व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 में सारांशिक कार्यवाही के लिए 10 दिन के नोटिस का प्रावधान किया
गया था तब न तो उचित परिवहन सुविधाएं थीं और न ही डाकघर की सेवाएं सर्वत्र उपलब्ध थीं
|
किन्तु आज हम इलेक्ट्रोनिक युग में जी रहे हैं फिर भी इन समय
सीमाओं की पुनरीक्षा कर इन्हें समसामयिक नहीं बनाया गया है |
देश में न्यायिक या समाज सुधार के नाम पर कार्य करने वाले ठेकदारों
की बानगी बताती है कि वे समय व्यतीत करने या
लोकप्रियता हासिल करने और सरकार में कोई पद पाने की लालसा में यह अभ्यास कर रहे हैं और उनमें से भी अधिकाँश लोग
अपना अतिरिक्त समय नहीं दे रहे हैं बल्कि सार्वजनिक कार्यालयों में बैठकर कार्यालय
समय का ही दुरुपयोग कर रहे हैं| इनमें सुधार कम और आडम्बर ज्यादा है|
पाठकों को याद होगा कि पत्नि को यातना देने वाले एक व्यक्ति
ने नारी हिंसा पर सीरियल व पत्नि के एक हत्यारे
ने मोस्ट वांटेड नामक सीरियल बनाए थे| सुधार के नाम पर अखबारों की सुर्ख़ियों में रहने वाले ये अधिकाँश
लोग भी इसी श्रेणी में आते हैं| अन्यथा कोई सुधार दिखाई क्यों नहीं देते, देश के हालात तो
दिन प्रतिदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं|
सरकार में अधिकारीवृन्द कार्यरत होते हुए इसी कुप्रबंधित व्यवस्था का सुदृढ़ अंग
बन कर कार्य करते हैं अन्यथा वे इस व्यवस्था में टिक ही नहीं पाते और सेवानिवृति
के बाद भी उन्हें किसी न किसी आयोग
या कमिटी में नियुक्ति दे दी जाती है जिसका कार्य सुधार करना या न्याय देना
होता है|
जो व्यक्ति कल तक इसी स्वयम्भू नौकरशाही का हिस्सा रहे हों वे
किस प्रकार सुधार या न्याय कर सकते हैं अथवा
अपनी बिरादरी के विरुद्ध कोई मत किस व्यक्त
कर सकते हैं?
हमारी इस विद्यमान व्यवस्था में जो व्यक्ति जितना अधिक अवसरवादी,
कुटिल, बेईमान,भ्रष्ट और डरपोक है वह सत्ता में उतना ही ऊँचा पद पा सकता है | इस दुश्चक्रिय व्यवस्था में परिवर्तन या
सुधार के लिए गठित होने वाले आयोगों आदि में भी आई ए एस,
आई पी एस या संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों को नियुक्त
किया जाता है जिन्हें धरातल स्तरीय बातों का कोई व्यावहारिक ज्ञान, अनुभव या साक्षात्कार नहीं होता है|
इन लोगों ने जीवनभर मात्र प्रचलित परिपाटियों,
परम्पराओं और प्रोटोकोल
का अनुसरण किया है व कोई मौलिक क्रांतिकारी परिवर्तन में तो इनका दिमाग ही काम नहीं
करता है|
यदि मौलिक परिवर्तन करने में ये लोग सक्षम होते तो 30 वर्ष से
अधिक समय की गयी अपनी ऊर्जावान सार्वजनिक सेवा के दौरान ही रंग दिखा सकते थे और
किसी आयोग या कमेटी के गठन की आवश्यकता ही नहीं रहती |
अत: इन उपयोगिता खो चुके ऊर्जाविहीन सेवानिवृत लोगों को किसी
भी आयोग या कमिटी का कभी भी सदस्य नहीं बनाया जाना चाहिए|
हमारे राजनेता जनता को गुमराह करते हैं कि आजादी के बाद
हमने बड़ी तरक्की की है | किन्तु प्रश्न यह है कि हमने कितनी तरक्की की है और उसमें से आम नागरिक को क्या मिला है| दूर संचार
विभाग की वेबसाइट 1970 में बन गयी थी
किन्तु नागरिकों को तो यह सुविधा 20 वर्ष बाद ही मिलने लगी है| सीएनएन ने 1971 का
भारत पाक युद्ध अमेरिका और कनाडा में लाइव प्रसारित किया था| क्या हम आज भी इस
