Monday 26 May 2014

भारत में न्यायिक व पुलिस सुधार की लीलाएं

व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908   में सारांशिक  कार्यवाही के लिए 10 दिन के नोटिस का प्रावधान किया गया था तब न तो उचित परिवहन सुविधाएं थीं और न ही डाकघर की सेवाएं सर्वत्र उपलब्ध थीं | किन्तु आज हम इलेक्ट्रोनिक युग में जी रहे हैं फिर भी इन समय सीमाओं की पुनरीक्षा कर इन्हें समसामयिक नहीं बनाया गया है | देश में न्यायिक या समाज सुधार के नाम पर कार्य करने वाले ठेकदारों  की बानगी बताती है कि वे समय व्यतीत करने या लोकप्रियता हासिल करने और सरकार में कोई पद पाने की लालसा में  यह अभ्यास कर रहे हैं और उनमें से भी अधिकाँश लोग अपना अतिरिक्त समय नहीं दे रहे हैं बल्कि सार्वजनिक कार्यालयों में बैठकर कार्यालय समय का ही दुरुपयोग कर रहे हैं| इनमें सुधार कम और आडम्बर ज्यादा है| पाठकों को याद होगा कि पत्नि को यातना देने वाले एक व्यक्ति ने  नारी हिंसा पर सीरियल व पत्नि के एक हत्यारे ने मोस्ट वांटेड नामक सीरियल बनाए थे| सुधार के नाम पर अखबारों की सुर्ख़ियों में रहने वाले ये अधिकाँश लोग भी इसी श्रेणी में आते हैं| अन्यथा कोई सुधार दिखाई क्यों नहीं देते, देश के हालात तो दिन प्रतिदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं|
 सरकार में अधिकारीवृन्द कार्यरत होते हुए इसी कुप्रबंधित व्यवस्था का सुदृढ़ अंग बन कर कार्य करते हैं अन्यथा वे इस व्यवस्था में टिक ही नहीं पाते  और सेवानिवृति  के बाद भी उन्हें किसी न किसी आयोग  या कमिटी में नियुक्ति दे दी जाती है जिसका कार्य सुधार करना या न्याय देना होता है| जो व्यक्ति कल तक इसी स्वयम्भू नौकरशाही का हिस्सा रहे हों वे किस प्रकार सुधार या न्याय  कर सकते हैं अथवा अपनी बिरादरी के विरुद्ध कोई मत  किस व्यक्त कर  सकते हैं

हमारी इस विद्यमान व्यवस्था में जो व्यक्ति जितना अधिक अवसरवादी, कुटिल, बेईमान,भ्रष्ट और डरपोक है वह सत्ता में उतना  ही ऊँचा पद पा सकता है इस दुश्चक्रिय व्यवस्था में परिवर्तन या  सुधार के लिए गठित होने वाले आयोगों आदि में भी आई ए एस, आई पी एस या संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों को नियुक्त किया जाता है जिन्हें धरातल स्तरीय बातों का कोई व्यावहारिक ज्ञान, अनुभव  या साक्षात्कार नहीं होता है| इन लोगों ने जीवनभर मात्र प्रचलित परिपाटियों, परम्पराओं  और प्रोटोकोल का अनुसरण किया है व कोई मौलिक क्रांतिकारी परिवर्तन में तो इनका दिमाग ही काम नहीं करता है| यदि मौलिक परिवर्तन करने में ये लोग सक्षम होते तो 30 वर्ष से अधिक समय की गयी अपनी ऊर्जावान सार्वजनिक सेवा के दौरान ही रंग दिखा सकते थे और किसी आयोग या कमेटी के गठन की आवश्यकता ही नहीं रहती | अत: इन उपयोगिता खो चुके ऊर्जाविहीन सेवानिवृत लोगों को किसी भी आयोग या कमिटी का कभी भी सदस्य नहीं बनाया जाना चाहिए|
हमारे राजनेता जनता को गुमराह करते हैं कि आजादी के बाद हमने बड़ी तरक्की की है | किन्तु प्रश्न यह है कि हमने  कितनी तरक्की की है और  उसमें से आम नागरिक को क्या मिला है| दूर संचार विभाग की वेबसाइट 1970 में बन  गयी थी किन्तु नागरिकों को तो यह सुविधा 20 वर्ष बाद ही मिलने लगी है| सीएनएन ने 1971 का भारत पाक युद्ध अमेरिका और कनाडा में लाइव प्रसारित किया था| क्या हम आज भी इस स्थिति में हैं? अमेरिका के एक बैंक का व्यवसाय ही भारत के सारे बैंकों के व्यवसाय से ज्यादा है|     भ्रष्टाचार के कुछ पैरोकार यह भी कुतर्क देते हैं कि रिश्वत तो तब ली जाती है जब कोई देता है| किन्तु रिश्वत कोई दान –दक्षिणा नहीं है जो स्वेच्छा से दी जाती हो अपितु यह तो  मजबूरी में ही दी जाती है| उन लोगों का दूसरा सुन्दर तर्क  यह भी होता  है कि बाहुबलियों द्वारा सरकारी अधिकारियों या न्यायाधीशों को भय  दिखाया जाता है कि वे रिश्वत स्वीकार कर कार्य करें अन्यथा उनके लिए ठीक नहीं होगा|  सभी सरकारी कर्मचारी सेवा में आते समय शपथ लते हैं कि वे भय, रागद्वेष और पक्षपात से ऊपर उठकर कार्य करेंगे तो ऐसी स्थति में उनका यह तर्क भी बेबुनियाद है| ये तर्क ठीक उसी प्रकार आधारहीन हैं जिस प्रकार हमारे पूर्व वित्त –मंत्री चिदम्बरम   ने कर बढाने के विषय पर जवाब दिया था कि लोग 10 रूपये में पानी खरीद कर पी रहे हैं अत: वे कर तो दे  ही सकते हैं | किन्तु वे भूल रहे हैं कि स्वच्छ पेय जल उपलब्ध करवाना सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है और सरकार इसमें विफल है अत: लोगों को  पानी भी खरीद कर    पीना पड़ता है| पानी जीवन की एक आवश्यकता है और यह कोई विलासिता या दुर्व्यसन  नहीं जिसके लिए  यह माना जाए कि लोग कोई अपव्यय कर रहे हैं| ऐसा प्रतीत होता है कि देश में अपरिपक्व  ,दुर्बुद्धि और दुर्जन लोगों का कोई अभाव नहीं है|
