Wednesday 30 November 2011

स्थानीय क्षेत्राधिकार से बाहर निवास पर जिला न्यायाधीश को छ माह के निलंबन का दंड

मिन्नेसोटा राज्य(अमेरिका) के सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक मानक बोर्ड ने दिनांक 24.08.2010 को एक औपचारिक शिकायत दर्ज करवाई कि हेन्नेपिन काउंटी जिला न्यायालय की न्यायाधीश माननीय पैत्रासिया कर्र करासोव ने मिन्नेसोटा के संविधान और न्यायिक अचार संहिता का उल्लंघन किया है| मिन्नेसोटा के सुप्रीम कोर्ट द्वारा  नियुक्त एक त्रिसदस्यीय पैनल ने सुनवाई में पाया कि न्यायाधीश करासोव दिनांक 1जुलाई , 2009 से 30 सितम्बर, 2009 तक अपने न्यायिक जिले में निवास करने में विफल रही, और उसकी  निवास स्थिति की जांच के लिए गठित बोर्ड को सहयोग करने में, व ईमानदार तथा स्पष्टवादी होने में वह विफल रही| पैनल ने सिफारिश की कि न्यायाधीश करासोव को भर्त्सना और न्यायिक पद से 90 दिन के लिए बिना वेतन निलंबित किया जाये| उल्लंघन किये गए नियम इस प्रकार हैं :
नियम 1.1  एक न्यायाधीश न्यायिक आचार संहिता सहित कानून का पालन करेगा|
नियम 1.2   एक न्यायाधीश हमेशा इस प्रकार कार्य करेगा जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्ठा, और निष्पक्षता में जन विश्वास बढे, और अनौचित्य व अनुचित प्रदर्शन से बचेगा | 
नियम 2.16 एक न्यायाधीश न्यायिक एवं वकालत सम्बंधित अनुशासनिक एजेंसियों के प्रति स्पष्टवादी और ईमानदार रहेगा तथा उन्हें सहयोग देगा|
मिन्नेसोटा के संविधान के अनुच्छेद 4 की धारा 4 के अनुसार जिला न्यायालय का प्रत्येक न्यायाधीश  अपने चयन और पद धारण करने के दौरान उस जिले का निवासी रहेगा|
बोर्ड द्वारा असहयोग के आरोप के सम्बन्ध में औपचारिक शिकायत थी कि न्यायाधीश करासोव ने बोर्ड को अपने क्रेडिट कार्ड के सम्बन्ध में सूचना प्राप्ति के लिए अधिकृति देने में विफल रही|
जनवरी 2011 में एक तीन सदस्यीय पेनल के समक्ष तीन दिन सुनवाई हुई | पेनल ने पाया कि न्यायाधीश करासोव ने जुलाई 2009 से जून 2010 के मध्य एक लिखित पट्टे के अनुसार अपने घर को किराये पर दे दिया|
प्रारम्भ में 29.05.2009 को न्यायिक मानक बोर्ड को एक सदस्य ने रिपोर्ट दी कि न्यायाधीश करासोव हेन्नेपिन काउंटी से बाहर रहती है| इस सदस्य ने बताया  कि इस सूचना का स्रोत एक प्रेक्टीस करने वाला वकील है जिसने नाम प्रकट न करने का आग्रह  किया है| उल्लेखनीय है कि भारत में गुमनाम या बेनामी शिकायतों पर कोई कार्यवाही ही नहीं की जाती है जबकि अमेरिका में गुमनाम शिकायत के आधार पर कार्यवाही कर एक जिला न्यायाधीश को छोटे से दुराचार के लिए भी गंभीर दंड से दण्डित कर दिया गया है|
पेनल ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि न्यायाधीश करासोव ने यह पूछने पर कि क्या वह अपने न्यायिक जिले से  कभी बाहर रही हैं तो उसने असंगत जवाब दिया कि वह कभी भी बाहर नहीं रही लेकिन बाद में 3 अगस्त 2010 को अपने साक्षात्कार में उसने कहा कि वह 01.07.2009 से सितम्बर 2009 तक अस्थायी तौर पर बाहर  रही |
न्यायधीश करासोव ने पैनल के निष्कर्षों के विरुद्ध यह कहते हुए अपील की कि बोर्ड स्पष्ट और संतोषजनक साक्ष्य से यह साबित करने में असफल रहा है कि उसने न्यायिक दुराचरण किया, और उसे कार्यवाही में अनियमितताओं व चूकों द्वारा कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया से मना किया गया है| बोर्ड और न्यायाधीश करासोव दोनों ने पैनल द्वारा सिफारिश किये गए दण्डों के विरुद्ध अपील की |
न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि बोर्ड ने स्पष्ट और मानने योग्य साक्ष्य से साबित कर दिया है कि न्यायाधीश करासोव अपनी सेवाओं के दौरान अपने क्षेत्राधिकार वाले जिले में रहने में असफल रही और उसकी रिहायस के सम्बन्ध में बोर्ड द्वारा जांच में वह सहयोग देने और स्पष्टवादी व ईमानदार रहने में असफल रही और उसने आचरण के नियम 1.1, 1.2, और  2.16 तथा संविधान के अनुच्छेद 4 की धारा 4 का उल्लंघन किया है| न्यायालय ने आगे यह पाया कि न्यायाधीश करासोव का उचित प्रक्रिया का दावा गुणहीन है| अंत में, न्यायालय ने कहा कि हमारे विचार से छ माह के लिए बिना वेतन निलंबन व भर्त्सना इसके लिए उपयुक्त दंड है और तदनुसार दण्डित किया गया|