स्थिति में हैं? अमेरिका के एक बैंक का व्यवसाय ही भारत के सारे बैंकों के व्यवसाय
से ज्यादा है| भ्रष्टाचार के कुछ
पैरोकार यह भी कुतर्क देते हैं कि रिश्वत तो तब ली जाती है जब कोई देता है| किन्तु
रिश्वत कोई दान –दक्षिणा नहीं है जो स्वेच्छा से दी जाती हो अपितु यह तो मजबूरी में ही दी जाती है| उन लोगों का दूसरा
सुन्दर तर्क यह भी होता है कि बाहुबलियों द्वारा सरकारी अधिकारियों या
न्यायाधीशों को भय दिखाया जाता है कि वे
रिश्वत स्वीकार कर कार्य करें अन्यथा उनके लिए ठीक नहीं होगा| सभी सरकारी कर्मचारी सेवा में आते समय शपथ लते
हैं कि वे भय, रागद्वेष और पक्षपात से ऊपर उठकर कार्य करेंगे तो ऐसी स्थति में
उनका यह तर्क भी बेबुनियाद है| ये तर्क ठीक उसी प्रकार आधारहीन हैं जिस प्रकार
हमारे पूर्व वित्त –मंत्री चिदम्बरम ने
कर बढाने के विषय पर जवाब दिया था कि लोग 10 रूपये में पानी खरीद कर पी रहे हैं
अत: वे कर तो दे ही सकते हैं | किन्तु वे
भूल रहे हैं कि स्वच्छ पेय जल उपलब्ध करवाना सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है और
सरकार इसमें विफल है अत: लोगों को पानी भी
खरीद कर पीना पड़ता है| पानी जीवन की एक
आवश्यकता है और यह कोई विलासिता या दुर्व्यसन नहीं जिसके लिए
यह माना जाए कि लोग कोई अपव्यय कर रहे हैं| ऐसा प्रतीत होता है कि देश में अपरिपक्व ,दुर्बुद्धि और दुर्जन लोगों का कोई अभाव नहीं
है|
देश में 80 प्रतिशत
जनता ग्रामीण पृष्ठ भूमि से है और एयरकन्डीशन में
रहे इन आई पी एस, आई ए एस या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को तो इस पृष्ठ भूमि
के स्वाद का कोई अनुभव व व्यावहारिक ज्ञान तक नहीं है ऐसी स्थिति में इनकी नियुक्ति
कितनी सार्थक हो सकती है| देश में जो डॉक्टरेट किये हुए लोग हैं वे भी प्राय: व्यावहारिक
अनुभव व वास्तविक शोध के बिना मात्र किताबी
कीड़े ही हैं| पाठकों को याद होगा कि गाज़ियाबाद किडनी घोटाले में संलिप्त चिकित्सक एक आयुर्वेदिक
वैद्य ही था किन्तु उसने अपने अनुभव के आधार पर सैंकड़ों किडनी प्रत्यारोपण के मामलों
को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था क्योंकि उसके पास ज्ञान और व्यावहारिक अनुभव था चाहे
उसने इस हेतु कोई डिग्री हासिल न की हो| वैसे भी तो भारत में डिग्रियां और डॉक्टरेट मोल मिल जाती हैं उनके लिए अध्ययन की
कोई ज्यादा आवश्यकता नहीं है| देश में उपलब्ध चिकित्सा
सुविधाओं पर राजनेताओं का कोई ज्यादा विश्वास
नहीं है और वे अक्सर अपने इलाज के लिए
विदेश जाते रहते हैं| जब देशी चिकित्सकों
पर राजनेताओं को विश्वास नहीं है फिर देशी न्यायाधीशों पर भी क्यों विश्वास
किया जाए कि वे बिना पक्षपात के न्याय कर देंगे| वैसे भी देश के न्यायाधीश एक पीड़ित पक्ष को राहत देने से इनकार करने के
लिए जी तोड़ मेहनत करते देखे जा सकते हैं| उनका
मानना है कि यदि सभी को न्याय दिया जाने लगा तो मुकदमें अनियंत्रित हो
जायेंगे| क्रिकेट व होकी के खेलों के प्रशिक्षण के लिए भी तो हमारे यहाँ विदेशी लोगों
का आयात किया ही जा रहा है |
न्याय का स्थान तो हृदय में ही होता है उसका अन्य बातों से बहुत कम
सम्बन्ध है| जो अन्याय हो रहा है वह अज्ञानता या ज्ञान के अभाव में नहीं हो रहा
