भारत के न्यायालय अवमान अधिनियम की धारा 10 के परंतुक में कहा गया है कि कोई भी उच्च न्यायालय अपने
अधीनस्थ न्यायालयों के संबंध में ऐसे अवमान का संज्ञान नहीं लेगा जो भारतीय दंड
संहिता के अंतर्गत दंडनीय हैं| न्यायाधीशों के साथ अभद्र
व्यवहार, गाली गलोज, हाथापाई आदि ऐसे अपराध हैं जो स्वयं भारतीय दंड संहिता के
अंतर्गत दंडनीय हैं और उच्च न्यायालयों को
ऐसे प्रकरणों में संज्ञान नहीं लेना चाहिए|
किन्तु उच्च
न्यायालय अपनी प्रतिष्ठा और अहम् का
प्रश्न समझकर ऐसे तुच्छ मामलों में भी कार्यवाही करते हैं| इंग्लॅण्ड के अवमान कानून में तो मात्र उसी कार्य को अवमान माना
गया है जो किसी मामले विशेष में प्रत्यक्षत: हस्तक्षेप करता हो जबकि भारत में तो
ऐसे मामलों में कार्यवाही ही नहीं की जाती अर्थात झूठी गवाहे देने, झूठा कथन करने
या झूठे दस्तावेज प्रस्तुत करने के मामले में भारत में सामान्यतया कोई कार्यवाही
नहीं होती और परिणामत: न्यायिक कार्यवाहियां उलझती जाती हैं,जटिल से जटिलतर होती
जाती हैं और न्याय पक्षकारों से दूर भागता रहता है| बारबार आदेशों के उपरान्त
पुलिस अधिकारियों के उपस्थित नहीं होने पर भी न्यायालय उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही
संस्थित नहीं करते जबकि एक सामान्य साक्षी के किसी दिन विलम्ब से पहुँचने पर भी
उसे दण्डित कर दिया जाता है जिससे ऐसा लगता है कि एक म्यान में दो तलवारें हैं और
भारत के न्यायाधीश अर्द्ध–पुलिस अधिकारी हैं|
भारत में कई उदाहरण यह गवाही देते हैं कि देश की
न्यायपालिका स्वतंत्र एवं निष्पक्ष नहीं होकर स्वछन्द है| कुछ समय पूर्व माननीय कृषि मंत्री शरद पंवार के थप्पड़ मारने
पर हरविन्द्र सिंह को पुलिस ने तत्काल गिरफ्तार कर लिया और उन पर कई अभियोग लगाकर
मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया| मजिस्ट्रेट ने भी हरविंदर
सिंह को 14 दिन के लिए हिरासत में भेज दिया| देश की पुलिस एवं न्यायपालिका से यह यक्ष प्रश्न है कि क्या, संविधान के अनुच्छेद 14
की
अनुपालना में, वे एक सामान्य नागरिक के थप्पड़ मारने पर भी यही अभियोग लगाते, इतनी तत्परता दिखाते और इतनी ही अवधि के लिए हिरासत में भेज
देते|
सुप्रीम कोर्ट ने ई.एम.शंकरन नंबुरीपाद बनाम टी नारायण
नमीबियार (1970 एआईआर 2015) के अवमान प्रकरण में अपराध के आशय के विषय में कहा है कि उसने
ऐसे किसी परिणाम का आशय नहीं रखा था यह तथ्य दण्ड देने में विचारणीय हो सकता है किन्तु अवमान में दोष
सिद्धि के लिए आशय साबित करना आवश्यक नहीं है। जबकि सामान्यतया आशय को अपराध का एक
आवश्यक तत्व माना जाता है| एक अन्य प्रकरण सी के दफतरी बनाम ओ पी गुप्ता (1971 एआईआर 1132) के निर्णय
में भी सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया है कि अवमान के अभियुक्त को मात्र शपथ-पत्र
दायर करने की अनुमति है किन्तु वह कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकता| वह अवमान का
