Wednesday 25 April 2012

नौकरशाही से लोकतंत्र शर्मिंदा

लोकतंत्र उस वक्त तक शर्मसार और दुखी होता रहेगा, जब तक अफरसरशाही का भारतीयकरण नहीं हो जाता क्योंकि यह सर्वविदित है कि भारत में नौकरशाही का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन है। इसके कारण यह वर्ग आज भी अपने को आम भारतीयों से अलग, उनके ऊपर, उनका शासक और स्वामी समझता है। अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए यह वर्ग जितना सचेष्ट रहता है, आम जनता के हितों, जरूरतों और अपेक्षाओं के प्रति उतना ही उदासीन रहता है।

देश जब गुलाम था, तब महात्मा गांधी ने विश्वास जताया था कि आजादी के बाद अपना राज यानी स्वराज्य होगा, लेकिन आज जो हालत है, उसे देख कर कहना पड़ता है कि अपना राज है कहां? उस लोक का तंत्र कहां नजर आता है, जिस लोक ने अपने ही तंत्र की स्थापना की? आज चतुर्दिक अफसरशाही का जाल है। लोकतंत्र की छाती पर सवार यह अफसरशाही हमारे सपनों को चूर-चूर कर रही है। तल्खी के साथ बस यही कहा जा सकता है कि हम लोग लोकतंत्र का केवल स्वांग कर रहे हैं। राज तो कर रहे हैं, ब्यूरोक्रेट्स। और, उनके इशारे पर नाच रहे हैं हमारे कमजोर और भयंकर रूप से भ्रष्ट बुद्धिहीन जनप्रतिनिधि। लोकतंत्र में लोक ही सबसे बड़ा होता है। अफसर केवल हाथ बांध कर खड़ा रहे और हमारे निर्देशों को पालन करे। वह नौकर है। उसे अपनी हैसियत पहचाननी है। लेकिन, अपने देश में इस नौकर के साथ हमने ही जब शाह जोड़ दिया है, जब उसे नौकरशाह बना दिया है, तो वह शाही बनेगा ही।

देश की पराधीनता के दौरान इस नौकरशाही का मुख्य मकसद भारत में ब्रिटिश हुकूमत को अक्षुण्ण रखना और उसे मजबूत करना था। जनता के हित, उसकी जरूरतें और उसकी अपेक्षाएं दूर-दूर तक उसके सरोकारों में नहीं थे। नौकरशाही के शीर्ष स्तर पर इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे, जो अधिकांशत: अंग्रेज अफसर होते थे। भारतीय लोग मातहत अधिकारियों और कर्मचारियों के रूप में सरकारी सेवा में भर्ती किए जाते थे, जिन्हें हर हाल में अपने वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के आदेशों का पालन करना होता था। लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार किए गए शिक्षा के मॉडल का उद्देश्य ही अंग्रेजों की हुकूमत को भारत में मजबूत करने और उसे चलाने के लिए ऐसे भारतीय बाबू तैयार करना था, जो खुद अपने देशवासियों का ही शोषण करके ब्रिटेन के हितों का पोषण कर सकें।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के तहत तमाम महत्वपूर्ण बदलाव हुए, लेकिन एक बात जो नहीं बदली, वह थी नौकरशाही की विरासत और उसका चरित्र। कड़े आंतरिक अनुशासन और असंदिग्ध स्वामीभक्ति से युक्त सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का संगठित तंत्र होने के कारण भारत के शीर्ष राजनेताओं ने औपनिवेशिक प्रशासनिक मॉडल को आजादी के बाद भी जारी रखने का निर्णय लिया। इस बार अनुशासन के मानदंड को नौकरशाही का मूल आधार बनाया गया। यही वजह रही कि स्वतंत्र भारत में भले ही भारतीय सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाने लगा, लेकिन अपने चाल, चरित्र और स्वभाव में वह सेवा पहले की भांति ही बनी रही। प्रशासनिक अधिकारियों के इस तंत्र को आज भी ‘स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया’ कहा जाता है। नौकरशाह मतलब तना हुआ एक पुतला। इसमें अधिकारों की अंतहीन हवा जो भरी है। हमारे लोगों ने ही इस पुतले को ताकतवर बना दिया है। वे इतने गुरूर में होते हैं कि मत पूछिए। वे ऐसा करने का साहस केवल इसलिए कर पाते हैं कि उनके पास अधिकार हैं, जिन्हें हमारे ही विकलांग-से लोकतंत्र ने दिया है।