है| न्याय के लिए न्यायदाता में समर्पण भाव होना आवश्यक है न कि उसके लिए कोई ऊंचा पारिश्रमिक| जिस प्रकार एक हरिण घास खाकर भी
अन्न खाने वाले घोड़े से तेज दौड़ सकता है उसी प्रकार कम वेतन पाने वाला निष्ठावान व्यक्ति,
जिसके हृदय में न्याय का निवास हो, भी
न्याय कर सकता है और दूसरी ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि अधिक वेतन पाने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से न्याय
कर ही देगा| देश की न्यायिक सेवाओं में प्रत्येक
स्तर की भर्ती से पूर्व उनकी बुद्धिमता,
सामान्य ज्ञान के अतिरिक्त अमेरिका की भांति भावनात्मक परीक्षण भी होना चाहिए ताकि
उनकी प्रवृति और रुझान का ज्ञान हो सके और
यह सुनिश्चित किया जा सके कि आशार्थी में वांछनीय गुण विद्यमान हैं| मात्र किसी
विषय का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है
जिस प्रकार सरकारी अस्पतालों और विद्यालयों में योग्य लोग होते हैं किन्तु
फिर भी उनकी सेवाएं निजी क्षेत्र के संस्थाओं की तुलना में श्रेष्ठ ही पायी जाती
हैं| जहां सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन के मामले में बार की नकारात्मक और सुधार-विरोधी
भूमिका सामने आयी वहीं कनाडा में बार
संघों द्वारा न्यायिक सुधार हेतु स्वयं सर्वे व शोध करवाया जाता है| यह भी देखने
में आया है न्यायाधीश अपने स्वामिभक्त वकीलों के समय पर न पहुँचने पर उनके लिए प्रतीक्षा करते हैं अन्यथा
आम नागरिक को तो सुनवाई का कोई पर्याप्त अवसर तक नहीं देते हैं| जहां न्यायाधीश स्वयं
हितबद्ध होते हैं वहां वे वकील पर दबाव बनाकर पैरवी में शिथिलता ला देते हैं| वकील
को भी अपने पेट के लिए रोज उनके सामने ही याचना करनी है अत: वह विरोध नहीं कर पाता है क्योंकि उसे भी
यह ज्ञान है कि प्रतिकूल फैसले की स्थिति में ऊँचे स्तर पर यदि अपील कर भी दी गयी तो पर्याप्त संभव है
कि वहां पर भी निचले न्यायाधीश के पक्ष
में स्वर उठेगा और वांछित परिणाम नहीं मिल
पायेंगे| इस बात का निचले न्यायाधीशों को भी ज्ञान और विश्वास है कि लगभग सभी
मामलों में उनके उचित –अनुचित कृत्यों-अकृत्यों की पुष्टि हो ही जानी है| ऊपरी न्यायाधीश भी तो
कोई अवतार पुरुष या देवदूत नहीं हैं, वे भी कल तक न्यायालय स्टाफ और पुलिस को
टिप्स देकर कार्य को गति प्रदान करवाते रहे हैं परिणाम स्वरुप वे सफल वकील कहलाये|
उनके पास न तो कोई चरित्र प्रमाण पत्र है न ही उन्होंने कोई प्रतिस्पर्धी योग्यता
परीक्षा पास कर रखी है| संवैधानिक न्यायालयों के अधिकांश न्यायाधीशों के सम्बन्ध
में भी उनके गृह राज्यों से उनके पूर्व चरित्र के विषय में कोई सुखद
रिपोर्टें नहीं मिलती हैं| ऐसे उदाहरण भी
हैं जहां जेल के निरीक्षण पर आये उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने भ्रष्टाचार के
आरोपी से जेल में आवेदन लेकर तत्काल ही जमानत मंजूर कर दी! जानलेवा
हमले के एक मामले में जिसमें दोषी ने पीड़ित की हथेली काटकर ही अलग कर दी थी,
राजस्थान उच्च न्यायालय ने मात्र 7 दिन की सजा को ही पर्याप्त समझा|कहने को अच्छा वकील भी वही बन पाता है जिसमें एक कुशल
व्यापारी के समान विक्रय कला हो न कि उसे
कानून का अच्छा ज्ञान हो| क्योंकि कानून
