Monday 19 November 2012

भारत और अन्य देशों में अवमान कानून

भारत के न्यायालय अवमान अधिनियम की धारा 10 के परंतुक में कहा गया है कि कोई भी उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों के संबंध में ऐसे अवमान का संज्ञान नहीं लेगा जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय हैं| न्यायाधीशों के साथ अभद्र व्यवहार, गाली गलोज, हाथापाई आदि ऐसे अपराध हैं जो स्वयं भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत  दंडनीय हैं और उच्च न्यायालयों को ऐसे प्रकरणों में संज्ञान नहीं लेना चाहिए| किन्तु उच्च न्यायालय अपनी प्रतिष्ठा और  अहम् का प्रश्न समझकर ऐसे तुच्छ मामलों में भी कार्यवाही करते हैं| इंग्लॅण्ड के अवमान कानून में तो मात्र उसी कार्य को अवमान माना गया है जो किसी मामले विशेष में प्रत्यक्षत: हस्तक्षेप करता हो जबकि भारत में तो ऐसे मामलों में कार्यवाही ही नहीं की जाती अर्थात झूठी गवाहे देने, झूठा कथन करने या झूठे दस्तावेज प्रस्तुत करने के मामले में भारत में सामान्यतया कोई कार्यवाही नहीं होती और परिणामत: न्यायिक कार्यवाहियां उलझती जाती हैं,जटिल से जटिलतर होती जाती हैं और न्याय पक्षकारों से दूर भागता रहता है| बारबार आदेशों के उपरान्त पुलिस अधिकारियों के उपस्थित नहीं होने पर भी न्यायालय उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही संस्थित नहीं करते जबकि एक सामान्य साक्षी के किसी दिन विलम्ब से पहुँचने पर भी उसे दण्डित कर दिया जाता है जिससे ऐसा लगता है कि एक म्यान में दो तलवारें हैं और भारत के न्यायाधीश अर्द्धपुलिस अधिकारी हैं|
भारत में कई उदाहरण यह गवाही देते हैं कि देश की न्यायपालिका स्वतंत्र एवं निष्पक्ष नहीं होकर स्वछन्द है| कुछ समय पूर्व माननीय कृषि मंत्री शरद पंवार के थप्पड़ मारने पर हरविन्द्र सिंह को पुलिस ने तत्काल गिरफ्तार कर लिया और उन पर कई अभियोग लगाकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया| मजिस्ट्रेट ने भी हरविंदर सिंह को 14 दिन के लिए हिरासत में भेज दिया| देश की पुलिस एवं न्यायपालिका से यह यक्ष प्रश्न है कि क्या, संविधान के अनुच्छेद 14 की अनुपालना  में, वे एक सामान्य नागरिक के थप्पड़ मारने पर भी यही अभियोग लगाते, इतनी तत्परता दिखाते और इतनी ही अवधि के लिए हिरासत में भेज देते|
सुप्रीम कोर्ट ने ई.एम.शंकरन नंबुरीपाद बनाम टी नारायण नमीबियार (1970 एआईआर 2015) के अवमान प्रकरण में अपराध के आशय के विषय में कहा है कि उसने ऐसे किसी परिणाम का आशय नहीं रखा था यह तथ्य दण्ड देने  में विचारणीय हो सकता है किन्तु अवमान में दोष सिद्धि के लिए आशय साबित करना आवश्यक नहीं है। जबकि सामान्यतया आशय को अपराध का एक आवश्यक तत्व माना जाता है| एक अन्य प्रकरण सी के दफतरी बनाम ओ पी गुप्ता (1971 एआईआर 1132) के निर्णय में भी सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया है कि अवमान के अभियुक्त को मात्र शपथ-पत्र दायर करने की अनुमति है किन्तु वह कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकता| वह अवमान का औचित्य स्थापित नहीं कर सकता| यदि अवमानकारी को आरोपों का औचित्य स्थापित करने की अनुमति दी जाने लगी तो हताश और हारे हुए पक्षकार या एक न एक पक्षकार बदला लेने के लिए न्यायाधीशों को गालियाँ देने लगेंगे| भारत का यह कानून मूलभूत मानव अधिकारों के विरूद्ध है जो एक अभियुक्त को बचाव का पूर्ण अवसर नहीं देता है|
न्यायालय ने एक अन्य निर्णित वाद का सन्दर्भ देते हुए आगे कहा कि अवमान के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान लागू नहीं होते और इसे अपनी स्वयं की प्रक्रिया निर्धारित कर सारांशिक कार्यवाही कर निपटाया जा सकता है,मात्र ऐसी प्रक्रिया उचित होनी चाहिए| यह नियम प्रिवी कोंसिल ने पोलार्ड के मामले में निर्धारित किया था और भारत व बर्मा में इसका अनुसरण किया जाता रहा है और यह आज भी कानून है| प्रतिवादी ने वकील नियुक्त करने हेतु समय मांगते हुए निवेदन किया कि वे लोग वर्तमान में चुनाव लडने में व्यस्त हैं किन्तु न्यायालय ने समय देने से मना कर दिया| इस प्रकार अवमान के अभियुक्त को देश के सर्वोच्च न्यायिक संस्थान ने बचाव का उचित अवसर दिए बिना ही दण्डित कर दिया| प्रश्न यह उठता है कि यदि दंड प्रक्रिया संहिता को छोड़कर भी अन्य प्रक्रिया उचित हो सकती है तो फिर ऐसी उचित प्रक्रिया अन्य आपराधिक कार्यवाहियों में क्यों नहीं अपनाई जाती| देश के संवैधानिक न्यायालयों को भ्रान्ति है कि वे अपनी प्रकिया के नियम स्वयं स्वतंत्र रूप से बना सकते हैं और इस भ्रान्ति के चलते वे प्रेक्टिस डायरेक्शन, सर्कुलर, हैण्ड बुक आदि बनाकर अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण का रहे हैं| जबकि देश का संविधान उन्हें ऐसा करने की कोई अनुमति नहीं देता है| संविधान के अनुच्छेद 227(3) के परंतुक के अनुसार उच्च न्यायालयों को राज्यपाल की पूर्वानुमति और अनुच्छेद 145 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से ही प्रक्रिया के नियम बनाने का अधिकार है| वैसे भी अवमान कोई गंभीर और जघन्य अपराध नहीं है जिसके लिए तुरंत दंड देना आवश्यक हो| गंभीर और जघन्य अपराधों के मामलों में विधायिका ने अधिकतम सजा मृत्यु दंड या आजीवन कारावास निर्धारित कर रखी है जबकि अवमान कानून में अधिकतम सजा छ: मास का कारावास मात्र है| 
पुराने समय से यह अवधारणा प्रचलित रही है कि राजा ईश्वरीय शक्तियों का प्रयोग करता है और न्यायाधीश उसका प्रतिनिधित्व करते हैं अत: वे संप्रभु हैं| किन्तु लोकतंत्र के नए युग के सूत्रपात से न्यायपालिका व इसकी प्रक्रियाओं को आलोचना से संरक्षण देना एक समस्या को आमंत्रित करना है| यद्यपि भारतीय अवमान कानून में वर्ष 2006 में किये गए संशोधन से तथ्य को एक बचाव के रूप में मान्य किया जा सकता है यदि ऐसा करना जनहित में हो किन्तु भारतीय न्यायपालिका इतनी उदार नहीं है और उसमें  अपनी आलोचना सुनने का साहस व संयम नहीं है चाहे यह एक तथ्य ही क्यों न हो| हाल ही में मिड-डे न्यूजपेपर के मामले में भारतीय न्यायपालिका की निष्पक्षता और बचाव पक्ष के असहायपन पर पुनः प्रश्न चिन्ह लगा जब अभियुक्तों को तथ्य को एक बचाव के रूप में अनुमत नहीं किया गया| समाचार पत्र ने एक सेवानिवृत न्यायाधीश के कृत्यों पर तथ्यों पर आधारित एक लेख और कार्टून प्रकाशित किया था जिसे न्यायालय ने अवमान माना कि इससे न्यायपालिका की छवि धूमिल हुई है| यक्ष प्रश्न यह है कि न्यायपालिका की छवि को वास्तव में नुक्सान उन न्यायाधीश महोदय के कृत्य से हुआ अथवा उस कृत्य के प्रकाशन से| न्यायालय में विचाराधीन कार्यवाही के विषय में समाचार प्रकाशित करने को भी भारत के न्यायालय अवमान मानते हैं और कहते हैं कि इससे निर्णय प्रभावित हो सकता है अत: यह न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप है| जबकि न्यायाधीश यह भूल रहे हैं कि उन्होंने सेवा ग्रहण करते समय शपथ लेकर जनता को वचन दिया था कि वे बिना राग-द्वेष  और बिना पक्षपात-भय के कार्य करेंगे| यदि मिडिया रिपोर्ट से उनके निर्णय प्रभावित होने की आशंका हो तो उन्हें मिडिया रिपोर्टें नहीं देखनी चाहिए| मात्र एक न्यायाधीश के ऐसे अंदेशे के आधार पर सम्पूर्ण देश को जानने से वंचित नहीं किया जा सकता| 
यद्यपि अवमान कानून में कहीं पर भी यह प्रावधान नहीं है कि संचार जगत में प्रकाशित किसी विवरण के आधार पर न्यायालय स्वप्रेरणा से संज्ञान ले सकेंगे किन्तु फिर भी ऐसा होता है| वहीँ दूसरी ओर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190(1)(ग) में यह स्पष्ट प्रावधान है कि एक मजिस्ट्रेट अन्य व्यक्ति से सूचना प्राप्त होने या स्वयं की जानकारी से किसी अपराध का प्रसंज्ञान ले सकता है| आज संचार जगत में बहुत सी अपराध की ख़बरें छपती हैं और मजिस्ट्रेटों की जानकारी में भी आती हैं किन्तु मुश्किल से ही भारत में कोई मजिस्ट्रेट इनका प्रसंज्ञान लेता है जिससे यह लगता है मानों न्यायालय जनता की रक्षा के स्थान पर स्वयं अपनी रक्षा के लिए बनाये गए हों|    
दूसरी ओर आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि वकीलों की हड़ताल, धरने, कार्य स्थगन, पक्षकारों के न्यायालय में प्रवेश को रोकने और यहाँ तक कि न्यायालय के प्रवेश द्वार के ताला लगाने तक को न्याय प्रशासन में बाधा मानकर संविधान के रक्षक न्यायालय कोई संज्ञान नहीं लेते हैं| न्यायालय को वकील हड़ताल का नोटिस दी देते हैं और न्यायालय उसका अनुपालन करते हैं| क्या यही न्यायपालिका की स्वतंत्रता की निशानी है? वैसे जो प्रशंसा या आलोचना का हकदार हो उसे वह अवश्य मिलना चाहिए किन्तु कई बार मीडिया द्वारा निहित स्वार्थवश अतिशयोक्तिपूर्ण कथनों से न्यायालयों की अनावश्यक प्रशंसा भी की जाती है जिससे जन मानस में भ्रान्ति फैलती है और समान रूप से जन हित की हानि होती है| क्या न्यायालय ऐसी स्थिति में भी स्वप्रेरणा से मीडिया के विरुद्ध कोई कार्यवाही करते हैं?
इंग्लॅण्ड का एक रोचक मामला इस प्रकार है कि एक भूतपूर्व जासूस पीटर राइट ने अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक लिखी| ब्रिटिश सरकार  ने इसके प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए याचिका दायर की कि पुस्तक गोपनीय है और इसका  प्रकाशन राष्ट्र हित के प्रतिकूल है| हॉउस ऑफ लोर्ड्स ने 3-2  के बहुमत से पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगा दी| प्रेस इससे क्रुद्ध हुई और डेली मिरर ने न्यायाधीशों के उलटे चित्र प्रकाशित करते हुए ये मूर्खशीर्षक दिया| किन्तु इंग्लॅण्ड में न्यायाधीश व्यक्तिगत अपमान पर ध्यान नहीं देते हैं| न्यायाधीशों का विचार था कि उन्हें विश्वास है वे मूर्ख नहीं हैं किन्तु अन्य लोगों को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है|ठीक इसी प्रकार यदि न्यायाधीश वास्तव में ईमानदार हैं तो उनकी ईमानदारी पर लांछन मात्र से तथ्य मिट नहीं जायेगा और यदि ऐसा प्रकाशन तथ्यों से परे हो तो एक आम नागरिक की भांति न्यायालय या न्यायाधीश भी समाचारपत्र से ऐसी सामग्री का खंडन प्रकाशित करने की अपेक्षा कर सकता है| न्यायपालिका का गठन नागरिकों के अधिकारों और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए किया जाता है न कि स्वयं न्यायपालिका की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए| न्यायपालिका की संस्थागत छवि तो निश्चित रूप से एक लेख मात्र से धूमिल नहीं हो सकती और यदि छवि ही इतनी नाज़ुक या क्षणभंगुर हो तो स्थिति अलग हो सकती है| जहां तक न्यायाधीश की व्यक्तिगत बदनामी का प्रश्न है उसके लिए वे स्वयम कार्यवाही करने को स्वतंत्र हैं| इस प्रकार अनुदार भारतीय न्यायपालिका द्वारा अवमान कानून का अनावश्यक प्रयोग समय समय पर जन चर्चा का विषय रहा है जो मजबूत लोकतंत्र की स्थापना के मार्ग में अपने आप में एक गंभीर चुनौती है|