औचित्य स्थापित नहीं कर सकता| यदि अवमानकारी को आरोपों का औचित्य स्थापित करने की
अनुमति दी जाने लगी तो हताश और हारे हुए पक्षकार या एक न एक पक्षकार बदला लेने के
लिए न्यायाधीशों को गालियाँ देने लगेंगे| भारत का यह कानून मूलभूत मानव अधिकारों
के विरूद्ध है जो एक अभियुक्त को बचाव का पूर्ण अवसर नहीं देता है|
न्यायालय ने एक
अन्य निर्णित वाद का सन्दर्भ देते हुए आगे कहा कि अवमान के मामले में दंड
प्रक्रिया संहिता के प्रावधान लागू नहीं होते और इसे अपनी स्वयं की प्रक्रिया
निर्धारित कर सारांशिक कार्यवाही कर निपटाया जा सकता है,मात्र ऐसी प्रक्रिया उचित होनी चाहिए| यह नियम
प्रिवी कोंसिल ने पोलार्ड के मामले में निर्धारित किया था और भारत व बर्मा में
इसका अनुसरण किया जाता रहा है और यह आज भी कानून है| प्रतिवादी ने वकील नियुक्त
करने हेतु समय मांगते हुए निवेदन किया कि वे लोग वर्तमान में चुनाव लडने में
व्यस्त हैं किन्तु न्यायालय ने समय देने से मना कर दिया| इस प्रकार अवमान के
अभियुक्त को देश के सर्वोच्च न्यायिक संस्थान ने बचाव का उचित अवसर दिए बिना ही
दण्डित कर दिया| प्रश्न यह उठता है कि यदि दंड प्रक्रिया संहिता को छोड़कर भी अन्य
प्रक्रिया उचित हो सकती है तो फिर ऐसी उचित प्रक्रिया अन्य आपराधिक कार्यवाहियों
में क्यों नहीं अपनाई जाती| देश के संवैधानिक न्यायालयों को भ्रान्ति है कि वे
अपनी प्रकिया के नियम स्वयं स्वतंत्र रूप से बना सकते हैं और इस भ्रान्ति के चलते
वे प्रेक्टिस डायरेक्शन, सर्कुलर, हैण्ड बुक आदि बनाकर अपने अधिकार क्षेत्र का
अतिक्रमण का रहे हैं| जबकि देश का संविधान उन्हें ऐसा करने की कोई अनुमति नहीं
देता है| संविधान के अनुच्छेद 227(3) के परंतुक के अनुसार उच्च न्यायालयों को
राज्यपाल की पूर्वानुमति और अनुच्छेद 145 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति
की पूर्वानुमति से ही प्रक्रिया के नियम बनाने का अधिकार है| वैसे भी अवमान कोई
गंभीर और जघन्य अपराध नहीं है जिसके लिए तुरंत दंड देना आवश्यक हो| गंभीर और जघन्य
अपराधों के मामलों में विधायिका ने अधिकतम सजा मृत्यु दंड या आजीवन कारावास
निर्धारित कर रखी है जबकि अवमान कानून में अधिकतम सजा छ: मास का कारावास मात्र
है|
पुराने समय से यह अवधारणा प्रचलित रही है कि राजा ईश्वरीय शक्तियों का
प्रयोग करता है और न्यायाधीश उसका प्रतिनिधित्व करते हैं अत: वे संप्रभु हैं|
किन्तु लोकतंत्र के नए युग के सूत्रपात से न्यायपालिका व इसकी प्रक्रियाओं को
आलोचना से संरक्षण देना एक समस्या को आमंत्रित करना है| यद्यपि भारतीय अवमान कानून
में वर्ष 2006 में किये गए संशोधन से तथ्य को एक बचाव के रूप में मान्य किया जा
सकता है यदि ऐसा करना जनहित में हो किन्तु भारतीय न्यायपालिका इतनी उदार नहीं है
और उसमें अपनी
आलोचना सुनने का साहस व संयम नहीं है चाहे यह एक तथ्य ही क्यों न हो| हाल ही में मिड-डे
