधिक सावधान रहना चाहिये

सुप्रीम कोर्ट ने इन्दरमोहन  गोस्वामी बनाम उत्तराँचल राज्य के निर्णय दिनांक 09.10.07 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि गैर जमानती वारंट जारी करना व्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करता है| गिरफ्तारी एवं बंदीकरण एक व्यक्ति को सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित करते हैं| इसलिए न्यायालयों को गैरजमानती वारंट जारी करते समय अत्यधिक सावधान रहना चाहिये| जहां तक संभव हो यदि न्यायालय का मत है कि  अभियुक्त की न्यायालय में उपस्थिति के लिए समन पर्याप्त रहेगा तो समन या जमानती वारंट को ही वरीयता दी जानी चाहिए| जमानती या गैरजमानती वारंट, गंभीर परिणामों और प्रभावों के कारण जो वारंट जारी करने के हो सकते हैं, तथ्यों की पूर्ण अन्वीक्षा किये बिना व पूर्ण विचारण के बिना कभी भी जारी नहीं किये जाने चाहिए| न्यायालय को अत्यधिक ध्यानपूर्वक परीक्षण करना चाहिये  कि आपराधिक शिकायत या एफ आई आर किसी छिपे उद्देश्य के लिए तो दर्ज नहीं करवाई गयी| परिवाद के मामलों में प्रथम चरण पर परिवाद की प्रति के साथ समन तामिल के निर्देश देने चाहिए | यदि अभियुक्त समन टाल रहा प्रतीत हो तो न्यायालय को दूसरे चरण में जमानती वारंट जारी करने चाहिए | तृतीय चरण में जब न्यायालय पूरी तरह संतुष्ट हो कि यदि अभियुक्त आदेशिका की तामिल जानबूझकर टाल रहा हो तो  गैरजमानती वारंट जारी करने की प्रक्रिया का सहारा लिया जाना चाहिए| व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोपरि है इसलिए हम न्यायालयों को सावचेत करते हैं कि पहले और दूसरे चरण पर गैरजमानती वारंट जारी करने से परहेज करना चाहिए |

Tuesday 24 January 2012

अनुसन्धान में बैंक खाते की कुर्की से पूर्व नोटिस देना आवश्यक नहीं

बम्बई उच्च न्यायालय ने विनोदकुमार रामचन्द्ररण वल्लुवर बनाम महाराष्ट्र राज्य (मनु/महा/0360/2011) के निर्णय में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 102 बैंक खाते को कुर्क करते समय या पूर्व में,  अनुसंधान की गोपनीयता बनाए रखने के लिए ताकि महतवपूर्ण साक्ष्य नष्ट नहीं हो जाये, नोटिस देने का प्रावधान नहीं करती| सम्बंधित पक्षकार को कुर्की से पूर्व सुनवाई का अवसर देने से कार्यवाही बाधित व अवरुद्ध होगी तथा न्याय का उद्देश्य विफल होगा व अनुसन्धान से संबद्ध प्रावधान प्राणहीन, जडता और स्वविफल हो जायेगा| अन्य सम्पति की ही भांति बैंक खाता भी कुर्क योग्य है| अन्य प्रक्रियाओं की भांति खाते की कुर्की अनुसन्धान की प्रक्रिया का  ही एक अंग है, यह साक्ष्य की गोपनीयता का संरक्षण करती है| यह व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता एवं सम्पति से वंचित नहीं करती है|
( लेखकीय टिपण्णी : न्यायालय का यह मत सही प्रतीत नहीं होता क्योंकि बैंक खाते की कुर्की से पक्षकार सम्पति के उपयोग से वंचित हो जाता है और बैंक खाते का रिकोर्ड तो बैंक के पास लंबे समय तक सुरक्षित रहता है व बैंक से, साक्ष्य में आवश्यक, खाते का विवरण अनुसंधान के दौरान या बाद में भी कभी भी  लिया जा सकता है अतः मात्र साक्ष्य संग्रहण के उद्देश्य से बैंक खाते की कुर्की उचित नहीं है|)