सुप्रीम कोर्ट का एम.आर.पाराशर बनाम डॉ. फारूक अब्दुल्ला- {1984 क्रि.s aaला. रि. (सु. को.)} में  कहना है कि किसी भी संस्थान या तंत्र की सद्भावनापूर्ण आलोचना उस संस्थान या तंत्र के प्रशासन को अन्दर झांकने और अपनी लोक-छवि में निखार हेतु उत्प्रेरित करती है। न्यायालय इस स्थिति की अवधारणा पसंद नहीं करते कि उनकी कार्यप्रणाली में किसी सुधार की आवश्यकता नहीं है। दिल्ली उ. न्या. ने सांसदों द्वारा प्रश्न पूछने के बदले धन लिए जाने  के प्रमुख प्रकरण अनिरूद्ध बहल बनाम राज्य में निर्णय दि. 24.09.10 में कहा है कि सजग एवं सतर्क रहते हुए राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं के अनुसार दिन-रात रक्षा की जानी चाहिए और उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करना चाहिए। अनुच्छेद 51 क (छ) के अन्तर्गत जांच-पड़ताल एवं सुधार की भावना विकसित करना नागरिक का कर्तव्य है। अनुच्छेद 51 क (झ) के अन्तर्गत समस्त क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिए अथक प्रयास करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है ताकि राष्ट्र आगे बढे। जीन्यूज के रिपोटर ने जब अहमदाबाद के एक न्यायालय से चालीस हजार रूपये में तत्कालीन राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति, सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य न्यायाधीश और एक वकील के विरुद्ध अनुचित रूप से जमानती वारंट हासिल कर लिए हों तो आम नागरिक के लिए न्यायपालिका की कार्यशैली व छवि के विषय में कितना चिंतन करना शेष रह जाता है| यह उदाहरण तो समुद्र में तैरते हिमखंड के दिखाई देने वाले भाग के समान है जानकार लोग ही इसकी वास्तविक गहराई का अनुमान लगा सकते हैं| हाल ही के सिंघवी सीडी प्रकरण ने तो उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों में अस्वच्छ राजनीतिक हस्तक्षेप प्रकट किया है| अवमान का उपयोग अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले के लिए कदाचित नहीं किया जाना चाहिए| यदि अवमान के ब्रह्माश्त्र का प्रयोग कर न्यायपालिका में व्याप्त अस्वच्छता को उजागर करने पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया जाय तो फिर न्यायपालिका का शुद्धिकरण किस प्रकार संभव है जबकि देश में न्यायपालिका के विरुद्ध शिकायतों के लिए कोई अन्य मंच ही नहीं है|
गौहाटी उ.न्या. के कुछ न्यायाधीशों के प्रति असम्मानजनक भाषा में समाचार प्रकाशित करने पर स्वप्रेरणा से अवमान हेतु संज्ञान लिया गया। प्रत्यार्थियों ने बाद में असम्मानजनक शब्दों के लिए क्षमा याचना करते हुए तथ्यों की पुष्टि कायम रखी। गौहाटी उ.न्या. ने इस ललित कलिता के मामले में दिनांक 04.03.08 को दिए निर्णय में कहा कि निर्णय समालोचना हेतु असंदिग्ध रूप से खुले हैं। एक निर्णय की कोई भी समालोचना चाहे कितनी ही सशक्त हो, न्यायालय की अवमान नहीं हो सकती बशर्ते कि यह सद्भाविक एवं तर्क संगत शालीनता की सीमाओं के भीतर हो। एक निर्णय, जो लोक दस्तावेज है या न्याय-प्रशासक न्यायाधीश का लोक कृत्य है, की उचित एवं तर्क संगत आलोचना अवमान नहीं बनती है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य (1956 AIR  541) के मामले में कहा है कि जो कोई लोक पद धारण करता हो उसे उस पद से जुड़े आलोचना के हमले को, यद्यपि दुखदायी है, स्वीकार करना चाहिए|  

उधर दिनांक 01.01.1995 से लागू चीन के राज्य क्षतिपूर्ति कानून में तो राज्य के अन्य अंगों के समान ही अनुचित न्यायिक कृत्यों से व्यथित नागरिकों को क्षति पूर्ति का भी अधिकार है व सरकार को यह अधिकार है कि वह इस राशि की वसूली दोषी अधिकारी से करे| वहाँ न्यायपालिका भी राज्य के अन्य अंगों के समान ही अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति दायीं है, और भारत की तरह किसी प्रकार भिन्न अथवा श्रेष्ठ नहीं मानी गयी है|


दूसरी ओर हमारे पडौसी देश श्रीलंका में अवमान कानून की बड़ी उदार व्याख्या की जाती है| श्रीलंका के अपीलीय न्यायालय ने सोमिन्द्र बनाम सुरेसना के अवमान प्रकरण में न्यायाधिपति गुणवर्धने ने दिनांक 29.05.98  को निर्णय देते हुए कहा कि दोष सिद्ध करने के लिए आवश्यक है कि प्रमाण का स्तर समस्त युक्तियुक्त और तर्कसंगत संदेह के दायरे से बाहर होना चाहिए| प्रकरण में न्यायालय के आदेश से सरकारी सर्वेयर अपना कार्य कर रहा था और उसने प्रकरण प्रस्तुत किया कि उसे कार्य नहीं करने दिया गया और बाधा डाली गयी| न्यायालय ने यह भी  कहा कि यदि सर्वेयर निष्पक्ष ढंग से कार्य नहीं कर रहा हो तो उससे पक्षकारों की भावनाओं को उत्तेजना मिलती है व किसी के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाए तो गुस्सा और ऊँची आवाज स्वाभाविक परिणति है| दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत के इतिहास में अवमान के मामलों में शायद ही कभी इस वास्तविकता को स्वीकार किया गया है| मर्यादा की अपेक्षा कदापि  एक तरफा नहीं हो सकती| न्यायालय ने आगे कहा कि यद्यपि सर्वेयर के कार्य में बाधा डालना आपराधिक अवमान है| सिविल और आपराधिक अवमान दोनों का उद्देश्य सारत: एक ही है कि न्याय प्रशासन की प्रभावशीलता को कायम रखना और दोनों  ही स्थितियों में तर्कसंगत संदेह से परे प्रमाण की आवश्यकता है |

न्यायालय ने धारित किया कि  सर्वेयर के साक्ष्य के आधार पर दोषी को दंड कैसे दिया जा सकता है जबकि सर्वेयर ने अपनी रिपोर्ट में, यदि यह सत्य हो तो,  बाधा डालने का उल्लेख नहीं किया है| इस कारण उसका साक्ष्य अविश्वसनीय है व संदेह से परे न होने कारण अग्राह्य  है और दोषी को मुक्त कर दिया गया| उक्त विवेचन से बड़ा स्पष्ट है कि श्रीलंका में न्यायपालिका का अवमान के प्रति बड़ा उदार रुख है और वह भारतीय न्यायपालिका के विपरीत जनतांत्रिक अधिकारों को महत्व देती है व अपने अहम को गौण समझती है| यह भी उल्लेखनीय है कि श्रीलंका में अवमान नाम का अलग से कोई कानून नहीं है अपितु अवमान सम्बंधित प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता और न्याय प्रशासन कानून में समाहित करना ही पर्याप्त समझा गया  है और वे सभी न्यायिक कार्यवाहियों के लिए समान हैं| लगता है भारत में तो न्यायपालिका को तुष्ट करने के लिए अलग से अवमान कानून बना रखा है और श्रीलंका की विधायिका ने अवमान सम्बंधित प्रावधान न्याय प्रशासन के उद्देश्य से बनाये हैं|
लोकतंत्र का मूलमन्त्र न्यायपालिका सहित शासन के समस्त अंगों का जनता के प्रति जवाबदेय होना है| चीन के संविधान के अनुच्छेद 128 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट संसद  के प्रति जवाबदेय है| इंग्लॅण्ड के कोर्ट अधिनियम, 2003 की धारा 1(1) के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का मुखिया लोर्ड चांसलर देश के समस्त न्यायालयों के दक्ष व प्रभावी संचालन के लिए जिम्मेदार है| दूसरी ओर स्वतंत्र होने का अर्थ गैर-जिम्मेदार या बेलगाम घोड़े की भांति     नियंत्रणहीन होना नहीं है| भारत में न्यायालयों व न्यायाधीशों को जन-नियंत्रण से मुक्त रखा गया है और वे कानूनन किसी के प्रति भी जिम्मेदार नहीं हैं|




Saturday 17 November 2012

भ्रष्टाचार अनुकूल परिस्थितियों में पनपता है


भ्रष्टाचार के प्रसंग में जन लोकपाल बिल पर भारत  में यह गर्मागर्म बहस का विषय रहा कि इसके दायरे से किसे बाहर रखा जाये| वैसे भी भ्रष्टाचार पर अंतर्राष्ट्रीय संधि -2003 की भारत ने काफी विलम्ब से वर्ष 2011 में पुष्टि की है जिससे भ्रष्टाचार के विषय में भारत की संजीदगी, गंभीरता  और प्रतिबद्धता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है| दूसरी ओर हमारे पडौसी देश पाकिस्तान की स्थिति की ओर देखें तो वहाँ भ्रष्टाचार सम्बंधित मामलों के लिए राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो अध्यादेश, 1999 लागू है| यह अध्यादेश सम्पूर्ण पकिस्तान में राष्ट्रपति सहित पाकिस्तान में सेवारत सभी लोक पदधारियों पर लागू है और अभियोजन के लिए किसी पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है| ऐसी परिस्थितियों में भारत में भी भ्रष्टाचार सम्बंधित किसी भी कानून के दायरे से किसी भी पदाधिकारी को बाहर रखने की क्या आवश्यकता हो सकती है|

अध्यादेश की धारा 16 (ए) के अनुसार ऐसे अपराधों की सुनवाई दिनप्रतिदिन के आधार पर होगी और 30 दिन के भीतर निपटा दी जायेगी| धारा 18 (एफ) के अनुसार कोई भी जांच या अनुसंधान शीघ्रतम किन्तु 75 दिन के भीतर पूर्ण कर लिया जावेगा| धारा 32 के अंतर्गत अंतिम निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में 10 दिन में अपील दाखिल की जा सकेगी और जिसे न्यूनतम दो न्यायाधीशों की बेंच द्वारा सुना जायेगा व अपील दाखिल करने से 30 दिन के भीतर निर्णित कर दिया जायेगा| उक्त के अतिरिक्त पकिस्तान के भ्रष्टाचार  सम्बंधित कानून का दयारा भी बड़ा व्यापक है और उसमें किसी वितीय संस्था, बैंक, सरकारी विभाग  के प्रति दायित्व या ऋण का जानबूझकर चुकारा न करना भी उक्त अध्यादेश  की परिधि में अपराध है| बड़े पैमाने पर आम जनता से धोखाधड़ी और अमानत में खयानत को भी इस कानून के दायरे में लेकर त्वरित कार्यवाही का प्रावधान किया गया है| जबकि भारत में आम जनता के साथ संगठित तौर पर व्यावसायिक धोखाधडियाँ होती रहती हैं और पुलिस व देश के न्यायालय बड़े पैमाने पर पीड़ित देश की जनता के ऐसे मामलों को सिविल प्रकृति का मानकर ख़ारिज करते रहते हैं| उक्त से स्पष्ट है कि जोंक की तरह जनता का रक्तपान करने वाले अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के फलने फूलने के लिए भारत भूमि बड़ी अनुकूल है| जिस प्रकार कोई भी वनस्पति या प्राणी अनुकूल वातावरण में आसानी से फलता फूलता है उसी प्रकार विद्यमान परिस्थितियों में भारत में भ्रष्टाचार अच्छी तरह से फलफूल सकता है- नित नए उजागर होने वाले घोटाले इसे प्रमाणित करते हैं| 