न्यूजपेपर के मामले में भारतीय न्यायपालिका की निष्पक्षता और बचाव पक्ष के असहायपन
पर पुनः प्रश्न चिन्ह लगा जब अभियुक्तों को तथ्य को एक बचाव के रूप में अनुमत नहीं
किया गया| समाचार पत्र ने एक सेवानिवृत न्यायाधीश के कृत्यों पर तथ्यों पर आधारित
एक लेख और कार्टून प्रकाशित किया था जिसे न्यायालय ने अवमान माना कि इससे
न्यायपालिका की छवि धूमिल हुई है| यक्ष प्रश्न यह है कि न्यायपालिका की छवि को
वास्तव में नुक्सान उन न्यायाधीश महोदय के कृत्य से हुआ अथवा उस कृत्य के प्रकाशन
से| न्यायालय में विचाराधीन कार्यवाही के विषय में समाचार प्रकाशित करने को भी
भारत के न्यायालय अवमान मानते हैं और कहते हैं कि इससे निर्णय प्रभावित हो सकता है
अत: यह न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप है| जबकि न्यायाधीश यह भूल रहे हैं कि
उन्होंने सेवा ग्रहण करते समय शपथ लेकर जनता को वचन दिया था कि वे बिना राग-द्वेष और बिना पक्षपात-भय के कार्य करेंगे| यदि
मिडिया रिपोर्ट से उनके निर्णय प्रभावित होने की आशंका हो तो उन्हें मिडिया
रिपोर्टें नहीं देखनी चाहिए| मात्र एक न्यायाधीश के ऐसे अंदेशे के आधार पर
सम्पूर्ण देश को जानने से वंचित नहीं किया जा सकता|
यद्यपि अवमान कानून में कहीं पर भी यह प्रावधान नहीं है कि संचार जगत में
प्रकाशित किसी विवरण के आधार पर न्यायालय स्वप्रेरणा से संज्ञान ले सकेंगे किन्तु
फिर भी ऐसा होता है| वहीँ दूसरी ओर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190(1)(ग) में यह
स्पष्ट प्रावधान है कि एक मजिस्ट्रेट अन्य व्यक्ति से सूचना प्राप्त होने या स्वयं
की जानकारी से किसी अपराध का प्रसंज्ञान ले सकता है| आज संचार जगत में बहुत सी
अपराध की ख़बरें छपती हैं और मजिस्ट्रेटों की जानकारी में भी आती हैं किन्तु
मुश्किल से ही भारत में कोई मजिस्ट्रेट इनका प्रसंज्ञान लेता है जिससे यह लगता है
मानों न्यायालय जनता की रक्षा के स्थान पर स्वयं अपनी रक्षा के लिए बनाये गए हों|
दूसरी ओर आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि वकीलों की हड़ताल, धरने, कार्य स्थगन,
पक्षकारों के न्यायालय में प्रवेश को रोकने और यहाँ तक कि न्यायालय के प्रवेश
द्वार के ताला लगाने तक को न्याय प्रशासन में बाधा मानकर संविधान के रक्षक
न्यायालय कोई संज्ञान नहीं लेते हैं| न्यायालय को वकील हड़ताल का नोटिस दी देते हैं
और न्यायालय उसका अनुपालन करते हैं| क्या यही न्यायपालिका की स्वतंत्रता की निशानी
है? वैसे जो प्रशंसा या आलोचना का हकदार हो उसे वह अवश्य मिलना चाहिए किन्तु कई
बार मीडिया द्वारा निहित स्वार्थवश अतिशयोक्तिपूर्ण कथनों से न्यायालयों की
अनावश्यक प्रशंसा भी की जाती है जिससे जन मानस में भ्रान्ति फैलती है और समान रूप
से जन हित की हानि होती है| क्या न्यायालय ऐसी स्थिति में भी स्वप्रेरणा से मीडिया
के विरुद्ध कोई कार्यवाही करते हैं?
