Monday 31 October 2016

जजों की नियुक्ति कौन करे ?

जजों की नियुक्ति एक भ्रमजाल ...!!
पर्याप्त समय से देश में यह बवाल चल रहा है कि जजों की नियुक्ति कौन करे ?
अब तक इस कार्य पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना कब्जा मजबूत कर रखा था हालांकि केंद्र सरकार की भी इसमें अहम् भूमिका थी | यद्यपि यह भी जनता को भ्रमित करने का एक तरीका है | वास्तव में इन पदों पर नियुक्ति के लिए सत्तासीन सरकार व न्यायपालिका के बीच मोलभाव होता है और दोनों ही पक्ष इसमें अपनी हिस्सेदारी लेने के बाद नियुक्तियां करते हैं | जब इस हिस्सेदारी पर सहमति  नहीं बनती तब ये विवाद सार्वजनिक  होते हैं| जिस जज को सत्तासीन नियुक्त नहीं करना चाहें और न्यायपालिका नियुक्त करना चाहे उसके विरुद्ध इंटेलिजेंस ब्यूरो से जांच करवाकर उसकी प्रतिकूल टिपण्णी के माध्यम से नियुक्ति बाधित कर दी जाती है  क्योंकि प्रत्याशी वकीलों में से बेदाग़ तो कोई मिलना मुश्किल ही नहीं लगभग असंभव है |  ठीक इसी प्रकार जिसे कार्यपालिका नियुक्त करना चाहे उसके दुश्चरित्र को नजर अंदाज कर दिया जाता है | स्वयम न्यायपालिका भी इसी अस्वच्छ  कृत्य की पक्षधर है और जजों की नियुक्ति से सम्बंधित कोई भी सूचना सार्वजनिक नहीं करना चाहती|  राजस्थान से एक वकील के जज नियुक्त होने के मामले में उसके द्वारा पत्नी की ह्त्या का मामला उजगार हुआ यद्यपि वे उस मामले में छूट चुके थे फिर भी वे संदेह के दायरे से बाहर नहीं होने से इस विश्वसनीय पद के योग्य नहीं थे, ऐसा इंटेलिजेंस रिपोर्ट में सामने आया|  किन्तु तत्कालीन मुख्य मंत्री ने प्रधान मंत्री को सिफारिश की जिसके आधार पर इस तथ्य को नजर अंदाज कर नियुक्ति दे दी गयी और सूचना का अधिकार में उक्त सूचना मांगने पर आज तक नहीं दी गयी है और वे जज महोदय सेवा निवृत होकर सकुशल चले गए हैं |
जजों की नियुक्ति चाहे  कोई करे जनता को तब तक कोई लाभ नहीं जब तक निचले स्तर से लेकर ऊपर तक सभी की जिम्मेदारी तय नहीं हो जाए | चीन का सर्वोच्च न्यायालय वहां की संसद के प्रति जवाब देह है और 8 करोड़ की आबादीवाले जापान में संसद का स्थायी महाभियोग न्यायालय है जोकि संसद का ही एक अंग है | लगता है भारत में न्यायाधीशों को जरुरत से ज्यादा छूट मिलने से वे लक्ष्मण रेखा को पार कर गए हैं और उनकी अपेक्षाएं कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी हैं | इंग्लॅण्ड में 1981 से पहले सुप्रीम कोर्ट का अस्तित्व ही नहीं था |
अमेरिका में प्रति व्यक्ति औसत आय 48000/= डॉलर, उचित मजदूरी 15000/= डॉलर  और एक जिला न्यायाधीश का वेतन 25000/= डॉलर प्रति वर्ष है जबकि भारत में प्रति व्यक्ति औसत आय 60000/= रुपये, न्यूनतम मजदूरी 72000/= रुपये और एक जिला न्यायाधीश का वेतन 720000/= रुपये प्रति वर्ष है| अमरीका में न्यायाधीशों का वेतन बहुत से अन्य सरकारी कर्मचारियों से कम है(http://www.uscourts.gov/JudgesAndJudgesh...eFact.aspx  ) व उन्हें बढ़ी हुई मंहगाई राहत का भुगतान नहीं किया जा रहा है जबकि भारत में न्यायाधीशों को सर्वोच्च वेतनमान दिया जा रहा है| भारतीय नागरिक अपनी जेब से न्यायाधीशों को न केवल अपनी क्षमता से अधिक भुगतान कर रहे हैं बल्कि उनका शोषण हो रहा है| इस प्रकार भारत के न्यायालयों में आवश्यकता से बहुत अधिक न्यायाधीश हैं और न्यायप्रशासन के नाम पर देश का धन बर्बाद किया जा रहा है और उसका कोई दृश्यमान लाभ आम नागरिक को नहीं मिल रहा है| संभवतया भारत के उच्च न्यायलयों व सर्वोच्च न्यायालय में विश्व की सर्वाधिक छुट्टियां होती हैं| भारत में  न्याय की वर्तमान व्यवस्था से आम व्यक्ति तो हताश है ही शक्तिशाली लोगों को भी इसमें कोई विश्वास नहीं है और वे अपनी जान व सम्पति की सुरक्षा के लिए अपनी व्यक्तिगत ब्रिगेड रख रहे हैं|
यद्यपि संविधान के अनुच्छेद 32(3) में जिला न्यायालयों को रिट क्षेत्राधिकार देने का प्रावधान है किन्तु देश की शिथिल व संवेदनहीन संसद खुले व आक्रामक जन-आंदोलन द्वारा विवश  नहीं किये जाने तक किसी भी न्यायोचित मांग पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं समझती है|जापान में सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों की नियुक्ति उनकी नियुक्ति के बाद प्रथम आम चुनाव में लोगों द्वरा समीक्षा की जायेगी, और दस वर्ष के बाद संपन्न प्रथम चुनाव में पुनः समीक्षा की जायेगी और इसी प्रकार उसके बाद भी| इस पुनरीक्षा में यदि मतदाताओं का बहुमत, पूर्वोक्त पैरा में उल्लेखित मामले में, यदि एक न्यायाधीश की बर्खास्तगी के पक्ष में है तो उसे बर्खास्त कर दिया जायेगा|इतिहास साक्षी है कि भारत में सरकार को तो अपदस्थ किया जा सकता है किन्तु न्यायाधीश को नहीं| भारत के संविधान के अनुच्छेद  50 में कहा गया है कि राज्य की लोक सेवाओं में, न्यायपालिका को  कार्यपालिका से  पृथक करने के लिए राज्य कदम उठाएगा |इंग्लॅण्ड में न्यायालयों पर निरीक्षण के लिए अलग से न्यायिक  निरीक्षणालय है तथा  सुप्रीम कोर्ट में न्यायिक मुखिया मुख्य न्यायाधीश (Chief Judge) व प्रशासनिक मुखिया न्यायाधिपति (Chief Justice) दोनों अलग अलग हैं | इस प्रकार वहां पर न्यायिक कार्य व प्रशासनिक कार्य अलग अलग व्यक्तियों द्वारा देखे जाते हैं| जबकि भारत में न्यायपालिका न्यायिक नियुक्तियां पर अपना वर्चस्व रखना चाहती है जिससे उनकी संविधान विरोधी अपवित्र इच्छा जाहिर है|
जापान में निचले न्यायालयों के न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित न्यायाधीशों की सूची में से मंत्री मंडल द्वरा नियुक्त किये जायेंगे| ऐसे समस्त न्यायाधीश पुनः  नियुक्त के विशेषाधिकार सहित 10 वर्ष के लिए पद धारण करेंगे| भारत में प्रचलित परम्परानुसार न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की राय बाध्यकारी है| न्यायाधीश पद पर नियुक्ति होने बाद सेवानिवृति की आयु पूर्ण करने तक की लगभग गारंटी है| भारतीय लोकतंत्र के पास अवांछनीय न्यायाधीशों को सहन करने अतिरिक्त व्यवहार में कोई विकल्प नहीं है| जापान और इंग्लॅण्ड की व्यवस्थाएं हमारी इन अस्वस्थ परम्पराओं से किसी भी प्रकार से अश्रेष्ठ नहीं हैं| यदि निष्पक्ष मूल्यांकन किया जाए तो भारत की न्यायपालिका उसके पडौसी देशों – पाकिस्तान, श्रीलंका, बंगलादेश और चीन से भी अश्रेष्ठ है|  

मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधिपति किरुबकरन  ने एक अवमान मामले की सुनवाई में कहा है कि देश की जनता पहले ही न्यायपालिका से कुण्ठित है अत: पीड़ित लोग में से मात्र 10% अर्थात अतिपीडित ही न्यायालय तक पहुंचते हैं| सुप्रीम कोर्ट के जानमाने वकील प्रशांत भूषण ने कहा है कि भारत में न्याय मात्र 1% ही होता है| समय समय पर लोक अदालतें लगाकर समझौतों के माध्यम से मामले निपटाकर वाही वाही लूटी जाती है जबकि समझौते न्यायपालिका की सफलता न होकर विफलता है क्योंकि समझौते कमजोर पक्ष के हित की बलि देने पर ही संपन्न होते हैं| इसी प्रकार सेवानिवृत न्यायाधीश पञ्च-फैसलों के माध्यम से रोजगार प्राप्त करके अच्छी कमाई कर रहे हैं| यह स्थिति न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर स्वत: ही एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाती है| देश के संवैधानिक न्यायालयों में नियुक्तियां भी पारदर्शी और स्वच्छ ढंग से नहीं हो रही हैं अत: राज्य सभा की 44 वीं रिपोर्ट दिनांक 09.12.10 में यह अनुसंशा की गयी है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियां लिखित परीक्षा के आधार पर की जानी चाहिए| न्यायाधीशों की योग्यता की परख के लिए लिखित परीक्षा एक अच्छा आधार है जिससे कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए |सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों के समूह या मुख्य न्यायाधीश द्वारा उन्हीं लोगों को पदलाभ दिया जाता है जो उनके समान विचार रखते हों| बहु सदस्यीय या कोलोजियम प्रणाली का भी कोई लाभ नहीं है क्योंकि इससे सदस्यों का दायित्व कमजोर हो जाता है| वहीं एक अध्यन में पाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के 40% न्यायाधीश किसी न्यायाधीश या वकील के पुत्र रहे हैं| इसी अध्ययन के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के 95% न्यायाधीश धनाढ्य या ऊपरी माध्यम वर्ग से रहे हैं अत: उनके मौलिक विचारों, संस्कारों और आचरण में सामजिक व आर्थिक न्याय की ठीक उसी प्रकार कल्पना नहीं की जा सकती जिस प्रकार एक बधिक से दया की अपेक्षा नहीं की जा सकती| लेखक के निजी मतानुसार भी स्वतंत्र भारत के इतिहास में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, अपवादस्वरूप मात्र एक न्यायाधीश को छोड़कर, आर्थिक न्याय देने में आम जन की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं| देश के संवैधानिक न्यायालयों का संचालन अंग्रेजी भाषी-पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में शिक्षित - उच्च वर्ग के  लोगों द्वारा किया जा रहा है जिन्होंने मात्र पुस्तकों में ही इंडियाको पढ़ा होता है| उन्हें आम व्यक्ति की कठिनाइयों का धरातल स्तरीय ज्ञान नहीं होता है|अब समय आ गया है जब न्यायपलिका को आत्मावलोकन करना चाहिए कि वह जनता की अपेक्षा पर कितना खरा उतर रही है|