Tuesday 29 November 2011

सांसदों एवं विधायकों के लिए आदर्श आचार संहिता

भारत में नरसिम्हाराव सरकार को बचाने के लिए सांसदों की खरीद फरोख्त का मामला, प्रश्न के लिए धन और अभी नोट के बदले वोट मामले में संसद भवन में नोटों की गड्डियां लहराने के प्रकरण हमारे लोकतंत्र की गाथा गाते  हैं| हम चाहे मजबूत लोकतंत्र का कितना ही दम भरें किन्तु ये दागी मामले हमारा पीछा ही नहीं छोडते| देश में कानूनी व्यवस्था भी ऐसी है कि सांसदों की खरीद-फरोख्त के मामले में भी संविधान के अनुच्छेद १०५(२) का सहारा लेकर माननीय न्यायालय ने दागी सांसदों को तकनीकि आधार पर दोषमुक्त कर दिया| व्यवहार में देखा जाता है कि जनप्रतिनिधि अपनी शक्तियों के मद में चाहे जो करें स्थानीय पुलिस और प्रशासन तो इनके नत मस्तक हैं  ही, शेष राज्यतंत्र भी इनका बाल भी बांका नहीं कर सकता| हाँ,  लोक प्रदर्शन के लिए  इन्हें कुछ समय के लिए जेल में रहना पड़ सकता है या निचले न्यायालय द्वारा, अपवाद स्वरुप, सजा सुनाई जा सकती है किन्तु वर्तमान न्याय व्यवस्था में अंततोगत्वा इन्हें  सजा भुगतनी पड़ेगी यह कहना कठिन है| माननीय जन प्रतिनिधियों के लिए कोई आचार संहिता  भारत देश में विद्यमान नहीं है| इंग्लैंड में सांसदों के लिए विद्यमान आचार संहिता के आधार पर भारत में भी निम्नानुसार आचार संहिता का निर्माण किया जा सकता है और उसे कानूनी रूप दिया जा सकता है|
1.   सदस्यों से अपेक्षा है कि वे इस सदन के प्रस्तावों व इन नियमों का पालन करेंगे|
2.   सदस्य अपने आचारण में जन हित को महत्त्व देगा, व्यक्तिगत व जन हित के मध्य टकराव को टालेगा और दोनों में कोई टकराव होने पर तुरंत इसे जनहित के पक्ष में समाधान करेगा|
3.   कोई भी सदस्य सदन की कार्यवाही में किसी के लिए भाड़े के वकील की भांति कार्य नहीं करेगा|
4.   सदस्य द्वारा किसी बिल के पक्ष या विपक्ष में सदन या किसी समिति के सदस्य के रूप में अपने आचारण को प्रभावित करने के लिए रिश्वत; शुल्क, क्षतिपूर्ति या पारितोषिक सहित,  स्वीकार करना संसदीय  कानून के विपरीत है |
5.   किसी भी संगठन से या उसकी ओर से जिसके साथ सदस्य  के आर्थिक सम्बन्ध हों, चाहे ऐसी गतिविधियां सार्वजनिक रिकार्ड पर न हों, उसे मंत्रियों, सदस्यों और अधिकारियों के साथ इस प्रसंग में  पारदर्शी, खुले और स्वतंत्र रूप से रहना चाहिए|
6.   सदस्यों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जो सूचना वे संसदीय कर्तव्यों के निर्वहन में गोपनीय रूप से प्राप्त करते हैं उन्हें मात्र उन्हीं कर्तव्यों के निर्वहन में ही प्रयोग करना चाहिए, और  ऐसी सूचना को कभी भी वितीय लाभ के लिए प्रयुक्त नहीं करना चाहिए|
7.   सदस्य को जनता की जेब से दिए जाने वाले उनके खर्चों, भत्तों, सुविधाओं और सेवाएँ हमेशा सख्त रूप से नियमानुसार हो, और वे सदन द्वारा ऐसे खर्चों, भत्तों, सुविधाओं और सेवाओं  के सम्बन्ध में निर्धारित सीमाओं का पालन करें|
8.   सदस्य हमेशा इस प्रकार का आचरण करेंगे कि  जिससे संसद की निष्ठा में जनता की आस्था और विश्वास बना रहे और मजबूत हो, और कभी भी कोई ऐसा कार्य नहीं करें जिससे सदन या उसके सदस्यों की प्रतिष्ठा को कोई आंच आये|

Sunday 27 November 2011

नियुक्ति व सेवा नियम

सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद बैंक बनाम इसके कर्मचारी की अपील सं0 1478/4 के निर्णय में स्पष्ट किया है कि अधिनियम के प्रावधान अन्य दूसरे अधिनियमों या विलेख या अनुबन्ध जहाँ तक कि ग्रेच्यूटी भुगतान का सम्बन्ध है पर अभिभावी है। अधिनियम के अन्तर्गत ग्रेच्यूटी प्राप्ति का अधिकार जो कि अधिनियम के अन्तर्गत है किसी भी विलेख या अनुबन्ध द्वारा विफल नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने इण्डियन ड्रग्स एण्ड फार्मास्युटिकल लिमिटेड बनाम इसके कर्मकार के निर्णय दिनांक 16.11.06 में कहा है कि यदि नियुक्ति अपने आप में नियमों के उल्लंघन में है या यह संविधान के प्रावधानों के उल्लंघन में है तो अवैधता को  नियमित नहीं किया जा सकता। पुष्टि या नियमितिकरण उस कार्य का हो सकता है जो कि प्राधिकारी के शक्ति तथा क्षेत्राधिकार में हो लेकिन कुछ प्रक्रियागत गैर अनुपालना हुई है जो कि नियुक्ति के मूल तक नहीं जाती। नियमितिकरण भर्ती का तरीका नहीं कहा जा सकता। ऐसे प्रस्ताव को स्वीकार करना नियमों की अवज्ञा में नियुक्ति का नया शीर्ष खोलना होगा या इसका प्रभाव यह होगा कि शरारत को नियम का प्रभाव दिया जाये।

Saturday 26 November 2011

पुलिस अधिकारियों के लिए आदर्श आचार संहिता

भारत में पुलिस दुराचरण के मामले प्रायः अखबारों की सुर्ख़ियों में बने रहते हैं| फर्जी मुठभेड़ के बहुत से मामले प्रकाश में आने के बाद भी अभी तक विधि आयोग एवं राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों पर कोई सम्यक कार्यवाही नहीं हुई है| अंग्रेजी शासन काल में सरकार विरोधी स्वरों को दबानेकुचलने लिए पुलिस का बर्बर  प्रयोग किया जाता था| आज स्वतंत्रता के 64 वर्ष बाद भी पुलिस की भूमिका और छवि में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता है| पुलिस सत्तासीन और शक्ति संपन्न लोगों के मोहरे की तरह कार्य करती देखी जा सकती | कुछ वर्ष पूर्व बम्बई में जब फिल्म अभिनेता सलमान खान ने सड़क पर सो रहे कुछ लोगों को कुचल दिया था तो पुलिस ने मात्र लापरवाहीपूर्वक वाहन चलाने का अभियोग लगाया था| जब यह मामला उच्च न्यायालय पहुंचा तो उसी पुलिस ने सलमान खान पर 10 से भी अधिक अभियोग लगा दिए थे| भारत में पुलिस के आचरण को नियंत्रित करने के लिए अभी तक कोई प्रभावी प्रावधान नहीं हैं| कुछ राज्यों ने औपचारिक तौर पर नए पुलिस अधिनियम में नागरिक समितियां बनाने का प्रावधान अवश्य किया है किन्तु राजस्थान जैसे राज्य में 4 वर्षों के उपरांत भी  अभी तक इन नागरिक समितियों का गठन नहीं हुआ है|