इंग्लॅण्ड का एक रोचक मामला इस प्रकार है कि एक भूतपूर्व जासूस पीटर राइट
ने अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक लिखी| ब्रिटिश
सरकार ने इसके प्रकाशन को प्रतिबंधित करने
के लिए याचिका दायर की कि पुस्तक गोपनीय है और इसका प्रकाशन राष्ट्र हित के प्रतिकूल है| हॉउस ऑफ लोर्ड्स ने 3-2 के
बहुमत से पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगा दी| प्रेस इससे
क्रुद्ध हुई और डेली मिरर ने न्यायाधीशों के उलटे चित्र प्रकाशित करते हुए “ये मूर्ख” शीर्षक दिया| किन्तु इंग्लॅण्ड में न्यायाधीश व्यक्तिगत अपमान
पर ध्यान नहीं देते हैं|
न्यायाधीशों का विचार था कि उन्हें
विश्वास है वे मूर्ख नहीं हैं किन्तु अन्य लोगों को अपने विचार व्यक्त करने का
अधिकार है|ठीक इसी प्रकार यदि न्यायाधीश वास्तव में ईमानदार
हैं तो उनकी ईमानदारी पर लांछन मात्र से तथ्य मिट नहीं जायेगा और यदि ऐसा प्रकाशन
तथ्यों से परे हो तो एक आम नागरिक की भांति न्यायालय या न्यायाधीश भी समाचारपत्र
से ऐसी सामग्री का खंडन प्रकाशित करने की अपेक्षा कर सकता है| न्यायपालिका का गठन
नागरिकों के अधिकारों और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए किया जाता है न कि स्वयं न्यायपालिका
की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए| न्यायपालिका की संस्थागत छवि तो निश्चित रूप से एक
लेख मात्र से धूमिल नहीं हो सकती और यदि छवि ही इतनी नाज़ुक या क्षणभंगुर हो तो स्थिति
अलग हो सकती है| जहां तक न्यायाधीश की व्यक्तिगत बदनामी का प्रश्न है उसके लिए वे
स्वयम कार्यवाही करने को स्वतंत्र हैं| इस प्रकार अनुदार भारतीय न्यायपालिका
द्वारा अवमान कानून का अनावश्यक प्रयोग समय समय पर जन चर्चा का विषय रहा है जो
मजबूत लोकतंत्र की स्थापना के मार्ग में अपने आप में एक गंभीर चुनौती है|
सुप्रीम कोर्ट का एम.आर.पाराशर बनाम डॉ. फारूक अब्दुल्ला- {1984 क्रि.s aaला. रि. (सु. को.)}
में कहना है कि किसी भी संस्थान या तंत्र की
सद्भावनापूर्ण आलोचना उस संस्थान या तंत्र के प्रशासन को अन्दर झांकने और अपनी
लोक-छवि में निखार हेतु उत्प्रेरित करती है। न्यायालय इस स्थिति की अवधारणा पसंद
नहीं करते कि उनकी कार्यप्रणाली में किसी सुधार की आवश्यकता नहीं है। दिल्ली उ.