Tuesday 19 July 2016

सूचना आयोग या सफ़ेद हाथी ..?




प्रतिष्ठा में,
 श्री  राधा  कृष्ण  माथुर
मुख्य    सूचना  आयुक्त
केन्द्रीय  सूचना  आयोग
नई  दिल्ली


मान्यवर,
विषय :   परिवाद  संख्या  CIC/RM/C/2014/900226–    मनीराम शर्मा बनाम   राष्ट्रपति   सचिवालय     इसी  प्रकार निर्णित अन्य  प्रकरण

उक्त प्रकरण में आपके निर्णय दिनांक 02.06.2016 के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ|    आपके उक्त निर्णय के प्रकाशन से मुझे माननीय  आयोग  के उक्त निर्णय का ज्ञान हुआ  किन्तु इस प्रसंग में मेरा  विचार  किंचित  भिन्न है|
हमारे पवित्र  संविधान  के अनुच्छेद 51 (एच )में नागरिकों  का  यह  मूल  कर्तव्य  बताया  गया है  कि  वे  वैज्ञानिक  दृष्टिकोण, मानव वाद और  ज्ञानार्जन तथा सुधार  की  भावना का विकास करे| इसी प्रकार अनुच्छेद 51 (जे ) में कहा गया है कि नागरिक  व्यक्तिगत  और  सामूहिक  गतिविधियों  के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न  और  उपलब्धि  की  नई  ऊंचाइयों  को  छू  ले| उक्त प्रावधानों  ने मुझे आपको  यह  पत्र  लिखने  को  प्रेरित किया  है| आप  द्वारा  यह  पत्र  पढने  के  लिए  अपने अमूल्य  समय  में  से समय  निकालने  के  लिये अग्रिम  धन्यवाद |