व्यवस्था में बदलाव की किसी भी कोशिश का ये नौकरशाह कड़ा विरोध करते हैं और इसका असर खुद उन पर और उनके कामकाज पर दिखाई देता है। संदेह और अपवादों की चपेट में आए नौकरशाही का पतन हो रहा है। नौकरशाही का जनसामान्य की समस्याओं और उनके निराकरण से मानो वास्ता खत्म हो गया है। आज हर कोई नौकरशाह किसी कार्य को या तो फंसाता दिख रहा है या उसे करने या कराने के लिए कोर्ट का सहारा ढूंढता नजर आ रहा है। कुछ भ्रष्ट राजनीतिज्ञों ने नौकरशाही को ऐसा बना दिया है कि उसकी सामाजिक कल्याण की इच्छा शक्ति और श्रेष्ठ प्रशासन की भावनाएं ही खत्म होती जा रही हैं। उनका ध्यान केवल अपनी नौकरी, शानदार सरकारी सुख-सुविधाओं, विदेश भ्रमण और विलासित वैभव तक केंद्रित रह गया है।

नौकरशाह साफ-साफ कहता है कि उसका किसी से अगर वास्ता है, तो अपने नफे नुकसान से। इस तरह देश की नौकरशाही ने नागरिक प्रशासन को अत्यधिक निराश किया है। देश के खजाने के अरबों रुपए इनकी ढपोरशंखी नीतियों और भ्रष्टाचार जनित रणनीतियों पर खर्च होते हैं। इन्हें देश में श्रेष्ठ नागरिक प्रशासन के लिए चुना गया था, लेकिन ये भ्रष्ट राजनीतिज्ञों से भी बदतर होते जा रहे हैं। इनकी कार्यप्रणाली इतनी बदनाम और ध्वस्त है कि उस पर जनसामान्य भी यकीन करने को तैयार नहीं है। कुछेक निम्न वर्ग की बात छोड़ दी जाए, तो भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में समाज के सबसे संपन्न और प्रभुत्वशाली वर्गों के लोग ही आते रहे, जो अपने संस्कारों से ही स्वयं को प्रभुवर्ग का समझते हैं। वे देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत और आम जनता की समस्याओं के प्रति कतई संवेदनशील नहीं होते। उनके अंदर यह भाव शायद ही कभी आता है कि एक लोकसेवक के रूप में उनका उत्तरदायित्व जनता की समस्याओं को प्रभावी रूप से दूर करने का प्रयास करना है। वे नहीं समझते कि देश के विकास की तमाम नीतियों और कार्यक्रमों को तैयार करने तथा उन्हें कार्यान्वित करने में सबसे अहम भूमिका उन्हीं की है।

अब तक की दस पंचवर्षीय योजनाओं में देश के विकास के नाम पर जनता से एकत्र किए गए राजस्व में से लाखों करोड़ रुपए व्यय किए गए हैं, लेकिन इस धनराशि का अधिकांश नौकरशाह, राजनेता, माफिया और बिचौलिये हड़पते रहे हैं। आम जनता तक उनका पूरा लाभ नहीं पहुंच पाता है और देश का एक बड़ा हिस्सा आज भी विकास की पटरी से बहुत दूर है।

भारत में अब तक हुए प्रशासनिक सुधार के प्रयासों का कोई कारगर नतीजा नहीं निकल पाया है। वास्तव में नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव लाए जाने की जरूरत है। हालांकि, नौकरशाही पर किताब लिख चुके पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम के मुताबिक राजनीतिक नियंत्रण हावी होने के बाद ही नौकरशाही में भ्रष्टाचार आया, अब उनका अपना मत मायने नहीं रखता, सब मंत्रियों और नेताओं के इशारों पर होता है। हमारे राजनीतिज्ञ करना चाहें, तो पांच साल में व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सकता है, लेकिन मौजूदा स्थिति उनके लिए अनुकूल है, इसलिए वो बदलाव नहीं करते।