विश्व में इंग्लैंड की पुलिस की साफ़ छवि है| इंग्लैंड में पुलिस के लिए आचार संहिता भी बनी हुई है| इसी आचार संहिता के  आधार पर भारतीय पुलिस के लिए एक आदर्श आचार संहिता  निम्नानुसार बनायीं जा सकती है :- 
पुलिस अधिकारी को किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध अवैध रूप से बिना भेदभाव अपनाये समानता बरतनी चाहिए, दूसरों को सम्मान देना चाहिए और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे पुलिस अधिकारी या जिसकी ओर से वह कार्य कर रहा है उसकी निष्पक्षता से समझौता होता हो या होना संभावित हो|
पुलिस अधिकारी को किसी द्वारा उसे विश्वास में दी गयी या प्राप्त सूचना, जिसे वह गोपनीय प्रकृति की समझता है, को सक्षम व्यक्ति की अनुमति के बिना या कानून द्वारा ऐसे अपेक्षित नहीं होने पर, प्रकट नहीं करना चाहिए| जो कोई अन्य व्यक्ति ऐसी सूचना को प्राप्त करने के लिए कानून द्वारा अधिकृत है, को प्राप्त करने से वंचित नहीं  करना चाहिए|
पुलिस अधिकारी को अपनी शासकीय हैसियत में, या अन्य परिस्थितियों में अपने पद को स्वयं या अन्यों के लिए किसी लाभ अर्जन या हानि पहुँचाने के लिए प्रयोग नहीं करना चाहिए| जब पुलिस के संसाधनों का अन्यों द्वारा उपयोग करना अनुमत किया जाना हो या उपयोग किया जाना हो तो पुलिस की आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जायेगा व यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऐसे संसाधनों का राजनैतिक उद्देश्यों के लिए प्रयोग न होता हो यदि ऐसा प्रयोग तर्कसंगत रूप में पुलिस के शासकीय कर्तव्यों के निर्वहन में या उन्हें सुकर बनाने या उनके अनुरूप नहीं हो| 
पुलिस अधिकारी को यदि किसी पुलिस अधिकारी द्वारा इस संहिता के उल्लंघन का तर्कसंगत विश्वास है तो उसे जैसे ही उसके लिए व्यावहारिक रूप से संभव हो इस, आशय के लिखित आरोप सक्षम अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करने चाहिए| एक पुलिस अधिकारी समस्त अनुशासनिक एजेंसियों के प्रति स्पष्टवादी और ईमानदार रहेगा तथा उन्हें सहयोग देगा| एक पुलिस अधिकारी को किसी मामले में व्यक्तिगत हित होने पर किसी बैठक में जिसमें वह मामला विचारण किया जाना हो, उसे ऐसा हित व उसकी प्रकृति प्रारंभ में ही, या जैसे ही यह हित दृष्टिगोचर हो  प्रकट करना चाहिए| रुपये 500 से अधिक मूल्य के प्राप्त किसी भी उपहार या आतिथ्य को प्राप्ति के 15 दिन के भीतर सक्षम अधिकारी को विवरण सहित लिखित सूचना देनी चाहिए|


Friday 25 November 2011

विनियमों लाभदायक प्रावधान का उदार अर्थ लिया जाना चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय जीवन बीमा निगम बनाम भा.जी.बी.नि. के सेवानिवृत अधिकारी की अपील संख्या 1289/7 के निर्णय में कहा है कि यह सत्य हो सकता है कि विनियम-उदाहरण के लिए 16,17,19,23 आदि योग्य सेवा का प्रावधान करते है। विनियम 18 उक्त प्रावधानों से नियंत्रित नहीं होता है। यह किसी प्रतिबन्धात्मक व्याख्या को सहन नहीं करता है। यह मात्र नियम का प्रावधान करता है। जैसे कि पूर्व में ध्यान दिया गया एक कर्मचारी जिसने निर्धारित सेवा अवधि पूर्ण कर ली हो वह पेंशन का पात्र है। सेवा की अवधि की गणना कैसे की जायेगी यह कानून द्वारा शासित है। यह एक बात कहता है कि यह न्यूनतम पन्द्रह वर्ष की सेवा पूर्ण होने का प्रावधान करता है। किन्तु यदि एक प्रावधान उस समय की गणना करने का प्रावधान करता तो उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। विनियमों के वे प्रावधान जो कि लाभदायक है हमारे विचार में उनका उदार अर्थ लिया जाना चाहिए।

Thursday 24 November 2011

अस्थायी गबन भी अमानत में खयानत है

सुप्रीम कोर्ट ने आर.वेंकटाकृषणन  बनाम केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के निर्णय दिनांक 07.08.09 में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने बृजलाल प्रसाद सिन्हा बनाम बिहार राज्य (एआईआर 1998 सुको 2443) में कहा है कि इसे सावधानी के नियम के तौर पर कहा जाये कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोष सिद्धि करने से पहले न्यायालय को सन्तुष्ट कर लेना चाहिए कि वे परिस्थितियां जिनसे दोषी होने का अभिप्राय लगाया गया है वे अखण्डनीय साक्ष्य होने चाहिए। चूँकि किसी को अन्ततः नुकसान नहीं हुआ। इसलिए भा.द.सं. की धारा 409 का अपराध नहीं बनता। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। एक बैंक या वितीय संस्था संभव है अन्ततः हानि नहीं उठाये। किन्तु यदि दूसरे व्यक्ति द्वारा अवैध उद्देश्य के लिए अवैध रूप से धन काम में लेने दिया जाये तो धारा 405 के घटक आकर्षित होते हैं। एक मामला जिसमें अस्थायी गबन किया गया हो भा.द.सं. की धारा 405 के घटक आकर्षित होते हैं। अभियोजन केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के द्वारा प्राप्त सूचना के आधार पर प्रारम्भ हुआ था। कानून यह नहीं है कि दोषसिद्धि का निर्णय देने के लिए हानि उठाना आवश्यक हो। अब यह सुस्थापित है कि आपराधिक कानून को कोई भी गतिमान कर सकता है। कार्य कुछ भी हो। लोकहित के लिए आशयित होना चाहिए। दूसरी ओर उसके द्वारा हुई सार्वजनिक हानि और पीड़ा अमापनीय है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि सफेद कालर वाले अपराध समूचे समाज पर प्रभाव डालते हैं। यद्यपि उनसे तुरन्त कोई आहत नहीं होता। केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो मात्र दिल्ली विशेष  पुलिस अधिनियम में समाहित सांविधित शक्तियों के प्रयोग में ऐसा नहीं कर सकता। अपितु यह जानकीरमण समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के संदर्भ में भी प्रसंज्ञान लेने का अधिकारी है। अन्तरण में संलिप्त सार्वजनिक धन सरकारी क्षेत्र के बैंको का है।