देश में 80 प्रतिशत  जनता ग्रामीण पृष्ठ भूमि से है और एयरकन्डीशन   में रहे इन आई पी एस, आई ए एस या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को तो इस पृष्ठ भूमि के स्वाद का कोई अनुभव व व्यावहारिक ज्ञान तक नहीं है ऐसी स्थिति में इनकी नियुक्ति कितनी सार्थक हो सकती है| देश में जो डॉक्टरेट किये हुए लोग हैं वे भी प्राय: व्यावहारिक अनुभव व वास्तविक शोध  के बिना मात्र किताबी कीड़े ही हैं| पाठकों को याद होगा कि  गाज़ियाबाद  किडनी घोटाले में संलिप्त चिकित्सक एक आयुर्वेदिक वैद्य ही था किन्तु उसने अपने अनुभव के आधार पर सैंकड़ों किडनी प्रत्यारोपण के मामलों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था क्योंकि उसके पास ज्ञान और व्यावहारिक अनुभव था चाहे उसने इस हेतु कोई डिग्री हासिल न की हो| वैसे भी तो भारत में डिग्रियां  और डॉक्टरेट मोल मिल जाती हैं उनके लिए अध्ययन की कोई ज्यादा आवश्यकता नहीं है| देश में उपलब्ध  चिकित्सा सुविधाओं पर राजनेताओं का कोई ज्यादा विश्वास  नहीं  है और वे अक्सर अपने इलाज के लिए विदेश जाते रहते हैं| जब देशी चिकित्सकों  पर राजनेताओं को विश्वास नहीं है फिर देशी न्यायाधीशों पर भी क्यों विश्वास किया जाए कि  वे बिना पक्षपात के न्याय कर देंगेवैसे भी देश के न्यायाधीश एक पीड़ित पक्ष को राहत देने से इनकार करने के लिए  जी तोड़ मेहनत करते देखे जा सकते हैं| उनका मानना है कि यदि सभी को न्याय दिया जाने लगा तो मुकदमें अनियंत्रित हो जायेंगे|  क्रिकेट व होकी के खेलों  के प्रशिक्षण के लिए भी तो हमारे यहाँ विदेशी लोगों का आयात किया ही जा रहा है |
न्याय का स्थान तो हृदय  में ही होता है उसका अन्य बातों से बहुत कम सम्बन्ध है| जो अन्याय हो रहा है वह अज्ञानता या ज्ञान के अभाव में नहीं हो रहा है| न्याय के लिए न्यायदाता में समर्पण भाव होना आवश्यक है न  कि उसके लिए कोई ऊंचा  पारिश्रमिक| जिस प्रकार एक हरिण घास खाकर भी अन्न खाने वाले घोड़े से तेज दौड़ सकता है उसी प्रकार कम वेतन पाने वाला निष्ठावान व्यक्ति, जिसके हृदय में न्याय का निवास हो,  भी न्याय कर सकता है और दूसरी ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि  अधिक वेतन पाने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से न्याय कर ही देगा|  देश की न्यायिक सेवाओं में प्रत्येक स्तर की भर्ती  से पूर्व उनकी बुद्धिमता, सामान्य ज्ञान के अतिरिक्त अमेरिका की भांति भावनात्मक परीक्षण भी होना चाहिए ताकि उनकी प्रवृति और रुझान  का ज्ञान हो सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि आशार्थी में वांछनीय गुण विद्यमान हैं| मात्र किसी विषय का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है  जिस प्रकार सरकारी अस्पतालों और विद्यालयों में योग्य लोग होते हैं किन्तु फिर भी उनकी सेवाएं निजी क्षेत्र के संस्थाओं की तुलना में श्रेष्ठ ही पायी जाती हैं| जहां सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन के मामले में बार की नकारात्मक और सुधार-विरोधी भूमिका सामने आयी वहीं  कनाडा में बार संघों द्वारा न्यायिक सुधार हेतु स्वयं सर्वे व शोध करवाया जाता है| यह भी देखने में आया है न्यायाधीश अपने स्वामिभक्त वकीलों के समय पर न  पहुँचने पर उनके लिए प्रतीक्षा करते हैं अन्यथा आम नागरिक को तो सुनवाई का कोई पर्याप्त अवसर तक नहीं देते हैं| जहां न्यायाधीश स्वयं हितबद्ध होते हैं वहां वे वकील पर दबाव बनाकर पैरवी में शिथिलता ला देते हैं| वकील को भी अपने पेट के लिए रोज उनके सामने ही याचना करनी  है अत: वह विरोध नहीं कर पाता है क्योंकि उसे भी यह ज्ञान है कि प्रतिकूल फैसले की स्थिति में ऊँचे स्तर  पर यदि अपील कर भी दी गयी तो पर्याप्त संभव है कि वहां पर भी  निचले न्यायाधीश के पक्ष में  स्वर उठेगा और वांछित परिणाम नहीं मिल पायेंगे| इस बात का निचले न्यायाधीशों को भी ज्ञान और विश्वास है कि लगभग सभी मामलों में उनके उचित –अनुचित कृत्यों-अकृत्यों  की पुष्टि हो ही जानी है| ऊपरी न्यायाधीश भी तो कोई अवतार पुरुष या देवदूत नहीं हैं, वे भी कल तक न्यायालय स्टाफ और पुलिस को टिप्स देकर कार्य को गति प्रदान करवाते रहे हैं परिणाम स्वरुप वे सफल वकील कहलाये| उनके पास न तो कोई चरित्र प्रमाण पत्र है न ही उन्होंने कोई प्रतिस्पर्धी योग्यता परीक्षा पास कर रखी है| संवैधानिक न्यायालयों के अधिकांश न्यायाधीशों के सम्बन्ध में भी उनके गृह राज्यों से उनके पूर्व चरित्र के विषय में कोई सुखद रिपोर्टें  नहीं मिलती हैं| ऐसे उदाहरण भी हैं जहां जेल के निरीक्षण पर आये उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने भ्रष्टाचार के आरोपी से जेल में आवेदन लेकर तत्काल ही जमानत मंजूर कर दी! जानलेवा हमले के एक मामले में जिसमें दोषी ने पीड़ित की हथेली काटकर ही अलग कर दी थी, राजस्थान उच्च न्यायालय ने मात्र 7 दिन की सजा को ही पर्याप्त समझा|कहने को अच्छा वकील भी वही बन पाता है जिसमें एक कुशल व्यापारी के समान विक्रय कला हो न कि  उसे कानून का अच्छा ज्ञान हो|  क्योंकि कानून का अच्छा ज्ञान तो भारत के अधिकाँश न्यायाधीशों में भी नहीं है  अत: यदि किसी वकील में कानून का अच्छा ज्ञान हो तो भी उसका मूल्याङ्कन करने में स्वयम न्यायाधीश ही समर्थ नहीं हैं| एक प्रकरण में सामने आया कि  उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को आपराधिक शिकायतकी परिभाषा और दायरे जैसी प्रारंभिक बात का भी  ज्ञान नहीं था किन्तु ऊपर वरदहस्त होने के कारण यह पद प्राप्त हो गया | इसी  आपराधिक मामले में न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा परिवादी पर खर्चा लगा दिया गया किन्तु कानून में उसे ऐसी शक्ति प्रदत्त नहीं है| मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया और फिर भी निर्णय को सही बताया गया| जब मजिस्ट्रेट ने खर्चा वसूली की कार्यवाही प्रारंभ की तो उसे पुन: बताया गया कि उसे खर्चा लगाने की कोई शक्ति ही नहीं तब कार्यवाही बंद की गयी|