साभार --मेरी खबर 

Tuesday 3 April 2012

यथार्थता के धरातल पर भारत में सूचना का अधिकार कानून


स्वतंत्र भारत में शासन के कार्यों में पारदर्शिता लाने  के उद्देश्य से चिरप्रतीक्षित सूचना का अधिकार कानून का दिनांक 21.06.05 को अधिनियमन किया गया है| अधिनियम की धारा 4 में यह प्रावधान किया गया है कि लोक प्राधिकारी 120 दिन के भीतर अपने यहाँ रखे जाने वाले रिकार्ड का सूचीपत्र एवं अनुक्रमणिका तैयार करेंगे और कुछ विहित सूचनाओं का स्थानीय भाषा में स्वतः प्रकाशन करेंगे किन्तु अधिकांश लोक प्राधिकारियों ने इस प्रावधान की अनुपालना सात वर्ष व्यतीत होने के बावजूद अभी तक नहीं की है| अधिनियम की धारा 6 में यह प्रावधान किया गया है कि सूचना के लिए लिखित में अथवा इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन किया जा सकता है| आवेदन हेतु सामान्यतया 10 रुपये शुल्क निर्धारित है यद्यपि कुछ मामलों में कुछ लोक प्राधिकारियों ने यह शुल्क मनमाने रूप में यह 500 रुपये तक निर्धारित कर रखा है|
अधिनियम में यद्यपि इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन का प्रावधान है किन्तु सरकारी विभागों की स्थिति यह है कि अधिकांश विभागों/कार्यालयों में ईमेल बॉक्स  खोला ही नहीं जाता है, या ईमेल से प्राप्त डाक पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है और कई बार तो फ़िल्टर तक लगा लिया जाता है ताकि उनके लिए अवांछनीय डाक उनके मेल बॉक्स में आ ही नहीं पाए| फिर इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन करने पर शुल्क भुगतान करने के लिए कोई इलेक्ट्रोनिक माध्यम का विकल्प जनता को उपलब्ध नहीं करवा रखा है जिससे आवेदकों को शुल्क का भुगतान डाक से ही करना पडता है और शुल्क भुगतान से पूर्व आवेदन पर विचार नहीं किया जाता है अतः भारत में  इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन का प्रावधान दिखावटी मात्र रह गया है|
अमेरिका में भी भारतीय कानून के समान ही सूचना स्वातंत्र्य कानून 1966 से बना हुआ है| अमेरिका में सूचना के लिए आवेदन हेतु कोई शुल्क निर्धारित नहीं है वहीँ इलेक्ट्रोनिक माध्यम से भी आवेदन किया जा सकता है| भारत में सरकार ने संभवतया नौकरशाही के दबाव में इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन के प्रावधान को एक ओर निष्क्रिय रखा है वहीँ दूसरी ओर आवेदन हेतु शुल्क भुगतान की शर्त रख दी ताकि कम से कम लोग इस अधिकार का प्रयोग कर सकें| सरकार को यह अंदेशा  है कि यदि निशुल्क आवेदन और इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन का प्रावधान कर दिया गया तो आवेदनों की संख्या बढ़ जायेगी| किन्तु सरकार की यह धारणा निर्मूल है क्योंकि अमेरिका में कुल जनसंख्या का 80%  इन्टरनेट उपयोगकर्ता है वहीँ भारत में मात्र 8% लोग ही इन्टरनेट का उपयोग करते हैं| यदि सरकारी मशीनरी इन्टरनेट से प्राप्त आवेदनों का इन्टरनेट से निपटान सूचित करे तो कार्य में शीघ्रता तो आयेगी ही साथ ही साथ यह नागरिकों के साथ साथ सरकार के लिए भी मितव्ययी रहेगा और अधिनियम का सही प्रवर्तन संभव हो सकेगा| यह भी ध्यान देने योग्य है नागरिक सूचना के लिए मात्र वहीँ आवेदन करते हैं जब उन्हें लोक प्राधिकारी के कार्यों में अस्वच्छता का अंदेशा  हो| अस्वच्छता के अंदेशे के बिना आवेदन के प्रकरण आपवादिक ही होते हैं| अतः सरकार को चाहिए कि वह अधिनियम के अंतर्गत आवेदन शुल्क के प्रावधान को हटा दे| यदि सरकार सभी आवेदनों के लिए शुल्क हटाना उचित नहीं समझती तो भी कम से कम ईमेल से प्राप्त आवेदनों को तो  शुल्क मुक्त कर ही देना चाहिए और साथ में यह प्रावधान करना चाहिए कि ईमेल से प्राप्त आवेदनों का यथा संभव ईमेल से ही जवाब दिया जायेगा| यद्यपि अधिनियम में आवेदक को सूचना प्रेषित करने का माध्यम स्पष्ट नहीं कर रखा है किन्तु सामान्य उपबंध अधिनियम (General Clauses Act) 1897 की धारा 27 के प्रभाव से ये सूचनाएँ पंजीकृत डाक से ही भेजी जानी हैं|  इस व्यवस्था से सरकार को भी यह लाभ होगा कि उसे आवेदक को शुल्क जमा करने की सूचना भेजने, और तत्पश्चात सूचना भेजने पर होने वाले डाक व्यय रुपये 50/= की बचत संभव होगी|