Wednesday 23 November 2011

न्यायाधीशों के आचारण की लक्ष्मणरेखा

अमेरिकी न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता

सिद्धांत :१ न्यायाधीश को न्यायपालिका की निष्ठा व स्वतंत्रता बनाये रखनी चाहिए: हमारे समाज में न्याय के लिए स्वतंत्र व सम्माननीय न्यायपालिका अपरिहार्य है| एक न्यायाधीश को व्यक्तिगत रूप से आचरण के उच्च मानक पालन करने चाहिए ताकि न्यायपालिका की निष्ठा और स्वतंत्रता संरक्षित हो सके| इस संहिता के प्रावधानों का अभिप्राय व लागू किया जाना इन उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए  समझा जाना चाहिए|
टिपण्णी: निर्णयों एवं व्यवस्थाओं के प्रति सम्मान पर ही न्यायाधीशों की स्वत्नत्रता और निष्ठा पर  जनविश्वास आधारित है| न्यायाधीशों की स्वत्नत्रता और निष्ठा, बदले में, उनके भय या पक्षपात रहित कार्य करने पर निर्भर करती है| यद्यपि न्यायाधीशों को स्वतंत्र होना चाहिए, किन्तु उन्हें कानून और इस संहिता का पालन करना चाहिए| इस दायित्व की अनुपालना न्यायपालिका की निष्पक्षता में जन विश्वास बनाये रखने में सहायता करती है| इसके विपरीत, इस संहिता का उल्लंघन न्यायपालिका में जनविश्वास को घटाती है और कानून के अधीन शासन के निकाय को क्षति पहुंचाती है|


सिद्धांत :२ एक न्यायाधीश को सभी गतिविधियों में अनौचित्य व अनुचित प्रदर्शन टालना चाहिए: एक  न्यायाधीश को कानून का सम्मान और अनुपालन करना चाहिए और हमेशा इस प्रकार कार्य करना चाहिए जिससे न्यायपालिका की निष्पक्षता और निष्ठा में जनविश्वास प्रोन्नत होता हो| एक न्यायाधीश को पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, वित्तीय, या अन्य संबंधों को न्यायिक आचरण या निर्णय को प्रभावित करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए| एक न्यायाधीश को न तो अपनी पदीय प्रतिष्ठा को न्यायाधीश या अन्य के हितार्थ काम में लेने देना चाहिए और न ही ऐसा संदेश  देना या अन्यों को प्रभावित करने देना अनुमत करना चाहिए कि वे न्यायाधीश को प्रभावित करने की विशेष स्थिति में हैं| एक न्यायाधीश को ऐसे संगठन की सदस्यता नहीं रखनी चाहिए जो जाति, लिंग, धर्म, या मूल राष्ट्र के आधार पर भेदभाव करता हो|

टिपण्णी: एक अनौचित्य तब होता है जब तर्कसंगत मानस तर्कसंगत जांच से प्रकट समस्त सुसंगत परिस्थितियों के ज्ञान से, निष्कर्ष निकलेगा कि न्यायधीश की ईमानदारी, निष्ठा, निष्पक्षता, मिजाज़, या न्यायाधीश के रूप में सेवा करते हुए उपयुक्तता को क्षीण करता हो| न्यायपालिका में जनविश्वास न्यायाधीश द्वारा गैरजिम्मेदार या अनुचित आचरण से क्षीण होता है| एक न्यायाधीश को समस्त अनौचित्य और अनुचित प्रदर्शन को टालना चाहिए| यह निषेध पेशेवर व व्यक्तिगत आचारण दोनों पर लागू होता है| एक न्यायाधीश से अपेक्षा है कि वह लगातार जन संवीक्षा के अध्यधीन हो और जो प्रतिबन्ध एक सामान्य नागरिक द्वारा भारी समझे जायं, उन्हें वह स्वेच्छापूर्वक और मुक्त रूप से स्वीकार करे| चूँकि समस्त निषिद्ध कार्यों को यहाँ सूचीबद्ध करना व्यावहारिक नहीं है , सामान्य शर्त के रूप  में निषेध उस सीमा तक न्यायाधीशों द्वारा आचारण हेतु आवश्यक हैं जो कि  हानिकारक है यद्यपि वे इस संहिता में विशेष रूप से उल्लिखित नहीं है| इस मानक के अंतर्गत वास्तविक अनौचित्य  में कानून, न्यायालयी  नियम , या इस संहिता के अन्य विशिष्ट नियम का उल्लंघन समाहित है|