न्या. ने सांसदों द्वारा प्रश्न पूछने के बदले धन लिए जाने के प्रमुख प्रकरण अनिरूद्ध बहल बनाम राज्य में
निर्णय दि. 24.09.10 में कहा है कि सजग एवं सतर्क रहते हुए राष्ट्र की आवश्यकताओं
एवं अपेक्षाओं के अनुसार दिन-रात रक्षा की जानी चाहिए और उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार
को उजागर करना चाहिए। अनुच्छेद 51 क (छ) के अन्तर्गत जांच-पड़ताल एवं सुधार
की भावना विकसित करना नागरिक का कर्तव्य है। अनुच्छेद 51 क (झ) के अन्तर्गत समस्त क्षेत्रों में उत्कृष्टता
के लिए अथक प्रयास करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है ताकि राष्ट्र आगे बढे। जीन्यूज
के रिपोटर ने जब अहमदाबाद के एक न्यायालय से चालीस हजार रूपये में तत्कालीन
राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति, सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य
न्यायाधीश और एक वकील के विरुद्ध अनुचित रूप से जमानती वारंट हासिल कर लिए हों तो
आम नागरिक के लिए न्यायपालिका की कार्यशैली व छवि के विषय में कितना चिंतन करना
शेष रह जाता है| यह उदाहरण तो समुद्र में तैरते हिमखंड के दिखाई देने वाले भाग के
समान है जानकार लोग ही इसकी वास्तविक गहराई का अनुमान लगा सकते हैं| हाल ही के
सिंघवी सीडी प्रकरण ने तो उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों में अस्वच्छ राजनीतिक
हस्तक्षेप प्रकट किया है| अवमान का उपयोग अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले के लिए
कदाचित नहीं किया जाना चाहिए| यदि अवमान के ब्रह्माश्त्र का प्रयोग कर न्यायपालिका
में व्याप्त अस्वच्छता को उजागर करने पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया जाय तो फिर
न्यायपालिका का शुद्धिकरण किस प्रकार संभव है जबकि देश में न्यायपालिका के विरुद्ध
शिकायतों के लिए कोई अन्य मंच ही नहीं है|
गौहाटी उ.न्या. के कुछ न्यायाधीशों के प्रति असम्मानजनक भाषा में समाचार
प्रकाशित करने पर स्वप्रेरणा से अवमान हेतु संज्ञान लिया गया। प्रत्यार्थियों ने
बाद में असम्मानजनक शब्दों के लिए क्षमा याचना करते हुए तथ्यों की पुष्टि कायम
रखी। गौहाटी उ.न्या. ने इस ललित कलिता के मामले में दिनांक 04.03.08
को दिए निर्णय में कहा कि
निर्णय समालोचना हेतु असंदिग्ध रूप से खुले हैं। एक निर्णय की कोई भी समालोचना
चाहे कितनी ही सशक्त हो, न्यायालय
की अवमान नहीं हो सकती बशर्ते कि यह सद्भाविक एवं तर्क संगत शालीनता की सीमाओं के
भीतर हो। एक निर्णय, जो लोक दस्तावेज है या न्याय-प्रशासक न्यायाधीश का लोक कृत्य
है, की उचित एवं तर्क संगत आलोचना अवमान नहीं बनती है। स्वयं
सुप्रीम कोर्ट ने करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य (1956 AIR 541) के मामले में कहा है कि जो कोई लोक पद धारण करता हो उसे उस पद से जुड़े
आलोचना के हमले को, यद्यपि दुखदायी है, स्वीकार करना चाहिए|
उधर दिनांक 01.01.1995 से लागू चीन के राज्य
क्षतिपूर्ति कानून में तो राज्य के अन्य अंगों के समान ही अनुचित न्यायिक कृत्यों
से व्यथित नागरिकों को क्षति पूर्ति का भी अधिकार है व सरकार को यह अधिकार है कि
वह इस राशि की वसूली दोषी अधिकारी से करे| वहाँ न्यायपालिका भी राज्य के अन्य
अंगों के समान ही अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति दायीं है, और भारत की तरह