वास्तव में भारत के सन्दर्भ में शासन की कार्यप्रणाली पर नौकरशाही अपनी पकड़ को शिथिल करने, और लालफीताशाही से जनता को मुक्त करने को तैयार नहीं है| सुप्रीम कोर्ट में इफाइलिंग प्रणाली 01.10.2006 को प्रारम्भ की गयी थी किन्तु अभी तक  वहाँ 0.01% मामलों में ही इसका उपयोग हो रहा है और वह भी दूर बैठे नागरिकों द्वारा| पेशेवर वकील अभी भी इफाइलिंग प्रणाली को परेशानी भरा रास्ता समझते हैं, तथा इसके प्रयोग से दूर हैं| ठीक इसी प्रकार हमारे केन्द्रीय सूचना आयोग में इफाईलिंग प्रणाली दिखावटी तौर पर प्रारंभ कर दी गयी किन्तु हार्ड कोपी आने से पूर्व उस पर कोई विचार नहीं किया जाता है| इस प्रकार देश के नौकरशाह विधायिका के कानूनों की धार को भोंथरा करने में संलग्न हैं और हमारी चुनी गयी सरकारें भी वास्तव में जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता की सरकारें नहीं हैं तथा देश में लोकतंत्र पर नौकरशाही आज भी भारी पड़ रही है| नागरिकों को अपने अधिकारों के लिए अपने ही सेवकों के सामने गिडगिडाना पड़ता है और फिर भी वे न्याय से वंचित हैं- विवाद बढ़ते जा रहे हैं| भारत में नियमों और प्रक्रिया में ऐसे गड्ढे बना कर छोड़े जाते हैं, जिनमे लोग लड़खड़ा कर गिरते रहते हैं|
अमेरिका के सूचना कानून में सूचना देने की नियत अवधि 20 दिन है| इसके अतिरिक्त वहाँ पर प्रथम दो घंटे का रिकार्ड निरिक्षण का समय और 100 पृष्ठ तक की सूचनाएँ निशुल्क हैं| भारत में, पूर्व पैराग्राफ के अनुसार,  भी यदि 10 पृष्ठ तक की सूचना निशुल्क दी जाये तो विभाग को सूचना प्रेषण पर डाक व्यय रुपए 25/= की बचत होगी और अनावश्यक  पत्राचार व श्रम लागत से अतिरिक्त मुक्ति मिलेगी| शिक्षा, अनुसंधान और मीडिया के उद्देश्यों के लिए सूचना मांगने पर भी अमेरिका में छूटें उपलब्ध हैं, मात्र वाणिज्यिक उद्देश्य हेतु सूचना मांगने पर ही पूर्ण शुल्क देय है| उक्त के अतिरिक्त भी अमेरिका में किसी अच्छे हेतुक के लिए एक आवेदक शुल्क में छूट के लिए आवेदन कर सकता है| व्यक्ति के जीवन एवं स्वतंत्रता के अतिरिक्त किसी अन्य आधार पर भी वहाँ सूचना प्रदानगी में शीघ्रता के लिए आवेदन किया जा सकता है जबकि भारत में ऐसे प्रावधान का नितान्त अभाव है| अपील अधिकारी के समक्ष अपील दायर  करने की नियत अवधि 10 दिन है वहीँ अपील पर निर्णय की अवधि भी 20 दिन है| किसी स्वीकार्य कारण से अपील अधिकारी समयपूर्व (आवेदन के 20 दिन होने से पहले) अपील को भी स्वीकार कर सकता है| अपील इलेक्ट्रोनिक माध्यम से भी दायर की जा सकती है जबकि भारत के केन्द्रीय सूचना आयोग ने निर्णय ले रखा है कि प्रथम अपील हार्ड कोपी के माध्यम से ही स्वीकार की जायेगी| यद्यपि अधिनियम में आयोग को प्रथम अपील के विषय में नियम बनाने का कोई भी अधिकार नहीं है किन्तु फिर भी स्वयंभू शासक की तरह यह अनुचित नियम जनता पर  थोप रखा है| स्मरण रहे कि प्रक्रिया के सम्बन्ध में स्वयं सुप्रीम कोर्ट को भी नियम बनाने का कानूनन कोई अधिकार नहीं है अपितु वह मात्र राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से ही प्रक्रियागत नियम बना सकता है| 