एक न्यायाधीश को न्यायिक पद को न्यायाधीश या अन्यों के व्यक्तिगत हित साधने में काम में लेने से दूर रहना चाहिए| उदाहरणार्थ, एक न्यायाधीश को न्यायिक स्थिति या पद, मित्र या न्यायाधीश के पारिवारिक सदस्य की संलिप्सा वाले मामले में लाभ प्राप्त करने के लिए प्रयोग नहीं करना चाहिए| एक न्यायाधीश को पदीय प्रतिष्ठा के संभावित दुरुपयोग के प्रति संवेदनशील होना चाहिए|
सिद्धांत:३: एक न्यायाधीश को अपने पदीय कर्तव्य उचित, निष्पक्ष और बुद्धिमतापूर्वक निभाने चाहिए:
न्यायिक पद के कर्तव्य समस्त गतिविधियों से सर्वोपरि हैं| कानून द्वारा निर्धारित कर्तव्यों के निर्वहन में एक न्यायधीश को निम्नांकित  मानकों की अनुपालना करनी चाहिए:
. निर्णयात्मक दायित्व
एक न्यायाधीश को कानून के प्रति विश्वासपात्र होना चाहिए, और व्यावसायिक सक्षमता बनाये रखनी चाहिए और हित के अंधे समर्थन, जन कोलाहल या आलोचना के भय के आगे झुकना नहीं चाहिए| एक न्यायाधीश को, यदि निर्योग्य न हो तो, सौंपे गए मामले सुनने और विनिश्चित करने चाहिए और सभी न्यायिक मामलों में व्यवस्था व शिष्टाचार बनाये रखना चाहिए|
एक न्यायाधीश को विवाद्यकों, गवाहों, वकीलों, और अन्यों जिनसे न्यायाधीश को शासकीय हैसियत में व्यवहार करना पडता है के प्रति धैर्यशाली, गरिमामयी, सम्माननीय, और शालीन होना चाहिए| एक न्यायाधीश को ऐसे ही व्यवहार की स्वयं के, वकीलों सहित,  नियंत्रणाधीन लोगों से प्रतिकूल प्रक्रिया की भूमिका में सुसंगत सीमा तक अपेक्षा करनी चाहिए| एक न्यायाधीश को प्रत्येक व्यक्ति से जिसका कानूनी प्रक्रिया में हित हो को अवसर देना चाहिए, और उस व्यक्ति के वकील को कानून के अनुसार पूर्ण सुनवाई का अवसर देना चाहिए| एक न्यायाधीश को पक्षकारों या उनके प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति में, सिवाय अपवाद के, संचार पर विचार नहीं करना चाहिए| यदि एक न्यायाधीश को कोई एक तरफा अनधिकृत संचार (सन्देश) मिलता है जिसका मामले पर प्रभाव पडता हो तो  न्यायधीश को पक्षकार को यह तुरंत ही सूचित करना चाहिए और पक्षकार को, यदि निवेदन करे तो, उसका जवाब देने का अवसर देना चाहिए|
प्रशासकीय दायित्व: एक न्यायाधीश को प्रशासकीय दायित्वों का उन्मोचन बुद्धिमतापूर्वक करना चाहिए, न्यायिक प्रशासन में पेशेवर सक्षमता बनाये रखनी चाहिए, और अन्य न्यायाधीशों व न्यायालय कार्मिकों द्वारा प्रशासकीय दायित्वों का निष्पादन सुकर बनाना चाहिए| एक न्यायाधीश को न्यायालय कार्मिकों को न्यायाधीश की ओर से या न्यायाधीश के प्रतिनिधि के तौर पर आचरण करने के लिए निर्देश नहीं देने चाहिए जब यदि वह न्यायाधीश द्वारा संपन्न किया जाय तो वह आचरण इस संहिता का उल्लंघन करता हो| अन्य न्यायाधीशों पर पर्यवेक्षणीय अधिकार रखते हुए एक न्यायाधीश को तर्कसंगत उपाय करने चाहिए कि वे अपने कर्तव्यों का निष्पादन समय पर  और दक्षतापूर्वक करते हैं| एक न्यायाधीश को, विश्वसनीय साक्ष्य से ज्ञात होने पर कि किसी  न्यायाधीश ने इस संहिता का उल्लंघन किया है या एक वकील ने लागू पेशेवर नियमों  का उल्लंघन किया है, उसे उचित कार्यवाही करनी चाहिए|
मामलों के त्वरित, दक्षतापूर्वक, और उचित  निपटान में न्यायाधीश को पक्षकारों के सुने जाने के अधिकारों को महत्त्व प्रदर्शित करना चाहिए और मुद्दों को अनावश्यक खर्चे या विलम्ब के बिना सुलझाना चाहिए| न्यायाधीश को मामलों में चक्कर लगवाने की परिपाटी, परिहार्य विलम्ब और अनावश्यक खर्चों को  घटाने या समाप्त  करने के लिए अनुश्रवण और पर्यवेक्षण करना चाहिए| न्यायालय के कार्य के त्वरित निपटान के लिए न्यायाधीश का न्यायिक कर्तव्यों के लिए पर्याप्त समय देने, न्यायालय में उपस्थित होने में समयनिष्ठ और प्रस्तुत मामलों के विनिश्चय में फुर्ती, और यह सुनिश्चित करने के लिए तर्कसंगत उपाय करने के लिए  की अपेक्षा रखता है कि न्यायालय कार्मिक, विवाद्यक, और उनके वकील इस ओर न्यायाधीश से सहयोग करें|
सिद्धांत:४: न्यायाधीश न्यायिकेतर गतिविधियों में संलग्न हो सकता है जो उसके न्यायिक पद के दायित्वों से सुसंगत हों:  एक न्यायाधीश, विधि से सम्बंधित और नागरिक बातों, पुण्यार्थ, शैक्षिक, धार्मिक, सामाजिक, वितीय, विश्वसाश्रित, और सरकारी सहित न्यायिकेतर गतिविधियों में संलग्न हो सकता है, और कानून से सम्बंधित व कानूनी से भिन्न विषयों पर बोल, लिख और अध्यापन कर सकता है| किन्तु एक न्यायाधीश को ऐसी न्यायिकेतर गतिविधियों में भाग नहीं लेना चाहिए जिनसे न्यायाधीश के पद की गरिमा में गिरावट आती हो, न्यायाधीश के शासकीय कर्तव्यों के निष्पादन में हस्तक्षेप होता हो, न्यायाधीश की निष्पक्षता पर प्रतिकूलता प्रकट होती हो, बारबार निर्योग्यता बनती हो, या दी गयी सीमाओं का उल्लन्घन होता हो|
सिद्धांत:५: न्यायाधीश को राजनीति नहीं करनी चाहिए :
न्यायाधीश  किसी भी राजनैतिक संगठन में कोई पद धारण अथवा नेता की तरह कार्य नहीं करेगा,या  किसी राजनैतिक पार्टी या उम्मीदवार के लिए भाषण नहीं देगा, या किसी लोक पद के लिए सार्वजानिक रूप से विरोध या पक्षपोषण नहीं करेगा| यदि एक न्यायाधीश किसी प्राथमिक या आम चुनाव में किसी पद के लिए उम्मीदवार बन जाता है तो उसे अपने पद से त्याग पत्र दे देना चाहिए |
सेवानिवृत न्यायाधीश : सेवानिवृत या जिसे न्यायिक सेवार्थ वापिस बुलाया गया हो को इस संहिता के समस्त प्रावधानों की अनुपालना करनी चाहिए किन्तु एक न्यायाधीश को न्यायिकेतर  नियुक्ति के दौरान न्यायिक सेवा से दूर रहना चाहिए|
भारत में तो सम्पूर्ण न्यायिक क्षेत्र आज इतना अपदूषित प्रतीत होता है कि उसमें चरित्रवान कर्मचारी /न्यायाधीश का दम घुटने लगेगा और वह इस अपदूषित वातावरण के कुचक्र से समझौता करके ही इस निकाय में अपना स्थान सुरक्षित रख सकता है अन्यथा उसे कदम कदम पर संघर्ष का सामना करना पड़ेगा| अभिप्रायः यह है कि यदि भारत में कोई न्यायिक कर्मचारी/न्यायाधीश  स्वयं ईमानदार है तो भी उस अकेले के लिए अन्य (कनिष्ठ या वरिष्ठ) साथियों की भ्रष्टता को सहन/नजरअंदाज करना /प्रश्रय देना एक विवशता सी  है|

Tuesday 22 November 2011

क्या भारत में न्यायिक कार्मिकों के लिए आचरण की कोई सीमा या संहिता न हो ?