का अच्छा ज्ञान तो भारत के अधिकाँश न्यायाधीशों में भी नहीं है अत: यदि किसी वकील में कानून का अच्छा ज्ञान हो
तो भी उसका मूल्याङ्कन करने में स्वयम न्यायाधीश ही समर्थ नहीं हैं| एक प्रकरण में
सामने आया कि उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश
को “आपराधिक शिकायत” की परिभाषा और दायरे जैसी प्रारंभिक बात का भी ज्ञान नहीं था किन्तु ऊपर वरदहस्त होने के कारण
यह पद प्राप्त हो गया | इसी आपराधिक मामले
में न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा परिवादी पर खर्चा लगा दिया गया किन्तु कानून में उसे
ऐसी शक्ति प्रदत्त नहीं है| मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया और फिर भी निर्णय को
सही बताया गया| जब मजिस्ट्रेट ने खर्चा वसूली की कार्यवाही प्रारंभ की तो उसे पुन:
बताया गया कि उसे खर्चा लगाने की कोई शक्ति ही नहीं तब कार्यवाही बंद की गयी|
राज्य सभा की समिति
ने यद्यपि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के लिए लिखित परीक्षा की अनुशंसा की थी
किन्तु यह प्रक्रिया अस्वच्छ राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक है अत: इस पर
कोई अग्रिम कार्यवाही नहीं की गयी| भारत के न्यायाधीश तथ्यों और कानून को
तोड़मरोड़कर उनका मनचाहा अर्थ निकालने में सिद्धहस्त अवश्य हैं| इस कारण समय समय पर विरोधाभासी व असंगत निर्णय
आते रहते हैं और हमारी न्याय व्यवस्था
जटिल से जटिलतर बनती जा रही है| विडंबना
है कि कानून के विषय में तो यहाँ अपवादों को छोड़कर ब्रिटिश काल से चली आ रही
अस्वच्छ और जनविरोधी परम्पराओं का अनुसरण और सरकार व अधीनस्थ न्यायालयों का समर्थन
मात्र किया जा रहा है, प्रजातंत्र के अनुकूल कोई नवीन मौलिक शोध नहीं हो रहा है| सरकारी अधिकारियों को भी विश्वास है कि
न्यायालयों के आदेश कागजी घोड़े हैं और
उनकी अनुपालना करने की कोई आवश्यकता भी नहीं है व उनका कुछ भी बिगडनेवाला नहीं है|
गत वर्ष तरनतारन (पंजाब) में पुलिस द्वारा महिल्ला की सरे आम पिटाई और बिहार में
अध्यापकों पर लाठी बरसाने के मामलों का सुप्रीम कोर्ट ने स्वप्रेरणा से संज्ञान
लिया था तब जनता को यह भ्रान्ति हुई कि देश में कानून का शासन जीवित है किन्तु यह
प्रकरण दिनांक 4 मार्च 2014 को बिना कोई अंतिम व समुचित आदेश पारित किये चुपचाप
बंद कर दिया गया| अभी हाल में सुप्रीम
कोर्ट ने अक्षरधाम काण्ड के अभियुक्तों को दोषमुक्त करते हुए कहा है कि पुलिस द्वारा निर्दोष लोगों को फंसाया गया
है जबकि इन्हें संदेह के आधार पर नहीं छोड़ा गया है| एक अभियुक्त भी सक्षम गवाह
होता है और निर्दोष फंसाए जाने पर वह स्वयम गवाह के रूप में प्रस्तुत हो सकता है
और प्रति परीक्षा के उपरान्त उसका बयान महत्वपूर्ण होता है| किन्तु घोर आश्चर्य है कि बचाव पक्ष के वकीलों
ने ऐसा नहीं किया जिससे निर्दोष नागरिकों को 12 वर्ष जेल में अनावश्यक ही बिताने
पड़े| आश्चर्य है कि ऐसी स्थिति में सत्र
न्यायालय और उच्च न्यायालय ने इन्हें दोषी मान लिया| फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने
न तो पुलिस के विरुद्ध कोई कार्यवाही के
लिए आदेश दिया है और पीड़ितों को अनावश्यक जेल के लिए कोई क्षतिपूर्ति भी स्वीकृत
नहीं की है| जब विद्यमान कानून में ही
किसी निर्दोष को फंसाकर फर्जी सबूतों के आधार