 राज्य सभा की समिति ने यद्यपि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के लिए लिखित परीक्षा की अनुशंसा की थी किन्तु यह प्रक्रिया अस्वच्छ राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक है अत: इस पर कोई अग्रिम कार्यवाही नहीं की गयी| भारत के न्यायाधीश तथ्यों और कानून को तोड़मरोड़कर उनका मनचाहा अर्थ निकालने में सिद्धहस्त अवश्य हैं|  इस कारण समय समय पर विरोधाभासी व असंगत निर्णय आते रहते हैं  और हमारी न्याय व्यवस्था जटिल से जटिलतर बनती जा रही है|  विडंबना है कि कानून के विषय में तो यहाँ अपवादों को छोड़कर ब्रिटिश काल से चली आ रही अस्वच्छ और जनविरोधी परम्पराओं का अनुसरण और सरकार व अधीनस्थ न्यायालयों का समर्थन मात्र किया जा रहा है, प्रजातंत्र के अनुकूल कोई नवीन मौलिक  शोध नहीं हो रहा है|  सरकारी अधिकारियों को भी विश्वास है कि न्यायालयों के आदेश कागजी घोड़े हैं  और उनकी अनुपालना करने की कोई आवश्यकता भी नहीं है व उनका कुछ भी बिगडनेवाला नहीं है| गत वर्ष तरनतारन (पंजाब) में पुलिस द्वारा महिल्ला की सरे आम पिटाई और बिहार में अध्यापकों पर लाठी बरसाने के मामलों का सुप्रीम कोर्ट ने स्वप्रेरणा से संज्ञान लिया था तब जनता को यह भ्रान्ति हुई कि देश में कानून का शासन जीवित है किन्तु यह प्रकरण दिनांक 4 मार्च 2014 को बिना कोई अंतिम व समुचित आदेश पारित किये चुपचाप बंद कर दिया गया|  अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने अक्षरधाम काण्ड के अभियुक्तों को दोषमुक्त करते हुए कहा है  कि पुलिस द्वारा निर्दोष लोगों को फंसाया गया है जबकि इन्हें संदेह के आधार पर नहीं छोड़ा गया है| एक अभियुक्त भी सक्षम गवाह होता है और निर्दोष फंसाए जाने पर वह स्वयम गवाह के रूप में प्रस्तुत हो सकता है और प्रति परीक्षा के उपरान्त उसका बयान महत्वपूर्ण होता है|  किन्तु घोर आश्चर्य है कि बचाव पक्ष के वकीलों ने ऐसा नहीं किया जिससे निर्दोष नागरिकों को 12 वर्ष जेल में अनावश्यक ही बिताने पड़े|  आश्चर्य है कि ऐसी स्थिति में सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय ने इन्हें दोषी मान लिया| फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने न  तो पुलिस के विरुद्ध कोई कार्यवाही के लिए आदेश दिया है और पीड़ितों को अनावश्यक जेल के लिए कोई क्षतिपूर्ति भी स्वीकृत नहीं की है|  जब विद्यमान कानून में ही किसी  निर्दोष को फंसाकर फर्जी सबूतों के आधार पर सजा  दिलवाई जा सकती है तो फिर दोषी लोग क्यों बच निकलते हैं? हमारे कानून में दोष से कई गुना अधिक न्यायतंत्र में भ्रष्टाचार है|  कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एक मामले में दिनांक  7 जुलाई 2010  को पश्चिम बंगाल सूचना आयोग को आदेश दिया था कि द्वितीय अपील का निपटान 45 दिन में करे किन्तु प.बं. सू . आयोग के भयमुक्त आयुक्त ने दिनांक 20 सितम्बर 2008  को दायर एक द्वितीय अपील पर 58  महीने बाद दिनांक 24 जुलाई 2013 को  अपना निर्णय घोषित कर कीर्तिमान स्थापित किया है| न्यायालयों के प्रति सरकारी अधिकारियों के सम्मान का यह प्रतीक है| वर्तमान परिस्थितियों में यह भी स्पष्ट नहीं है कि न्यायालयों और सूचना आयोगों के आपसी सम्बन्ध कितने प्रगाढ़  हैं अथवा उनकी जन छवि कैसी है| मैंने  असम राज्य सूचना आयोग की वेबसाइट से पाया है कि उन्होंने किसी भी न्यायालय के विरुद्ध आज तक कोई प्रकरण निर्णित नहीं किया है|  यदि भय के कारण किसी नागरिक ने कोई प्रकरण दायर ही नहीं किया है तो यह और भी गंभीर है तथा लोकतंत्र को चुनौती है| उस राज्य में पुलिस के विरुद्ध भी आज तक 10 से कम मामले दायर हुए हैं| अनुमान लगाया जा सकता है कि सूचना का अधिकार अधिनियम पारदर्शिता लाने में कितना कामयाब हुआ है | क्या कोई न्यायविद बता सकता है कि भारत में कानून, शक्ति, लाठी, गोली  या आतंक में से किसका शासन चलता है ? पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि न्यायालयों के प्रति आम नागरिक के मन में भय या सम्मान क्या अधिक है |