माननीय आयोग  के उक्त निर्णय का सम्मान करते हुए मेरे विचार इस प्रकार हैं:
1.    यह  है कि आपने अपने निर्णय के बिंदु 5 में मुझ  पर यह आरोप  लगाया  है कि  मैंने  विभिन्न  प्राधिकारियों  के  समक्ष  कई  याचिकाएं दायर  की हैं और  मैं कभी भी  सुनवाई  में उपस्थित नहीं हुआ  हूँ | आगे आपने यह भी  लिखा है  कि  मेरा  प्रकरण  दर्ज किये जाने  से पूर्व  परिचय  प्रमाण  मांगा जाए
2.    यह  है कि  सूचना  का अधिकार  मेरा  मौलिक  अधिकार   है और  आपको   यह स्मरण  रखना   चाहिए  कि  इसमें  आप  सहित  किसी  भी  प्राधिकारी  को   कोई  प्रतिबन्ध  लगाने की    कोई  शक्ति   प्राप्त नहीं  है |
3.    यह  है  कि  नियमों में  कहीं   भी  आयोग  के  समक्ष  सुनवाई  में उपस्थित  होना  बाध्यकारी   नहीं   है  और  एक  आयुक्त  के लिए  उचित यही है   कि  वह  पत्रावली  पर  उपलब्ध  सामग्री  के अनुसार  निर्णय  करे और  अनुपस्थित पक्षकार   पर  कोई  प्रतिकूल  टिपण्णी  करने में  अनावश्यक  समय    ऊर्जा   बर्बाद   नहीं करे | एक  आयुक्त  की   शक्तियां  अधिनियम  में परिभाषित   हैं और  उसको  भावावेश में आकर  याची  की  अनुपस्थिति  में  उस  पर  प्रतिकूल  टिप्पणियाँ   करने   का  अधिनियम  में कोई  प्रावधान  नहीं    है |
4.    यह   है  कि  मैं   प्रकरण  CIC/RM/C/2014/900153     में  दिनांक   25.02.2016  को उपस्थित  होने के अतिरिक्त  कई  प्रकरणों   में आपके समक्ष ही  उपस्थित  होकर  अपना  पक्ष   रख चुका   हूँ   तदनुसार   आपका आरोप  बेबुनियाद , मिथ्या     निराधार   है |
5.    यह  है कि  जब  लिखित  में  प्रमाणित  दस्तावेज  के रूप  में  प्रमाणिक  साक्ष्य उपलब्ध  हो और  उसकी  भी  यदि उपेक्षा  की  जाए  तो  फिर  मौखिक  साक्ष्य, जिसका  कोई  प्रमाण  नहीं  हो , से क्या  लाभ  संभव  था  और  तदनुसार मेरे उपस्थित होने या होने से भी  कोई  अंतर  नहीं  होताऐसी मेरी मान्यता है| कदाचित  उसे आप  जैसे  सुनवाई  करने  वाले अधिकारियों  का  पूर्वानुमान  होने  पर  निराशा अवश्य  हो  सकती  है |
6.    यह है कि आयोग को अधिनियम में कहीं भी कोई विवेकाधिकार प्राप्त नहीं है और ही कोई कानून बनाने का अधिकार है |  याचिका  दायर  करने उसके पंजीकरण   के सम्बन्ध   में सरकार   ने  नियम  बना  रखे हैं   और  इन नियमों  के अनुसार  कोई  भी  याचिका   दायर  कर   सकता   है    आयोग   को   इन  नियमों    के अतिरिक्त  किसी   भी अन्य   औपचारिकता  की  पूर्ति   की   अपेक्षा  करने का   कोई  अधिकार    नहीं   है |  इस  प्रकार   आपने अपने पद   के मद   में लक्ष्मण   रेखा  लांघ  दी   है  और  एक  स्वयम्भू   तानाशाह   होने का  परिचय    दिया   है |
7.     यह  है कि आपसे मात्र परिवाद  के परीक्षण की अपेक्षा की गयी थी   कि परिवादी  या उसके चरित्र की | स्मरण  रहे आपकी  नियुक्ति   भी याचिकाओं   के परीक्षण  के लिए की   गयी हैपरिवादी  ने आपसे चरित्र  प्रमाण  पत्र  की  भी अपेक्षा नहीं की थी| कानून भी आपको मात्र  परिवाद परीक्षा की अनुमति देता है और उसमें परिवादी    के चरित्र सत्यापन  के  लिए अधिकृत  नहीं  किया  गया है | इस प्रकार आपने अपनी  अधिकारिता  को  पार  कर  दिया  है और  पद  के  दुरूपयोग   की   पराकाष्ठा  पार  कर  दी है |