Monday 23 January 2012

न्यायालय को वारंट जारी करने से पूर्व व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक हितों के मध्य संतुलन स्थापित करना चाहिए

दिल्ली उच्च न्यायालय ने मनी शांडिल्य बनाम राज्य के निर्णय दिनांक 11.04.08 में कहा है कि आत्मसंयम न्यायिक प्राधिकार की कसौटी है | न्यायिक प्राधिकार का प्रयोग कोई शक्तिप्रदर्शन नहीं है अपितु नम्रता के साथ दृढता युक्त कर्त्तव्य है| विवेकाधिकारी शक्ति होने के नाते यह अत्यधिक ध्यान व सावधानी के साथ न्यायिकतः प्रयोग की जानी चाहिए| न्यायालय को वारंट जारी करने से पूर्व व्यक्तिगत  स्वतंत्रता और सामाजिक हितों के मध्य संतुलन स्थापित करना चाहिए| वारंट जारी करने का कोई सीधा व सटीक सूत्र नहीं हो सकता किन्तु सामान्य नियम के तौर पर यदि एक अभियुक्त पर जघन्य अपराध करने  का आरोप न हो तो और इस बात का  अंदेशा न हो कि वह साक्ष्यों से छेड़छाड करेगा या नष्ट कर देगा  या विधिक प्रक्रिया को टालना संभाव्य है तब तक जमानती वारंट जारी करना टाला जाना चाहिए|
( लेखकीय टिपण्णी : न्यायालय का यह मत सही प्रतीत नहीं होता क्योंकि राज पुलिस नियम (यथा संभव अधिकांश पुलिस नियमों में) यह प्रावधान है कि पुलिस अपराध की घटना की सूचना मिलते ही घटना स्थल के लिए रवाना होगी ताकि साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सके अतः साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ तो पुलिस से मिलकर अथवा उसकी लापरवाही से ही हो सकती और इस आधार पर वारंट जारी करना उचित नहीं है क्योंकि पुलिस का यह कर्तव्य है कि वह साक्ष्यों का शीघ्र संग्रहण करे |)

सुनवाई की किसी भी तिथि या पहली बार को व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट के आवेदन को निरस्त करना या  समन की तामिल के बावजूद  या समन की अनुपालना न करना या फरार होना अनुपस्थिति नहीं बन जाता और न्यायालय ऐसी स्थिति में  गिरफ़्तारी वारंट जारी नहीं करेगा और या तो अभियुक्त को उपस्थित होने का निर्देश दे सकता है या समन की आदेशिका जारी कर सकता है| जमानतीय अपराध में अभियुक्त के उपस्थित होने पर न्यायालय उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 के आज्ञापक प्रावधान के अनुसार जमानती सहित या रहित व्यक्तिगत मुचलके पर छोड़ देगा| उक्त प्रार्थना की कभी भी अनदेखी नहीं होनी चाहिए और विनम्रता  एक गुण है जिस  पर अहम और घमंड को कभी हावी नहीं होने देना चाहिए| पुलिस अधिकारियों के एक समूह को न्यायालय में उपस्थित देख आपराधिक न्यायप्रशासन के आसान पर बैठ कर उसे शक्ति के प्रति एक अनुचित सन्देश नहीं देना चाहिए जिससे न्यायाधीश अपराधिक न्याय प्रशासन , संवैधानिक अधिकारों  और औचित्य के सिद्धांतों की अनदेखी कर अनुपालना की अपेक्षा करे| मैं अधीनस्थ न्यायालयों से अपेक्षा करता हूँ कि इस प्रकार क्षेत्राधिकार के प्रयोग में वे सावधानी बरतेंगे|