दुर्भाग्य से हमारी कमजोर विधायिका द्वारा कोई प्रभावी व सख्त कानून नहीं बनाया जाता और यदि संयोग से हमारी विधायिका कोई जनानुकूल कानूनी प्रावधान कर दे तो हमारी न्यायपालिका उसकी मनमानी व्याख्याकर उसे भी विफल कर देती है| कहने को तो हमारे यहाँ भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 में यह प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय इस अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही के विरुद्ध किसी भी आधार पर रोक नहीं लगायेगा और देश का सुप्रीम कोर्ट भी सत्यनारायण शर्मा बनाम राजस्थान राज्य (AIR 2001 SC 2856) में इस आशय की सैद्धांतिक पुष्टि कर चुका है किन्तु इसके बावजूद देश के विभन्न संवैधानिक न्यायालयों ने भ्रष्टाचार के बहुत से मामलों में आज भी रोक लगा रखी है और इस कारण उनमें परीक्षण रुके हुए हैं| इससे भ्रष्टाचारियों का मनोबल बढता है और पीड़ित व्यक्ति हताश होता है व न्यायप्रणाली में विश्वास कमजोर होता है| किन्तु व्यवहार में भ्रष्टाचार के प्रमाणित मामले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, राजस्थान  द्वारा कार्यवाही नहीं करने की शिकायत पर घोषित नीति के अनुसार उसका कोई न्यायिक संज्ञान लेकर आदेश पारित करने की बजाय भारत का सुप्रीम कोर्ट भी उसे अन्य राजकीय विभाग या फारवर्डिंग एजेन्ट की तरह मात्र फारवर्ड कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है| यह स्थिति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर व निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है|
भारत के सामने यह यक्ष प्रश्न है कि पाश्चात्य विकसित लोकतांत्रिक देशों की मजबूत स्थिति को छोड़ भी दिया जाये तो क्या हम हमारे पडौसी देश पाकिस्तान से भी कमजोर हैं अथवा हम भ्रष्टाचार के प्रति गंभीर और प्रतिबद्ध नहीं हैं- इस गंभीर अपराध को रोकने के लिए इच्छशक्ति का अभाव है| यदि हम 65 वर्ष के स्वतंत्रता काल में प्रतिवर्ष 1.5% भी परिवर्तन करते तो आज तक सम्पूर्ण व्यवस्था को जनोन्मुखी बना सकते थे किन्तु हमारी अपनी चुनी गयी सरकारें सुधार के नाम पर गत 65 वर्षों से नाटक मात्र कर रही हैं| सुधार के किसी भी सुझाव के विरुद्ध देश के कर्णधार और नौकरशाह एक स्वर में रटारटाया बहाना बनाते हैं कि क्षेत्र बड़ा होने के कारण यह करना कठिन है जबकि इसी अवधारणा पर क्रमश: पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश को विभाजित कर नए राज्यों का निर्माण किया गया था| किन्तु विद्यमान स्थिति गवाह है कि इन नवनिर्मित राज्यों में भी सार्वजनिक धन की लूट, अराजकता, आम नागरिक की असुरक्षा  और  अव्यवस्था में बढ़ोतरी ही हुई है, किसी प्रकार की कमी नहीं| हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार एक महावत विशालकाय हाथी पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है उसी प्रकार सुधार के लिए आकार की बजाय प्रबल इच्छाशक्ति व युक्ति महत्वपूर्ण है| 

भारत में कानून के राज का अभिप्राय

देश में जब तक अनियंत्रित भ्रष्टाचार और विलम्बकारी तन्त्र की गहरी जड़ों वाली उत्पीड़नकारी आपराधिक न्याय प्रणाली जारी रहेगी, तब तक यह  अपराध और क्रूरता से पीड़ित लोगों को न्याय प्रदान से मना करती रहेगी। आज भारत के प्रत्येक उच्च और शक्ति-संपन्न अपराधी को न्यायपालिका पर पूरा विश्‍वास है और वह पूरी तरह से आश्‍वस्त है कि शिकायतकर्ता को वह एक लंबे और शरारतपूर्ण मार्ग पर धकेलने में समर्थ है और इसमें अंतिम विजय उस अपराधी की ही होगी। जहां लगातार देरी से व्यथित व्यक्ति के साथ गंभीर अन्याय होगा। जिसमें औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा देरी से किया न्याय, न्याय हेतु मनाही में बदल जायेगा। जो लोग इस सुस्थापित व्यवस्था को चलाने के लिये प्रशिक्षित और सिद्धहस्त हैं, उनसे न्यायपालिका में कोई चमत्कारिक या क्रांतिकारी बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती-ऐसे परिवर्तन, जिनसे बिलकुल विपरीत परिणाम प्राप्त हो सकें।
लोकतंत्र की अपेक्षा है कि ब्रिटिश शासन से बाद भारत के लोगों को सुरक्षा और न्याय मिले। न्यायपालिका को यह भ्रम हो सकता है कि उसकी जनता में बड़ी इज्जत है, जबकि आम भारतीय बहुत लंबे समय से न्यायपालिका और पुलिस दोनों से बुरी तरह से हताश और निराश है, क्योंकि दोनों ही संस्थान अभी भी औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की रीति-नीतियों, कानूनों और सिद्धान्तों से संचालित हैं। पुलिस से तो लोग बुरी तरह से आतंकित भी हैं, जबकि न्यायपालिका में बढते भ्रष्टाचार और बड़े लोगों के प्रति न्यायपालिका के उदार नजरियों को लेकर लोगों में गुस्सा है। सभ्य समाज की संवेदनहीनता के कारण आज दुर्घटना और हिंसक अपराधों के पीड़ित दम तोड़ते रहते हैं, किन्तु इस कारण नहीं कि हम अमानवीय हैं, अपितु इस उत्पीड़नकारी आपराधिक न्याय संस्थान  न्यायपालिका व पुलिस  के खोप के कारण कानून में विश्‍वास करने वाले भारत के आम नागरिक न्यायपालिका और पुलिस की उस कार्य संस्द्भति से पूरी तरह से भयभीत हैं जो उसे औपनिवेशिक युग से विरासत में प्राप्त हुई है। आज भी देश की न्यायपालिका लोकतान्त्रिक मूल्यों को नए ढंग से परिभाषित करने के स्थान पर औपनिवेशिक संस्था की तरह तात्कालीन प्रोटोकोल और परम्पराओं को  ही आगे बढ़ा रही है और करोड़ों भारतीयों को शासन का बड़प्पन और शक्ति अति भयभीत कर रहे हैं व आम आदमी को विवश कर संस्थागत न्यायिक विलम्ब के निर्बाध कुचक्र के माध्यम से उसका आर्थिक शोषण कर गंभीर अन्याय के वश में कर रही है तथा एक मात्र हानिकारक भ्रष्टाचार के कारण यह जारी है। औपनिवेशिक काले कानूनों और उनकी भाषा का जारी रहना करोड़ों भारतीयों के लिए आज भी एक पहेली बना हुआ है और भारतीय समाज और समुदाय लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ टकराव जारी रखे हुए है। इन औपनिवेशिक काले कानूनों के माध्यम से किया जाने वाला तथाकथित न्याय हमारे सामाजिक तानेबाने से नहीं निकला है, अपितु वह सत्रहवीं और अठारवीं सदी के यूरोप की उपज है, जो कि कानून और न्याय के नाम पर बड़ी संख्या में मानवजाति को गुलाम बनाने की पश्‍चिमी सामाजिक तकनीक रही है। ये समस्त कानून देशी भारतीयों पर, अंग्रेजों द्वारा थोपे गए एक तरफा अनुबंध मात्र हैं जो जिम्मेदार लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के सिद्धांत पर राज्य की स्थापना करते हों। भूत की तरह पुलिस की ओर से आनेवाली गोलियों को आज भी विशेष संरक्षण प्राप्त है। लोगों को ऐसी भाषा में न्याय नहीं दिया जा सकता, जिसे वे जानते ही नहीं हों इंग्लैण्ड में इतालवी या हिंदी भाषा में न्याय देने का दुस्साहस नहीं किया जा सकता, किन्तु भारत में 65 वर्षों से यह सब कुछ जारी है, क्योंकि 2 फरवरी 1835 को थोमस बैबंगटन मैकाले ने इसे इजाद किया था कि हमें एक ऐसा वर्ग तैयार करने का भरसक प्रयास करना है जो हमारे और जिन करोड़ों भारतीयों पर हम शासन करें के बीच अनुवादक का कार्य कर सके। एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग से तो भारतीय हो, परन्तु विचारों, नैतिकता और रूचि से अंग्रेज हो। आज की भारतीय न्याय व्यवस्था ने मैकाले के स्वप्नों को साकार करने के अतिरिक्त शायद ही कुछ किया होगा? आज की भारतीय न्याय प्रणाली भी काले उपनिवेशवादी कानूनों, प्रोटोकोल और परम्पराओं को जारी रखे हुए है, जिनमें एक गरीब न्यायार्थी की स्थिति मात्र गुलाम जैसी होकर रह जाती है और अत्याचारी पुलिस, जो चाहे अत्याचार कर सकती हैं और निर्भीक  होकर हत्याएं कर सकती है, उसको एक सुरक्षा के आवरण में ढांक दिया जाता है। ऐसे मामलों में स्वतंत्र न्यायिक जांच के लिए मना करने वाली न्यायपालिका इन आपराधिक द्भत्यों का उत्साहपूर्वक संरक्षण करती है। अफसोस कि फिर भी इसे न्याय, कानून के समक्ष समानता और लोकतंत्र कहा जाता है? अब समय आ गया है, जबकि आम भारतीय को सत्य की पहचान करनी चाहिए और इस उपनिवेशवादी मुकदमेबाजी उद्योग की चक्की में नहीं पीसना चाहिए और बदनामीयुक्त जीवन में नहीं रहना चाहिए। स्वतंत्र भारत के सम्पूर्ण काल का जिक्र ही क्या करना, जब मात्र 1990 से लेकर 2007 तक के बीच करीब 17000 हजार आरोपी व्यक्ति अर्थात् पुलिस की अन्य ज्यादतियों और यातनाओं को छोड़कर भी प्रतिदिन औसतन 3 व्यक्ति पुलिस हिरासत में मर चुके हैं और शायद ही इनमें से किसी पुलिसवाले का बाल भी बांका हुआ हो यहॉं तक की प्रमाण स्वरूप घटना का वीडियो उपलब्ध हो तो भी पुलिस का कुछ नहीं बिगड़ता! आखिर पुलिस अंग्रेजी शासनकाल से सर्वोच्च जो है। आज हमारी इस विद्भत, और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विपरीत और अनुपयुक्त प्रणाली में तुरंत निम्न परिवर्तन करने की महती आवश्यकता है :-
उन समस्त उपनिवेशवादी काले कानूनों और परम्पराओं की पहचान कर निरस्त किया जाये जो  वर्ग भेद करते हैं और कानून में विश्‍वास करने वालों में भय उत्पन्न करने वाली शक्ति और छवि का प्रदर्शन करते हों और साथ ही जो अपराधियों को अपराध करने को प्रेरित करते हों।
आज राष्ट्रद्रोह कानून को चंद लोगों की मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता जो जनविरोधी उपनिवेशवादी कानून को अन्याय और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठने वाले स्वरों को दबाने कुचलने लिए चुनिन्दा तौर पर इसका उपयोग करते हों।
उन सभी उपनिवेशवादी कानूनों के अंतर्गत प्रसंज्ञान लिया जाना बंद होना चाहिए, जिनका निर्माण मात्र शासक वर्ग द्वारा शोषण और अत्याचारों के विरुद्ध उठने वाले विरोधी स्वरों को दबाने के लिए किया गया हो। विशेषतया दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 46, 129, 144, 197 आदि और वे सब विशेष कानून जो मुठीभर अपराधियों ने लोगों की स्वतन्त्रता और कानून के समक्ष समानता छीनने के लिए बनाये हों एक लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में राज्य के आपराधिक कानून से किसी को भी विशेष सुरक्षा नहीं दी जा सकती और इससे समानांतर संवैधानिक व्यवस्था का जन्म होता है।
जिन बलों का गठन बाहरी आक्रमणों से रक्षा के लिए किया गया है, उनका देश में प्रयोग नहीं होना चाहिए, क्योंकि उन्हें मात्र बाहरी आक्रमणों से निपटने का प्रशिक्षण होता और उनका देश के नागरिकों के विरुद्ध उपयोग लोकतांत्रिक सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत है।
हमारे चुने गए जन प्रतिनिधियों को चाहिए कि वे अपने क्षेत्र की जनता से इन प्रस्तावित विधेयकों पर परामर्श लें। क्योंकि जनता ने उहें अपना प्रतिनिधि चुनकर कोई गुनाह नहीं किया है। अपने सभी लोकतान्त्रिक अधिकार गिरवी नहीं रखे हैं। हमारी मान्यता है कि लोकतंत्र कोई मूकदर्शी खेल नहीं है, बल्कि सतत रूप से कानून का राज है। ऐसे कानून का राज जो जमीनी स्तर के लोगों की सहभागिता वाले हमारे सामाजिक ताने बाने से बुना गया हो।