पर सजा दिलवाई जा सकती है तो फिर दोषी लोग
क्यों बच निकलते हैं? हमारे कानून में दोष से कई गुना अधिक न्यायतंत्र में
भ्रष्टाचार है| कलकत्ता उच्च न्यायालय ने
एक मामले में दिनांक 7 जुलाई 2010 को
पश्चिम बंगाल सूचना आयोग को आदेश दिया था कि द्वितीय अपील
का निपटान 45 दिन में करे किन्तु प.बं. सू . आयोग के भयमुक्त आयुक्त ने
दिनांक 20 सितम्बर 2008 को दायर एक
द्वितीय अपील पर 58 महीने बाद दिनांक 24 जुलाई
2013 को अपना निर्णय घोषित कर कीर्तिमान
स्थापित किया है| न्यायालयों के प्रति सरकारी अधिकारियों के सम्मान का यह प्रतीक
है| वर्तमान परिस्थितियों में यह भी स्पष्ट नहीं है कि न्यायालयों और सूचना आयोगों
के आपसी सम्बन्ध कितने प्रगाढ़ हैं अथवा
उनकी जन छवि कैसी है| मैंने असम राज्य
सूचना आयोग की वेबसाइट से पाया है कि उन्होंने किसी भी न्यायालय के विरुद्ध आज तक
कोई प्रकरण निर्णित नहीं किया है| यदि भय
के कारण किसी नागरिक ने कोई प्रकरण दायर ही नहीं किया है तो यह और भी गंभीर है तथा
लोकतंत्र को चुनौती है| उस राज्य में पुलिस के विरुद्ध भी आज तक 10 से कम मामले
दायर हुए हैं| अनुमान लगाया जा सकता है कि सूचना का अधिकार अधिनियम पारदर्शिता
लाने में कितना कामयाब हुआ है | क्या कोई न्यायविद बता सकता है कि भारत में कानून,
शक्ति, लाठी, गोली या आतंक में से किसका
शासन चलता है ? पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि न्यायालयों के प्रति आम नागरिक के मन
में भय या सम्मान क्या अधिक है |
जहां परिवादी या अभियुक्त (आशाराम जैसे) उच्च श्रेणी का हो वहां
पुलिस उसके लिए हवाई यात्रा का प्रबंध करती है अन्यथा आम नागरिक यदि गवाह के तौर पर
पेश हो तो भी उसे पुलिस या न्यायालय द्वारा रेल या बस का किराया तक नहीं दिया जाता
है|
इन सब घटनाक्रमों को देश के संवैधानिक न्यायालय भी मूकदर्शी
बनकर देखते रहते हैं| भारत में तो जो कुशल मुंशी होते हैं वे कालान्तर में सफल वकील बन जाते हैं और स्टाफ के साथ उनकी अच्छी पटरी
खाती अत: उनका कोई काम बाधित नहीं होता|
वे तरक्की पाते हैं और न्यायाधीश बन जाते हैं |
हमारे उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कपाडिया ने भी अपना
व्यावसायिक जीवन सफर कुछ इसी प्रकार तय किया
था|
भारत का न्यायिक वातावरण तो मुंशीगिरी करने वालों के
लिये ज्यादा उपयुक्त है, ईमानदार और
विद्वान की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है| देश
में ढूंढने पर भी ऐसा प्रैक्टिसरत वकील मिलना
कठिन है जिसने अपने व्यावसायिक जीवन में न्यायालय स्टाफ या पुलिस वालों को कभी टिप
न दी हो| वास्तव में देखा जाये तो न्याय में विलम्ब के लिए इनमें से
कोई भी वर्ग चिन्तित नहीं है और न ही इनमें से कोई न्यायिक या पुलिस सुधार के लिए हृदय
से इच्छुक है | न्यायालयों में प्रतिदिन बड़ी संख्या में न्यायार्थी आते हैं किन्तु उनके बैठने
या विश्राम के लिए कोई स्थान तक नियत नहीं है और उनकी स्थिति याचकों जैसी है | जहां कहीं उनको कोई आश्रय उपलब्ध करवाया गया है उस पर वकील
समुदाय ने अतिक्रमण कर रखा है| दिल्ली में तो न्यायालयों के कैंटीन व
अन्य स्थानों पर वकील समुदाय ने कब्जा कर रखा है और पेंट करवा रखा है कि यह स्थान वकीलों के लिए आरक्षित है और मुवक्किलों के लिए पैर रखने के लिए भी कोई