Sunday 22 January 2012

पक्षकार से विश्वास घात करने पर वकील दुराचरण का दोषी है

सुप्रीम कोर्ट ने जयपुर विकास प्राधिकरण बनाम अशोक कुमार चौधरी (मनु/सूको /1082/2011) के निर्णय में कहा है कि प्रत्यर्थी संख्या 1 से 3 पर दुराचरण, अनुचित भावभंगिमा और दुष्कृत्यों के कई आरोप थे| प्रकरण में साक्ष्य भी दिए गए| अभियुक्तों पर यह आरोप था कि प्रत्यर्थीगण अपीलार्थी की पैरवी से पूर्व दावेदार की पैरवी कर रहे थे| अन्य आरोप यह था कि असाइनमेंट लेख प्रत्यर्थी संख्या 1  की बहिन के पक्ष में था अतः प्रत्यर्थी संख्या 1 को पैरवी से हट जाना चाहिए  था|

इस प्रकार प्रत्यर्थी संख्या 1 ने परिवादी द्वारा व्यक्त विश्वास में विश्वासघात किया है| उसने वकील के लिए अशोभनीय व्यवहार किया है जोकि नैतिक आचरण से आबद्ध है और अपने मुवक्किल का हित सुरक्षित करने में विफल रहा है |प्रत्यर्थी संख्या 1 मात्र एक रेफेरंस मामले में अपनी पत्नी का प्रतिनिधित्व कर रहा था और प्रत्यर्थी संख्या 1 का चैम्बर साथी रहा है| यद्यपि उसकी पत्नी एक दावेदार थीं उसका प्रत्यर्थी संख्या 1 के साथ अपवित्र गठबंधन हो सकता है किन्तु इस बात का कोई साक्ष्य रिकार्ड पर नहीं है कि प्रत्यर्थी संख्या 3 ने दुराचरण किया हो|
अतः अनुशासनिक अधिकारी का  प्रत्यर्थी संख्या 23 को दोषी नहीं ठहराने का आदेश पुष्ट किया जाता है किन्तु प्रत्यर्थी संख्या 1 के सम्बन्ध में आदेश संशोधित किया जाता है और प्रत्यर्थी संख्या 1 की प्रैक्टिस  6 माह के लिए निलंबित की जाती है| इस प्रकार अपील निरस्त की जाती  है|

Saturday 21 January 2012

आवेदन का अन्तरण अन्य लोक प्राधिकरण को 5 दिवस में किया जाय

राजस्थान सूचना आयोग ने  अपील संख्या 1429/2009 प्रकाश शुक्ल बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय में कहा है कि  प्रमुख शासन सचिव, विधि एवं विधायी कार्य विभाग की ओर से अपीलार्थी के आवेदन का अन्तरण तथ्यों से परे और गलत था। यही नहीं अधिनियम, 2005 की धारा 6 उपधारा 3 के अनुसार आवेदन का अन्तरण अन्य लोक प्राधिकरण को तभी संभव है, यदि वह आवेदन प्राप्ति के 5 दिवस में किया जाता है अन्यथा आवेदन प्राप्त करने वाले प्राधिकारी का यह दायित्व हो जाता है कि वह अपने स्तर से सूचना सम्बन्धित प्राधिकारी से प्राप्त कर समयावधि में आवेदक को प्रेषित करे। वर्तमान प्रकरण में जिस प्रकार की अन्तरण में त्रुटि की गई है उसकी अपेक्षा राज्य के विधि एवं विधायी कार्य विभाग से नहीं की जा सकती।वर्तमान अपील को स्वीकार कर निर्देश दिये जाते हैं कि आवेदन प्राप्त कर्ता प्रमुख शासन सचिव, विधि एवं विधायी कार्य विभाग, राजस्थान सरकार इस आदेश प्राप्ति के 21 दिवस में अपीलार्थी को वांछित सूचना रजिस्टर्ड डाक से प्रेषित करें।