Sunday 11 November 2012

न्यायपालिका पर नए सवाल


11 नवंबर से भारत में अब तक के सबसे बड़े घोटाले 2जी स्पेक्ट्रम मामले की अदालत में सुनवाई शुरू हो गई है। आरोपियों में पूर्व संचारमंत्री ए. राजा और द्रमुक की ही अन्य दिग्गज सांसद कनीमोरी शामिल हैं। कनीमोरी तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि की पुत्री हैं। इनके अलावा 12 अन्य लोगों के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया है, जिनमें वरिष्ठ नौकरशाह और उद्योगजगत के बड़े खिलाड़ी शामिल हैं। इस प्रकरण में सरकारी खजाने को अनुमानित दो लाख करोड़ की चपत लगी है। अब सवाल उठता है कि क्या इस मामले में न्याय हो पाएगा और वह भी जल्द? इसका जवाब नकारात्मक नजर आ रहा है। जिस उच्च न्यायपालिका को अब तक संस्थागत ईमानदारी का आखिरी रखवाला माना जाता था, वह भी विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया की तरह दागी हो गई है। पथभ्रष्टता अब भारत में आम बात हो गई है।

इस हताशा का तात्कालिक कारण है उच्चतम न्यायालय की पूर्व जज रूमा पाल का व्याख्यान। 10 नवंबर को वीएम तारकुंडे मेमोरियल व्याख्यान में उन्होंने उच्च न्यायपालिका के सात पाप गिनवाए हैं। पापों की यह सूची इस प्रकार है-अपने साथी के अन्यायपूर्ण आचरण पर आंखें मूंदना; पाखंड-न्यायिक स्वतंत्रता के मानकों को विकृत करना; गोपनीयता-न्यायिक आचरण का कोई भी पहलू, यहां तक कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में कोई पारदर्शिता न होना; चोरी और उबाऊ विद्वता- अकसर उच्चतम न्यायालय के जज अपने पूर्ववर्तियों के फैसलों के अंश उठाकर अपने फैसले में लिख देते हैं और उनके नाम का उल्लेख करना भी उचित नहीं समझते। साथ ही वे जटिल भाषा और शब्दाडंबर से भरी भाषा में फैसला देते हैं; व्यक्तिगत अहंकार-उच्च न्यायपालिका अपनी श्रेष्ठता को जजों की अनुशासनहीनता व प्रक्रियाओं के उल्लंघन को छुपाने की ढाल बनाती है; पेशेवर अहंकार-जज पूरी तैयारी किए बिना ही फैसला लिख देते हैं। आखिरी अपराध है भाईभतीजावाद व पक्षपात-अन्य जजों के साथ मिलीभगत करके जज विभिन्न मामलों व नियुक्तियों में एक-दूसरे को फायदा पहुंचाते हैं।

न्यायपालिका की खामियां उजागर करने के लिए तारकुंडे मेमोरियल व्याख्यान जस्टिस रूमा पाल के लिए बिल्कुल सही मंच था, जो खुद भी ईमानदारी और साख के उच्चतम मानकों पर खरे उतरते हैं। जस्टिस तारकुंडे को कभी सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नत नहीं किया गया। विडंबना यह है कि उनकी साख और साहस ही उनके रास्ते में बाधा बन गए। उन्हें भारत में सिविल लिबर्टी आंदोलन के पिता के रूप में याद किया जाता है। वह जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता थे। अफसोस की बात है कि भारत में चागला, तारकुंडे और खन्ना के कद के बहुत कम जज हुए हैं, जिन्हें रोल मॉडल के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यही लोकतंत्र की खामियों का संकेतक है, जहां कानून के शासन की श्रेष्ठता और वैधानिकता व्यवहार रूप में सामने आने चाहिए, न कि अपवाद रूप में। रूमा पाल ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की गहरी पैठ को भी रेखांकित किया।

भारत की उच्च न्यायपालिका पर भ्रष्टाचार के अनेक दाग लगे हैं। वर्तमान में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष और उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन पर उनके दो पूर्व साथी जजों-जस्टिस शमसुद्दीन और जस्टिस सुकुमारन ने पक्षपात के आरोप लगाए थे। अभी इस आरोप को गलत सिद्ध करना भी शेष है कि बालाकृष्णन के परिवार ने उनके पद के आधार पर भारी संपत्ति अर्जित की। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल पर भी ऐसे ही आरोप लगाए गए थे। जून 2010 में पूर्व कानून मंत्री और टीम अन्ना के सदस्य शांति भूषण ने कुछ पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर सुनामी ला दी थी। शांतिभूषण पर भरोसा करें तो देश में अब तक मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहे जजों में से आधे भ्रष्ट थे।

दरअसल इस मामले में विवाद का मुद्दा यह है कि क्या भारत की न्यायपालिका को अकुशलता और भ्रष्टाचार के दलदल से बाहर निकाला जा सकता है। जस्टिस पाल ने बिल्कुल सही फरमाया है कि प्रत्येक न्यायाधीश की व्यक्तिगत ईमानदारी और साख ही न्यायिक प्रक्रिया की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता कायम रख सकती है। खेद की बात यह है कि भ्रष्ट आचरण को लेकर जिन जजों-पीडी दिनकरन, सौमित्र सेन और वी. रामास्वामी के खिलाफ जिस तरह से महाभियोग की प्रक्रिया चलाई गई उसने न्यायपालिका को लेकर आम भारतीय की निराशा को घटाने के बजाय बढ़ाया ही है। इन सभी मामलों में विधायिका और कार्यपालिका ने तार्किक परिणति पर पहुंचने से पूर्व ही मामले खत्म कर दिए और दागी जजों में से किसी को भी दंडित नहीं किया जा सका। उच्च न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार का समग्र भारतीय ढांचे पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ रहा है। इससे लोकतांत्रिक विधान और संविधान की शुचिता का मखौल उड़ रहा है। देश को इस कैंसर से ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ निपटना होगा अन्यथा भारत भ्रष्टाचार के दलदल में इतना गहरे डूब जाएगा कि उसका उबरना संभव नहीं होगा। सत्यमेव जयते।

लेखक सी. उदयभाष्कर 

http://celebritywriters.jagranjunction.com/2011/11/14/indian-judicial-system-2g-spectrum-scam-case-corruption-in-india/

Friday 9 November 2012

सूचना के अधिकार अधिनियम से क्या मिला ?


सूचना के अधिकार अधिनियम से क्या मिला ?

भारतीय लोग अक्सर सूचना का अधिकार अधिनियम को बहुत बडा मील का पत्थर मानते हैं और बड़े इत्मीनान से इसका गुणगान करते हैं| किन्तु वास्तविक स्थिति क्या है इसका मूल्यांकन निम्नानुसार है| एक सूचनार्थ आवेदन को सूचना आयोग द्वारा निर्णित होने में समान्यतया लगभग दो वर्ष का समय लग जाता है| अनुभव से प्रमाणित होता है कि सामान्यतया शक्तिशाली और संवेदनशील विभाग/कार्यालययथा - न्यायालय, सतर्कता, भ्रष्टाचार निरोधक, गृह मंत्रालय, न्याय विभाग, प्रशासन, पुलिस आदि  15-20% से अधिक मामलों में सूचनाएं नहीं देते हैं और सूचना आयोगों में याचिकाओं के ढेर लगे पड़े हैं| सूचना आयोग भी इन लोक प्राधिकारियों के साथ मिलीभगत से ही कार्य कर रहे हैं और लगभग यही प्रतिशत सूचना आयोगों द्वारा सूचना प्रदानागी के आदेशों का आता है| इन सभी लोक सेवकों को इस बात का ज्ञान और विश्वास है कि वे चाहे जो मर्जी करें उनका कुछ भी बिगडने वाला नहीं है- उन्हें दण्डित करने के सभी प्रावधान मात्र कागजी और जनता को भ्रमित करने के लिए हैं, आखिर थकहार कर अधिकतम एक नागरिक अपने पक्ष में आयोग से आदेश पारित करवा लेगा| इस आदेश की पालना में भी कई पेंच और पैंतरे होंगे| इस अवधि में अन्याय की अग्नि में रक्त तो आखिर नागरिक का ही जलेगा| हाँ स्थानीय और तुलनात्मक रूप से कम ताकतवर विभागों यथा पंचायत, स्कूल, नगर पालिका, निर्माण विभाग द्वारा दी जाने वाली सूचनाएं कुछ अधिक प्रतिशत हो सकती हैं| इस प्रकार इन परिस्थितियों में आपको बारबार आवेदन और अपील कर पूर्ण सूचना प्राप्ति में 10-14  (100/15-20% X 2) वर्ष  का समय लग जायेगा और तब तक प्राप्त उस सूचना की उपयोगिता व प्रासंगिकता ही नहीं रह जायेगी| भारत में एक व्यक्ति की औसत आयु 64 वर्ष को देखते हुए यह समय वैसे भी बहुत अधिक है| समर्थ लोगों को तो पहले भी वैध या अवैध ढंग से सूचनाएं मिल जाया करती थी किन्तु आम नागरिक के लिये आज भी कोई उपचार उपलब्ध नहीं हैं|
सूचना आयोग एक ट्राईब्युनल है और ट्राईब्युनल के गठन का उद्देश्य जनता को सस्ता और शीध्र न्याय उपलब्ध करवाना होता है क्योंकि भारत में न्याय प्रणाली मंथर और खर्चीली है| किन्तु यहाँ तो ट्राईब्युनल भी अपने उद्देश्य में विफल है| प्रथम तो सूचना आयोग कोई अर्थ दंड नहीं लगाते हैं और लगा भी दें तो यह राशि इतनी स्वल्प है कि अधिनियम का उल्लंघन रोकने में असफल है| लगभग  80% केन्द्रीय मामलों में इसे वसूल भी नहीं किया जा रहा है|  छठे वेतन आयोग से कर्मचारियों के वेतन और रिश्वत सहित अन्य आय में काफी वृद्धि हुई है जिससे यह अर्थदंड उनके लिए नगण्य रह गया है| आज सरकारी अधिकारियों के पास धन का कोई अभाव नहीं रहा है परिणामत: वे रिश्वत भी धन की बजाय सेवा के रूप में लेना अधिक पसंद करते हैं|