जहां परिवादी या अभियुक्त (आशाराम जैसे) उच्च श्रेणी का हो वहां पुलिस उसके लिए हवाई यात्रा का प्रबंध करती है अन्यथा आम नागरिक यदि गवाह के तौर पर पेश हो तो भी उसे पुलिस या न्यायालय द्वारा रेल या बस का किराया तक नहीं दिया जाता है| इन सब घटनाक्रमों को देश के संवैधानिक न्यायालय भी मूकदर्शी बनकर देखते रहते हैं| भारत में तो जो कुशल मुंशी होते हैं वे कालान्तर में सफल  वकील बन जाते हैं और स्टाफ के साथ उनकी अच्छी पटरी खाती अत: उनका कोई काम बाधित  नहीं होता| वे तरक्की पाते हैं और न्यायाधीश बन जाते हैं | हमारे उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कपाडिया ने भी अपना व्यावसायिक जीवन सफर  कुछ इसी प्रकार तय किया था| भारत का न्यायिक वातावरण तो मुंशीगिरी करने वालों के लिये  ज्यादा उपयुक्त है, ईमानदार और विद्वान की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है|  देश में ढूंढने  पर भी ऐसा प्रैक्टिसरत   वकील मिलना कठिन है जिसने अपने व्यावसायिक जीवन में न्यायालय स्टाफ या पुलिस वालों को कभी टिप न दी हो| वास्तव में देखा जाये तो न्याय में विलम्ब के लिए इनमें से कोई भी वर्ग चिन्तित नहीं है और न ही इनमें से कोई न्यायिक या पुलिस सुधार के लिए हृदय से इच्छुक है | न्यायालयों में प्रतिदिन बड़ी संख्या में न्यायार्थी आते हैं किन्तु उनके बैठने या विश्राम के लिए कोई स्थान तक नियत नहीं है और उनकी स्थिति याचकों  जैसी है | जहां कहीं उनको कोई आश्रय उपलब्ध करवाया गया है उस पर वकील समुदाय ने अतिक्रमण कर रखा है|  दिल्ली में तो न्यायालयों के कैंटीन  व अन्य स्थानों पर वकील समुदाय ने कब्जा कर रखा है और पेंट करवा रखा है कि  यह स्थान वकीलों के लिए आरक्षित  है और मुवक्किलों के लिए पैर रखने के लिए भी कोई स्थान देश की राजधानी दिल्ली के न्यायालयों में आरक्षित नहीं हैये लोग भूल रहे हैं कि  न्यायालयों या वकीलों का अस्तित्व मुवक्किलों से ही हैं अन्यथा नहीं|  

कुछ समय पहले न्यायाधिपति स्वतंत्र कुमार,जिन्हें मात्र 8 दिन के लिए उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति दी गयी थी, पर यौन शौषण के आरोप लगे तो उनके समाचार के प्रसारण को रोकने के लिए लगभग 50 से अधिक वकीलों का दल उच्च न्यायालय में पैरवी हेतु उपस्थित हो गया और उसी समुदाय से जब हिरासत में अथवा फर्जी मुठभेड़ में मारे गये लोगों के हितार्थ पीड़ित मानवता की सेवा में आगे आने के लिए आह्वान किया गया तो एक भी आगे नहीं आया| यह इस व्यवसाय और  इन व्यवसाइयों की नैतिकता को दर्शाता  हैकमजोर तबके को कानूनी सहायता उपलब्ध करवाने के लिए सामान्यतया सुप्रीम कोर्ट में पैरवी हेतु 10000 रूपये व गुजरात जैसे विकसित कहे जाने वाले राज्यों में उच्च न्यायालय के लिए 500 रूपये  की सहायता दी जाती है वहीं सरकार द्वारा अपने मामलों की ट्रिब्यूनलों में पैरवी के लिए मात्र 1000 रूपये पारिश्रमिक दिया जाता है और वकील समुदाय छिपे हुए उद्देश्यों के लिए इस अल्प पारिश्रमिक पर भी कार्य करने को लालायित रहते हैं | दिल्ली के जिला स्तर के न्यायालयों में मौके की रिपोर्ट देने के लिए कमिश्नरों  को लाखों रूपये पारिश्रमिक दिया जाता है और इस प्रकार उपकृत होने वाले वकील अधिकांशत: न्यायाधीशों के रिश्तेदार या घनिष्ठ मित्र होते हैं| पंचनिर्णय के मामलों में भी भारी शुल्क ऐंठने और भ्रष्टाचार की शिकायतें प्राप्त होती रहती हैं | जब न्यायालय अपनी चारदीवारी के भीतर भी नागरिकों का शोषण नहीं रोक सकते तो फिर जनता द्वारा उनसे कितनी अपेक्षाएं रखना उचित व व्यावहारिक है| संभव है कुछ निहित हितोंवाले लोग इन विचारों से सहमत न हों किन्तु उनके सहमत अथवा असहमत होने से तथ्य, तश्वीर और भारतीयों की तकदीर  नहीं बदल जाते|


हमारी राज्य सभा ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृति आयु बढाने के लिए सिफारिश की कि देश में स्वास्थ्य के स्तर में सुधार के परिणाम स्वरुप न्यायाधीशों की सेवानिवृति आयु में बढ़ोतरी करना उचित है क्योंकि विदेशों में भी यह ऊँची है| किन्तु राज्य सभा की समिति को शायद ज्ञान नहीं है की जहां पाश्चात्य देशों में औसत आयु 88 वर्ष है वहीं भारत में औसत आयु आज भी मात्र 64 वर्ष है अत: विदेशों से तुलना की कोई सार्थकता नहीं है| भारत में न्यायाधीशों का प्रारम्भिक वेतन औसत भारतीय की  आय से 10 गुना है जो किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं है व संविधान के समाजवादी स्वरूप के ठीक विपरीत है किन्तु इसके पक्ष में देश के न्यायाधीश तर्क देते हैं कि इससे न्यायाधीश ईमानदार बने रहेंगे| किन्तु इस तर्क को वास्तविकता के धरातल पर परखा जाए तो यह नितांत खोखला है | फिर भौतिकवाद तो अशांति का जनक  है| देश में सुप्रिम कोर्ट के 95% न्यायाधीश उच्च आय वर्ग और उच्च मध्यम आय वर्ग से रहे हैं | क्या ये  सभी  ईमानदार होने का नाम अर्जित कर पाए हैं ? देश में 65 प्रतिशत  जनता गरीब है, क्या वे सभी बेईमान हैं ? क्या आर्थिक अपराधियों में बहुसंख्य लोग धनाढ्य नहीं हैं? भ्रष्टाचार की जड़ तो लालच में निहित है न की गरीबी में | देश में जहां गरीबों को न्याय सुलभ करवाने के लिए न्यायमित्र  को थोड़ी सी रकम दी जाती हैं वहीं सरकारी वकीलों को लाखों रूपये देकर रातोंरात मालामाल कर दिया जाता है | क्या यह कानून के समक्ष समानता है? जो सार्वजनिक धन लोक सेवकों के पास जनता की धरोहर के रूप में है उसका वे मनमाना और सरलता से विरासत में प्राप्त की तरह प्रयोग कर रहे हैं और सार्वजनिक  बर्बादी का खेल खेल रहे हैं बिहार राज्य में तो 50 लाख रुपयों में से मात्र 50  हजार रूपये गरीबों को सहायता दी गई और शेष रकम स्टाफ के खर्चों आदि में लगा दी गयी  और गरीबों को कानूनी सहायता के नाम क्रूर मजाक किया गया | कमोबेश यही हाल अधिकाँश राज्यों के हैं| सरकार द्वारा पुलिस एवं न्यायाधीशों की कमी का बनावटी बहाना बनाकर न्याय में देरी का बचाव किया जाता है| जबकि मध्य प्रदेश में दिनांक 26.12.12 को राजकुमार द्वारा बलात्कार किये जाने पर उसे सत्र न्यायालय द्वारा दो माह से भी कम अवधि में दिनांक  05.02.13 को दण्डित कर दिया गया और उच्च न्यायालय ने दिनांक  27.06.13 को अपील पर निर्णय देते हुए मृत्यु दंड की पुष्टि भी कर दी तथा दिनांक  25.02.14 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी अंतिम आदेश सुना दिया गया है|  ठीक इसी प्रकार दिल्ली  गैंग रेप मामले में एक वर्ष के भीतर कानून में सुधार और निर्णय दोनों हो गए|  बी एम डब्ल्यू काण्ड में परिवार जनों की गवाही के बिना भी एक शक्तिशाली अपराधी को सजा हो गयी| इन सब तथ्यों से यही प्रतीत होता है कि भारत की संवेदनहीन नौकरशाही मात्र दबाव पर ही कार्य करती है और न्याय के प्रशासन तत्व का अभाव लगता है| यदि न्याय प्रशासन विद्यमान है तो फिर अन्य समान मामलों में विलम्ब क्यों होता है| क्या पुलिस या वकीलों द्वारा की जाने वाली विलम्ब की चेष्टाओं को रोकने का जजों को कोई अधिकार नहीं है ?   न्यायिक सुधारों के लिए सरकारों द्वारा संसाधनों की कमी बतायी जाती है किन्तु सस्ती लोकप्रियता के लिए लैपटॉप, मोबाइल, साड़ियाँ बांटने और बागों में नेताओं की मूर्तियाँ व  प्रतीक चिन्ह के लिए संसाधनों की कोई कमी नहीं है| आश्चर्य तब और भी बढ़ जाता है जब कोई नागरिक इस अपव्यय को रोकने के लिए न्यायालय से आदेश चाहता है तो न्यायालय भी मदद नहीं करते | ऐसा लगता है हमारे न्यायाधीश, राजनेता ज्यादा और न्यायविद  कम  हैं |