Thursday 19 January 2012

अपीलार्थिया क्षतिपूर्ति पाने के लिये हकदार है

राजस्थान सूचना आयोग ने  अपील संख्या  1497/2010 प्रतिभा कुमारी बनाम लोक सेवा आयोग  में कहा है कि अपीलार्थिया ने अपने स्वयं की परीक्षा के सन्दर्भ में 3 बिन्दूओं की सूचना चाहीं थी। सूचना ऐसी नहीं हैं जिन्हें सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8, 9, 11 के परिप्रेक्ष्य में अदयेता की श्रेणी में रखा जावे। आयोग ने एक से अधिक विभिन्न मामलों में यह अभिनिर्धारित किया है कि समान प्रकृति की सूचनाओं को अदयेता की श्रेणी में न रखते हुए निःशुल्क सूचना अपीलार्थीयो को प्रदान कर दी जावे परन्तु प्रत्यर्थी पक्ष की यह केवल हठधर्मिता ही है कि वह जानबूझ कर ऐसी सूचनाओं से अपीलार्थिया को वंचित रखना चाहते हैं। अपीलार्थिया ने उनके पत्र दिनांक 08/09/10 में यह विशेषकर उल्लेख किया है कि वह बहुत मानसिक पीडा से गुजर रही है, एवं सूचना प्रदान कर दिये जाने से उसके हितों में वृद्धि होगी। सुस्पष्ट है कि सूचना के अभाव में अपीलार्थिया को मानसिक सन्ताप हुआ है, जिसकी क्षतिपूर्ति की जाना भी उचित होगा।मैं चाहूंगा कि प्रत्यर्थी इस आदेश प्राप्ति के 21 दिवस में अवशेष दोनों बिन्दूओं की सूचना निःशुल्क जरिये पंजीकृत डाक भिजवाना सुनिश्चित करेंगे। साथ ही यह प्रकरण ऐसा है जिसमें अपीलार्थिया क्षतिपूर्ति पाने के लिये हकदार है, अतः मैं सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 19(8)ख) के आलोक में प्रत्यर्थी को एतद्द्वारा निर्दिष्ट करता हूं कि वह अपीलार्थिया को 2,000- रूपये (दो हजार रूपये) की क्षतिपूर्ति राशि का भुगतान भी जरिये डिमान्ड ड्राफ्ट अपीलार्थिया को सीधे ही भिजवाते हुए आयोग को एक माह की अवधि में अवगत कराये।

Wednesday 18 January 2012

प्रत्यर्थी सिद्ध नहीं कर सके कि वांछित सूचना के प्रकटीकरण से अनुसंधान/अभियोजन की प्रक्रिया में किस प्रकार से बाधा होगी तो सूचना दे

राजस्थान सूचना आयोग ने अपील संख्या: 3035/2009 श्री मधुसुदन पालीवाल, बनाम  भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो  में कहा है कि  प्रत्यर्थी पक्ष का यह भी तर्क था कि अभी तक अभियोजन की प्रक्रिया बाकी है और धारा 8(1) यह भी अपेक्षा करता है कि ऐसी सूचना जो अभियोजन की प्रक्रिया में किसी प्रकार से बाधक है, को भी प्रकटन नहीं करना चाहिए। उनके तर्क में एक प्रकार से बल है। परन्तु वे यह भी स्पष्ट नहीं कर सके कि यदि वांछित सूचना का प्रकटीकरण किया जाता है तो अभियोजन में किसी प्रकार व्यवधान आऐगा। फिर यह भी अपेक्षित नहीं है कि किसी भी प्रकार से प्रत्यर्थी पक्ष अनावश्यक रूप से प्रकरण लटका कर विचाराधीन रखे और कोई भी आवेदक इस कारण से ही सूचना को वंचित रहे। सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 नागरिक को सूचना से वंचित रखने की किस भी प्रक्रिया को उचित नहीं मानता। यह अधिनियम नागरिक के अधिकारों को सर्वोपरि रूप से रक्षित करता है और यह अपेक्षा करता है कि लोक प्राधिकारी के नियंत्रण के अधीन सूचना नागरिक की पहुंच में हो और इसके लिए लोक प्राधिकारी को व्यवहारिक व्यवस्था करने की भी अपेक्षा करता है। वर्तमान प्रकरण में प्राथमिकी वर्ष 2007 की है, अनुसंधान पूर्ण हुए भी डेढ वर्ष का समय हो चुका है। ऐसी स्थिति में एक लम्बे अन्तराल तक मेरी दृष्टि से अपीलार्थी को सूचना से वंचित नहीं रखा जा सकता। विशेषतया इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कि प्रत्यर्थी पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सके कि वांछित सूचना के प्रकटीकरण से अनुसंधान/अभियोजन की प्रक्रिया में किस प्रकार से बाधा होगी। इस दृष्टि से वर्तमान अपीले स्वीकार योग्य हैं|