जहां तक अधिनियम की भावनात्मक अनुपालना करने का प्रश्न हैं, धारा 4 की अपेक्षानुसार 120 दिन की समयावधि में समस्त रिकार्ड सूचीबद्ध हो जाना चाहिए था ताकि आवश्यकता होने पर रिकार्ड की तलाशा जा सके किन्तु आज तक स्वयं केन्द्रीय सूचना आयोग ने भी  ऐसी सूची तैयार नहीं की है अन्य लोक प्राधिकारियों का तो जिक्र ही क्या किया जाये| हाँ कर्नाटका विधान सभा ने इस प्रसंग में अवश्य प्रशंसनीय कार्य कर अपनी समस्त पत्रावलियों की सूची इन्टरनेट पर डाल दी है|  सूचना के अधिकार का एक मनोवैज्ञानिक पहलू यह भी है कि नागरिक अपने सेवकों से सूचनाएं इसलिए माँगते हैं कि उन्हें अपने सेवकों के क्रियाकलापों पर विश्वास नहीं है व महसूस होता है कि उनके सेवक स्वच्छतापूर्वक और निष्ठापूर्वक कार्य नहीं कर रहे हैं (वास्तविकता तो यह है कि वे मुश्किल से ही कार्य करते हैं)| जिस दिन उन्हें विश्वास हो जायेगा कि उनके सेवक स्वच्छतापूर्वक निष्ठा से सेवा कार्य कर रहे हैं उस दिन से वे सूचनाओं के लिए आवेदन करना स्वत: ही कम कर देंगे|
ऐसा नहीं है कि सरकार की ओर से पहले से ऐसी व्यवस्थाओं का अभाव हो जिससे जनता को यह अधिकार देना आवश्यक हो गया हो| देश में कानूनी प्रावधानों और दिखावटी जनतांत्रिक आदेशों की पहले से भरमार है किन्तु यक्ष प्रश्न तो उनकी अनुपालना का है| अधिनियम बनने के उपरांत भी देश के न्यायतंत्र से जुड़े मुख्य न्यायाधिपति, कोलकता उच्च न्यायालय, बार काउंसिल और एटोर्नी जनरल  अपने आपको  अधिनियम  के दायरे से बाहर होने का दावा कर चुके हैं| अब ऐसे भले लोगों से जनता न्याय की आशा करती है तो वह किस सीमा तक वास्तविकता में बदल सकती है स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं रह जाती|
भारत सरकार के प्रशासनिक सुधार विभाग ने भारत सरकार के उपक्रमों/ कार्यालयों/विभागों  की कार्यप्रणाली को विनियमित करने के लिए एक मैनुअल तैयार कर रखी है| इस प्रकार के मैनुअल राज्य सरकारों ने भी बना रखे हैं| इस मैंनुअल के पैरा 15(4) में कहा गया है कि आवश्यक डाक जैसे ही प्राप्त होगी वितरित कर दी जायेगी और अन्य डाक सुविधा जनक  अंतराल से यथा 12 बजे , 2 बजे, 4 बजे वितिरित कर दी जायेगी| किन्तु वास्तव में डाक का वितरण एक दिन में तीन बार के स्थान पर सामान्यतया तीन दिन बाद किया जाता है| ठीक इसी प्रकार पैरा 66 में कहा गया है कि  जनता से प्राप्त सन्देश की 15 दिन के भीतर प्राप्ति भेजी जायेगी और आगामी 15 दिन के भीतर जवाब भेज दिया जायेगा| आगे यह भी कहा गया है कि यदि कोई सन्देश किसी विभाग को गलती से संबोधित कर दिया गया हो तो उसे एक सप्ताह के भीतर उपयुक्त विभाग को अंतरित कर दिया जायेगा| व्यवहार में अनुपयुक्त विभाग में प्राप्त सन्देश का संबंधित नहीं लिखकर वहीँ उसका असामयिक अंत कर दिया जता है| पैरा 66 में आगे कहा गया है कि जनता से प्राप्त किसी निवेदन को यदि किसी कारण से स्वीकार नहीं किया जा सके तो इस प्रकार की अस्वीकृति के कारण दिए जाने चाहिए| आगे कहा गया है कि जनता से प्राप्त आवेदनों को प्रशासनिक सुविधा की बजाय, जहां तक संभव हो, उपयोगकर्ता के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए| पैरा 121 में कहा गया है कि कोई भी अधिकारी सामान्य नियम के तौर पर, यदि  उच्च समय सीमा तय न हो तो, किसी भी मामले को अपने पास 7 दिन से अधिक बकाया नहीं रखेगा| यदि प्रकरण का सद्भावपूर्वक निपटान दिया जाये तो यह समय सीमा उपयुक्त है किन्तु जब  अलिखित कुटिल नीतियां और चालें अपनाकर किसी नागरिक के औचित्यपूर्ण निवेदन को भ्रष्टतापूर्वक अस्वीकार करना हो तो उसमें समय लगना स्वाभाविक है| यदि कोई मामला इस सीमा से अधिक समय तक बकाया रहता है तो उसका स्पष्टीकरण टिपण्णी के साथ दर्ज किया  जायेगा| किन्तु व्यवहार में इन निर्देशों की खुली अवहेलना हो रही है| यदि मैनुअल के इन लाभदायी प्रावधानों की सख्ती से अनुपालना की जाये तो सूचना के अधिकार के प्रावधानों का प्रयोग करने की आवश्यकता ही न्यूनतम रह जायेगी| उक्त सभी प्रावधानों का सरकारी तंत्र द्वारा विभिन्न  कुतर्कों पर आधारित किसी ने किसी बहाने से उल्लंघन किया जाता रहता है| स्वयं  प्रशासनिक सुधार विभाग द्वारा इस मैनुअल की अनुपालना नहीं की जाती है और कहा जाता है कि मैनुअल निदेशात्मक है आज्ञापक नहीं जबकि मैनुअल में यह कहीं पर भी  नहीं लिखा है कि यह आज्ञापक नहीं है| स्वस्पष्ट है कि एक नियोक्ता द्वारा बनाये गए नियम सेवक पर बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं और इनका सेवक द्वारा उल्लंघन किया जाना कदाचार की परिधि में आता है व सेवक को इसके लिए दण्डित किया जा सकता है| यदि विभागीय नियमों की अनदेखी की जाये तो फिर अनुशासन व व्यवस्था किस प्रकार कायम रह सकती है? सुस्थापित नियम के तौर पर जब तक विभाग ने किसी विषय पर अपने निर्देश तय नहीं कर रखे हों तब तक सामान्य मैनुअल लागू होता है और यदि इससे भिन्न किसी परिपाटी या प्रक्रिया को अपनाया जाये तो भी उसके तर्कसंगत कारण होने चाहिए न कि अपनी सुविधा या मनमानेपन के लिए मैनुअल का परित्याग कर दिया जाये|

हमारी विधायिकाओं की स्थिति भी जनानुकूल नहीं है| एक तिहाई जन प्रतिनिधि तो प्रमाणित रूप से दागी हैं ही शेष दो तिहाई के बेदाग़ होने की गारंटी नहीं दी जा सकती| फिर भी वे माननीय कहलाते हैं| इतना ही नहीं वे अक्षम भी हैं| भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने एक बार कहा था कि प्रजातंत्र के चार स्तम्भ होते हैं और भारत में साढ़े तीन स्तंभ क्षतिग्रस्त हो चुके हैं| श्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में, “विधायी कार्य को जिस सीमा तक सक्षमता या प्रतिबद्धता से करना चाहिए  न तो संसद, न ही राज्य विधान सभाएं कर रहीं है। कुछ अपवादों को छोड़कर जो लोग इन लोकतान्त्रिक संस्थानों के लिए चुने जाते है, वे औपचारिक या अनौपचारिक रूप से विधि-निर्माण में न तो प्रशिक्षित हैं और न ही अपने पेशे में सक्षमता और आवश्यक ज्ञान का विकास करने में प्रवृत प्रतीत होते हैं। समाज के वे लोग जो मतदाताओं की सेवा में सामान्यतः रूचि रखते हैं और विधायी कार्य कर रहे हैं, आज की मतदान प्रणाली में सफलता प्राप्त करना कठिन पाते हैं और मतदान प्रणाली धन-बल, भुज-बल और जाति व समुदाय आधारित वोट बैंक द्वारा लगभग विध्वंस की जा चुकी है। शासन के ढांचे में भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र के सार-मताधिकार- को ही जंग लगा दिया है, शासन -ढांचे में भ्रष्टाचार की सुनिश्चित संभावना के कारण राजनैतिक पार्टियों में अवसरवाद व बेशर्मी बढ़ी है जिससे बिना लोकप्रिय जनादेश के प्रायः अवसरवादी गठबन्धन व समूहीकरण हुआ है। प्रणाली में कमियों के कारण वे सत्ता  पर फिर भी काबिज हो जाते है तथा बने रहते हैं। जातिवाद, भ्रष्टाचार तथा राजनीतिकरण ने हमारी सिविल सेवाओं की दक्षता व निष्ठा में भी कमी लाई है। जवाबदेही के अभाव में वर्तमान शासन प्रणाली में राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों, नीतियों, कार्यक्रमों का अभिप्रायः समाप्त हो गया है। उक्त कारणों से जन-प्रतिनिधि इन राजपुरुषों के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करना कठिन पाते हैं| जन-प्रतिनिधि प्राय: नियमों को लांघकर कार्य करवाते हैं और इसके निर्बाध संपन्न होने लिए वे टिपण्णी के उपर मंत्री का मामला जैसे शब्द पेन्सिल से लिखवाते हैं जिसे बाद में मिटा दिया जाता है और आवश्यकता पडने पर सम्बंधित अधिकारी से मौखिक विमर्श कर लिया जाता है| सूचना का अधिकार इस गोरख-धंधे तक पहुँचने में असमर्थ है| एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि हमारे देश में औसत आयु 64 वर्ष है जबकि पाश्चात्य देशों में यह  88 वर्ष है| एक व्यक्ति में समय और अनुभव के हिसाब से ही बौद्धिक परिपक्वता का संचार होता है| विकसित देशों के जनप्रतिनिधियों की आयु का औसत  हमारे यहाँ से ऊँचा है इस कारण भी हमारे जनप्रतिनिधियों में अपेक्षित बौद्धिक परिपक्वता  और अनुभव का तुलनात्मक अभाव है|

महाभारत में कहा गया है कि जिस राज्य की दंड व्यवस्था कमजोर हो वह राज्य नष्ट हो जाता है| इस प्रसंग में सोवियत रूस का एक प्रसंग महत्वपूर्ण है जहां एक समाचार वाचक को गलत समाचार पढने पर दंडस्वरूप साइबेरिया के बर्फीले जंगलों में लकड़ी काटने भेज दिया गया था| किन्तु जनता द्वारा चुनी गयी सरकार द्वारा स्थापित निर्देशों/नियमों का लोकतंत्र के सेवकों द्वारा खुला और मनमाना उल्लंघन भारत भूमि पर निर्बाध रूप से जारी है| हमारे तथाकथित लोक सेवकों द्वारा सरकारी नियमों और निर्देशों के उल्लंघन के लिए नियमों से विपरीत टिप्पणियाँ बनाकर उनका वरिष्ठ अधिकारी से अनुमोदन करवाकर मामले का निपटान देने की धूर्त परिपाटी का सहारा लिया जाता है| यहाँ तक की नीतिगत मामले, जोकि मात्र जनप्रतिनिधियों की अधिकार सीमा में हैं, का निपटान ये अधिकारीगण निस्संकोच होकर दे देते हैं| टिप्पणियाँ बनाने के लिए उक्त मैनुअल में प्रारूप निर्धारित है किन्तु टिप्पणियां बनाते समय इस प्रारूप का ही परित्याग कर दिया जाता है जिससे दोषी लोगों का दायित्व स्पष्ट नहीं हो पाता है| टिपण्णी में न तो प्रारम्भ की तिथि और न ही किस अधिकारी को संबोधित है यह लिखा जाता है और न ही यह स्पष्ट किया जाता है कि हस्तगत प्रकरण में निर्णय लेना किस अधिकारी की शक्ति में आता है बल्कि सम्पूर्ण मामला ही गोलमोल कर दिया जाता है| यह भारत सरकार के कार्यालयों, यहाँ तक कि लोकतंत्र के सर्वोच्च संस्थानों -लोक सभा और राज्य सभा सचिवालयों की कार्य शैली है| जो प्रकरण जन प्रतिनिधियों की किसी कमिटी  के विचारण का हो उस पर इस प्रकार की अनुचित और विधि विरुद्ध टिप्पणियाँ बनाकर निचले स्तर पर ही बंद कर दिया जाता है और वह मामला कमेटी के समक्ष कभी भी नहीं आ पाता है और इस प्रकार देश में  लोकतंत्र पर नौकरशाही भारी पड़ रही है| क्या यही हमारा 65 वर्ष का परिपक्व लोकतंत्र है जिसका सपना हमारे पूर्वजों ने देखा होगा? अब प्रश्न यह उठता है कि यदि देश के नौकरशाह ही प्रत्येक प्रकरण का अंतिम और असामयिक अंत करने के लिए सक्षम और जनता के भाग्य विधाता हों तो फिर विधायिकाओं या उनकी कमेटियों की क्या आवश्यकता है|
आज केंद्र सरकार के सचिवालय या कार्यालय में अधिकारी यह कहते आसानी से सुने जा सकते हैं कि हमने तो जो करना था कर दिया अब जहां मर्जी चले जांयें| उन्हें इस बात का पूरा पूरा विश्वास और ज्ञान है कि उनके कदाचार के लिए वे न तो विभागीय कार्यवाही में दण्डित होंगे और न ही किसी अन्य मंच या न्यायालय से उन्हें कोई दंड मिलेगा क्योंकि वहाँ पर  भी कोई सज्जन व्यक्ति नहीं हैं अपितु उनकी बिरादरी के ही लोग पदासीन हैं|  देश के सरकारी कार्यालयों में मुश्किल से ही कोई कार्य भय या लालच  के बिना होता होगा| आज ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में कोई भी नीतिगत या नीतिसम्म्त निर्णय नहीं लिया जाता है बल्कि इधर की डाक उधर और उधर की डाक इधर भेजकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है| इस प्रकार, विशेष कर (राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री सहित) सचिवालय तो डाकघर की भांति बिना पढ़े ही डाक को आगे फॉरवर्ड करने का कार्य मात्र कर रहे हैं अत: इन्हें सचिवालय की बजाय डाक विनिमय केन्द्र कहा जाय तो इनका सही नाम और चरित्र जनता के सामने आ सकेगा|
यद्यपि भारतीय दंड संहिता की धारा 166 में लोक सेवक द्वारा विधि की अवज्ञा कर किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाने पर व धारा 167 में अशुद्ध दस्तावेज रचकर किसी को हानि पहुंचाने  पर दंड का प्रावधान है| यह प्रावधान भी दिखावटी सा ही लगता है क्योंकि सामान्यतया मजिस्ट्रेट भी किसी लोक सेवक के विरुद्ध कोई कार्यवाही प्रारम्भ तक नहीं करते| यहाँ तक कि कानून की पुस्तकों में भी इन धाराओं में दण्डित होने के ऐतिहासिक उदाहरण मिलने  कठिन हैं| यदि मजिस्ट्रेट उक्त दो धाराओं को कठोरता से लागू करें तो भ्रष्टाचार और लापरवाही, तथा लोक सेवकों द्वारा मनमानेपन में आश्चर्यजनक कमी आ सकती है|