Saturday 17 May 2014

अपराध और भ्रष्टाचार के लिए अनुकूल भारत की जलवायु

समाज में अपराध भर्त्सनीय हैं क्योंकि ये मानव मात्र के सह अस्तित्व के मौलिक सिद्धांत के विपरीत कार्य करते है| वे सामाजिक ढांचे को न केवल कमजोर करते हैं अपितु  उसको नष्ट करने के लिए ताल ठोकते हैं| ये शांतिमय व्यक्तिगत जीवन का त्याग करते हैं और अनावश्यक पीड़ा या मृत्यु का कारण बनते हैंअपराध जब संगठित रूप में प्रायोजित किये जाएँ तो और अधिक घातक हो जाते हैं| और जब इन अपराधियों की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उन्हीं लोगों द्वारा मदद की जाए जिनका कर्तव्य इन्हें रोकना है तो स्थिति बद से बदतर हो जाती है|   जब पीड़ित व्यक्ति को दुःख सहन करने के लिए विवश किया जाए  और अपराधी बच  निकलते हैं तो यह असीम आक्रोश उत्पन्न करता है | आज भारत कुछ ऐसी ही हालत से गुजर रहा है|
 आपराधिक न्याय प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में सुधार की आवश्यकता है| जहां एक ओर न्याय प्रणाली में सुधार के लिए तुरंत, गंभीर और निष्ठा पूर्वक प्रयासों की आवश्यकता है वहीं अपराधियों के प्रति सामन्यतया नरम  रुख अपनाने का फैशन बनता जा रहा है और मृत्यु दंड को बंद करने की चर्चाएँ  हो रही हैं| उचित अनुसंधान की आवश्यकता के विषय में कोई दो राय नहीं हो सकती| एक अभियुक्त को  तब तक दोषी  नहीं माना जाना चाहिए जब तक कि  दोष प्रमाणित न  हो जाए| किसी भी व्यक्ति के साथ निर्मम व्यवहार उचित नहीं है| अपराध को उचित ठहरानेवाली परिस्थितयों पर समुचित विचार किया जाना चाहिए| इन सब के साथ साथ समाज में अच्छा व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए और संकट को टालने के लिए दंड दिए जाने की  भी मुख्य भूमिका है| आपराधिक न्याय प्रशासन में दंड कोई बदला लेने के लिए नहीं दिया जाता| इसका आँख के बदले आँख के सिद्धांत से कोई लेनादेना नहीं हैयद्यपि यह अप्रासंगिक है फिर भी गांधीजी को उद्धृत  किया जाता है कि यदि आँख के बदले आँख के सिद्धांत को लागू किया गया तो समस्त संसार ही अंधा हो जाएगाकिन्तु वास्तविकता तो यही है कि समस्त विश्व को अंधा होने से मात्र भय और आँख के बदले आँख के सिद्धांत की  संभावना  ने ही बचा रखा है| भय के अभाव में विश्व में दो  तरह के लोग होंगे, एक वे जिन्होंने दूसरों की आँखें फोड़ दी और दूसरे वे जो उनके द्वारा बदले में अंधे कर दिए गए|
यदि न्यायालय एक दोष सिद्ध व्यक्ति पर  मृत्युदंड सहित कोई दंड आरोपित करता है तो वह बदला बिलकुल नहीं है अपितु यह तो पेशेवर, न्यायिक, निष्पक्ष और प्रशासनिक कृत्य है जोकि समाज के वृहतर हित में और अन्य लोगों को अपराध करने से रोकने के लिए उपाय है| प्राचीन तमिल संत थिरुवावल्लुर ने कहा है, “जिन लोगों ने  हत्या जैसे संगीन अपराध किये हैं उन्हें कड़ा दंड देने में राजा का कृत्य ठीक वैसा ही है मानो कि फसलों  को बचाने के लिए एक किसान खरपतवार को हटाता है|” एक अच्छी सरकार को कानून का सम्मान करने वाले अपने नागरिकों  का सर्व प्रथम ध्यान रखना चाहिए| इसके लिए आवश्यक है कि अपराधियों के साथ सख्ती से निपटे| भारत में वर्तमान में विद्यमान स्थिति इसके ठीक विपरीत है| यहाँ कानून का सम्मान करने वाले नागरिक पीछे धकेल दिए गए हैं और अपराधियों को कोई भय नहीं है| अपराध लगातार बढ़ रहे हैं | वे न  केवल बढ़ रहे हैं अपितु  सुनियोजित और क्रूरतर  तरीके से   किये जाने लगे हैं| अपराधी लोग और अधिक धनवान व दुस्साहसी हो रहे हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी भूमिकाएं महत्वपूर्ण होती जा रही हैं विशेषकर व्यापार और राजनीति में | अपराधियों के प्रभाव को कम करने के किसी भी प्रयास का संगठित राजनैतिक वर्ग द्वारा कड़ा  विरोध किया जाता है | यद्यपि वे किसी राष्ट्रीय  मुद्दे के लिए इतने जल्दी  संगठित नहीं होते हैं |
आज संगठित अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं, इसके कई कारण हैं | इनमें खराब शासन, राजनैतिक हस्तक्षेप, अपराधियों का धन बल, अनुसन्धान व अभियोजन में संवेदनहीनता, न्याय प्रदानगी में असामान्य देरी, अपर्याप्त दंड, जेल प्रशासन में कमियाँदिखावटी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा अनुचित व झूठा  प्रचार प्रसार व दिखावटी मानवाधिकार संगठन, प्रतिस्पर्धी और धन लोलुप दृश्य-मीडिया शामिल हैं| उचित रूप  से लागू किया गया दंड अपराधों की रोकथाम में निश्चित रूप से सहायक है|
इस प्रसंग में राजस्थान का एक उदाहरण उल्लेखनीय है जिसमें अभियुक्त ने दिनांक- 19.7.82  को समूह में प्राणघातक हमला करके एक व्यक्ति की बांये हाथ की कोहनी व दूसरे के हाथ की  हथेली  तलवार से काट दी| अभियुक्त मात्र 7 दिन जेल में रहा और जमानत पर बाहर आ गया| सत्र न्यायालय ने अपने निर्णय दिनांक- 11.10.1984  से मुख्य अभियुक्त को पाँच वर्ष  के  कठोर कारावास एवं 3000/-रूपये अथर्दण्ड से दण्डित किया| अभियुक्त ने उच्च न्यायालय में अपील कर सजा पर स्थगन ले लिया और स्वतंत्र घूमता रहा| अभियुक्त राज्य सेवा में था अत: उसने नौकरी भी निर्बाध पूरी कर ली|  आखिर 25 वर्ष बाद उच्च न्यायालय ने दिनांक  02,  जुलाई 2009 को दिए गए निर्णय में भुगती हुई 7 दिन की सजा को पर्याप्त समझा एवं 50,000/-रूपये (अक्षरे पचास हजार) अथर्दण्ड से दण्डित किया और आदेश दिया कि यह जुर्माना राशि पीड़ित को क्षतिपूर्ति स्वरुप दी जायेगी|  यक्ष प्रश्न यह है कि संगीन अपराध के लिए जब देश के संवैधानिक न्यायालय इतनी सजा को ही पर्याप्त मान लेते हैं तो ऐसे अपराधों में फिर पुलिस द्वारा गिफ्तारी या रिमांड का क्या औचित्य है|  इतनी अल्प सजा के बावजूद सरकार ने आगे कोई अपील नहीं की और स्वयं पीड़ित ने ही उच्चतम न्यायालय में अपील की जिसमें दिनांक 5 मई 2014 को निर्णय  सुनाकर उच्चतम न्यायालय ने सजा को 2 वर्ष के कठोर कारावास तक बढ़ा दिया और क्षति पूर्ति की राशि को बरकरार रखा| देश के ही गैर इरादतन वाहन व औद्योगिक दुर्घटना कानून में अंग भंग के लिए उचित क्षतिपूर्ति का प्रावधान है| किन्तु देश के आम नागरिक की समझ से यह बाहर है कि जो न्यायपालिका किसी घोटाले से सम्बन्धित समाचार में एक न्यायाधीश के  चित्र  को गलती से दिखा दिए जाने पर मानहानि के बदले 100 करोड़ रूपये  की क्षतिपूर्ति  उचित समझती है वह एक हाथ काटे जाने के मामले में निस्संकोच होकर मात्र 50000 रूपये की क्षतिपूर्ति को किस प्रकार पर्याप्त समझती है| जहां एक ओर भीड़ द्वारा पुलिस पर पथराव करने या मजिस्ट्रेट की गाडी से किसी अन्य की गाडी के टकरा जाने मात्र को ही जानलेवा हमला मान लिया जाता है और निचले न्यायालय जमानत से मना कर देते हैं वहीं हाथ काट देने को भी जानलेवा नहीं माना जाता| संभव है कि पीड़ित ने क्षतिपूर्ति राशि बढाने की मांग न की हो किन्तु जब न्यायपालिका मिडिया में प्रकट किसी मामले में स्वप्रेरणा से संज्ञान लेकर न्याय देने का बीड़ा उठाने को तैयार है तो फिर एक पीड़ित को समुचित न्याय क्यों नहीं दे सकती| उच्च न्यायालय द्वारा लम्बी अवधि तक सुनवाई न करना किस प्रकार कानून के समक्ष समानता है?  एक अन्य पहलू यह भी है कि जब एक अभियुक्त को संगीन अपराध का दोषी पा लिया जाए और फिर भी उसे मात्र प्रतीकात्मक दंड  दिया जाए तो मनोवैज्ञानिक रूप से पुलिस व अधीनस्थ न्यायाधीश भी हतोत्साहित होते हैं तथा उनका मनोबल गिरता है| उक्त प्रकरण में मात्र 7 दिन की सजा देने की वजह भारत का दोषपूर्ण दंड कानून है जिसमें न्यूनतम सजा का प्रावधान नहीं है अत: न्यायाधीश जो मर्जी सजा दे सकते हैं जबकि  अमेरिका के दंड कानून में अधिकतम सजा का प्रावधान  होने के साथ साथ न्यूनतम सजा भी परिभाषित है जोकि अक्सर अधिकतम सजा की 90 प्रतिशत है यानी न्यायाधीश मात्र 10 प्रतिशत सजा में ही कटौती कर सकते हैं जिससे भ्रष्टाचार की संभावनाएं भी कम हो जाती हैं| कहा भी गया है लक्ष्मी व्यापार में निवास करती है अत: निश्चित रूप से जिन लोगों ने नौकरी करते हुए अकूत सम्पति संचित कर रखी है वे नौकरी को भी व्यापार की तरह कर रहे हैं| स्मरण रहे बेईमानी व्यापार का एक घटक है| 
  जेल के निरीक्षण पर आये पंजाब उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने भ्रष्टाचार के आरोपी से जेल में आवेदन लेकर तत्काल ही जमानत मंजूर करने के निर्देश दे दिए !  किन्तु बहुत से लोग वास्तविक कारणों की ओर आँख मूँद लेते हैं और दंड प्रणाली को दोष देते हैं | आज कानूनी प्रणाली और आपराधिक प्रक्रिया अपराधियों के लिए मददगार है| मानवाधिकार के ज्यादातर पैरोकार और सत्ता में शामिल लोग कानून में विश्वास  रखने वाले और पीड़ित लोगों के अधिकारों के प्रति बेखबर हैं | ऐसे कितने मामले हैं जहां अपराधी मात्र अपराध करने के लिए ही जमानत पर बाहर आये हों? तर्कसंगत दंड देने में विफलता के कारण प्रभावित लोग सरकार में विश्वास खो देते हैं| कई मामलों में तो वे हिसाब चुकता  करने के लिए कार्य करते हैं | स्थानीय गैंग के नेता और भाड़े के बदमाश अच्छा कारोबार करते हैं और बेईमान राजनेताओं व अधिकारियों की मदद से जड़ें जमा लेते  हैंइससे समाज में संगठित अपराध पनपते  हैं | वास्तव में भारतीय न्यायतंत्र तो संगठित अपराधियों, राजनेताओं, विधिज्ञों, कार्यपालक व पुलिस   अधिकारियों का एक रासायनिक योगिक है जिसको पारखी रसायन शास्त्री ही जान सकता है| किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के यहाँ समारोह में इन सभी को एक मंच साझा करते हुए देखा जा सकता है|
सत्य तो यह है कि जिस प्रकार की गंभीरता और संजीदगी एक सभ्य राष्ट्र में अपराधों की रोकथाम के लिए होनी चाहिए वह भारत में बिलकुल नहीं है| इस विषय पर आंकड़ों को देखकर सत्ता में शामिल लोगों को शर्म आनी चाहिए किन्तु उन्हें तो व्यक्तिगत कार्यों से ही फुरसत नहीं है और प्रशासन उनके हाथों की मात्र कठपुतली है| एक कहावत है, “यदि तुम पेड़ पर बैठी चिड़िया को मारना चाहते हो तो लक्ष्य आकाश पर होना चाहिए|” जबकि इस देश में तो जनता को धोखा देने के लिए सत्तासीन लोग अपराध दर्ज करने का जिक्र करते हैं और एक युवा नेता कहता है कि भारत में भ्रष्टाचार के निर्मूलन में 20 वर्ष लग जायेंगे| लोगों को शून्य अपराध और शून्य भ्रष्टाचार में जीने का अधिकार है| यदि राजनैतिक इच्छशक्ति हो तो यह असंभव नहीं है |