Tuesday 17 January 2012

विरोधाभाषी जवाब होने पर जांच हो

राजस्थान सूचना आयोग ने  अपील संख्या  3317/2009 श्री के0एन0पारीक बनाम महानिदेशक पुलिस आर.एस.बी.आई.के निर्णय में कहा है कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार राज्य लोक सूचना अधिकारी वही सूचना आवेदन कर्ता को उपलब्ध करा सकता है जो अभिलेख मे निहित हो। वर्तमान प्रकरण मे प्रत्यर्थी पक्ष के अनुसार वांछित पत्र अभिलेखों  मे उपलब्ध नही है। इस दृष्टि से यह सूचना अपीलार्थी को नहीं दी जा रही है।   परन्तु केवल इसक उल्लेख मात्र इतने से ही इस प्रकरण की इतिश्री नही की जा सकती। एक ओर वांछित पत्र अभिलेख मे उपलब्ध नही है दूसरी ओर माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय ने दिनांक 23 मई 1991 को इसका उल्लेख अपने निर्णय मे किया है। स्पष्ट है कि यह जांच का विषय बन जाता है कि क्या वास्तव मे माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष वांछित पत्र, का उल्लेख राज्य शासन व्दारा किया गया था और क्या उसे उन्होनें प्रस्तुत किया गया था और अब वह पत्र अभिलेख में उपलब्ध नही है। मै चाहूँगा कि कि अब इस की जांच प्रमुख शासन सचिव अपने स्तर पर करें|

Monday 16 January 2012

धारा 8 (1), 9 व 11 के अतिरिक्त किसी भी सूचना को देने से मना नहीं किया जा सकता

राजस्थान सूचना आयोग ने अपील संख्याः 3506/2009 श्री नरेन्द्र कुमार कौशिक बनाम  मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट में कहा है कि   अधिनियम में केवल उसी सूचना को प्रकटन से छूट दी गई है जिनका उल्लेख सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा 8 (1), 911 में अंकन है। इसके अतिरिक्त किसी भी सूचना को देने से मना नहीं किया जा सकता। अधिनियम-2005 की धारा 22 के अनुसार तो अधिनियम-2005 के अन्य सभी अधिनियमों एवं नियमों पर अध्यारोही प्रभाव घोषित किया गया है। अधिनियम में जन क्रिया-कलाप   के अभाव में सूचना को रोकने का कोई प्रावधान नहीं है। अधिनियम-2005 में जन क्रिया-कलाप   को कहीं परिभाषित नहीं किया गया है और ना ही राजस्थान सूचना का अधिकार (उच्च न्यायालय एवं अधिनस्थ न्यायालय) नियम-2006 में जन क्रिया-कलाप   को परिभाषित किया है। इन शब्दों का प्रयोग केवल अधिनियम-2005 की धारा 8 (1) में है। यदि उस प्रावधान को पढा जाये तो स्पष्ट होता है कि यह उस व्यक्तिगत सूचना से संबंधित है जिसका प्रकटन किसी लोक क्रिया कलाप से संबंध ना रखता हो। प्रत्यर्थी पक्ष - लोक सूचना अधिकारी तथा विद्वान अपीलीय प्राधिकारी - ने अपने आदेशों में यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया है कि अपीलार्थी द्वारा वांछित सूचना अधिनियम-2005 की किस धारा या प्रावधान के तहत अदेय है। लोक क्रिया-कलाप से असम्बन्ध सूचना तो अधिनियम में कहीं भी रोकी नहीं गई है।