अमेरिकी न्यायिक कर्मचारियों के लिए आचार संहिता
अमेरिका में न्यायिक कार्मिकों के लिए निम्नानुसार आचार संहिता लागू है जबकि भारत में ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है| न्यायिक सुधार की दिशा में प्रथम कदम उठाने के लिए इस संहिता को आदर्श संहिता का दर्जा देकर इसे कानूनी रूप दिया जा सकता है| मेरा यह दृढ विश्वास है कि इस संहिता को लागू करने से, कम से कम, न्यायालयों में मंत्रालयिक स्तर पर भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता पर तो प्रभावी नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है|
सिद्धांत :१ न्यायिक कर्मचारियों को न्यायपालिका एवं न्यायिक कर्मचारी के पद की निष्ठा व स्वतंत्रता बनाये रखनी चाहिए :हमारे समाज में न्याय के लिए स्वतंत्र व सम्माननीय न्यायपालिका अपरिहार्य है| एक न्यायिक कर्मचारी को व्यक्तिगत रूप से आचरण के उच्च मानक पालन करने चाहिए ताकि न्यायपालिका की निष्ठा और स्वतंत्रता संरक्षित हो सके और न्यायिक कर्मचारियों का पद जनता की सेवा को समर्पण प्रदर्शित करे| न्यायिक कर्मचारियों को ऐसे कार्मिक मानदंडों की अनुपालना करनी चाहिए जो उनके निर्देशन व नियंत्रण हेतु हों| इस संहिता के प्रावधानों का अभिप्राय व लागू किया जाना इन उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए  समझा जाना चाहिए| इस संहिता में समाहित मानकों का नियुक्ति अधिकारी, न्यायालय के आदेश या कानून द्वारा अपेक्षित अन्य अधिक कड़े मानकों पर प्रभाव नहीं पड़ेगा|
सिद्धांत :२ एक न्यायिक कर्मचारी को सभी गतिविधियों में अनौचित्य व अनुचित प्रदर्शन टालना चाहिए  : एक न्यायिक कर्मचारी को किसी भी  ऐसी गतिविधि में संलिप्त नहीं होना चाहिए जो न्यायिक कर्मचारी के अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन हेतु आचरण पर प्रश्न चिन्ह लगाते हों| एक न्यायिक कर्मचारी को अपने परिवार के सदस्यों, सामाजिक, या अन्य रिश्तों से शासकीय आचरण या निर्णय प्रभावित नहीं होने देने चाहिए| एक न्यायिक कर्मचारी को अपनी पदीय प्रतिष्ठा को व्यक्तिगत हित के लिए प्रयोग नहीं करने देना चाहिए या अन्यों के हित के लिए प्रयोग करते दिखाई नहीं देनी  चाहिए| एक न्यायिक कर्मचारी को अपने सार्वजनिक पद को निजी लाभ के लिए प्रयोग नहीं करना चाहिए|
सिद्धांत:३:एक न्यायिक कर्मचारी को अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में उपयुक्त मानकों की अनुपालना करनी चाहिए  :
एक न्यायिक कर्मचारी को कानून और इन सिद्धांतों का सम्मान व अनुपालना करनी  चाहिए|यदि  एक न्यायिक कर्मचारी को यदि इन सिद्धांतों का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित भी किया जाय तो उसे उपयुक्त पर्यवेक्षी अधिकारी को  रिपोर्ट करनी चाहिए|
एक न्यायिक कर्मचारी को पेशेवर मानकों के प्रति निष्ठावान होना चाहिए और न्यायिक कर्मचारी के पेशे में सक्षमता रखनी चाहिए|
एक न्यायिक कर्मचारी को धैर्यशाली, गरिमामयी, आदरणीय, और उन सभी लोगों के प्रति जिनसे उसका शासकीय हैसियत में, जन सामान्य सहित, वास्ता पडता हो के प्रति विनम्र होना चाहिए और  न्यायिक कर्मचारी के लिए निर्देश एवं नियंत्रण के अध्यधीन कार्मिक का ऐसा ही आचरण होना चाहिए| एक न्यायिक कर्मचारी को अपने पदीय कर्तव्य का निष्पादन बुद्धिमतापूर्वक शीघ्रता, दक्षता, समानता, उचित और पेशेवर ढंग से करना चाहिए| एक न्यायिक कर्मचारी को मामलों की सुपुर्दगी  को कभी भी प्रभावित नहीं करना चाहिए, या प्रभावित करने का कभी भी प्रयास नहीं करना चाहिए, या न्यायालय के किसी भी मंत्रालयिक या विवेकाधिकारी कृत्य को इस प्रकार संपन्न नहीं करना चाहिए कि जिससे किसी वकील या विवाद्यक का अनुचित पक्षपोषण होता हो, न ही एक न्यायिक कर्मचारी को यह समझना चाहिए कि वह ऐसा करने की स्थिति में है| एक न्यायिक कर्मचारी को विधि द्वारा निषिद्ध भाईभतीजावाद में संलग्न नहीं होना चाहिए|
हित टकराव :एक न्यायिक कर्मचारी को शासकीय कर्तव्यों के निर्वहन में हितों के टकराव को टालना चाहिए| एक हित टकराव का उद्भव तब होता है जब न्यायिक कर्मचारी जनता है कि वह (या उसका जीवन साथी, न्यायिक कर्मचारी के घर में रह रहा अवयस्क बच्चा, या न्यायिक कर्मचारी के अन्य नजदीकी रिश्तेदार) आर्थिक या व्यक्तिगत रूप से किसी मामले से इस प्रकार प्रभावित हो सकता है कि एक सुसंगत तथ्यों से परिचित तर्कसंगत व्यक्ति न्यायिक कर्मचारी द्वारा शासकीय कृत्य के निष्पक्ष  तरीके से निष्पादन की सक्षमता के औचित्य पर प्रश्न उठ सके|
सिद्धान्त ४: बाहरी गतिविधियों की संलिप्सा में, एक न्यायिक कर्मचारी को शासकीय कर्तव्यों से टकराव की जोखिम और अनौचित्य के प्रदर्शन को टालना  चाहिए, व प्रकटन की आवश्यकताओं की अनुपालना करनी चाहिए  : एक न्यायिक कर्मचारी की न्यायिक से बाहरी गतिविधियां  न्यायालय की गरिमा को घटानेवाली नहीं होनी चाहिए, शासकीय गतिविधियों में हस्तक्षेप करने वाली नहीं होनी चाहिए, या न्यायालय या न्यायिक कर्मचारी के पद की गरिमा और संचालन पर विपरीत प्रभाव नहीं डालनी चाहिए  |
एक न्यायिक कर्मचारी को उन बाहरी वित्तीय और व्यावसायिक लेनदेनों से परहेज करना चाहिए जो न्यायालय की गरिमा को घटाते हैं, शासकीय कृत्यों के उचित निर्वहन में हस्तक्षेप करते हैं, स्थिति का दोहन करते हैं, या न्यायिक कर्मचारी को, वकीलों या अन्य संभावित लोगों जो न्यायिक कर्मचारी या न्यायालय या न्यायिक कर्मचारी द्वारा सेवित पद  के समक्ष आने वाले हों, के साथ सारभूत वित्तीय व्यवहार में संलग्न नहीं होना चाहिए|