Sunday 11 May 2014

भारत में न्याय की अवधारणा और यथार्थ

हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में यद्यपि जन प्रतिनिधियों के माध्यम से जन भावनाओं को कार्यरूप देने  की व्यवस्था की गयी है किन्तु सभी जानते हैं कि ये जनप्रतिनिधि सच्चे अर्थों में किनके प्रतिनिधि हैं जब ये प्रश्न पूछने के लिए धन लेते हैं और सांसदों का वेतन जो वर्ष 2005 में 4000 रूपये प्रतिमाह था को बढाकर वर्ष 2009 में 50000 रूपये महीना एक स्वर में कर लोकतंत्र पर बड़ा उपकार करते हैं|   इसी दर्शन को ध्यान में रखते हुए ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम सभाओं की व्यवस्था की गयी है जहां आम नागरिक सभा में भाग ले सकते हैं, अपने विचार रख सकते हैं| ठीक यही व्यवस्था संसद और विधान सभाओं के सम्बन्ध में लागू की जानी चाहिए व  सांसदों तथा विधायकों के लिए अपने क्षेत्र में नियमित मीटिंगें करना आवश्यक  बनाया जाना चाहिए क्योंकि वे पार्टी के नहीं अपितु जन प्रतिनिधि हैं और न्यायपालिका  सहित सरकार के प्रत्येक अंग में प्रत्येक स्तर पर जन समितियों का गठन किया जाना चाहिए  ताकि जनता की सक्रिय  भागीदारी सुनिश्चित हो सके| भारतीय गणतंत्र का उद्धार तो तभी हो सकता है जब समस्त नीतियाँ, नियम, कानून यह धारणा लेकर बनाए जाएँ कि सत्ता  में शामिल प्रत्येक व्यक्ति भ्रष्ट, नकारा, कर्तव्यहीन, गैर जिम्मेदार है या सत्ता प्राप्त होने पर हो जाएगा चाहे उसके पद की ऊँचाई  या नाम  कुछ भी क्यों न  हो | भारत के लोग सदियों से गुलाम रहे हैं और अब उनके हाथ में सत्ता  का कोई भी अंश प्राप्त होने पर वे भूखी भेडिये की तरह टूट पड़ते हैं जिस प्रकार एक भूखे व्यक्ति को कई दिनों से भोजन मिलने पर | यदि वास्तव में लोकतंत्र के सपने को साकार करना हो तो देश के प्रत्येक कानून में सम्बद्ध लोक सेवकों की जिम्मेदारी परिभाषित होनी चाहिए और उनकी प्रत्येक लापरवाही, दुराचार व अनाचार  के लिए बिना किसी औपचारिक पूर्वानुमति के दंड की पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए | सुपरिभाषित नीतियों व स्पष्ट  कानून के अभाव में मनमानेपन की संभावना रहती है |
हमारे  राजनेता भी मात्र कमियाँ ढूंढने  का ही कार्य करते रहे हैं , कोई रचनात्मक कार्य करने की न  तो उनमें क्षमता है और न  ही ज्ञान है हाल ही में पूर्व मंत्री श्री अरुण शौरी ने बयान दिया कि  विकास में तेजी लाने के लिए राज्यों को और शक्तियाँ दी जानी चाहिए|  किन्तु प्रश्न यह है कि जो शक्तियां राज्यों के पास पहले से ही हैं क्या उनका वे सही व भरपूर उपयोग करते हैं | संविधान के अनुसार न्याय व्यवस्था राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है और देश में साक्ष्य, सिविल प्रक्रिया , दंड प्रक्रिया , दंड संहिता आज भी राजशाही तर्ज पर  अंग्रेजों के बनाए  हुए ही प्रचलित हैं और किसी भी राज्य ने उनका भारतीयकरण या प्रजातान्त्रिकीकरण  करने की पहल नहीं की है| कुछ  समय पूर्व यशवंत  सिन्हा ने भी बयान दिया था कि  आई पी सी  में क्या दोष है इस कानून के आधार पर तो अंग्रेजों ने 200  वर्ष शासन किया है| किन्तु वे भूल रहे हैं कि शासन तो अंग्रेजी कानून से पहले भी चलता रहा है|  यदि अंग्रेजों के बनाए  ये कानून और नीतियाँ प्रजातंत्र के अनुकूल थी तो फिर अंग्रेजों को कोसने अथवा स्वतंत्रता की मांग करने की आम  व्यक्ति को क्या  आवश्यकता थी | इंग्लॅण्ड तो बिना लिखित संविधान के भी चल रहा है किन्तु भारत में लिखित संविधान के बावजूद ठीक ठाक  नहीं चल रहा इसका कारण यह है कि वहां के नेतृत्व का नैतिक स्तर भारत से श्रेष्ठ है|  देश के राजनेताओं की मानसिक स्थिति को देखने पर वे दया के पात्र  नजर आते हैं|  अव्यवस्था और मंद विकास का जिक्र करने पर देश का नेतृत्व  बचाव में कहता है कि जापान जैसे तेजी से विकास करने वाले देशों की जनसंख्या कम है किन्तु वे भूल जाते हैं कि उनके प्राकृतिक साधन और श्रम शक्ति भी तो कम है| इसके विपरीत भारत में प्रचुर प्राकृतिक साधन व श्रम शक्ति है  तथा उपभोक्ता बाज़ार भी विस्तृत है किन्तु सुप्रबन्धन का अभाव है | अत: अधिक आय,उत्पादन व उपभोग पर सरकार को कर भी अधिक मिलता है फिर अव्यवस्था का क्या कारण है  समझ से परे रह जाता है | प्रजातंत्र का वास्तविक अर्थ तो लोगों के मन पर  शासन से होता है न  कि  इनके तन पर, शायद यह बात देश के राजनेता आज तक नहीं समझ पाए हैं| भारतीय  1  रूपये का जो अंतर्राष्ट्रीय मूल्य वर्ष 1917 में 13 डॉलर के बराबर था 2013 में   1 डॉलर बराबर  70 रुपया (अर्थात 1/910) हो गया  और वह  दिन दूर नहीं लगता जब 100 रुपया एक डॉलर के समान रह जाएगा|

मेट्रो में रहने वाले जन प्रतिनिधियों को जब ग्रामीण कठिनाइयों का कोई अनुभव नहीं हो तो उन्हें मंत्री बनाना किस प्रकार उचित हो सकता है| क्योंकि मेट्रो की नगर निगम का ही बजट राजस्थान जैसे एक राज्य के बजट से अधिक होता है | एक उदाहरण से यह बात और स्पष्ट हो सकेगी कि आपातकाल के दौरान सभी विरोधी नेताओं को जेल की कठिनाइयों का सामना करना पडा फलत: 1977 में सत्ता  में आते ही जनता पार्टी की सरकार ने सर्वप्रथम जेल सुधार पर ध्यान दिया|  जिस प्रकार एक गरीब व्यक्ति को अरबों रूपये यदि एक साथ दे दिये जाएँ तो वह उनका कुशल प्रबंधन नहीं कर सकता ठीक उसी प्रकार मेट्रो में रहने वाले ये धनी लोग भी समान रूप से गरीब और ग्रामीण  जनता के योग्य बजट, योजना या कानून  नहीं बना सकते | अंग्रेजी संस्कृति के वातावरण में जन्मे और पले  इन नेताओं द्वारा जो भी नीतियाँ, कानून आदि बनाए जाते हैं वे लोगों के लिए  दुर्बोध अंग्रेजी भाषा में बनाए जाते हैं जो प्लास्टिक फूलों की तरह शोभायमान तो होते हैं किन्तु  उनमें देशी संस्कृति के पुट  के बिना स्वाभाविक खुशबू गायब होती है |  

संज्ञेय अपराध के स्थिति में सूचना मिलने पर पुलिस को अविलम्ब ऍफ़ आई आर दर्ज करनी  चाहिए और शेष जांच तो उसके बाद में ही प्रारंभ होनी चाहिए|  इस आशय से सरकार ऑनलाइन ऍफ़ आई आर प्रारंभ करने जा रही है | दूसरी ओर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की कि पुलिस को शिकायत प्राप्त होने के  बाद 3 माह तक का समय ऍफ़ आई आर दर्ज करने हेतु  अनुमत किया जाए| दंड प्रक्रिया संहिता में अनुसंधान हेतु 3 माह की अवधि नियत है|  यदि ऍफ़ आई आर दर्ज करने के लिए 3 माह अवधि हो तो फिर अनुसंधान के लिए तो 3 वर्ष की अवधि और मुक़दमे के लिए 3 दशक की अवधि की कल्पना की जानी चाहिए| इस भूमि पर एक ओर निर्दोष नागरिकों को फर्जी मुठभेड़ में मारने के लिए सजा के स्थान पर पुलिस को सम्मान और पदोन्नति  दी जाती है वहीं मानवाधिकार आयोग इन निर्मम हत्याओं  के लिए मुआवजा देते हैं| भारत सरकार  के उक्त विरोधाभासी कार्यों से सरकार संचालन में भागीदार लोगों व सरकारी वकीलों के मानसिक स्वास्थ्य  पर संदेह होना स्वाभाविक है| अर्थात सरकार और उसके वकील तो अपने प्रत्येक मनमाने कार्य को उचित ठहराने के भी दुराचरण की परिधि में आते हैं किन्तु सुपरिचित कारणों से सरकार इन पर कोई कार्यवाही नहीं करती | यदि सरकार तुलनात्मक रूप से हलके दंड के लिए भी अपने सेवकों के विरुद्ध कोई विभागीय कार्यवाही प्रारम्भ नहीं करती तो विश्वास नहीं किया जा सकता कि वही सरकारी तंत्र इनके विरुद्ध न्यायालय में कठोर कार्यवाही के लिए अनुमति देदेगी| वैसे व्यवहार में देखा जाए तो लोक सेवकों के अभियोजन के लिए स्वीकृति की नौबत ही नहीं आती है | फिर  भी जब तक ऊपर हिस्सा पहुंचता रहता है स्वीकृति नहीं दी जाती है| इस प्रकार दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 भ्रष्टाचार का पोषण करने में पर्याप्त योगदान देती है|  किसी भी लोक सेवक के विरुद्ध आपराधिक शिकायत पर कोई भी पुलिस अधिकारी या न्यायाधीश प्रथम दृष्टया ही कोई कार्यवाही नहीं करते बल्कि किसी न किसी अनुचित आधार पर उसका असामयिक अंत कर दिया जाता है| अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि लोक सेवकों के विरुद्ध दायर 20 में मात्र 1 मामले में  ऍफ़ आई आर दर्ज होने के आदेश हुए जिसमें भी पुलिस ने अंतिम रिपोर्ट दे दी किन्तु मजिस्ट्रेट ने प्रसंज्ञान लिया| किन्तु बाद में रिवीजन में वकील की मिलीभगत से सत्र न्यायालय स्तर पर वह मामला भी ख़ारिज हो गया| वकील लोग कई बार अनुपस्थित रहकर विरोधी की मदद कर देते हैं और न्यायाधीश इसमें भागीदार बनते हैं|  अत: भारत की जनता को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वे मौजूदा न्याय तंत्र में किसी राजपुरुष के विरुद्ध कोई उपचार प्राप्त कर सकते हैं | यह तो एक आँख मिचौनी के खेल और अभेद्य चक्रव्यूह की तरह है| भारत का न्यायतंत्र अस्वच्छ है और इसमें प्रवेश करनेवाले को संक्रमण का ख़तरा हमेशा बना रहता है |  देश के न्यायाधीश एक ओर बकाया मुकदमों के अम्बार पर चिंता व्यक्त करते देखे जाते हैं वहीं वर्ष में सर्दी-गर्मी- त्यौंहारों के नाम लगभग 100 छुट्टियां मनाते हैं| छुट्टियां इन लोगों ने मनानी ही हैं चाहे सर्दी गर्मी हो या न हो | जहां जम्मू कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड जैसे इलाकों में गर्मी नहीं पडती वहां सर्दी के बहाने 45 दिन की छुट्टियां मना लेते हैं और बंगाल जैसे राज्यों में अक्टूबर माह में 30 दिन की छुट्टियां – जब सर्दी और गर्मी दोनों ही न हो – मनाना जरुरी समझते हैं| किन्तु इन्हीं लोगों को जब सेवानिवृति के बाद किसी आयोग या अर्द्धन्यायिक  निकाय में लगा दिया जाता है तो  ये बिना सर्दी गर्मी की परवाह किये कार्य करते हैं|  इससे न्यायतंत्र से जुड़े लोगों की बकाया मामलों के प्रति चिंता की वास्तविकता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है | राजशाही के रूप में और लोकतंत्र के आवरण में  शासित भारत के निवासी धन्य हैं | लोकतंत्र  में जनभावना प्रमुख होती है| क्या जनता चाहती है कि वर्ष में इतनी सवैतनिक छुट्टियां हों ?
                                      