आज भारत में लोक सेवक पूरी तरह से संवेदनहीन, निर्भय और स्वछन्द हैं, उन्हें कोई भी कार्य जनता की अपेक्षाओं के अनुकूल करने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि यदि वे उचित ढंग से कार्य नहीं भी करेंगे और उनके वरिष्ठ अधिकारी का उन्हें सानिद्य प्राप्त है तो उन्हें कोई भी दण्डित नहीं कर सकेगा| दूसरी ओर इस विद्यमान अस्वच्छ व्यवस्था में यदि वे जन अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य कर रहे हैं किन्तु उनके वरिष्ठ उनसे अप्रसन्न हैं तो उन्हें कोई पुरस्कार प्राप्त नहीं होगा| देश में बढ़ते घोटाले, अराजकता और अव्यवस्था इस बात की गवाही देते हैं कि शीर्ष स्तर पर राजकीय सेवा में ईमानदार और निष्ठावान लोगों का अभाव है और निष्ठावान व ईमानदार लोग इस विद्यमान वातावरण में आगे बढ़ना तो दूर टिकना तक मुश्किल पाते हैं| जो मुठीभर ईमानदार व कायर लोग इस व्यवस्था में हैं वे कुछ भी करने में अपने  आपको असहाय और असमर्थ पाते हैं|








Thursday 8 November 2012

भारतीय संविधान -कमजोर लोगों के शोषण का एक साधन


श्री सेठ दामोदर स्वरुप ने डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में दिंनाक 19.11.1949 को संविधान सभा में बहस को आगे बढाते हुए आगे  कहा कि महात्मा गाँधी ने अपने जीवनभर विकेन्द्रीयकरण की वकालत की है| आश्चर्य का विषय है उनके विदा होते ही हम इस बात को भूल गए हैं और राष्ट्रपति व केंद्र को अनावश्यक शक्तियां दे रहे हैं| वर्तमान सरकार का स्वरुप- दो वर्गों राज्यों और केंद्र के मध्य  शक्तियों के विभाजन पर आधारित है | यह पहले से ही अतिकेंद्रीयकृत है| यदि हमें भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और भाई भतीजावाद समाप्त करना है तो दो खण्डों की योजना उपयुक्त प्रतीत नहीं होती| इसके लिए हमें चार खण्डों की योजना की आवश्यकता है| जैसा कि मैनें एक बार प्रस्तावित किया था कि ग्राम, शहर और प्रान्त स्तर पर अलग अलग गणराज्य होने चाहिए व उनका संघीय स्तर पर केन्द्रीय गणराज्य में एकीकरण होना चाहिए जिससे ही हमें वास्तविक अर्थों में संघीय लोकतांत्रिक ढांचा मिल सकेगा| किन्तु जैसा कि मैंने पहले कहा है हमने संघीय के स्थान पर ऐकिक संविधान का निर्माण किया है| इससे निश्चित रूप से अति केन्द्रीयकरण होगा, और हमारी सरकार जो लोगों की सरकार होनी चाहिए थी फासिस्ट सरकार हो जायेगी| इस दृष्टिकोण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमारे देश के लिए बनाये गये संविधान से न तो देश का कल्याण होगा और न ही उन दिखाई देने वाले सिद्धांतों का संरक्षण होगा जिनके लिए हम आगे बढे हैं| इसी कारण से भारत की समाजवादी पार्टी ने घोषणा की है कि वे जब कभी भी सता में आये तो वे सर्व प्रथम आम मतदान आधारित एक नई संविधान सभा का गठन करेंगे और वह सभा इसे पूरी तरह से परिवर्तित करेगी या आवश्यक संशोधन करेगी| अत: जन हित और उच्च संवैधानिक सिद्धांतों के दृष्टिकोण से यह संविधान पारित करने के योग्य नहीं है| हमें इस संविधान को निरस्त कर देना चाहिए| मेरे सम्माननीय साथी शंकर राव देव के शब्दों में चाहे हम इस संविधान को स्वीकार कर लें, देश के लोग इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे| उनके लिए यह संविधान एक सामन्य कानून की किसी अन्य पुस्तक से अधिक कुछ नहीं है| जिस प्रकार सरकार परिवर्तन से लोगों की आशाओं की पूर्ति नहीं हुई है ठीक उसी प्रकार इस संविधान से भी लोगों की आशाएं अपूरित रहेंगी| अत: यदि हम लोगों का विश्वास कायम रखना चाहते हैं तो एक परिवर्तन फिर करने की आवश्यकता है, किन्तु यदि हम यह करने में असफल रहते हैं तो  मुझे विश्वास है भारत की जनता और आने वाली पीढियां  हमें किसी अच्छे या सम्माननीय नाम से नहीं जानेंगी|
इसके पश्चात मद्रास से प्रतिनिधि श्री टी प्रकाश ने कहा कि यह वह संविधान नहीं है जिसकी मैंने अपने देश के लोगों के लिए आशा की थी, ऐसा संविधान जिसकी महात्मा गांधी ने योजना बनायीं थी जिसमें व्यहाहरिक रूप से पंचायती राज हो| इस अविर्भाव और इस कार्यक्रम से पूर्व में किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि देश के लोग जिस प्रकार बंटे हुए होते हुए भी एक नेतृत्व में एक बैनर के नीचे साथ-साथ आयेंगे और उनके व काँग्रेस के आदेशों की अनुपालना करेंगे| वे ही एक मात्र व्यक्ति थे जिन्हें संविधान बनाना चाहिए था - इस देश के लोगों के लिए सरल संविधान- जिससे उन्हें करोड़ों लोगों को पूर्ण राहत मिले| उनकी योजना करोड़ों को शिक्षित करने की थी  और जब से उन्होंने अफ्रीका से इस धरती पर कदम रखा इस स्वतंत्रता की लड़ाई को तब से ही चालू रखा| उन्होने संविधान का प्रारूप तैयार करने से पहले एक पत्र एक सृजनात्मक कार्यकर्ता, एक वकील और एक शिक्षित व्यक्ति को लिखा जिसने अपना महत्वपूर्ण समय गाँव में बिताया हो| उस पत्र में महत्मा गांधी के पंचायत संगठन के विषय में सुझाव दिया गया था और आपने उसका विस्तार से उत्तर दिया था और उससे सर्वाधिक प्रभावित हुए थे क्योंकि आप महात्मा के सर्वाधिक अग्रणी अनुयायी रहे हैं| ब्रिटिश राज में करोड़ों लोगों की  उपेक्षा हुई और ब्रिटिश शासन के अंत के बाद भी हमारे देश में उनकी उपेक्षा हुई है व हम इस संविधान की ओर बढ़ रहे हैं| संविधान एक महान दस्तावेज है और  साथी  डॉ अम्बेडकर, बड़े वकील व एक योग्य व्यक्ति हैं - इसके निर्माण के प्रभारी रहे हैं| उन्होंने जो काम किया है उससे दिखा दिया है कि वे इंग्लॅण्ड के राजा के सलाहकार होने के लिए योग्य हैं| किन्तु यह वह संविधान नहीं है जिसे कि इस देश के हम लोगों ने चाहा हो| जैसे ही अंग्रेजों को इस देश से बाहर भेजा गया हमें गांधीजी द्वारा दी गयी शिक्षा के आधार को अस्वीकृत नहीं करना चाहिए था, मात्र शिक्षित ही नहीं अपितु प्रत्येक क्षेत्र के लोगों को कार्य करने के लिए समर्थ बनाया जाना चाहिए था| जो गत 26 वर्षों में अपना कपड़ा बनाने, अपनी रोटी कमाने और अन्य सभी रचनात्मक कार्यक्रम चलाने की बातें हुई अब इस संविधान में कहीं नहीं हैं| इस प्रकार श्री प्रकाश ने अपनी बहस को पूर्ण किया|
आज हम देखें तो पाएंगे कि विश्व बहुत छोटे देश यथा जापान, तुर्की आदि के संविधान हमारे संविधान से बहुत अच्छे हैं| उनमें जनता की स्वतंत्रता और गरिमा का विशेष ध्यान रखा गया है जबकि भारत में पुलिसिया अत्याचार- रामलीला मैदान, सोनी सोरी आदि- आज भी अंग्रेजी शासन के समान ही बदस्तूर जारी हैं और लोकतंत्र के सभी स्तम्भ मूकदर्शक बने हुए हैं| भारत के ही पडौसी देश श्रीलंका के संविधान के अनुच्छेद 11 में प्रावधान है कि किसी को भी अमानवीय या निम्न श्रेणी का व्यवहार, निर्दयी यातना या दंड नहीं दिया जायेगा| अनुच्छेद 14 में आगे कहा गया है कि प्रत्येक नागरिक को प्रकाशन सहित भाषण और अभिव्यक्ति, शांतिपूर्ण सम्मलेन, संगठन बनाने, श्रम संगठन बनाने और उसमें शामिल होने, श्रीलंका के भीतर विचरण और निवास व श्रीलंका लौटने का अधिकार होगा| अनुच्छेद 24 में यह प्रावधान है कि सम्पूर्ण श्रीलंका में न्यायालयों की भाषा सिंहली और तमिल होगी| अनुच्छेद 107 में यह प्रावधान है कि प्रत्येक न्यायाधीश अपने अच्छे आचरण के साथ पद धारण करेगा और संसद को संबोधन के पश्चात राष्ट्रपति के आदेश के बिना नहीं हटाया जायेगा जोकि संसद के बहुमत वाले सदस्यों द्वारा समर्थित हो| अनुच्छेद 111 के अनुसार  उच्च न्यायालय न्यायाधीश को न्यायिक सेवा आयोग की अनुशंसा पर अटॉर्नी जनरल से परमार्श पर नियुक्त किया जायेगा और वह न्यायिक सेवा आयोग की अनुशंसा पर राष्ट्रपति के अनुशासनिक नियंत्रण और पद से हटाये जाने के अधीन होगा|

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आज हमारी बहुत सी आर्थिक, न्यायिक, सामाजिक और राष्ट्रीय समस्याओं की जड़ें हमारे  संविधान से ही निकलती हैं| वस्तुत: यह प्रारंभ से ही अस्पष्ट और दोषपूर्ण रहा है| इस अस्पष्टता में ताकतवर लोगों द्वारा कमजोर, दलित और बेसहारा वर्ग के आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक और मानसिक शोषण के लिए पहले से ही पर्याप्त गुन्जाइस छोड़ी गयी थी जिसका आज खुलकर दुरूपयोग हो रहा है| आज दंड प्रक्रिया संहिता में तो प्रावधान अवश्य है कि किसी महिला के बयान पुलिस उसके घर पर ही लेगी किन्तु भारत सरकार अधिनियम,1935 के प्रतिरूप हमारे इस संविधान की ताकत पर ही पुलिस को आज भी अपने कर्कश स्वर में किसी महिला को फोन पर  निस्संकोच यह कहते सुना जा सकता है कि हम तुम्हारे नौकर नहीं हैं, यहाँ आओ और बयान दो वरना तुम्हें पकड़कर ले जायेंगे| हमारे संविधान में लोकतंत्र के सेवकों के अधिकारों, शक्तियों और विशेषाधिकारों की तो भरमार है किन्तु उनके दायित्व, कर्तव्यों और आचरण के नियमों को देश के सम्पूर्ण कानून में भी नहीं ढूंढा जा सकता है| देश की न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका के कार्य की न्यायिक समीक्षा करने और निर्देश देने का अधिकार है अत: पीड़ित और शोषित वर्ग का यह अनुमान है कि यह सब कुछ न्यायपालिका के सक्रिय अथवा निष्क्रिय सानिद्य व संरक्षण के अंतर्गत ही संभव है| सभी ताकतवार लोग इस अस्पष्ट संविधान का समय-समय पर अपनी सुविधानुसार और मनमाना अर्थ लेते हैं और दिन प्रतिदिन उजागर होते नित नए घोटालों पर एक नज़र डालें तो भी यही संकेत मिलता है कि आज भारतीय संविधान अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में पूरी तरह विफल है| जब तक इस दोषपूर्ण संविधान की पूर्ण सफाई नहीं कर दी जाती तब तक आम जनता के लिए यह भ्रम मात्र है कि देश में उनकी रक्षा करने वाले कानून हैं अथवा कानून का राज है| देश की स्वतंत्रता को एक लंबा समय व्यतीत होने बावजूद आमजन की समस्याएं द्रुत गति से बढ़ी हैं और आमजन को राहत की कोई सांस नहीं मिली है| जनतंत्र में प्रजा को राहत की आशा अपने चुने गए प्रतिनिधियों से ही हो सकती है किन्तु देश के नेतृत्व में अपनी भूल स्वीकार करने का साहस नहीं है परिणामत: यह दोषपूर्ण संविधान आज तक जारी है| हमारे लोकतंत्र पर मात्र न्यायपालिका ही भारी नहीं पड़ रही है अपितु  प्रजातंत्र के सभी स्तंभ अपने संविधान सम्मत कर्तव्यों की पालना में जन आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं|