8.    यह  है कि आपकी  पृष्ठभूमि को देखते हुए आपसे एक अच्छे विधि सम्मत निर्णय की अपेक्षा  की  जा  सकती है किन्तु आपका  उक्त  निर्णय  स्पष्टतया  पद  के मद में दिया  हुआ है और उसमें अनियंत्रित राजतंत्र की बू आती है| इन  परिस्थितियों  में आपके मानसिक  स्वास्थ्य  पर  संदेह  होना  भी  स्वाभाविक है |
9.    यह  है कि आपके विधिक  ज्ञान को देखते हुए आप दया के पात्र लगते हैंन्यायिक  अपेक्षा है कि अनुपस्थित पक्षकार  के हित  का  ध्यान रखे और न्यायिक अनुशासन के अनुसार अनुपस्थित पक्षकार के विषय में कोई प्रतिकूल  टिप्पणियाँ  नहीं  की  जानी  चाहिए  क्योंकि  वह  उनका  समुचित  जवाब  देने  के  लिए  उपस्थित  नहीं  है | किन्तु आपने तो  इन  मौलिक  बातों  की  भी अनुपालना  नहीं  की  है जिनकी   अपेक्षा  एक  सामान्य  बुद्धिवाले व्यक्ति  से की  जा  सके  | निश्चित रूप से आपने इस गरिमामयी  पद के लिए योग्यता  खो  दी है और  आपको अविलम्ब  त्यागपत्र  दे  देना  चाहिए| आपने अपना  पद ग्रहण  करते  समय  ली  गयीभय, लालच , राग- द्वेष  के बिना निर्णय करने कीशपथ  का  भी  जानबूझकर  उल्लंघन  किया  है|  
10. यह  है कि मैं सरकार से अपेक्षा करूंगा कि आपको किसी  अच्छे लोकतांत्रिक  देश  में  प्रशिक्षण  के  लिए  भेजा  जाए और  पुन: मानसिक  परीक्षण  करवाया जावे  कि  क्या आप  अभी  भी  नागरिकों  के  लिए  कोई  उपयोगिता  रखते हैं| साथ ही इस पत्र की एक प्रति संचार  माध्यमों  को  प्रसारित  की  जा  रही  है ताकि देश के लोग आयोग  की वास्तविकता  को  जान  सकें और  आपको  भी  उचित  सम्मान  मिले  जिसके आप  हक़दार हैं |
उपरोक्त  परिस्थितियों और तथ्यों के सन्दर्भ में माननीय आयोग  का उक्त निर्णय  मेरी  विनम्र  राय  में संविधान  और जनतांत्रिक  मूल्यों  के अनुकूल नहीं है| मैं यहाँ  पर  यह  भी  निवेदन  करना  प्रासंगिक  समझता हूँ  कि  प्रत्येक शक्ति के प्रयोग का आधार जनहित  प्रोन्नति होना चाहिए विशेषतः जब यह अहम  प्रश्न  सूचना  के  मौलिक  अधिकार  के संरक्षक   के सामने हो| माननीय  आयोग  के उक्त निर्णय के  विरुद्ध  रिट  भी दायर  की  जा  सकती है किन्तु वह  भी  एक अंतहीन, खर्चीली और  जटिल    थकाने वाली प्रक्रिया होगी|   माननीय आयोग उदार हृदय से आत्मावलोकन  कर  इस  प्रकरण  में स्वप्रेरणा  से चूक  सुधार  कर  पूर्ण और  वास्तविक  न्याय  देने  के लिए सशक्त है| भारतीय गणतंत्र को मज़बूत बनाने की ईश्वर आपको  सदैव  सद्प्रेरणा  देते रहें| इसी  आशा  और  विश्वास  के साथ ,

आपका  सदैव शुभेच्छु

मनीराम शर्मा
अध्यक्ष, इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन , चुरू प्रसंग
रोडवेज डिपो के पीछे
सरदारशहर  331403                                                       दिनांक:19.07 .2016
ईमेल : maniramsharma@gmail.com