Sunday 4 May 2014

भ्रष्टाचार के मजबूत स्तंभों पर टिकी भारतीय शासन व न्याय व्यवस्था

भारत का सरकारी तंत्र तो सदा से भी भ्रष्ट और निकम्मा रहा है इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए| भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा प्रेषण प्रक्रिया में प्रारंभ में पुलिस की सीधी सेवाएं ली जाती थी किन्तु पुलिस स्वयं पेटियों  को तोडकर धन चुरा लेती और किसी की भी जिम्मेदारी  तय नहीं हो पाती थी | अत: रिजर्व बैंक को विवश होकर अपनी नीति में परिवर्तन करना पडा  और अब मुद्रा प्रेषण को मात्र पुलिस का संरक्षण ही होता है मुद्रा स्वयं बैंक स्टाफ के कब्जे में ही रहती है| इससे सम्पूर्ण पुलिस तंत्र की विश्वसनीयता का अनुमान लगाया जा सकता है| ठीक इसी प्रकार राजकोष का कार्य- नोटों सिक्कों आदि का लेनदेन,विनिमय  आदि मुख्यतया सरकारी कोषागारों का कार्य है| राजकोष का अंतिम नियंत्रण  रिजर्व बैंक करता रहा है किन्तु सरकारी राजकोषों के कार्य में भारी अनियमितताएं रही और वे समय पर रिजर्व बैंक को लेनदेन की कोई रिपोर्ट भी नहीं भेजते थे  क्योंकि रिपोर्ट भेजने में कोषागार स्टाफ का कोई हित निहित नहीं था और बिना हित साधे सरकारी  स्टाफ की कोई कार्य करने की परिपाटी  नहीं रही है | अत: रिजर्व बैंक को विवश होकर यह कार्य भी सरकारी कोषागारों से लेकर  बैंकों को सौंपना  पडा और आज निजी क्षेत्र के बैंक भी यह कार्य कर रहे हैं | अर्थात निजी बैंकों का स्टाफ सरकारी स्टाफ से ज्यादा जिम्मेदार और विश्वसनीय है | अत: यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि राज्य तंत्र  अब भ्रष्ट हो गया है अपरिपक्व होगा, यह तो सदा से ही भ्रष्ट रहा है किन्तु  आजादी के साथ इसके पोषण में तेजी अवश्य आई है |
भारत में कानून बनाते समय देश की विधायिकाएं उसमें कई छिद्र छोड़ देती हैं जिनमें से शक्ति प्रयोग करने वाले अधिकारियों के पास रिसरिस कर रिश्वत आती रहती है और दोषी लोग स्वतंत्र विचरण करते व आम जनता का खून चूसते रहते हैं| देश में शासन द्वारा आज भी एकतरफा कानून बनाए जाते हैं व जनता से कोई फीडबैक नहीं लिया जाता| आम जनता से प्राप्त सुझाव और शिकायतें रद्दी की टोकरी की विषय वस्तु  बनते हैं और देश के शासन के संचालन की शैली  तानाशाही ने मेल खाती है जहां कानून थोपने का एक तरफा संवाद  ही सरकार की आधारशीला होती है| जनता को भारत में तो पांच वर्ष में मात्र एक दिन मत देने का अधिकार है जबकि लोकतंत्र जनमत पर आधारित शासन प्रणाली का नाम है|  भारत भूमि पर सख्त कानून बनाने का भी तब तक कोई शुद्ध लाभ नहीं होगा जब तक कानून लागू करने वाले लोगों को इसके प्रति जवाबदेय नहीं बनाया जाता| सख्त कानून बनाए जाने से भी लागू  करने वाली एजेंसी के हाथ और उसकी दोषी के साथ मोलभाव करने की क्षमता में वृद्धि होगी और भ्रष्टाचार  की गंगोत्री अधितेज गति से बहेगी| जब भी कोई नया सरकारी कार्यालय खोला जाता है तो वह सार्वजनिक धन की बर्बादी, जन यातना और भ्रष्टाचार का नया केंद्र साबित होता है, इससे अधिक कुछ नहीं|   एक मामला जिसमें पुलिस 1000 रूपये में काम निकाल सकती है , वही मामला अपराध शाखा के पास होने पर 5000 और सी बी आई के पास होने पर 10000 लागत आ सकती है किन्तु अंतिम परिणाम में कोई ज्यादा अंतर पड़ने की संभावना नहीं है| जहां जेल में अवैध  सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए साधारण जेल में 1000-2000 रूपये सुविधा शुल्क लिया जाता है वही सुविधा तिहाड़ जैसी सख्त कही जाने वाली जेल में 10000 रूपये में मिल जायेगी|          
सरकार को भी ज्ञान है कि उसका तंत्र भ्रष्टाचार  में आकंठ डूबा हुआ है अत: कर्मचारियों को वेतन के अतिरिक्त कुछ देकर ही काम करवाया जा सकता है फलत: सरकार भी काम करवाने के लिए कर्मचारियों को विभिन्न प्रलोभन देती है | डाकघरों में बुकिंग क्लर्क और डाकिये को डाक बुक करने व बांटने के लिए वेतन के अतिरिक्त प्रति नग अलग से प्रोत्साहन  राशि दी जाती है| गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में भी चेक आदि बनाने के लिए सरकार अपने कर्मचारियों को प्रोत्साहन राशि देती हैं| जहां इस प्रकार कोई लाभ देने का कोई रास्ता नहीं बचा हो वहां कर्मचारियों के  विपरीत व आपसे में ट्रांसफर और प्रतिनियुक्ति दोनों एक साथ अर्थात  ए को बी के स्थान पर और बी को ए के स्थान पर अनावश्यक ट्रान्सफर व प्रतिनियुक्त करके दोनों को भत्तों का भुगतान कर उन्हें उपकृत किया जाता है| तब जनता को ऐसी अविश्वसनीय न्याय और शासन व्यवस्था में क्यों धकेला जाए

देश के न्याय तंत्र से जुड़े लोग संविधान में रिट याचिका के प्रावधान को  बढ़ा चढ़ाकर  गुणगान कर रहे हैं जबकि रिट याचिका तो किसी के अधिकारों के अनुचित व विधिविरुद्ध अतिक्रमण के विरुद्ध दायर की जाती है और कानून को लागू करवाने की प्रार्थना की जाती है | क्या न्यायालय के आदेश के बिना कानून लागू नहीं किया जा सकता या उल्लंघन करने वाले लोक सेवकों ( वास्तव में राजपुरुषों) को कानून का उल्लंघन करने का कोई विशेषाधिकार या लाइसेंस प्राप्त है ? भारतीय दंड संहिता की धारा 166 में किसी लोक सेवक द्वारा कानून के निर्देशों का उल्लंघन कर अवैध रूप से हानि पहुंचाने के लिए दंड का प्रावधान है किन्तु खेद का विषय है कि इतिहास में आज तक किसी भी संवैधानिक न्यायालय द्वारा  रिट याचिका में किसी लोक सेवक के अभियोजन के आदेश मिलना कठिन  हैं | जब तक दोषी को दंड नहीं दिया जाता तब तक यह उल्लंघन का सिलसिला किस प्रकार रुक सकता है और इसे किस प्रकार पूर्ण न्याय माना जा सकता है जब दोषी को कोई दंड दिया ही नहीं जाय क्योंकि वह राजपुरुष है | किन्तु सकार को भी ज्ञान है कि यदि दोषी राजपुरुषों को दण्डित किया जाने लगा तो उसके लिए शासन संचालन ही कठिन हो जाएगा क्योंकि सत्ता में शामिल बहुसंख्य  राजपुरुष अपराधी हैं|  इस प्रकार रिट याचिका द्वारा मात्र पीड़ित के घावों पर मरहम तो लगाया जा  सकता  है किन्तु दोषी को दंड नहीं दिया जाता| क्या यह राजपुरुषों का पक्षपोषण नहीं है? यह स्थिति भी न्यायपालिका की निष्पक्ष छवि पर एक यक्ष प्रश्न उपस्थित करती है हमारे  संविधान निर्माताओं ने रिट क्षेत्राधिकार को सर्वसुलभ बनाने के लिए अनुच्छेद 32(3) में यह शक्ति जिला न्यायालयों के स्तर पर देने  का प्रावधान किया था किन्तु आज तक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है अर्थात रिट याचिका को संवैधानिक न्यायालयों का एक मात्र विशेषाधिकार तक सीमित कर दिया गया हैहमारे पडौसी राष्ट्र पकिस्तान में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का अधिकार सत्र न्यायालयों को प्राप्त है जबकि उत्तरप्रदेश में  तो सत्र न्यायालयों से अग्रिम जमानत का अधिकार भी 1965 में ही छीन लिया गया था| अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में लोकतंत्र किस सीमा तक प्रभावी हैभारत में तो आज भी शक्ति का विकेंद्रीकरण नहीं हुआ है और एक व्यक्ति या आनुवंशिक शासन का आभास होता है |