Sunday 1 April 2012

न्याय से वंचित होने पर क्या करें ?


भारत में उच्च स्तरीय न्यायाधीशों के लिए स्वयं न्यायपालिका ही नियुक्ति का कार्य देखती है और उस पर किसी बाहरी नियंत्रण का नितांत अभाव है|फलत: जनता को अक्सर शिकायत रहती है कि उसे न्याय नहीं मिला और उतरोतर अपीलों का लंबा सफर करने बावजूद आम नागरिक वास्तविक न्याय से वंचित ही रह जाता है| दूसरी ओर सरकारें कहती हैं कि न्यायपालिका स्वतंत्र है अतः वह उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती है| स्वतंत्र होने का अर्थ स्वच्छंद होना नहीं है और लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी गयी सरकारें न्यायपालिका सहित अपने  प्रत्येक अंग के स्वस्थ संचालन के लिए जिम्मेदार हैं | आखिर न्यायाधीश भी लोक सेवक हैं और वे भी अपने कृत्यों के लिए जवाबदेय हैं|

किसी प्रकरण में बहुत सी अपीलें दायर करने के बाद भी पीड़ित पक्ष के दृष्टिकोण से न्याय नहीं मिलता है, उसे प्रक्रिया के गढ्ढों में इस प्रकार डाल दिया जाता है कि पीड़ित व्यक्ति न्याय की आशा ही छोड़ देता है| सम्पति सम्बन्धी विवादों में आपराधिक मुकदमे दर्ज होना इसी की परिणति है| फिर किसी प्रकरण विशेष में यदि न्याय मिल जाये तो यह अपवाद और सौभाग्य ही समझा जा सकता है| महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इतने कानूनी दृष्टान्तों, निर्णयों के बावजूद जनता को संतोषजनक निर्णय नहीं मिल रहे हैं और न्याय से वंचित करने वाले निर्णय दिए जाने की मनोवृति व प्रवृति  पर कोई अंकुश नहीं लगा है| यद्यपि पीड़ित पक्ष के लिए असंतोषप्रद निर्णय के विरुद्ध अपील ही एक मात्र रास्ता है किन्तु इससे अनुचित निर्णय देने वाले न्यायाधीशों के आचरण और कार्यशैली पर कोई प्रभाव नहीं पडता है|