भारतीय संविधान –आम जनता के साथ एक सुनियोजित और संगठित धोखाधड़ी


हमारा नेतृत्व भारतीय संविधान की भूरी-भूरी प्रशंसा करता है और जनता को अक्सर यह कहकर गुमराह करता रहता है कि हमारा संविधान विश्व के विशाल एवं विस्तृत संविधानों में से एक होने से यह एक श्रेष्ठ संविधान है| दूसरी ओर इसके निर्माण के समय ही इसे शंका की दृष्टि से देखा गया था|
डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में दिंनाक 19.11.1949 को संविधान सभा की बैठक संपन्न हुई| इस सभा में संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के श्री सेठ दामोदर स्वरुप ने बहस के दौरान कहा कि सामान्यतया सदन के सदस्य मुझ जैसे व्यक्ति को हमारे परिश्रम के सफलतापूर्वक पूर्ण होने पर संतुष्ट होना चाहिए था| किन्तु श्रीमानजी मुझे इस क्षण अनुमति प्रदान करें कि जब मैं इस सदन में संविधान पर विचार व्यक्त कर रहा हूँ तो किसी संतोष के स्थान पर मुझे निराशा होती है| वास्तव में मुझे लग रहा है कि मेरा हृदय टूट रहा है और मुझे लकवा हो रहा है| मुझे यह लग रहा है कि ब्रिटिश शासन यद्यपि दो वर्ष पूर्व समाप्त हो गया है किन्तु इस देश और निवासियों का दुर्भाग्य है कि इस परिवर्तन के कारण उनकी स्थिति में लेशमात्र भी सुधार नहीं हुआ है| मुझे अंदेशा है कि आम जनता अपने लिए किसी सुधार के स्थान पर इस राजनैतिक परिवर्तन से अपनी स्थिति में और खराबी का संदेह कर रही है| वे यह समझने में असमर्थ हैं कि इसका अंत कहाँ होगा| वास्तव में आम आदमी, जिसके नाम से जो संविधान बनाया गया है और पारित होगा, इसमें मात्र निराशा और अपने चारों ओर अन्धेरा ही देखता है|
श्री सेठ ने आगे  कहा कि हमारे कुछ साथी यह सोचते हैं कि आम व्यक्ति की स्थिति में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता क्योंकि ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाये गए कानून अभी लागू हैं| उनका विश्वास है कि भारतीय संविधान अब तैयार है और आम व्यक्ति यह महसूस करेगा कि अब वे निश्चित रूप से प्रगति पथ पर हैं| किन्तु मैं कटु सत्य को आपके समक्ष रखने के लिए क्षमा चाहता हूँ| इस देश के लोग इस संविधान के पूर्ण होने और लागू होने पर भी संतुष्ट  या प्रसन्न नहीं होंगे क्योंकि इसमें उनके लिए कुछ भी नहीं है| आप प्रारम्भ से अंत तक इसमें कहीं भी गरीब के लिए भोजन, भुखमरी, नंगे और दलितों के लिए कोई प्रावधान नहीं पाएंगे| इसके अतिरिक्त यह कार्य या रोजगार की कोई गारंटी नहीं देता| इसमें न्यूनतम मजदूरी, जीवन निर्वाह भत्ता के भी कोई प्रावधान नहीं हैं| इन परिस्थितियों में यद्यपि यह संविधान विश्व का सबसे बड़ा और भारी तथा विस्तृत संविधान हो सकता है, यह वकीलों के लिए स्वर्ग है व भारत के पूंजीपतियों के लिए मैगना कार्टा है किन्तु जहां तक गरीबों और करोड़ों मेहनतकश, भूखे और नंगे भारतीयों का सम्बन्ध है उनके लिए इसमें कुछ भी नहीं है| उनके लिए यह एक भारी ग्रन्थ और रद्दी कागज के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है| यह बात अलग है कि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं या नहीं, किन्तु हमें यह बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि यदि हम आम व्यक्ति के विचारों की अनदेखी करते हैं तो भी बड़े लोगों के मत का ध्यान रखना पडेगा| संविधान सभा के अध्यक्ष ने कहा है कि बनाये गए संविधान में भारतीय मानसिकता  की बिलकुल भी परछाई नहीं है और यह उसके ठीक विपरीत है|  कांग्रेस पार्टी के महासचिव श्रीशंकर राव देव के अनुसार यदि इस पर जनमत करवाया जाये तो इसे अस्वीकार कर दिया जायेगा| इस प्रकार यह कैसे कहा जा सकता है कि जनता इससे संतुष्ट होगी| यह स्पष्ट है कि जिन लोगों ने संविधान का निर्माण किया है वे सचे अर्थों में आम जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं| संविधान निर्माता मात्र 14% भारतीय लोगों के प्रतिनिधि हैं| यह एक कटु सत्य है| जो लोग हम यहाँ इस सदन में जनता के प्रतिनिधि के तौर पर इकठे हुए हैं राजनैतिक पार्टीबाजी जैसे विभिन्न कारणों से अपने कर्तव्यों के पालन में विफल हैं | इस कारण से भारत के लोग जिस प्रकार सरकार परिवर्तन के निराश हैं ठीक उसी प्रकार इस संविधान से भी निराश हैं| यह संविधान इस देश में स्थायी तौर पर कार्य नहीं कर सकता| हम पाते हैं कि इस संविधान में कुछ बातें और सिद्धांत यथा आम मतदान और संयुक्त मतदाता, अस्पृश्यता निवारण जैसे अच्छे हैं| किन्तु जहां तक सिद्धांतों का प्रश्न है वे बिलकुल ठीक हो सकते हैं फिर भी यह देखने योग्य है कि उन्हें व्यवहार में किस प्रकार अमल में लाया जाये| संविधान में मूल अधिकारों का उल्लेख एक महत्वपूर्ण बात है लेकिन क्या हमें इस संविधान के माध्यम से वास्तव में कोई मूल अधिकार मिले हैं|
श्री सेठ ने आगे  कहा कि मैं जोर देकर कह सकता हूँ कि मूल अधिकार दिया जाना मात्र एक झूठ है| ये एक हाथ से दिए गए हैं और दूसरे हाथ से ले लिए गए हैं| हमें स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि वर्तमान में लागू कानूनों के विषय में मूल अधिकारों की गारंटी नहीं है और अपमानकारी प्रकाशन, न्यायालयी अवमानना पर सरकार भविष्य में भी कानून बना सकती है| इसके अतिरिक्त संगठन बनाने या एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के अधिकार का सम्बन्ध है, सरकार को जनहित की आड़ में इन अधिकारों को छीननेवाले कानून बनाने का अधिकार रहेगा जिससे मूल अधिकार दिया जाना मात्र एक छलावा रह जाता है| ठीक इसी प्रकार सम्पति सम्बंधित अधिकार भी भारत सरकार अधिनियम,1935  के प्रावधान के समान ही है| परिणामत: सम्पति का राष्ट्रीयकरण असंभव होगा और जनहित में आर्थिक सुधार करने के मार्ग में कई बाधाएं होंगी|
एक ओर हम चाहते हैं कि सामजिक ढाँचे को बिना किसी परिवर्तन के बनाये रखा जये  और दूसरी ओर गरीबी और बेरोजगारी देश से मिट जाए| ये दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती| हमारे प्रधान मंत्री ने अमेरिका में कहा था कि समाजवाद और पूंजीवाद दोनों एक साथ नहीं चल सकते, यह आश्चर्य होता है कि वर्तमान स्थिति को किस प्रकार अपरिवर्तित रखा जा सकता है कि पूंजीवाद बना रहे और जनता की गरीबी और बेरोजगारी मिट जाए| ये दोनों बातें बेमेल हैं| अत: यह महसूस किया जा रहा कि भारत के लोगों की भूख, गरीबी और शोषण ठीक उसी प्रकार जारी रहेगी  जैसे आज है| यद्यपि आजकल हमारे देश में सहकारिता की चर्चाएँ जोरों पर हैं लेकिन नीतिनिदेशक तत्वों में ऐसा कोई सन्देश नहीं है| शब्दजाल के आवरण  में गोलमाल निर्देश देना ऐसी व्यवस्था स्थापित करने से बिलकुल भिन्न है| फिर भी कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष हमें दिलाशा दिलाना चाहते हैं कि देश में पांच वर्ष में ही वर्गहीन समाज स्थापित हो जायेगा| मेरे जैसे एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह समझना कठिन है कि इन दोनों कथनों का किस प्रकार समाधान किया जाये कि एक ओर हम समाजवाद से घृणा करते हैं और यथा स्थिति चाहते हैं तथा दूसरी ओर शोषक वर्ग का संरक्षण करते हुए वर्गहीन समाज स्थापित करना चाहते हैं| मैं नहीं समझता कि ये दोनों विरोधाभासी उद्देश्य किस प्रकार प्राप्त किये जा सकते हैं| कार्यपालिका और न्यायपालिका के अलग होने की मांग भी कांग्रेस पार्टी के समान ही पुरानी  है| किन्तु इस संविधान में  कार्यपालिका और न्यायपालिका को  यथा शीघ्र अलग करने की ऐसी कोई सुनिश्चित योजना या पर्याप्त प्रावधान नहीं है| राज्यों की स्थिति देखें तो स्पष्ट होता है की जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन के लिए कोई निर्णय नहीं लिया गया है| परिणामत: राज्यों के करोड़ों किसान जागीरदारों के गुलाम बने हुए हैं| इसके अतिरिक्त कृषि श्रमिक साहूकारों के गुलाम बने हुए हैं| इसके साथ साथ हम पाते हैं कि इस संविधान में भारत सरकार अधिनियम,1935  के प्रावधानों से भी  कई अत्यंत पिछड़ी और प्रतिगामी बातें हैं| संविधान के प्रारूप में पहले प्रावधान किया गया था कि राज्यपाल मतदाताओं द्वारा सीधा चुना जायेगा| बाद में प्रस्तावित किया गया कि राज्यपाल एक पैनल द्वारा नियुक्त किया जायेगा| किन्तु अब राष्ट्रपति को राज्यपाल नियुक्त करने और उनका कार्यकाल निर्धारित करने की शक्ति दी गयी है| यह ठीक है कि राष्ट्रपति यथा संभव अपने अधिकारों का उचित प्रयोग करेंगे किन्तु यह स्थिति प्रांतीय सरकारों और राज्यपाल के मध्य द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करेगी| यह संभव है कि प्रांतीय सरकार की विचारधारा केंद्र सरकार से भिन्न हो और विचारधाराओं में अंतर से प्रांतीय सरकार और राज्यपाल के मध्य संघर्ष को स्थान मिले| इसके अतिरिक्त राज्यपालों को 1935 के अधिनियम से भी पिछड़े विवेकाधिकार दिए गए हैं| 1935 के अधिनयम में राज्यपालों के लिए व्यक्तिगत निर्णय के अधिकार थे किन्तु उनके लिए मंत्रिमंडल से परामर्श आवश्यक था| किन्तु अब विवेकी शक्तियों के उपयोग के लिए राज्यपालों का मंत्रिमंडल से परामर्श करना आवश्यक नहीं है| इस प्रकार हम देखते हैं कि राज्यपालों की शक्तियां भी आगे बढ़ाने की बजाय पीछे चली गयी  हैं| पुनः राष्ट्रपति को भी आपातकाल के नाम से आवश्यकता से अधिक बड़ी शक्तियां दी गयी हैं और केन्द्र को भी प्रान्तों के मामलों में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता से अधिक शक्तियां दी गयी हैं| हमारा संवैधानिक ढांचा  कहने को तो संघीय है किन्तु जहां तक प्रशासनिक स्वरुप का प्रश्न है यह पूर्णतः ऐकिक है| हम समझते हैं कि कुछ सीमा तक केन्द्रीयकरण आवश्यक है किन्तु अति केन्द्रीयकरण का अर्थ देश में अधिक भ्रष्टाचार फैलाना है|