यदि देश के कानून को निष्ठापूर्वक लागू किया जाए तो लोक सेवकों के अवैध कृत्यों और अकृत्यों  से निपटने के लिए अवमान कानून व भारतीय दंड संहिता की धारा 166 अपने आप में पर्याप्त हैं और रिट याचिका की कोई मूलभूत आवश्यकता महसूस नहीं होती | किन्तु देश के न्याय तंत्र से जुड़े लोगों ने तो मुकदमेबाजी को द्रोपदी के चीर की भांति बढ़ाना है अत: वे सुगम और सरल रास्ता कैसे अपना सकते हैं| मुकदमेबाजी को घटना वे आत्मघाती समझते हैं| देश के न्यायाधीशों का तर्क होता है कि देश में मुक़दमे  बढ़ रहे हैं किन्तु यह भी तो दोषियों के प्रति उनकी अनावश्यक उदारता का ही परिणाम है और कानून का उल्लंघन करनेवालों में दण्डित होने का कोई भय शेष ही नहीं रह गया है| जब मध्य प्रदेश राज्य का बलात्कार का एक मुकदमा मात्र 7 माह में सुप्रीम कोर्ट तक के स्तर को पार कर गया और दोषियों को अन्तिमत: सजा हो गयी तो ऐसे ही अन्य मुक़दमे क्यों बकाया रह जाते हैं|
भारत में पुलिस संगठन का गठन जनता को कोई सुरक्षा  व संरक्षण देने के लिए नहीं किया गया था अपितु यह तो शाही लोगों की शान के प्रदर्शन के लिए गठित, जैसा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा है, देश का सबसे बड़ा अपराधी समूह हैपुलिस बलों में से मात्र 25 प्रतिशत  स्टाफ ही थानों में तैनात  है व शेष बल तो इन शाही लोगों को वैध और अवैध सुरक्षा देने व बेगार के लिए कार्यरत है| कई मामलों में तो नेताजी के घर भेंट  की रकम भी पुलिस की गाडी में  पहुंचाई  जाती है जिससे कि रकम को मार्ग में कोई ख़तरा नहीं हो| लोकतंत्र की रक्षा के लिए इन महत्वपूर्ण व्यक्तियों को सुरक्षा देने के स्थान  पर वास्तव में तो इनकी गतिविधियों की गुप्तचरी कर इन पर चौकसी रखना ज्यादा आवश्यक हैअभी हाल ही में उतरप्रदेश राज्य में एक ऐसा मामला प्रकाश में आया है जहां सरकार ने एक विधायक और उसकी पुत्री को  सुरक्षा के लिए 2-2 गनमेन निशुल्क उपलब्ध करवा रखे थे व इन  विधायक महोदय पर 60 से अधिक आपराधिक मुकदमे चल रहे थेइनके परिवार में 5-6 शास्त्र लाइसेंस अलग से थे | इससे स्पष्ट है कि किस प्रकार के व्यक्तियों को निशुल्क राज्य सुरक्षा उपलब्ध करवाई जाती है और जनता के धन का एक ओर किस प्रकार दुरूपयोग होता है व दूसरी ओर पुलिस बलों की कमी बताकर आम जन की कार्यवाही में विलम्ब किया जाता है | चुनावों के समय आचार संहिता के कारण इस आरक्षित स्टाफ को महीने भर के लिए मैदानों में लगा दिया जाता है | जब महीने भर इन महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा में कटौती  से इन्हें कोई जोखिम नहीं है तो फिर अन्य समय कैसा और क्यों जोखिम हो सकता है| किन्तु पुलिस जनता से वसूली करती है और संरक्षण प्राप्त करने के लिए ऊपर तक भेंट पहुंचाती है अत: यदि कार्यक्षेत्र में स्टाफ बढ़ा दिया गया तो इससे यह वसूली राशि बंट जायेगी और ऊपर पहुँचने वाली राशि में कटौती होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता| इस कारण पुलिस थानों में स्टाफ की हमेशा कृत्रिम कमी बनाए रखी जाती है और महानगरों में  तो मात्र 10-15 प्रतिशत   स्टाफ ही पुलिस थानों  में तैनात है| दूसरी ओर महानगरों में प्रभावी राजनेताओं, पुलिस अधिकारियों और प्रशासनिक अधिकारियों के संरक्षण में  संगठित अपराधी पनपते हैं और यहाँ प्रतिलाख जनसँख्या  अपराधों की संख्या भी अधिक है | फिर भी पुलिस थानों का स्टाफ भी इस कमी का कोई विरोध नहीं करता और बिना विश्राम किये लम्बी ड्यूटी देते रहते हैं कि ज्यादा स्टाफ आ गया तो माल के बंटाईदार बढ़ जायेंगे| देश में पुलिस बालों की कमी बतानेवालों को संभवत: ध्यान नहीं है कि 1970 में जब देश की आबादी 55 करोड़ थी तब पुलिस बल मात्र 6 लाख था और अब आबादी 125 करोड़ हुई है जबकि पुलिस बल 4 गुणा अर्थात 25 लाख है|  इस प्रकार  सरकारों द्वारा जनता के धन को विकास कार्यों पर लगाने की बजाय अनावश्यक बर्बाद किया जा रहा है|
पुलिस अधिकारियों की मीटिंगों और फोन काल का विश्लेष्ण किया जाए तो ज्ञात होगा कि उनके समय का महत्वपूर्ण भाग तो संगठित अपराधियों, राजनेताओं और दलालों से वार्ता करने में लग जाता हैपुलिस के मलाईदार पदों के विषय में एक रोचक मामला सामने आया है जहां असम में एक प्रशासनिक अधिकारी को जेल महानिरीक्षक लगा दिया गया और बाद में सरकार ने उसका स्थानान्तरण शिक्षा विभाग में करना चाहा तो वे अधिकारी महोदय स्थगन लेने उच्च  न्यायालय चले गएबिहार  के एक पुलिस उपनिरीक्षक के पास उसके अधीक्षक से ही अधिक एक अरब रूपये की सम्पति पाई गयी थी| वहीं शराब ठेकेदार से 10 करोड़ रूपये वसूलने के  आरोप में पुलिस उपमहानिरीक्षक  को निलंबित भी किया गया था| वास्तव में पुलिस अधिकारी का पद तो टकसाल रुपी वरदान है  जो भाग्यशाली –भेंट-पूजा   में विश्वास करने वाले लोगों को ही नसीब हो पाता है जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा भी है कि पंजाब पुलिस में कोई भी भर्ती बिना पैसे के नहीं होती है| अब गृह मंत्री और पुलिस महानिदेशक की सम्पति का सहज अनुमान लगाया जा सकता हैइन तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि इन पदों को तो ऊँचे दामों पर नीलाम किया जा सकता है अथवा किया जा रहा है व  वेतन देने की कोई आवश्यकता नहीं हैभ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियां भी पहले परिवादी से वसूल करती हैं और बाद में सुविधा देने के लिए अभियुक्त का दोहन करती हैं या सुरक्षा देने के लिए नियमित हफ्ता वसूली करती हैं अन्यथा कोई कारण नहीं कि इतनी बड़ी रकम वसूलने वाला लोक सेवक लम्बे समय तक छिपकर, सुरक्षित व निष्कंटक नौकरी करता रहे या इसके विरुद्ध कोई शिकायत प्राप्त ही नहीं हुई हो | आज भारतीय न्यायतंत्र  एक अच्छे उद्योग के स्वरुप में संचालित है और इसमें व्यापारी वर्ग, जो प्राय: मुकदमेबाजी से दूर रहता है,  भी इसमें उतरने को   लालायित है व  बड़ी संख्या में व्यापारिक पारिवारिक पृष्ठभूमिवाले लोग  पुलिस अधिकारी, न्यायिक अधिकारी, अभियोजक और वकील का कार्य कर इसे  एक चमचमाते  उद्योग का दर्जा दे रहे हैं|