स्थान देश की राजधानी दिल्ली के न्यायालयों में आरक्षित नहीं है| ये लोग भूल रहे हैं कि न्यायालयों या
वकीलों का अस्तित्व मुवक्किलों से ही हैं अन्यथा नहीं|
कुछ समय पहले न्यायाधिपति स्वतंत्र कुमार,जिन्हें मात्र 8 दिन के लिए उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति दी गयी थी,
पर यौन शौषण के आरोप लगे तो उनके समाचार के प्रसारण को
रोकने के लिए लगभग 50 से अधिक वकीलों का दल उच्च न्यायालय में पैरवी हेतु उपस्थित
हो गया और उसी समुदाय से जब हिरासत में अथवा फर्जी मुठभेड़ में मारे गये लोगों के हितार्थ
पीड़ित मानवता की सेवा में आगे आने के लिए आह्वान किया गया तो एक भी आगे नहीं आया|
यह इस व्यवसाय और
इन व्यवसाइयों की नैतिकता को दर्शाता
है| कमजोर तबके को कानूनी सहायता उपलब्ध करवाने के लिए सामान्यतया
सुप्रीम कोर्ट में पैरवी हेतु 10000 रूपये व गुजरात जैसे विकसित कहे जाने वाले राज्यों में
उच्च न्यायालय के लिए 500 रूपये की सहायता
दी जाती है वहीं सरकार द्वारा अपने मामलों की ट्रिब्यूनलों में पैरवी के लिए मात्र
1000 रूपये पारिश्रमिक दिया जाता है और वकील समुदाय छिपे हुए उद्देश्यों
के लिए इस अल्प पारिश्रमिक पर भी कार्य करने को लालायित रहते हैं |
दिल्ली के जिला स्तर के न्यायालयों में मौके की रिपोर्ट देने
के लिए कमिश्नरों को लाखों रूपये पारिश्रमिक
दिया जाता है और इस प्रकार उपकृत होने वाले वकील अधिकांशत: न्यायाधीशों के रिश्तेदार
या घनिष्ठ मित्र होते हैं| पंचनिर्णय के मामलों में भी भारी शुल्क ऐंठने और भ्रष्टाचार
की शिकायतें प्राप्त होती रहती हैं | जब न्यायालय अपनी चारदीवारी के भीतर भी नागरिकों का शोषण नहीं
रोक सकते तो फिर जनता द्वारा उनसे कितनी अपेक्षाएं रखना उचित व व्यावहारिक है|
संभव है कुछ निहित हितोंवाले लोग इन विचारों से सहमत न हों
किन्तु उनके सहमत अथवा असहमत होने से तथ्य, तश्वीर और भारतीयों की तकदीर नहीं बदल जाते|
हमारी राज्य सभा ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृति
आयु बढाने के लिए सिफारिश की कि देश में स्वास्थ्य के स्तर में सुधार के परिणाम स्वरुप
न्यायाधीशों की सेवानिवृति आयु में बढ़ोतरी करना उचित है क्योंकि विदेशों में भी यह
ऊँची है|
किन्तु राज्य सभा की समिति को शायद ज्ञान नहीं है की जहां पाश्चात्य
देशों में औसत आयु 88 वर्ष है वहीं भारत में औसत आयु आज भी मात्र 64
वर्ष है अत: विदेशों से तुलना की कोई सार्थकता नहीं है| भारत में न्यायाधीशों का प्रारम्भिक वेतन औसत भारतीय की आय से 10 गुना है जो किसी भी प्रकार से न्यायोचित
नहीं है व संविधान के समाजवादी स्वरूप के ठीक विपरीत है किन्तु इसके पक्ष में देश के
न्यायाधीश तर्क देते हैं कि इससे न्यायाधीश ईमानदार बने रहेंगे|
किन्तु इस तर्क को वास्तविकता के धरातल पर परखा जाए तो यह नितांत
खोखला है | फिर भौतिकवाद तो अशांति का जनक है| देश
में सुप्रिम कोर्ट के 95% न्यायाधीश उच्च आय वर्ग और उच्च मध्यम आय वर्ग से रहे हैं |
क्या ये सभी ईमानदार होने का नाम अर्जित कर पाए हैं ? देश में 65 प्रतिशत जनता गरीब है, क्या वे सभी बेईमान हैं ? क्या आर्थिक अपराधियों में बहुसंख्य लोग धनाढ्य नहीं हैं?