Friday 2 November 2012

सड़क दुर्घटनाओं में वाहनचालकों की जिम्‍मेदारी और अदालती फैसले


रोजाना ही समाचार पत्रों में तेज रफ्तार वाहनों द्वारा सड़क चलते लोगों या रात में फुटपाथ पर सो रहे लोगों को कुचले जाने या किसी दूसरे वाहन को टक्‍कर मारने संबंधी खबरें पढ़ने को मिलती हैं। ऐसी दुर्घटनाओं में अब भारी वाहनों के साथ ही बड़ी कारें जैसी लक्‍जरी गाडि़यां भी शामिल हो गयी हैं। ऐसी मामलों में अक्‍सर वाहन चालक को गिरफ्तारी और पुलिस जांच के बाद जमानत मिल जाती है। दुर्भाग्‍य से इस तरह की सड़क दुर्घटनाओं की संख्‍या तेजी से बढ रही है।

उच्‍चतम न्‍यायालय ने अभी हाल ही में करीब 13 साल पहले हुए बहुचर्चित बीएमडब्‍ल्‍यू  हिट एंड रन कांड के मुख्‍य अभियुक्‍त को मात्र दो साल की कैद की सजा और मुआवजे के रूप में 50 लाख रूपए भुगतान करने का फैसला सुनाया। लेकिन, न्‍यायालय ने हादसे की गंभीरता को देखते हुए वाहनचालक को लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्‍य के कारण मृत्‍यु के अपराध के लिये नहीं बल्कि गैर इरादतन हत्‍या के लिए दोषी ठहराया। मुआवजे की इस राशि का इस्‍तेमाल ऐसी सड़क दुर्घटनाओं से प्रभावित ऐसे परिवारों को मुआवजा देने के लिए किया जायेगा जिनके वाहन चालक पुलिस के चंगुल से बच निकलते हैं। इस हादसे में बीएमडब्‍ल्‍यू कार ने तीन पुलिसकर्मियों सहित छह व्‍यक्तियों को कुचल दिया था। अदालत ने इस मामले में वाहनचालक को गैर इरादतन हत्‍या से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 304 के तहत दोषी ठहरा कर इस बात के संकेत दे दिये कि वह तेज रफ्तार से दौडने वाली गाडियों से होने वाले हादसों के लिए दोषी व्‍यक्तियों के साथ किसी प्रकार की नरमी नहीं दिखायेगी।

न्‍यायालय ने शराब पीकर वाहन चलाने वालों को समाज के लिए गंभीर खतरा बताते हुए कहा कि नशे में गाड़ी चलाने वालों को हल्‍का दंड देकर और जुर्माना लगाकर नहीं छोड़ा जाना चाहिए बल्कि नशे में गाड़ी चलाने वालों को इतनी सजा तो मिलनी ही चाहिए जो दूसरे लोगों के लिए नजीर बन सके। उच्‍चतम न्‍यायालय की इस तरह की टिप्‍पणियों से यह निष्‍कर्ष निकलता है कि लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्‍य के कारण मृत्‍यु से संबंधित धारा 304-क में अधिक कठोर सजा का प्रावधान जरूरी है।

इस समय धारा 304-क में दो साल तक की सजा या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। सड़क दुर्घटना के मामले में आमतौर पर धारा 304-क के तहत ही मामला दर्ज होता है जिसमें अभियुक्‍त की जमानत भी आसानी से हो जाती है। इस धारा में चूंकि न्‍यूनतम सजा का प्रावधान नहीं है, इसलिए अक्‍सर तेज रफ्तार से वाहन चलाकर राहगीरों को कुचलने वाले चालक मामूली ही सजा पाकर बच निकलते हैं। शायद यही वजह है कि लापरवाही और उपेक्षापूर्ण तरीके से गाड़ी चलाने के अपराध में न्‍यूनतम सजा के लिए फिर से आवाज उठने लगी है। रफ्तार के इस दौर में सड़क‍दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्‍या देखते हुए देश की सर्वोच्‍च अदालत के न्‍यायाधीश भी महसूस करने लगे हैं कि इस अपराध के लिए भी भ्रष्‍टाचार निवारण कानून की तरह ही कानून में न्‍यूनतम दंड की व्‍यवस्‍था होनी चाहिए।

वैसे यह पहला मौका नहीं है जब धारा 304-क में संशो‍धन कर सडक दुर्घटनाओं के संदर्भ में लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्‍य के अपराध के लिए सजा की अवधि के बारे में आवाज उठी है। करीब तीन साल पहले विधि आयोग ने भी अपनी 234वीं रिपोर्ट में धारा 304-क के तहत दंडनीय अपराध की अधिकतम दस साल और न्‍यूनतम दो साल की सजा की सिफारिश की थी।

विधि आयोग के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष न्‍यायमूर्ति डा ए आर लक्ष्‍मण ने विधि एवं न्‍याय मंत्री डा वीरप्‍पा मोइली को इस संबंध में अगस्‍त 2009 में अपनी रिपोर्ट दी थी। शराब पीकर या किसी अन्‍य नशे की हालत में लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण होने वाली मौत के मामलों पर चिंता व्‍यक्‍त करते हुए आयोग ने ऐसे अपराध के लिए धारा 304-क में न्‍यूनतम दो साल की कैद का प्रावधान करने की सिफारिश सरकार से की थी। विधि आयोग ने कहा था कि शराब के नशे में गाड़ी चलाने के कारण दुर्घटना होने की स्थिति में दोषी व्‍यक्ति को कम से कम दो साल की सजा का प्रावधान करने की भी सिफारिश की थी। विधि आयोग ने सड़क दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्‍या पर काबू पाने के लिए अनेक महत्‍वपूर्ण सुझाव दिये हैं।

देश के शहरी इलाकों में हो रही सड़क दुर्घटनाओं का कारण अक्‍सर तेज रफ्तार ही बताया जाता है। इसी संदर्भ में उच्‍चतम न्‍यायालय भी अब यह महसूस करने लगा है कि नशे में गाड़ी चलाना अभियात्‍य वर्ग के लोगों का शगल बन चुका है और उनकी इस प्रवृत्ति के कारण पैदल यात्री भी सुरक्षित नहीं हैं। न्‍यायालय ने अपने निर्णय में शराब के नशे में चालक की मन:स्थिति और नशे में उनकी देखने और सोचने समझने की क्षमता को भी बखूबी चित्रित किया है।

यदि सड़क दुर्घटना के मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 304-क के तहत मामला दर्ज होता है तो इसमें अभियुक्‍त की जमानत भी आसानी से हो जाती है। शायद यही वजह है कि अब देश की सर्वोच्‍च अदालत के न्‍यायाधीश भी महसूस करने लगे हैं कि इस अपराध के लिए भी भ्रष्टाचार निवारण कानून की तरह ही न्‍यूनतम दंड निर्धारित होना चाहिए।

उच्‍चतम न्‍यायालय के वरिष्‍ठ न्‍यायाधीश पी सदाशिवम ने हाल ही में सुझाव दिया है कि लापरवाही और उपेक्षापूर्ण तरीके से चलने वाले वाहनों से होने वाली सड़क दुर्घटनाओं पर काबू पाने की आवश्‍यकता है। उनकी राय थी कि ऐसे हादसों में शामिल वाहन चालकों के लिए न्‍यूनतम सजा का प्रावधान जरूरी है अन्‍यथा वाहन चालक तो जुर्माना अदा करके निकल जायेगा और पीडि़त के परिजन मुआवजे के लिए मोटर दुर्घटना दावा न्‍यायाधिकरण में चक्‍कर काटते रहेंगे।

न्‍यायमूर्ति सदाशिवम की यह चि‍न्‍ता स्‍वाभाविक भी है क्‍योंकि सड़क सुरक्षा के मामले में भारत का रिकार्ड बहुत अच्‍छा नहीं है। एक अध्‍ययन के अनुसार भारत में हर छह मिनट में सड़क दुर्घटना में एक व्‍यक्ति की म़ृत्‍यु होती है और गाडि़यों की बढ़ती संख्‍या तथा रफ्तार के कारण इसके तीन मिनट में एक व्‍यक्ति की मौत होने की संभावना है। भारत में हर साल करीब एक लाख 20 हजार व्‍यक्तियों की मृत्‍यु सड़क दुर्घटनाओं में होती है जबकि करीब एक लाख 27 व्‍यक्‍त‍ि ऐसे हादसों में बुरी तरह जख्‍मी होते हैं।
सबसे रोचक तथ्‍य तो यह है कि दुनिया भर में पंजीकृत वाहनों में से मात्र एक फीसदी वाहन ही भारत में पंजीकृत हैं जबकि सड़क दुर्घटना में शामिल वाहनों की संख्‍या नौ फीसदी है।
यह पहला मौका नहीं है जब धारा 304-क में संशोधन कर सड़क दुर्घटनाओं के संदर्भ में लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्‍य के अपराध के लिए सज़ा की अवधि के बारे में आवाज उठी है। विधि‍आयोग ने भी तीन साल पहले अपनी 234वीं रिपोर्ट में धारा 304-क के तहत दंडनीय अपराध की अधिकतम दस साल और न्‍यूनतम दो साल की सज़ा की सिफारिश की थी।
विधि आयोग के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष न्‍यायमूर्ति डा ए आर लक्ष्‍मणन ने विधि एवं न्‍याय मंत्री डा वीरप्‍पा मोइली को इस संबंध में अगस्‍त 2009 में अपनी रिपोर्ट दी थी। शराब पीकर या किसी अन्‍य नशे की हालत में लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण होने वाली मौत के मामलों पर चिंता व्‍यक्‍त करते हुए आयोग ने ऐसे अपराध के लिए धारा 304-क में न्‍यूनतम दो साल की कैद का प्रावधान करने की सिफारिश की थी।
विधि आयोग ने कहा था कि शराब के नशे में गाड़ी चलाने के कारण दुर्घटना होने की स्थिति में दोषी व्‍यक्‍त‍ि को कम से कम दो साल की सज़ा तो मिलनी ही चाहिए। आयोग का यह भी सुझाव था कि एक बार की सज़ा के बाद ऐसा व्‍यक्‍त‍ि दुबारा सड़क दुर्घटना के लिए दोषी पाया जाए तो उसे कम से कम एक साल की सज़ा दी जानी चाहिए।
विधि आयोग ने इसी तरह धारा 336, 337 और 338 के संदर्भ में भी अनेक महत्‍वपूर्ण सिफारिशें अपनी रिपोर्ट में की थीं।
विधि आयोग की यह भी राय थी कि देश में एक केंद्रीय सड़क यातायात कानून होना चाहिए। इसके साथ ही रसोई गैस के सिलेण्‍डर से चलने वाली गाडि़यों के चालकों को गिरफ्तार करके चालक और वाहन के स्‍वामी पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए।
अक्‍सर देखा गया है कि इस तरह की सड़क दुर्घटनाओं में बड़ी और तेज रफ्तार वाली गाडि़यां ही शामिल होती हैं। इन दुर्घटनाओं का एक कारण वाहन चालक का नशे में होना भी बताया जाता है। ऐसे मामलों में वाहन चालक तो जल्‍दी ही जमानत पर छूट जाते हैं। लेकिन ऐसे हादसे के शिकार परिवार के सदस्‍यों की परेशानियां बढ़ जाती हैं। यदि दुर्घटना में किसी राहगीर या दूसरे वाहन चालक की मौत हो गयी तो ऐसे व्‍यक्‍त‍ि के परिजन साल दर साल बीमा कंपनी से मुआवजे के लिए मुकदमा ही लड़ते रहते हैं।
 उच्‍चतम न्‍यायालय ने भी अपने हाल के निर्णय में इस स्थिति को इंगित किया है।
ऐसी स्थिति में बेहतर होगा यदि विधि‍आयोग की 234वीं रिपोर्ट में की गयी सिफारिशों और उच्‍चतम न्‍यायालय के निर्णय में की गयी टिप्‍पणियों के आलोक में लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्‍य के कारण मृत्‍यु के मामलों में धारा 304-क के तहत वाहन चालक के लिए निर्धारित दंड में संशोधन करके न्‍यूनतम सज़ा का प्रावधान किया जाए।
विधि आयोग की सिफारिश के अनुरूप शराब पीकर या किसी अन्‍य नशे का सेवन करके वाहन चलाने के कारण हुई सड़क दुर्घटना के अपराध के लिए इस धारा के तहत न्‍यूनतम सज़ा दो साल की कैद और जुर्माने का प्रावधान करने के साथ ही अधिकतम सज़ा दस साल तक करने पर भी विचार किया जा सकता है।
       इस तरह के कठोर कदम उठाकर ही नशे में तेज रफ्तार से आधुनिक वाहन चलाने वालों पर अंकुश पाना और सड़क दुर्घटनाओं की संख्‍या पर अंकुश पाना संभव हो सकेगा। इसके अलावा नशे की हालत में गाड़ी चलाने को गैर जमानती अपराध भी बनाना भी अधिक तर्क संगत हो सकता है।
---पत्र सूचना कार्यालय से साभार