किसी प्रकार भिन्न अथवा श्रेष्ठ नहीं मानी गयी है|
दूसरी ओर हमारे पडौसी देश श्रीलंका में अवमान कानून की बड़ी उदार व्याख्या
की जाती है| श्रीलंका के अपीलीय न्यायालय ने सोमिन्द्र बनाम सुरेसना के अवमान
प्रकरण में न्यायाधिपति गुणवर्धने ने दिनांक 29.05.98 को निर्णय देते हुए कहा कि दोष सिद्ध करने के
लिए आवश्यक है कि प्रमाण का स्तर समस्त युक्तियुक्त और तर्कसंगत संदेह के दायरे से
बाहर होना चाहिए| प्रकरण में न्यायालय के आदेश से सरकारी सर्वेयर अपना कार्य कर
रहा था और उसने प्रकरण प्रस्तुत किया कि उसे कार्य नहीं करने दिया गया और बाधा
डाली गयी| न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि
सर्वेयर निष्पक्ष ढंग से कार्य नहीं कर रहा हो तो उससे पक्षकारों की भावनाओं को
उत्तेजना मिलती है व किसी के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाए तो गुस्सा और ऊँची
आवाज स्वाभाविक परिणति है| दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत के इतिहास में अवमान के
मामलों में शायद ही कभी इस वास्तविकता को स्वीकार किया गया है| मर्यादा की अपेक्षा
कदापि एक तरफा नहीं हो सकती| न्यायालय ने आगे
कहा कि यद्यपि सर्वेयर के कार्य में बाधा डालना आपराधिक अवमान है| सिविल और
आपराधिक अवमान दोनों का उद्देश्य सारत: एक ही है कि न्याय प्रशासन की प्रभावशीलता
को कायम रखना और दोनों ही स्थितियों में
तर्कसंगत संदेह से परे प्रमाण की आवश्यकता है |
न्यायालय ने धारित किया कि सर्वेयर
के साक्ष्य के आधार पर दोषी को दंड कैसे दिया जा सकता है जबकि सर्वेयर ने अपनी
रिपोर्ट में, यदि यह सत्य हो तो, बाधा
डालने का उल्लेख नहीं किया है| इस कारण उसका साक्ष्य अविश्वसनीय है व संदेह से परे
न होने कारण अग्राह्य है और दोषी को मुक्त
कर दिया गया| उक्त विवेचन से बड़ा स्पष्ट है कि श्रीलंका में न्यायपालिका का अवमान
के प्रति बड़ा उदार रुख है और वह भारतीय न्यायपालिका के विपरीत जनतांत्रिक अधिकारों
को महत्व देती है व अपने अहम को गौण समझती है| यह भी उल्लेखनीय है कि श्रीलंका में
अवमान नाम का अलग से कोई कानून नहीं है अपितु अवमान सम्बंधित प्रावधान सिविल
प्रक्रिया संहिता और न्याय प्रशासन कानून में समाहित करना ही पर्याप्त समझा गया है और वे सभी न्यायिक कार्यवाहियों के लिए समान
हैं| लगता है भारत में तो न्यायपालिका को तुष्ट करने के लिए अलग से अवमान कानून
बना रखा है और श्रीलंका की विधायिका ने अवमान सम्बंधित प्रावधान न्याय प्रशासन के
उद्देश्य से बनाये हैं|
लोकतंत्र का मूलमन्त्र न्यायपालिका सहित शासन के समस्त अंगों का जनता के
प्रति जवाबदेय होना है| चीन के संविधान के अनुच्छेद 128 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट संसद
के प्रति जवाबदेय है| इंग्लॅण्ड के कोर्ट
अधिनियम, 2003 की धारा 1(1) के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का मुखिया लोर्ड चांसलर देश
के समस्त न्यायालयों के दक्ष व प्रभावी संचालन के लिए जिम्मेदार है| दूसरी ओर स्वतंत्र होने का
अर्थ गैर-जिम्मेदार या बेलगाम घोड़े की भांति
नियंत्रणहीन होना नहीं है| भारत में न्यायालयों व
न्यायाधीशों को जन-नियंत्रण से मुक्त रखा गया है और वे कानूनन किसी के प्रति भी
जिम्मेदार नहीं हैं|