भ्रष्टाचार की जड़ तो लालच में निहित है न की गरीबी में |
देश में जहां गरीबों को न्याय सुलभ करवाने के लिए न्यायमित्र
को थोड़ी सी रकम दी जाती हैं वहीं सरकारी वकीलों
को लाखों रूपये देकर रातोंरात मालामाल कर दिया जाता है |
क्या यह कानून के समक्ष समानता है?
जो सार्वजनिक धन लोक सेवकों के पास जनता की धरोहर के रूप में
है उसका वे मनमाना और सरलता से विरासत में प्राप्त की तरह प्रयोग कर रहे हैं और सार्वजनिक
बर्बादी का खेल खेल रहे हैं | बिहार राज्य में तो 50 लाख रुपयों में से मात्र 50 हजार रूपये गरीबों को सहायता दी गई और शेष रकम
स्टाफ के खर्चों आदि में लगा दी गयी और
गरीबों को कानूनी सहायता के नाम क्रूर मजाक किया गया | कमोबेश यही हाल अधिकाँश
राज्यों के हैं| सरकार द्वारा पुलिस एवं न्यायाधीशों की कमी का बनावटी बहाना बनाकर
न्याय में देरी का बचाव किया जाता है| जबकि मध्य प्रदेश में दिनांक 26.12.12 को
राजकुमार द्वारा बलात्कार किये जाने पर उसे सत्र न्यायालय द्वारा दो माह से भी कम
अवधि में दिनांक 05.02.13 को दण्डित कर
दिया गया और उच्च न्यायालय ने दिनांक 27.06.13
को अपील पर निर्णय देते हुए मृत्यु दंड की पुष्टि भी कर दी तथा दिनांक 25.02.14 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी अंतिम
आदेश सुना दिया गया है| ठीक इसी प्रकार
दिल्ली गैंग रेप मामले में एक वर्ष के
भीतर कानून में सुधार और निर्णय दोनों हो गए|
बी एम डब्ल्यू काण्ड में परिवार जनों की गवाही के बिना भी एक शक्तिशाली
अपराधी को सजा हो गयी| इन सब तथ्यों से यही प्रतीत होता है कि भारत की संवेदनहीन नौकरशाही
मात्र दबाव पर ही कार्य करती है और न्याय के प्रशासन तत्व का अभाव लगता है| यदि
न्याय प्रशासन विद्यमान है तो फिर अन्य समान मामलों में विलम्ब क्यों होता है|
क्या पुलिस या वकीलों द्वारा की जाने वाली विलम्ब की चेष्टाओं को रोकने का जजों को
कोई अधिकार नहीं है ? न्यायिक सुधारों के
लिए सरकारों द्वारा संसाधनों की कमी बतायी जाती है किन्तु सस्ती लोकप्रियता के लिए
लैपटॉप, मोबाइल, साड़ियाँ बांटने और बागों में नेताओं की मूर्तियाँ व प्रतीक चिन्ह के लिए संसाधनों की कोई कमी नहीं
है| आश्चर्य तब और भी बढ़ जाता है जब कोई नागरिक इस अपव्यय को रोकने के लिए
न्यायालय से आदेश चाहता है तो न्यायालय भी मदद नहीं करते | ऐसा लगता है हमारे
न्यायाधीश, राजनेता ज्यादा और न्यायविद
कम
हैं |