Monday 21 November 2011

अमेरिका से सिर्फ तकनीक ही नहीं न्यायिक गरिमा की रक्षा करना भी सीखें

भारत में विदेशी वस्तुओं और तकनीक को अपनाने वालों की अच्छी खासी तादाद है| विदेशी सामग्री को अपनाने के प्रति हर आम-ओ-खास में शर्म नहीं, बल्कि गर्व का सोच है| इस प्रकार से आजादी के समय में विदेशी कपड़ों की होली जलाने का भाव अब भारत में ध्वस्त हो चुका है| अब तो स्वदेशी की बात करने वाले और संत महात्मा भी आधुनिक सुविधा सम्पन्न जीवन शैली एवं वातानुकूलित संयन्त्रों में जीवन जीने के आदी हो चुके हैं| ऐसे में यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि आज वैश्‍विक अर्थव्यवस्था तथा अन्तरजाल (इंटरनैट) के युग में केवल भारत की विरासत और सोच को ही सर्वश्रेष्ठ  कहने वालों को अब अपनी परम्परागत सोच पर पुनिर्विचार करके खुले दिमाग और उदारता से सोचने की जरूरत है जिससे कि हम संसार के किसी भी कोने में अपनायी जाने वाली अच्छी बातों और नियमों को देश में खुशी-खुशी अपना सकें|
आज की कड़वी सच्चाई यह है कि केवल हम ही नहीं, बल्कि सारा संसार विकसित देशों का पिछलग्गू बना हुआ है| जिसका कारण विकसित देशों की जीवन शैली है, लेकिन हमारा मानना है कि किसी भी बात को आँख बन्द करके अपनाने की जरूरत नहीं है, बल्कि जो बात, जो सोच और जो विचार हमारे देश के लोगों के जीवन को बदलने वाली हो, उन्हें मानने, स्वीकरने और अपनाने में कोई आपत्ति या झिझक नहीं होनी चाहिये| जैसे कि हम कम्प्यूटर तकनीक को हर क्षेत्र में अपना रहे हैं, जिससे जीवन में क्रान्तिकारी बदलाव आये हैं| जो काम व्यक्तियों का बहुत बड़ा समूह सालों में भी नहीं कर पाता, उसी कार्य को कम्प्यूटर तकनीक के जरिये कुछ पलों में पूर्ण शुद्धता (एक्यूरेसी) से आसानी किया जा सकता है| ऐसे में हमारे जीवन से जुड़ी अन्य बातों को भी हमें सहजता और उदारता से अपनाने की जरूरत है|
इसी प्रसंग में संयुक्त राज्य अमेरिका की न्यायिक व्यवस्था के एक उदाहरण के जरिये भारत की न्यायिक व्यवस्था में बदलाव के लिये यहॉं एक विचार प्रस्तुत किया जा रहा है| जिस पर भारत के न्यायविदों, नीति नियन्ताओं और विधि-निर्माताओं को विचार करने की जरूरत है| इसके साथ-साथ आम लोगों को भी इस प्रकार के मामलों पर अपनी राय को अपने जनप्रतिनिधियों के जरिये संसद तक पहुँचाने की भी सख्त जरूरत है|
यहॉं सबसे पहले यह बतलाना जरूरी है कि अमेरिका में हर एक राज्य का संविधान और सुप्रीम कोर्ट अलग होता है| जो प्रत्येक राज्य की विशाल और स्थानीय सभी जरूरतों तथा आशाओं को सही अर्थों में पूर्ण करता है| प्रस्तुत मामले में अमेरिका के मिस्सिस्सिपी राज्य के सुप्रीम कोर्ट ने मिस्सिस्सिपी राज्य के न्यायिक निष्पादन आयोग बनाम जस्टिस टेरेसा ब्राउन डीयरमैन मामले में सुनाये गये निर्णय दिनांक 13.04.11 के कुछ तथ्य पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत हैं|
मिस्सिस्सिपी राज्य के न्यायिक निष्पादन आयोग ने वहॉं के सुप्रीम कोर्ट की जज डीयरमैन के विरुद्ध दिनांक 19.01.11 को औपचारिक शिकायत दर्ज करवाई| डीयरमैन पर आरोप लगाया  कि उन्होंने जजों के लिये लागू आचार संहिता के निम्न सिद्धांतों का उल्लंघन किया :-
(1) न्यायिक निष्ठा को संरक्षित करने के आचरण के उच्च मानकों को स्थापित करने, बनाये रखने और लागू करना|
(2) जज द्वारा हमेशा इस प्रकार कार्य करना कि उससे न्यायपालिका की निष्ठा व निष्पक्षता में जन विश्वास बढे|
(3) जज द्वारा अपने पद की साख को अन्य व्यक्ति के हित साधन के लिए उपयोग में नहीं लाना|
(4) जज द्वारा कानून का विश्‍वासपूर्वक पालना करना और व्यक्तिगत हितों के लिए कार्य करने से दूर रहना|
उपरोक्त सिद्धान्तों का उल्लंघन करके वहॉं के एक कोर्ट की जज डीयरमैन ने प्रथम न्यायिक फ्लोरिडा जिला सर्किट न्यायालय के जज लिंडा एल नोबल्स को दिनांक 05.11.10 को एक टेलीफोन किया और अपने एक पुराने मित्र के लिए सिफारिश करके उसे जमानत पर छोड़ने के लिये संदेश छोड़ा| यद्यपि उक्त फोन संदेश से पूर्व ही मामले की सुनवाई हो चुकी थी, जिससे जिला कोर्ट के निर्णय पर संदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन जस्टिस डीयरमैन के विरुद्ध आरोप लागाये गये, जिन्हें स्वयं डीयरमैन ने स्वीकार कर लिया| डीयरमैन का आचरण मिस्सिस्सिपी राज्य के संविधान की धारा 177 ए के अंतर्गत भी दंडनीय होने के कारण और आचरण संहिता के उल्लंघन का आरोप लगने के बाद जस्टिस डीयरमैन स्वयं को सार्वजनिक रूप से प्रता़ड़ित किये जाने और 100 डॉलर (5000 रुपये) तक के खर्चे के दंडादेश को भुगतने के लिए भी स्वेच्छा से सहमत हो गयी| इसके बाद वहॉं के राज्य के सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस डीयरमैन को दोषी मानते हुए तीस दिन के लिए अवैतनिक निलंबन, सार्वजानिक प्रताड़ना और 100 डॉलर खर्चे का दण्ड  दिया|
इसके विपरीत भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तर प्रदेश न्यायिक अधिकारी संघ (1994एससीसी 687) के मामले में सुनाये गये निर्णय में किसी भी जज के विरुद्ध मुख्य न्यायाधीश की अनुमति के बिना मामला दर्ज करने तक पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा रखा है और भारत में तकरीबन सभी न्यायालयों द्वारा अमेरिका के उक्त मामले जैसे मामलों को तुच्छ मानते हुए कोई संज्ञान तक नहीं लिया जाता है| यह भारतीय न्याय व्यवस्था के लिये घोर चिंता और विचार का विषय है|
तथ्य संग्रह : मनीराम शर्मा, एडवोकट, लेखन एवं सम्पादन : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश




Sunday 20 November 2011

कानून द्वारा विशेष कारण देना मात्र एक रिक्त औपचारिकता ही नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने संतोष कुमार सतीश  भूषण बरीयाल बनाम महाराष्ट्र  राज्य की अपील सं0 1478/5 में कहा है कि यदि कानून भा.द.सं. की धारा 303 में मृत्युदण्ड आज्ञापक रूप से देता है तो द.प्र.सं. की धारा 235 (2) या 354 (3) मैदान में ही नहीं आते। कानून द्वारा विशेष कारण देना मात्र एक रिक्त औपचारिकता ही नहीं मानी जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने लालू प्रसाद यादव बनाम बिहार राज्य के निर्णय दिनांक 06.12.06 में कहा है कि अन्वीक्षा के प्रारम्भिक स्तर पर साक्ष्य जो कि अभियोजक प्रस्तुत करना चाहता है कि सत्यता, विश्वसनीयता तथा प्रभाव अक्षरशः  निर्णित नहीं किया जा सकता और न ही अभियुक्त के संभावित बचाव को वजन दिया जा सकता। अन्वीक्षा के स्तर पर न्यायधीश  की यह बाध्यता नहीं है कि वह तथ्यों के बारे में विस्तृत विचार तथा वजन का विचारण करे कि ये अभियुक्त की निर्दोषिता के सम्बन्ध में संवेदनशील सम्बन्ध स्थापित करे लेकिन जहां क्षेत्राधिकार का प्रश्न उठाया जाता है और अन्वेक्षण न्यायालय को मुद्दे पर निर्णयन की आवश्यकता हो तो यह नहीं कहा जा सकता कि कारण दर्ज नहीं किये जाये। ऐसे मामले में कारण क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित होते हैं और आवश्यक रूप से आरोप विरचन से सम्बन्धित नहीं।

Saturday 19 November 2011

प्रेरणाहीन हत्यायें भी आवश्यक रूप से पागल और बिना जुड़े लोगों का काम नहीं है

सुप्रीम कोर्ट ने सुरेन्द्र पाल जैन बनाम दिल्ली प्रशासन (एआईआर 1993 एस सी 1723) में कहा है कि एक मामला जो कि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित हो में प्रेरणा विशेष महत्व रखती है क्योंकि ऐसे एक मामले में मान्यता के तर्क की प्रक्रिया प्रेरणा के अस्तित्व द्वारा प्रकाशित होती है। प्रेरणा का अभाव न्यायालय को ऐसी परिस्थितियों की सावधानी से समीक्षा करने की सावधानी की ओर धकेलता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि संदेह और अटकले कानूनी प्रमाण का स्थान न ले लेवे।
सुप्रीम कोर्ट ने दिलीप कुमार शर्मा बनाम मध्यप्रदेश  राज्य (1976 एआईआर 133) के मामले में कहा है कि प्रेरणाहीन हत्यायें भी आवश्यक रूप से पागल और बिना जुड़े लोगों का काम नहीं है। अभियोजन अपराध के पीछे पर्याप्त प्रेरणा का संतोषजनक साक्ष्य संग्रहित करने में असथर्म रहते हैं। यह किसी उदारता का पात्र नहीं है। अपने अपराध की गंभीरता कम करने के लिए अपराधी अपराध की प्रेरणा दबाने का प्रयास करेंगे। इस संकल्प के लिए अधिकृति है कि एक दोषमुक्ति का आदेश जो गुणावगुण पर आधारित हो दोषसिद्धि तथा दण्ड को प्रत्येक उद्देश्य के लिए साफ कर देता है और उसी प्रकार प्रभावी जैसे कि वह कभी पारित ही न किया गया हो। एक दोषमुक्ति का आदेश  प्रारम्भ से ही लागू होता है।

Friday 18 November 2011

आपराधिक न्याय के नए आयाम

सुप्रीम कोर्ट ने धर्मेश भाई वासुदेव भाई बनाम गुजरात राज्य के निर्णय दिनांक 05.05.09 में कहा है कि इस संदर्भ में मजिस्ट्रेट की शक्तियां सीमित है। यहां तक कि अन्यथा उसके पास कोई अन्तनिर्हित शक्ति नहीं है। सामान्यतः उसके पास अपने आदेश  को वापिस लेने की कोई शक्ति नहीं है। जब एक आदेश  मजिस्ट्रेट द्वारा पारित कर दिया गया जो कि बिना क्षेत्राधिकार के था ऐसा उच्च न्यायालय के ध्यान में लाया गया इसे स्वप्रेरणा से हस्तक्षेप करना चाहिये था।
उड़ीसा उच्च न्यायालय ने कार्तिकेश्वर नायक बनाम राज्य (1996 क्रि.ला.ज. 2253) में कहा है कि सौंपना शब्द कानूनी शब्द नहीं है। इसके विभिन्न संदर्भों में विभिन्न अर्थ है। इसका सर्वाधिक महत्व यह है कि यह संपति सम्बन्धी अधिकार देने के अतिरिक्त कब्जा सौंपना आता है। लाभकारी स्वामित्व उस सम्पति के सम्बन्ध में जिस पर आपराधिक न्यास स्वामी का आरोप है उस अभियुक्त के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति के पास होना चाहिये और वह किसी दूसरे व्यक्ति के लिए या उसके लाभ के लिए धारित करना चाहिये। जैसा कि भा.द.सं. की धारा 24 में परिभाषित है ऐसा कुछ करना जो कि एक व्यक्ति को अनुचित लाभ या दूसरे के अनुचित हानि पहुंचाये बेइमानीपूर्वक में आता है। इस प्रकार अपराध तब पूरा होता है जब दुर्विनियोग या सम्पति का संपरिवर्तन बेईमानीपूर्वक किया गया हो यहां तक कि अस्थायी दुर्विनियोग भी अपराध के दायरे में आता है।