भारत में न्यायालय अवमान अधिनियम के भय से आम व्यक्ति न्यायालय के निर्णयों पर किसी प्रकार की टिपण्णी करने से परहेज करता है| अमेरिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति, व उनके आचरण पर  नियंत्रण के लिए अलग से न्यायिक आयोग/कमेटियां कार्यरत हैं| न्यायालयों के निर्णयों की समीक्षा के लिए वहाँ मंच उपलब्ध है और न्यायिक निर्णयों की समीक्षा के लिए वहाँ एक नियमित पत्रिका निकाली जाती है जिसमें न्यायिक निर्णयों पर जनता के विचार प्रकाशित किये जाते हैं| इसी प्रकार के आयोग इंग्लॅण्ड में भी कार्यरत हैं| इंग्लॅण्ड में न्यायिक समीक्षा आयोग अलग से कार्यरत है जो किसी (विचाराधीन अथवा निर्णित)भी मामले की किसी भी चरण पर समीक्षा कर सकता है और जिस व्यक्ति के साथ अन्याय हुआ हो उसे उचित क्षतिपूर्ति दे सकता है| यह भी उल्लेखनीय है उक्त समीक्षा की व्यवस्था के बावजूद इंग्लॅण्ड की न्यायिक प्रणाली भारतीय न्यायिक निकाय से किसी प्रकार कमजोर प्रतीत नहीं होती है| भारत में तो न्यायपालिका को सर्वोच्च माना जाता है और उसके निर्णयों की किसी अन्य निकाय द्वारा समीक्षा नहीं हो सकती| जनतंत्र में जनता और उसके विचार ही सर्वोपरि हैं व कम्बोडिया के संविधान के अनुसार तो नागरिक ही लोकतंत्र के स्वामी हैं, और न्यायाधीश तो इस लोकतंत्र के सेवक मात्र हैं| 

भारत में भी न्यायालय अवमान अधिनियम की धारा 5 में यह प्रावधान है कि किसी निर्णित मामले के गुणावगुण पर उचित टिप्पणियां करना अवमान नहीं माना जायेगा| इसी प्रकार वर्ष 2006 में धारा 13 ख जोड़कर यह प्रावधान किया गया है कि यदि न्यायालय इस बात से संतुष्ट हो कि सत्यता को बचाव अनुमत करना जन हित में है और ऐसे बचाव की प्रार्थना सद्भाविक है तो न्यायालय सत्यता को किसी अवमान कार्यवाही में बचाव के रूप में अनुमत कर सकता है| अतः न्यायालयों के निर्णयों की सद्भाविक और तथ्यों पर आधारित समालोचना भारत में भी अवमान के दायरे में नहीं आती है|

हमारे पवित्र संविधान के अनुच्छेद 51क (एच )में नागरिकों का यह मूल कर्तव्य बताया गया है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानव वाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे| इसी प्रकार अनुच्छेद 51 क (जे ) में कहा गया है कि नागरिक व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले| उक्त प्रावधान हमें प्रेरित करते हैं कि हम न्यायिक क्षेत्र सहित उतरोतर सुधार की ओर अग्रसर हों ताकि राष्ट्र प्रगति करता रहे| लोकतंत्र में जनता को यह भी अधिकार है कि न्यायपालिका में उपयुक्त सुधारों हेतु अपने विचार निर्भय होकर व्यक्त करे और न्यायपालिका से ऐसे विचारों पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की अपेक्षा है| अब समय आ गया है कि न्यायपलिका की कमियों पर  आम नागरिक को स्वर उठाना होगा| उक्त सम्पूर्ण विवेचन के सन्दर्भ में नागरिकों को चाहिए कि जहां किसी भी न्यायिक या अर्ध न्यायिक अधिकारी  के निर्णय से यह आभास हो कि ऐसा निर्णय वास्तविक न्याय, न्याय के सुस्थापित सिद्धांतों अथवा रिकार्ड पर उपलब्ध सामग्री से विपरीत है और वह पूर्ण न्याय की कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो ऐसे निर्णय के सन्दर्भ में निर्णायक न्यायाधीश को एक सार्वजनिक और खुले पत्र द्वारा नम्रतापूर्वक फीडबैक दे सकते हैं कि उनके निर्णय में पत्र के अनुसार कमियां हैं ताकि वे भविष्य में ध्यान रखें| अच्छा रहेगा यदि ऐसे पत्र की एक प्रति मुख्य न्यायाधीश महोदय को भी आवश्यकीय कार्यवाही हेतु भेज दी जाय| मीडिया को भी इस सन्दर्भ में अपनी स्वतंत्रता और निर्भीकता का परिचय देकर अपनी भूमिका अदा करनी चाहिए|