Sunday 15 January 2012

लोक क्रिया-कलाप से असम्बन्ध सूचना तो अधिनियम में कहीं भी रोकी नहीं गई है

राजस्थान सूचना आयोग ने अपील संख्याः 3506/2009 श्री नरेन्द्र कुमार कौशिक बनाम  मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट में कहा है कि   अधिनियम में केवल उसी सूचना को प्रकटन से छूट दी गई है जिनका उल्लेख सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा 8 (1), 911 में अंकन है। इसके अतिरिक्त किसी भी सूचना को देने से मना नहीं किया जा सकता। अधिनियम-2005 की धारा 22 के अनुसार तो अधिनियम-2005 के अन्य सभी अधिनियमों एवं नियमों पर अध्यारोही प्रभाव घोषित किया गया है। अधिनियम में जन क्रिया-कलाप   के अभाव में सूचना को रोकने का कोई प्रावधान नहीं है। अधिनियम-2005 में जन क्रिया-कलाप   को कहीं परिभाषित नहीं किया गया है और ना ही राजस्थान सूचना का अधिकार (उच्च न्यायालय एवं अधिनस्थ न्यायालय) नियम-2006 में जन क्रिया-कलाप   को परिभाषित किया है। इन शब्दों का प्रयोग केवल अधिनियम-2005 की धारा 8 (1) में है। यदि उस प्रावधान को पढा जाये तो स्पष्ट होता है कि यह उस व्यक्तिगत सूचना से संबंधित है जिसका प्रकटन किसी लोक क्रिया कलाप से संबंध ना रखता हो। प्रत्यर्थी पक्ष - लोक सूचना अधिकारी तथा विद्वान अपीलीय प्राधिकारी - ने अपने आदेशों में यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया है कि अपीलार्थी द्वारा वांछित सूचना अधिनियम-2005 की किस धारा या प्रावधान के तहत अदेय है। लोक क्रिया-कलाप से असम्बन्ध सूचना तो अधिनियम में कहीं भी रोकी नहीं गई है।

Saturday 14 January 2012

वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन तथा वार्षिक कार्य मूल्यांकन प्रतिवेदन संबंधित व्यक्ति को प्रकट किये जाने चाहिये

राजस्थान सूचना आयोग ने अपील संख्या 1154/2009 शासन सचिव कार्मिक विभाग  बनाम  श्री मधु सूदन शर्मा में कहा है कि सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा 22 में तो स्पष्ट रूप से यहां तक अंकित कर दिया गया है कि शासकीय गुप्त बात अधिनियम पर भी सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 भारी है तथा इस अधिनियम का अध्यारोही प्रभाव है। इस प्रावधान में यह भी अंकित किया गया है कि ‘‘इस नियम से अन्यथा किसी विधि के आधार पर प्रभाव रखने वाली किसी लिखित में उससे असंगत बात के होते हुए भी सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 प्रभावी होगा। इसलिए अपीलकर्ता का यह तर्क कि वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन गोपनीय प्रकृति के हैं और अदेय है वर्तमान परिपेक्ष्य में निरर्थक है। इसी
तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए इस आयोग ने श्री के. के. माथुर बनाम रीको प्रकरण में दिनांकः 30-08-2006 को निर्णय देते हुए यह स्पष्ट कर दिया था कि तथाकथित वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन तथा वार्षिक कार्य मूल्यांकन प्रतिवेदन संबंधित व्यक्ति को प्रकट किये जाने चाहिये।